Q. What do you understand by language capital ? How language capital determines learning in early stage of education ? भाषा पूँजी से आप क्या समझते हैं ? शिक्षा की प्रारंभिक अवस्था में भाषा पूँजी किस प्रकार अधिगम को निर्धारित करती है ? विवेचना करें।
उत्तर -
भाषाई पूँजी -
भाषाई पूँजी फ्रांसीसी समाजशास्त्री और दार्शनिक पियरे बॉर्डियू द्वारा गढ़ा गया एक समाजशास्त्रीय शब्द है । बॉर्डियू भाषाई पूंजी को सांस्कृतिक पूंजी के एक रूप के रूप में वर्णित करता है , और विशेष रूप से एक व्यक्ति के भाषाई कौशल के संचय के रूप में जो शक्तिशाली संस्थानों द्वारा प्रत्यायोजित समाज में उनकी स्थिति को पूर्व निर्धारित करता है। दूसरी ओर, सांस्कृतिक पूंजी, ज्ञान, कौशल और अन्य सांस्कृतिक अधिग्रहणों का एक समूह है, जिसे शैक्षिक या तकनीकी योग्यताओं द्वारा बढ़ाया जाता है।
संचार के एक रूप के रूप में, भाषा मानवीय अंतःक्रियाओं की मध्यस्थता करती है और स्वयं एक क्रिया का एक रूप है। जोसेफ सुंग-यूल पार्क के अनुसार, "भाषा को पूंजी के एक रूप के रूप में समझा जाता है जिसे सामाजिक शक्ति संबंधों के माध्यम से मध्यस्थ किया जाता है।" ये शक्ति संबंध भाषा के माध्यम से परिलक्षित होते हैं जब किसी की भाषा को वैध होने का निर्णय लिया जाता है, जिससे आर्थिक और सामाजिक अवसरों जैसे नौकरियों, सेवाओं और कनेक्शन तक पहुंच की अनुमति मिलती है।
भाषाई पूंजी का उपयोग एक व्यक्ति के लिए उपलब्ध विभिन्न भाषा संसाधनों और प्रत्येक संसाधन से जुड़े मूल्यों का वर्णन करने के लिए किया गया है। आज, इस शब्द का उपयोग यह देखने के लिए किया जाता है कि ये संसाधन व्यक्तिगत, पारिवारिक, संस्थागत, सरकारी और अंतर्राष्ट्रीय भूमिकाओं से सभी स्तरों पर सत्ता की गतिशीलता में कैसे भूमिका निभाते हैं। पूंजी पर बॉर्डियू के सिद्धांत यह दिखाने में प्रभावी हैं कि किसी व्यक्ति या समूह के जीवनकाल में एकत्र किए गए विभिन्न कौशल और संसाधनों की स्थिति और जनसांख्यिकी के आधार पर अलग-अलग मूल्य और अर्थ होंगे। जब और जहां उन संसाधनों को पहचाना और महत्व दिया जाता है, अक्सर प्रमुख सामाजिक समूह के जीवन के लाभ या वृद्धि के लिए, उन्हें पूंजी में परिवर्तित किया जा सकता है।
शिक्षा की प्रारंभिक अवस्था में भाषा पूँजी के रूप में -
बच्चे अपने साथ बहुत कुछ लेकर विद्यालय आते हैं – अपनी भाषा, अपने अनुभव और दुनिया को देखने का अपना नजरिया आदि। बच्चे घर – परिवार एवं परिवेश से जिन अनुभवों को लेकर विद्यालय आते हैं, वे बहुत समृद्ध होते हैं। उनकी इस भाषायी पूँजी का इस्तेमाल भाषा सीखने – सिखाने के लिए किया जाना चाहिए। पहली बार विद्यालय में आने वाला बच्चा आने शब्दों के अर्थ और उनके प्रभाव से परिचित होता है। लिपिबद्ध (चिन्ह और उनसे जुड़ी ध्वनियाँ बच्चों के लिए अमूर्त होती हैं, इसलिए पढ़ने का प्रारंभ अर्थपूर्ण सामग्री से ही होना चाहिए और किसी उद्देश्य के लिए होना चाहिए। यह उद्देश्य कहानी सुनकर – पढ़कर आनंद लेना भी हो सकता है। धीरे – धीरे बच्चों में भाषा की लिपि से परिचित होने के बाद अपने परिवेश में उपलब्ध लिखित भाषा को पढ़ने – समझने की जिज्ञासा उत्पन्न होने लगती है। भाषा सीखने – सिखाने की इस प्रक्रिया के मूल में बच्चों के बारे में यह अवधारणा है कि बच्चे दुनिया के बारे में अपनी समझ और ज्ञान का निर्माण स्वयं करते हैं। यह निर्माण किसी के सिखाए जाने या जोर जबरदस्ती से नहीं बल्कि बच्चों के स्वयं के अनुभवों और आवश्यकताओं से होता है। इसलिए बच्चों को ऐसा वातावरण मिलना जरूरी है जहाँ वे बिना रोक - टोक के अपनी उत्सुकता के अनुसार अपने परिवेश की खोज – बीन कर सकें। यह अवधारणा बच्चों की भाषायी क्षमताओं पर भी लागू होती है। विद्यालय में आने पर बच्चे प्राय: स्वयं को बेझिझक अभिव्यक्त करने में असर्मथ पाते हैं, क्योंकि जिस भाषा में वे सहज रूप से अपनी राय, अनुभव, भावनाएं आदि व्यक्त करना चाहते हैं, वह विद्यालय में प्राय: स्वीकृत नहीं होती। भाषा – शिक्षण को बहुभाषी संदर्भ में रखकर देखने की आवश्यकता है। कक्षा में बच्चे अलग – अलग भाषायी – सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से आते हैं। कक्षा में इनकी भाषाओँ का स्वागत किया जाना चाहिए, क्योंकि बच्चों की भाषा को नकारने का अर्थ है – उनकी अस्मिता को नकारना। प्राथमिक स्तर पर भाषा सीखने – सिखाने को संबंध में यह एक जरूरी बात है कि बच्चे विभिन्न प्रकार के परिचित और अपरिचित सन्दर्भों के अनुसार भाषा का सही प्रयोग कर सकें। वे सहज, कल्पनाशील, प्रभावशाली और व्यवस्थित ढंग से किस्म का सही प्रयोग कर सकें। वे भाषा को प्रभावी बनाने के लिए सही शब्दों का प्रयोग कर सकें। यह जरूरी हैं कि पढ़ना, सुनना, लिखना, बोलना- इन चारों प्रक्रियाओं में बच्चे अपने पूर्वज्ञान की सहायता से अर्थ की रचना कर पायें और कही गई बात के निहितार्थ को भी पकड़ पायें। भाषा – संप्राप्ति संबंधी आगे की चर्चा में पढ़ने को लेकर जिस बात पर बल दिया गया है उसके अनुसार ‘पढ़ना’ मात्र किताबी कौशल न होकर एक तहजीब और तरकीब है। पढ़ना, पढ़कर समझने और उस प्रतिक्रिया करने की एक प्रक्रिया है। दूसरे शब्दों में, हम यह कह सकते हैं कि मुद्रित अथवा लिखित सामग्री से कुछ संदर्भों व अनुमान के आधार पर अर्थ पकड़ने की कोशिश पढ़ना है। ऐसी स्थिति में हम अनेक बार किसी पाठ्य – वस्तु को पढ़ने के दौरान, किसी बिन्दु पर जरूरत महसूस होने पर उसी को आगे के संदर्भ में समझने के लिए लौटकर फिर पढ़ते हैं। पढ़ने का यह दोहराव अर्थ की खोज का प्रमाण बन जाता है। पढ़ने के दौरान अर्थ निर्माण के लिए इस बात की भी समझ होनी चाहिए कि अर्थ केवल शब्दों और प्रयुक्त वाक्यों में ही निहित नहीं है, बल्कि वह पाठ की समग्रता में भी मौजूद होता है और कई बार उसमें जो साफ तौर पर नहीं कहा गया होता है, उसे भी समझ पाने की जरूरत होती है। यह समझना भी जरूरी है कि पठन सामग्री की अपनी एक अनूठी संरचना होती है और उस संरचना की समझ रखना परिचित अर्थ निर्माण में सहायक होता है।
लिखना एक सार्थक गतिविधि तभी बन पायेगी जब बच्चों को अपनी भाषा, अपनी कल्पना, अपनी दृष्टि से लिखने की आजादी मिलें। बच्चों को ऐसे अवसर मिलें कि वे अपनी भाषा और शैली विकसित कर सकें न कि ब्लैकबोर्ड, किताबों या फिर शिक्षक के लिखे हुए की नकल करते रहें। पढ़ना – लिखना सीखने का एकमात्र उद्देश्य यह नहीं है कि बच्चे अपनी पाठ्यपुस्तक को पढ़ना सीख जाएँ और अपनी पाठ्यपुस्तक में आये विभिन्न पाठों के अंतर में दिए गये प्रश्नों के उत्तर लिख सकें बल्कि इसका उद्देश्य यह है कि वे अपनी रोजमर्रा की जिन्दगी में पढ़ने – लिखने का इस्तेमाल कर सकें। वे विभिन्न उद्देश्यों के लिए समझ के साथ पढ़ और लिख सकें। पढ़ना – लिखना सीखने की प्रक्रिया में यह बात भी शामिल हो जाए कि विभिन्न उद्देश्यों के लिए पढ़ने और लिखने के तरीकों में अंतर होता है। हमारे पढ़ने का तरीका इस बात पर भी निर्भर करता है कि हमारे पढ़ने का उद्देश्य क्या है। एक विज्ञापन को पढ़ना और एक सूचना को पढ़ने के तरीके में फर्क होता है। लेखन के संदर्भ में भी यह बात महत्वपूर्ण है कि हमारा पाठक कौन है यानी हम किसके लिए लिख रहे हैं। अगर हमें विद्यालय में खेल - कूद समारोह की सूचना लिखकर लगानी है तो इसके पाठक विद्यालय के बच्चे, शिक्षक और अन्य कर्मचारीगण हैं। लेकिन अगर यही सूचना समुदाय और अभिभावकों को देनी है तो इसके पाठकों में अभिभावक और समुदाय के व्यक्ति भी शामिल हो जाएँगे। दोनों स्थितियों में हमारे लिखने के तरीके और भाषा में बदलाव आना स्वाभाविक है। इसी तरह से तरह – तरह की सामग्री को पढ़ने का उद्देश्य पढने के तरीके को निर्धारित करता है। अगर स्कूल के नोटिस बोर्ड पर विद्यालय – वार्षिकोत्सव की सूचना पढना चाहते हैं तो इसमें आपका ध्यान किन्हीं खास बिन्दुओं की ओर जाएगा, जैसे – समारोह कौन - सी तारीख को है, समारोह कहाँ आयोजित किया जाएगा, समय क्या आदि, आदि। यदि कोई कहानी पढ़ते हैं तो उसके पात्रों और घटनाक्रम के बारे में गहराई से सोचते हैं कि यद ऐसा हुआ तो क्यों हुआ, कहानी में ऐसा क्या है, जो अगर नहीं होता तो कहानी का रूख क्या होता आदि, हमारे पढ़ने – लिखने के अनेक आयाम हैं, अनेक पड़ाव हैं और हर पड़ाव अपने आप में महत्वपूर्ण है – इन्हें कक्षा में समुचित स्थान मिलना चाहिए।
प्राथमिक स्तर पर भी बच्चों से यह अपेक्षा रहती है। कि वे किन या लिखी गई बात पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर सकें और प्रश्न पूछ सकें। बच्चों की भाषा इस बात का प्रमाण है कि वे अपनी भाषा का व्याकरण अच्छी तरह जानते हैं। पर व्याकरण की सचेत समझ बनाने के लिए यह आवश्यक है कि बच्चों को उसके विभिन्न पहलुओं की पहचान विविध पाठों के सन्दर्भ में और आस – पास के परिवेश से जोड़कर कराई जाए। भाषा के अलग – अलग तरह के प्रयोगों की ओर उनका ध्यान दिलाया जाए ताकि वे भाषा की बारीकियों को पकड़ सकें और अपनी भाषा में उनका उचित रूप से प्रयोग कर सकें। भाषा सीखने – सीखाने की प्रक्रिया और माहौल के संदर्भ में यह बात ध्यान में रखना जरूरी है कि एक स्तर पर की जाने वाली प्रक्रियाओं को अगले स्तर की कक्षाओं के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। कक्षावार या स्तरानुसार रोचक और विविधतापूर्ण बाल साहित्य का इस संदर्भ में विशेष महत्व है। भाषा संबंधी सभी क्षमताओं, जैसे - सुनना, बोलना, पढ़ना, लिखना एक दूसरे से जुड़ी हुई होती हैं और एक दूसरे के विकास में सहायक होती हैं। अत: इन्हें अलग – अलग करके नहीं देखा जाना चाहिए। यहाँ यह समझना भी जरूरी होगा कि हिंदी भाषा संबंधी जो भाषा - संप्राप्ति के बिन्दु दिए गये हैं उनमें परस्पर जुड़ाव है और एक से अधिक भाषायी क्षमताओं की झलक उनमें मिलती है। किसी रचना को सुनकर अथवा पढ़कर उस गहन चर्चा करना. अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करना, प्रश्न पूछना पढ़ने की क्षमता से भी जुड़ा है और सुनने – बोलने की क्षमता से भी। प्रतिक्रिया, प्रश्न और टिप्पणी की लिखकर भी अभिव्यक्ति किया जा सकता है। इस तरह से भाषा की कक्षा में एक साथ सुनना, बोलना, पढ़ना और लिखना जुड़ा है। इन सभी बातों को ध्यान में रखते हुए जहाँ पाठ्यचर्या संबंधी अपेक्षाएं, सीखने – सिखाने की प्रक्रिया तथा सीखने संबंधी संप्राप्ति को दर्शाने वाले बिन्दु दिए गये है। पाठ्यचर्या संबंधी अपेक्षाओं को पूरा करने में सीखने संबंधी प्रक्रियाओं की बड़ी भूमिका होगी। सीखने की उपयुक्त प्रक्रियाओं के बिना सीखने संबंधी अपेक्षित संप्राप्ति नहीं की जा सकेगी।
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