Q. पाठ्यचर्या की क्या अवधारणा है? राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 के मार्गदर्शक सिद्धांतों को लिखें।
उत्तर - पाठ्यचर्या की अवधारणा ( concept of Curriculum )
पाठ्यचर्या शैक्षिक व्यवस्था का अनिवार्य एवं महत्वपूर्ण अंग है । पाठ्यचर्या की अवधारणा के सन्दर्भ में प्रायः विद्वानों में एकमत राय नहीं है । पाठ्यचर्या को लोग पाठयचर्या (syllabus) या विषय वस्तु (course of study) या जैसे नामों से भी संबोधित करते हैं । पाठ्यचर्या के लिए प्रचलित ये शब्द अलग-अलग अर्थ और सन्दर्भो को प्रकट करते हैं। अतः पाठ्यचर्या को शाब्दिक, संकुचित और व्यापक तीनों अर्थों में समझने की जरुरत है। तब इसके सही स्वरूप को हम समझ सकते हैं।
पाठ्यचर्या शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है- पाठ्य एवं चर्या । पाठ्य का अर्थ है- पढ़ने योग्य अथवा पढ़ाने योग्य और चर्या का अर्थ है – नियम पूर्वक अनुसरण । इस प्रकार पाठ्यचर्या का अर्थ हुआ पढ़ने योग्य (सीखने योग्य) अथवा पढ़ाने योग्य (सिखाने योग्य) । विषय वस्तु और क्रियाओं का नियम पूर्वक अनुसरण । पाठ्यचर्या के लिए अंग्रेजी में करीकुलम (Curriculum) शब्द का प्रयोग किया जाता है । यह शब्द लैटिन भाषा के क्यूरेरे (Currere) से बना है जिसका अर्थ है- रनवे (Runway) या रेस कोर्स (Race Course) अर्थात् दौड़ का रास्ता या दौड़ का क्षेत्र अर्थात् किसी निश्चित लक्ष्य तक पहुँचने के लिए मार्ग पर दौड़ना या ऐसे भी कह सकते हैं कि –Curriculum means a course to be run for reaching a certain goal. इस प्रकार शाब्दिक अर्थ में पाठ्यचर्या छात्रों के लिए दौड़ का रास्ता या दौड़ के मैदान के समान है जिस पर चलते हुए छात्र अपने वांछित शैक्षिक उद्देश्यों को पूरा करता है। राबर्ट यूलिच (Robert Ulich) ने लिखा है कि- “शिक्षा के लक्ष्य तक पहुँचने के लिए जिन अध्ययन परिस्थितियों में क्रमिक रुपरेखा बनायी जाती है उसे पाठ्यचर्या कहते हैं। पाठ्यचर्या में शिक्षण के ज्ञानात्मक, भावात्मक एवं क्रियात्मक तीनों पक्ष शामिल होते हैं।”
पाठ्यचर्या निर्माण के अन्य महत्वपूर्ण निम्नलिखित सिद्धांत हैं -
1. शैक्षिक उद्देश्यों की अनुकूलता का सिद्धांत
पाठयचर्या को शैक्षिक उद्देश्यों की प्राप्ति का सदा ध्यान रखना चाहिए क्योंकि उद्देश्य ही निर्धारित करते हैं कि उन विषयों एवं क्रियाओं को जो उद्देश्यों को जो उदेश्यो को प्राप्त करने के लिए बालको को दी जानी है !
2.बच्चों को आवश्यकताओ योग्यताओ रुचिओ एवं भावनाओं की अनुकूलत्ता का सिद्धांत -
इस सिद्धांत को बाल-केंद्रित सिद्धांत भी कहा जाता है ! यह तो सभी जानते हैं और मानते हैं कि बच्चे योग्यता, रुचि एवं भावना की दृष्टि से संपन्न नहीं होते ! इसलिए पाठ्यचर्या सामान्य बालकों की आवश्यकताओं, योग्यताओं, रुचियों, भावनाओं एवं क्रियाओं के आधार पर बनाई जाती है ! बच्चों की आत्माभीव्यक्ति और उपक्रम को प्रभावित करने के लिए केवल वही विषय एवं क्रियाएं सम्मिलित नहीं की जाती है जो उनके अनुकूल हो ! छात्रों में असमानता होती है, इसलिए उसके रुझान, रुचि एवं आवश्यकता के आधार पर उन्हें अनेक वर्गो में बांटा जाता है ! इन विभिन्न वर्गों के लिए अलग-अलग पाठ्यचर्या बनाई जानी चाहिए इससे उन्हें अपनी योग्यताओं, क्षमताओं को विकास करने का अवसर मिल सकेगा !
3. जीवन से संबंधित होने का सिद्धांत -
पाठ्यचार्य का निर्माण करते समय ध्यान रखा जाए कि यह शैक्षिक विषयों से संबंधित पाठय -पुस्तकों तक ही सीमित न रहे, वरन यह ऐसी होनी चाहिए कि छात्रों को समस्त शैक्षिक वातावरण की अभिव्यक्ति कराने की क्षमता रखती हो ! साथ ही यह भी ध्यान रखा जाए कि छात्रों की भावनाओं को ठेस ना पहुंचे ! यह व्यवस्था ही छात्रों के दृष्टिकोण को व्यापक बनाने में सहायक सिद्ध होगी !
4. पाठ्यचर्या में मानव जीवन के समस्त उपयोगी अनुभवो के समावेश का सिद्धांत -
यह सर्वविदित है कि मानव अपने पूर्वजों के अनुभवो से सीखता है और उनमें अपने अनुभव जोड़कर उन्हें विकसित करता है ! यदि मानव जाति के समस्त अनुभवो का लाभ छात्रों को पहुंचाना है तो उन्हें पाठ्यचर्या में स्थान देना होगा ! साथ ही, प्रत्येक व्यक्ति द्वारा दूसरो के अनुभवो की कसौटी पर रखकर सत्य तथा असत्य का निर्णय लिया जा सकेगा !
5. उपयोगिता का सिद्धांत -
पाठ्यचर्या का निर्माण करते समय इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि कौन-कौन से विषय एवं क्रियाएं छात्रों के लिए उपयोगी है ! इसलिए उपयोगिता के आधार पर विषय एवं क्रियाओं का क्रम निर्धारित करना चाहिए ! स्वतंत्र भारत ने स्वेच्छा से लोकतांत्रिक शासन एवं समाजिक पद्धति अपनाई है ! इसलिए प्रत्येक स्तर की पाठ्यचर्या में लोकतांत्रिक के आवश्यक गुणों राष्ट्रिय अखंडता एवं राष्ट्रिय भावना को उपयुक्त स्थान मिलना चाहिए !
6. पाठ्यचर्या के विभिन्न विषयों एवं क्रियाओं में सह -सम्बन्ध तथा एकीकरण का सिद्धांत -
ज्ञान को एक इकाई के रूप में माना व् समझा जाता है ! परंतु शिक्षाविदों ने शिक्षण के सुविधा के लिए विश्लेषणात्मक ढंग से ज्ञान को विभिन्न विषयों में विभाजित कर दिया है ! सीखने की सुविधा एवं उपयोगिता के आधार पर पाठ्यचर्या का निर्माण करते समय उन्हीं विषयों और क्रियाओं को शामिल किया जाना चाहिए तो परस्पर संबंधित हो ! विभिन्न विषयों की सामग्री का चयन करते समय भी ऐसी सामग्री का चयन करना होगा जिसे एक -दूसरे के आधार पर पढ़ाया या विकसित किया जा सके ! ऐसी ही पाठ्यचर्या को एकीकृत पाठ्यचर्या कहा जाता है !
7. प्रदान किये जानेवाले ज्ञान के वर्गीकरण का सिद्धांत -
यह सर्वविदित है कि मानव जीवन सीमित है और इसके विपरीत ज्ञान असीमित है और साथ ही ज्ञान का विस्फोट भी हो रहा है ! ऐसी स्थिति में, मानव अपने सीमित जीवन काल में समस्त ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता ! प्रत्येक व्यक्ति को लिखने पढ़ने और सामान्य व्यवहार में दक्ष होना चाहिए ! इसी प्रकार भाषा, गणित और समाजशास्त्र या समाजिक अध्ययन या सामाजिक विज्ञान अनिवार्य विषय होने चाहिए ! कृषि, वाणिज्य आदि जैसे विषय एकचक्षिक वर्ग में रखे जाने चाहिए ! प्रत्येक व्यक्ति की अपनी रूचि के अनुसार विषय चुनने का अवसर मिल सके !
8. पाठ्यचर्या में अगुवाई एवं सामान्यीकरण का सिद्धांत -
इस सिद्धांत के अनुसार पाठ्यचर्या का निर्माण इस प्रकार किया जाना चाहिए कि उसमें अगुआई की भावना जागृत हो सके ! इसके फलस्वरूप छात्र ज्ञान प्राप्त करने एवं क्रियाओं में दक्षता प्राप्त करने के लिए प्रशिक्षण लेने की भावना तथा जिज्ञासा प्रकट करेंगे !
प्राप्त ज्ञान बेकार है यदि छात्र उसका प्रयोग ना कर सके ! इसलिए प्रयोग करने की क्षमता को ही ज्ञान का सामान्यीकरण कहा जायेगा ! इसलिए पाठ्यक्रम ऐसी बनाई जाए कि छात्र ज्ञान प्राप्त कर सके और क्रियाओं की ओर आकर्षित हो सकें ! यही योग्यता उनके भावी जीवन को सफल बनाने में सहायक सिद्ध होगी !
9. आगे की ओर देखने का सिद्धांत -
आज का बच्चा कल का नागरिक है ! उसे ही आगे चलकर विभिन्न उत्तर दायित्व संभालने होंगे ! इसलिए पाठ्यचर्या की रचना ऐसे ढंग से की जानी चाहिए कि वे समाज के की प्रगति एवं भलाई में प्रभावशाली योगदान दे सके और अपने वातावरण में आवश्यकतानुसार वांछित परिवर्तन ला सकें !इसलिए कहा जा सकता है कि बालक को दिया जाने वाले ज्ञान ऐसा हो कि उज्जवल भविष्य के लिए सहायक सिद्ध हो सके !
.10 सीखने के अनुभव में निरंतरता का सिद्धांत -
छात्रों की अधिगम गति को तेज करने के लिए सीखने के अनुभवों में निरंतरता होनी चाहिए ! यहा स्थल से सूक्ष्म की ओर के सिद्धांतों का अनुकरण किया जाना हितकर सिद्ध होगा !
11. क्रिया का सिद्धांत -
आज के युग में क्रिया द्वारा सीखना श्रेष्ठ माना जाता है और प्राप्त ज्ञान स्थाई होता है ! इसलिए पाठ्यचर्या में छात्रों की सक्रियता को बनाए रखने के लिए विभिन्न उपयोगी क्रियाओं का समावेश किया जाना चाहिए !
12. तत्परता का सिद्धांत -
यह सभी मानते हैं कि वही ज्ञान प्रभावशाली एवं अर्थपूर्ण होता है जिसके सीखने के लिए छात्र प्रेरित होता है या उसमें सीखने के प्रति तत्परता होती है ! तत्परता के लिए आवश्यक है कि छात्र के पास उपयुक्त ज्ञान एवं कौशल हो और सीखने के प्रति उसका सकारात्मक दृष्टिकोण हो ! इसके साथ वातावरण भी अधिगम तत्परता को प्रभावित करता है ! इसलिए पाठ्यचर्या रचना ऐसे ढंग से की जानी चाहिए कि अध्यापक उपयुक्त समय पर ही विषय पढ़ा सके !
13. अवकाश के सदुपयोग का सिद्धांत -
शिक्षा के उद्देश्य व्यवसाय के लिए तैयार करना नहीं होता वरन छात्रों को अवकाश के समय सदुपयोग का भी प्रशिक्षण देना चाहिए ! इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए पाठ्यचर्या में समाजिक सौंदर्य, बोधक, रुचि एवं क्रिडात्मक क्रियाओं का समावेश होना चाहिए !
14. विविधता और लचीलेपन का सिद्धांत -
पाठ्यचर्या की रचना में ज्ञान, कुशलता और भावनाओं के उन विस्तृत क्षेत्रों का समावेश किया जाना चाहिए जो बालक की व्यक्तिगत भिन्नता की दृष्टि से विकास की प्रक्रिया को विकसित कर सके ! ऐसी स्थिति में आवश्यकता हो जाता है कि पाठ्यचर्या में विविधता के साथ लचीलापन भी हो !
15. राष्ट्रीय लक्ष्यों एवं लोकतंत्रात्मक गुणों के विकास का सिद्धांत -
स्वतंत्र भारत ने अपने राष्ट्र लक्ष्य निर्धारित किए हुए हैं ! देश की समस्त शिक्षा प्रणाली का आधार राष्ट्रीय लक्ष्य है ! पाठ्यचर्या की रचना करते समय राष्ट्रीय लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए आवश्यक ज्ञान कौशल एवं भावनाओं का समावेश करना आवश्यक है ! इसके अंतर्गत हमें अपने छात्रों को जनसंख्या की समस्या, उत्पादन वृद्धि, वैज्ञानिक दृष्टिकोण के लिए पर्याप्त अवसर उपलब्ध कराने होंगे !
पाठ्यचर्या विद्यालयी शिक्षा के केंद्र बिंदु है ! पाठ्यचर्या एक सुनिश्चित क्रिया है ! इसका निर्माण बिना सोचे-समझे नहीं किया जा सकता है क्योंकि इसके द्वारा कुछ निश्चित उद्देश्य प्राप्त करने होते है ! पाठ्यचर्या निर्माण के अनेक दृष्टिकोण है ! ये दृष्टिकोण विभिन्न दार्शनिको एवं प्रवृत्तियों की देन है ! पाठ्यचर्या निर्माण के निम्नलिखित सिद्धांत हैं -
1. शैक्षिक उद्देश्यों की अनुकूलता का सिद्धांत -
2.बच्चों को आवश्यकताओ योग्यताओ रुचिओ एवं भावनाओं की अनुकूलत्ता का सिद्धांत -
3. जीवन से संबंधित होने का सिद्धांत -
4. पाठ्यचर्या में मानव जीवन के समस्त उपयोगी अनुभवो के समावेश का सिद्धांत -
5. उपयोगिता का सिद्धांत -
6. पाठ्यचर्या के विभिन्न विषयों एवं क्रियाओं में सह -सम्बन्ध तथा एकीकरण का सिद्धांत -
7. प्रदान किये जानेवाले ज्ञान के वर्गीकरण का सिद्धांत
8. पाठ्यचर्या में अगुवाई एवं सामान्यीकरण का सिद्धांत -
9. आगे की ओर देखने का सिद्धांत -
10 सीखने के अनुभव में निरंतरता का सिद्धांत -
11. क्रिया का सिद्धांत -
12. तत्परता का सिद्धांत -
13. अवकाश के सदुपयोग का सिद्धांत -
14. विविधता और लचीलेपन का सिद्धांत -
15. राष्ट्रीय लक्ष्यों एवं लोकतंत्रात्मक गुणों के विकास का सिद्धांत -
राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 के मार्गदर्शक सिद्धांतों
1.ज्ञान को स्कूल के बाहरी जीवन से जोड़ा जाए।
2.पढ़ाई को रटने की प्रणाली से अलग किया जाए।
3.पाठ्यचर्या पाठ्यपुस्तक केंद्रित ही बस ना हो।
4.विद्यालय में दी जाने वाली शिक्षा को विभिन्न प्रकार की गतिविधियों से जोड़ा जाए।
5.राष्ट्रीय मूल्यों के प्रति अस्थावान विद्यार्थी तैयार किया जाए।
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