भाषा का राजनीतिक संदर्भ{ Bhasha ka rajnitik sandarbh }

 भाषा के राजनीतिक संदर्भ:


भाषा राजनीतिक संदर्भों से भी प्रभावित होती है। कोई भी राजनीतिक दल भाषा नीति के संदर्भ में स्पष्ट बात नहीं करता है। भाषा नीति पर बात आते ही घुमा फिरा के वक्तव्य दिए जाते हैं। भाषा के संबंध में सरकार ने तो शिथिल नीति अपनाने का परिचय प्रारंभ से ही दे दिया है।


शिक्षा में भाषा के अध्ययन का प्रश्न राजभाषा के प्रश्न के साथ जुड़ा हुआ है। यह नौकरी का प्रश्न बन जाता है। राजभाषा के संबंध में आइ स्थिर शिक्षा नीति आई स्थित भाषा नीति को जन्म देती है। हमारी सरकार ने 1956 तक देव भाषा सूत्र की ओर रुझान दिखाया। 1956 से 1967 तक हम त्रिभाषा सूत्र की चर्चा करते रहे।1967 68 में केंद्र सरकार पुनः दी भाषा शुद्र की ओर झुकी और अब पुनः त्रिभाषा सूत्र की ओर झुकी है।


इस ढोल मूल नीति का मुख्य कारण उत्तर और दक्षिण क्षेत्र के प्रति झुकाव की आलोचना का भय है।जब उत्तर में भाषा को लेकर आंदोलन होते हैं तो सरकार का झोंका उत्तर की ओर हो जाता है और जब दक्षिण में आंदोलन होते हैं तो सरकार का झुकाव दक्षिण की ओर हो जाता है। कभी हिंदी के लिए अत्यधिक उत्साह तो कभी अंग्रेजी की जीवन रक्षा के लिए।


भाषा संशोधन विधेयक! कभी संविधान का उल्लेख तो कभी प्रधानमंत्री के आश्वासन का उल्लेख!कभी गांधीजी की दुहाई तो कभी अंतरराष्ट्रीय ता का स्वप्न!कभी एक राष्ट्रभाषा का उपदेश तो कभी 14 राष्ट्रभाषा ओं को समान दर्जा देने का प्रवचन! यह सब क्या हो रहा है।


हमारी भाषा नीति का प्रभाव शिक्षा का स्तर पर प्रभाव डाल रहा है।माध्यमिक शिक्षा का लगभग संपूर्ण देश में शिक्षा का माध्यम मात्र भाषाएं हैं जो छात्र मात्री भाषा के माध्यम से माध्यमिक कक्षा तक पढ़ता रहता है वह अकस्मात स्नातक एवं स्नातकोत्तर स्तर तक किस प्रकार विदेशी भाषा के माध्यम से शिक्षा ग्रहण कर सकेगा?यह बहुत गलत है विश्वविद्यालयों में भी मात्रिभाषा की परीक्षा एवं शिक्षा का वैकल्पिक माध्यम बनाना ही होगा।


गणतंत्र की स्थापना के साथ ही हिंदी को राष्ट्रभाषा मान लिया गया ।हम सब जानते हैं कि इस गौरव के पीछे स्वामी दयानंद सरस्वती तथा महात्मा गांधी टंडन जी का योगदान सबसे प्रमुख है।


वह समय था जब तत्काल राष्ट्रभाषा को प्रतिस्थापित किया जा सकता था लेकिन जब उसको लागू करने के लिए 15 वर्ष का समय मांगा गया वहीं सबसे बड़ी भूल थी।


यह अवधि अनायास मानी गई थी या शायद आज इसकी चर्चा व्यर्थ है। यह अवधि राज्य और प्रशासन में बैठे आ भारतीय मानसिकता वाले महापुरुषों के लिए महत्वपूर्ण जीत हुई।इस देश पर योजनाबद्ध तरीके से अंग्रेजों का वर्चस्व और विस्तार इसी अवधि में बढ़ा।


स्वतंत्रता से पहले हिंदी का पठन-पाठन राष्ट्र सेवा का एक अंग समझा जाता था।अनेक वर्षों के स्वतंत्र शासन में हमने हिंदी की इतनी उन्नति कर ली है और हिंदी के प्रति देश में इतना सम्मान बढ़ गया है कि हिंदी वाला अब प्रशंसा की अपेक्षा निंदा का सूचक हो गया है।


आजकल उच्च वर्ग के वही व्यक्ति कहलाते हैं जो अंग्रेजी जानते हैं, समझते हैं और बोलते हैं, यह गलत हैं।


यहां हम यह सोचने को विवश हो जाते हैं कि यदि हमारी सरकारी नीति इसी प्रकार की रही तो राष्ट्रध्वज, राष्ट्रगान, संविधान आदि का हम भारतीय कितने दिनों तक आधार कर सकेंगे, कहा नहीं जा सकता है। शायद ये सभी प्रश्न एक साथ जुड़े हुए हैं। इन्हें पृथक नहीं किया जा सकता।


नागालैंड ने अपनी क्षेत्रीय भाषा अंग्रेजी घोषित की है। भारतीय संविधान, राष्ट्रध्वज, राष्ट्रगान आदि का तो नागालैंड के अंतर्मन में कितना सम्मान है या इसी बात से पता लगाया जा सकता है कि अलगाव की प्रवृत्ति अभी भी वहां पर है।


तमिलनाडु में हिंदी का अत्याधिक विरोध हुआ।राष्ट्रीय ध्वज की वह संविधान की गोली जिस प्रकार तमिलनाडु में जलाई गई, उसे तमिलनाडु के ही देशभक्त अभी तक नहीं भूल सके।


राजनीतिक का तो नाम ही है सरकार का विरोध करना। कुछ और नहीं मिलता तो भाई लोग राष्ट्रभाषा का लाठी लेकर सरकार के पीछे पड़ जाते हैं जबकि यह जगजाहिर तथ्य है कि सरकार ने हमेशा हिंदी को राष्ट्रभाषा माना है। संविधान मैं हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिया है। वह तो वैकल्पिक रूप मैं अंग्रेजी के अल्पकालीन व्यवस्था कर रखी है। उसे तो एक न एक दिन जाना ही है। अल्पकालीन व्यवस्था अल्पकालिक ही होती है।


अंग्रेजी को राजभाषा के रूप में शुरुआत में मात्र 15 वर्ष के लिए अपनाया गया था। उसके बाद उसे जाना था। नहीं गई तो इसलिए कि सरकारी स्तर पर हिंदी अभी राजकाज की भाषा के योग्य नहीं बन पाई थी। अब सरकार भी क्या करें। उसने तो अपने अस्तर पर हर कार्यालय में हिंदी अनुवादक से लेकर राजभाषा अधिकारी तक नियुक्त करने का प्रावधान कर रखा है।


बैंकों व रेलवे स्टेशन पर स्पष्ट लिखा होता है कि यहां हिंदी में फार्म स्वीकार किए जाते हैं। इससे अधिक सरकार क्या कर सकती हैं?फिर भी लोग हैं कि हिंदी को लेकर सरकार की कथनी करनी पर हमेशा अंगुली उठाते रहते हैं।


क्या हुआ यदि शोध छात्रा मां का लाल जैन को विगत 12 वर्षों से संघर्ष के बावजूद आज तक रुड़की विश्वविद्यालय से हिंदी में अभियांत्रिकी में शोध कार्य करने की अनुमति नहीं मिली।क्या हुआ यदि बरसों से लोग संघ लोक सेवा आयोग कार्यालय के समक्ष उनकी परीक्षाएं हिंदी व अन्य भारतीय भाषाओं में कराने की मांग कर रहे हैं।


जब देश का हर नागरिक अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों में प्रवेश दिलवाना चाहता है, हर भारतीय नागरिक विदेश जाकर धन कमाना चाहता है, तब तो कोई आपत्ति नहीं करता। बस सरकार के पीछे लाठी लेकर पड़े रहते हैं। सरकार आखिर कर ही क्या सकती है?


सरकार ने तो हिंदी के लिए कानून बनाया, विभागों व हिंदी पदो की स्थापना की, हिंदी दिवस घोषित किया और सबसे बड़ी बात कि हिंदी के विकास के लिए करोड़ों का बजट भी तय किया।


हिंदी के साथ आप कितने ही पुरस्कार जुड़ गए हैं। अंग्रेजी में अधिक पत्राचार करने पर किसी सरकारी विभाग में पुरस्कार नहीं मिलता, पर हिंदी में अधिक पत्राचार करने व टिप्पणी या लिखने पर पुरस्कार मिलता है।


हिंदी के विकास के लिए कार्यशाला आयोजित की जाती है।अंग्रेजी हटाओ आंदोलनकारियों की दुकानदारी भी इसलिए चल रही है कि हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा है।


By: Prof. Rakesh Giri

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