भाषा के सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक संदर्भ(social, cultural and political context of language)
प्रस्तावना:
सामाजिक सांस्कृतिक संदर्भ तत्पर्य है कि मानव अकेला नहीं सकता। भाषा ही उसे समाज और संस्कृति से जोड़ती है और वही इसे ज्ञान प्राप्ति होती है। इसका तात्पर्य है कि जब भाषा सीखी जाती है तब उसे सामाजिक सांस्कृतिक परिवेश को भी ध्यान में रखना चाहिए जिसमें वह देखी जा रही है और ज्ञान को भी उसी से जोड़ना चाहिए।
उदाहरण के लिए,अधिगमकर्ता जब विज्ञापनों को देखते हैं तो वह विज्ञापन तभी प्रभावी बनते हैं जब उस संस्कृति से संबंधित किरिया को उचित भाषा के प्रयोग द्वारा प्रस्तुत किया जाए।
एक कक्षा में सामाजिक सांस्कृतिक संदर्भ से संबंधित क्रियाएं की जा सकती है। जैसे कहानियां, अखबार या पत्रिका की खबरों का विश्लेषण करना, खिचड़ी भाषा अलंकारिक भाषा का भी विश्लेषण करना।
सामाजिक सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य मनोविज्ञान के क्षेत्र में उपयोग किया जाने वाला एक ऐसा सिद्धांत है जिसमें मानव के आसपास की परिस्थितियों की व्याख्या और उनका व्यवहार किस प्रकार परिस्थितियों और सामाजिक और सांस्कृतिक कार्य को से प्रभावित होता है यह बताया जाता है।
भाषा के सामाजिक संदर्भ:
भाषा और समाज का संबंध अभिन्न है। मनुष्य के पास भाषा सीखने की क्षमता होती है, किंतु वह भाषा को तभी सीख पाता है जब उसे एक भाषाई समाज का परिवेश प्राप्त होता है। एक ओर समाज के माध्यम से ही भाषा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचती है, तो दूसरी ओर भाषा के माध्यम से समाज संगठित और संचालित होता है। यदि मनुष्य से भाषा छीन ली जाए तो उसकी सामाजिक संरचना भी ध्वस्त हो जाएगी। इसी प्रकार यदि किसी व्यक्ति को समाज के बाहर (जैसे, जंगल में) छोड़ दिया जाए, जहां वह दूसरे व्यक्तियों से नहीं मिल सकता तो भाषा उसके साथ ही मृत हो जाएगी। भाषा अध्ययन के संदर्भ में ‘मनोवादी’ और ‘व्यवहारवादी’ विचारधाराएँ प्रचलित हैं। व्यवहारवादियों द्वारा भाषा को सामाजिक वस्तु माना गया है। उनके अनुसार भाषा समाज में होता है और मानव शिशु इसे अपने समाज से ही ग्रहण करता है। उपर्युक्त बातों के आलोक में भाषा को एक सामाजिक व्यवहार या सामाजिक वस्तु के रूप में देखा जा सकता है। इसे निम्नलिखित बिंदुओं द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है।
1.समाजिक जीवन के आधार के रूप में भाषा भाषा मनुष्य के सामाजिक जीवन का आधार है। इसी के कारण मनुष्य एक सामाजिक प्राणी के रूप में परिभाषित हो गया है। भाषा के अभाव में विचारों की अभिव्यक्ति और बातचीत – प्रदान संभव नहीं है। अतः भाषा नहीं होने पर हम भी अन्य प्राणियों की तरह बख्श विजिटगे।
2. सांस्कृतिक विरासत के रूप में भाषा भाषा किसी भी समाज और संस्कृति की वाहक होती है। यह एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को प्राप्त होता है। मानव शिशु के परिवार और समाज में जो भाषा बोली जाती है वह उसे सीखता है।
3. सामाजिक पहचान के रूप में भाषा भाषा किसी भी व्यक्ति की सामाजिक पहचान प्रदान करने में सक्षम होती है। व्यक्ति का सुर (टोन), शब्द चयन (शब्द चयन) और बातचीत का तरीका उसके भौगोलिक क्षेत्र, धर्म और सामाजिक पृष्ठभूमि की पहचान करते हैं।
भाषा का सांस्कृतिक संदर्भ:
सामाजिक सांस्कृतिक सिद्धांत के अनुसार सामाजिक अंतः क्रिया और सांस्कृतिक संस्थान; जैसे-विद्यालय, कक्षाएं आदि एक बालक के जीवन के संज्ञानात्मक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
इस सिद्धांत के अनुसार सामाजिक सांस्कृतिक संदर्भ भाषा अधिगम की वर्तमान संज्ञानात्मक और मनोसामाजिक संकल्पना के परेे हैं। यह सिद्धांत बतलाता है कि भाषा अधिगम एक सतत् प्रक्रिया है, जो आसपास के वातावरण से प्रेरित होकर निरंतर चलती रहती है।
हमारा देश एक सांस्कृतिक रूप से भिन्नता लिए हुए देश है। कई संस्कृतियों ने यहां जन्म लिया और विकसित हुई और पनप रही है। इसलिए हर संस्कृति को समावेशित करती हुई शिक्षा दी जानी आवश्यक है।
जी संस्कृति से बालक जुड़ा रहता है उसी से संबंधित पहनावा, खान-पान, रीति रिवाज और रहन-सहन का तरीका उसे सबसे सरल लगता है।यही उसकी विनता का आधार होता है क्योंकि यही उसकी सोच विचार करने की शक्ति को प्रभावित करता है।
विभिन्न धर्मज समुदाय, जाति, जनजाति और व्यवहार व्यवसाय से जुड़े लोग अपने अनुसार अपने समाज में जीवन यापन के लिए नियम निर्माण करते हैं और वही उनके संस्कृति का एक बड़ा हिस्सा बनते हैं। बालक बालक आल से जो संस्कृति परिवेश देखता है उसी में विकसित होता है उसी के अनुसार सीखने के नियम बना लेता है। यही उसकी विनता का आधार बनती है। अतः भाषा शिक्षण में सांस्कृतिक महत्व है।
भाषा के राजनीतिक संदर्भ:
भाषा राजनीतिक संदर्भों से भी प्रभावित होती है। कोई भी राजनीतिक दल भाषा नीति के संदर्भ में स्पष्ट बात नहीं करता है। भाषा नीति पर बात आते ही घुमा फिरा के वक्तव्य दिए जाते हैं। भाषा के संबंध में सरकार ने तो शिथिल नीति अपनाने का परिचय प्रारंभ से ही दे दिया है।
शिक्षा में भाषा के अध्ययन का प्रश्न राजभाषा के प्रश्न के साथ जुड़ा हुआ है। यह नौकरी का प्रश्न बन जाता है। राजभाषा के संबंध में आइ स्थिर शिक्षा नीति आई स्थित भाषा नीति को जन्म देती है। हमारी सरकार ने 1956 तक देव भाषा सूत्र की ओर रुझान दिखाया। 1956 से 1967 तक हम त्रिभाषा सूत्र की चर्चा करते रहे।1967 68 में केंद्र सरकार पुनः दी भाषा शुद्र की ओर झुकी और अब पुनः त्रिभाषा सूत्र की ओर झुकी है।
इस ढोल मूल नीति का मुख्य कारण उत्तर और दक्षिण क्षेत्र के प्रति झुकाव की आलोचना का भय है।जब उत्तर में भाषा को लेकर आंदोलन होते हैं तो सरकार का झोंका उत्तर की ओर हो जाता है और जब दक्षिण में आंदोलन होते हैं तो सरकार का झुकाव दक्षिण की ओर हो जाता है। कभी हिंदी के लिए अत्यधिक उत्साह तो कभी अंग्रेजी की जीवन रक्षा के लिए।
भाषा संशोधन विधेयक! कभी संविधान का उल्लेख तो कभी प्रधानमंत्री के आश्वासन का उल्लेख!कभी गांधीजी की दुहाई तो कभी अंतरराष्ट्रीय ता का स्वप्न!कभी एक राष्ट्रभाषा का उपदेश तो कभी 14 राष्ट्रभाषा ओं को समान दर्जा देने का प्रवचन! यह सब क्या हो रहा है।
हमारी भाषा नीति का प्रभाव शिक्षा का स्तर पर प्रभाव डाल रहा है।माध्यमिक शिक्षा का लगभग संपूर्ण देश में शिक्षा का माध्यम मात्र भाषाएं हैं जो छात्र मात्री भाषा के माध्यम से माध्यमिक कक्षा तक पढ़ता रहता है वह अकस्मात स्नातक एवं स्नातकोत्तर स्तर तक किस प्रकार विदेशी भाषा के माध्यम से शिक्षा ग्रहण कर सकेगा?यह बहुत गलत है विश्वविद्यालयों में भी मात्रिभाषा की परीक्षा एवं शिक्षा का वैकल्पिक माध्यम बनाना ही होगा।
गणतंत्र की स्थापना के साथ ही हिंदी को राष्ट्रभाषा मान लिया गया ।हम सब जानते हैं कि इस गौरव के पीछे स्वामी दयानंद सरस्वती तथा महात्मा गांधी टंडन जी का योगदान सबसे प्रमुख है।
वह समय था जब तत्काल राष्ट्रभाषा को प्रतिस्थापित किया जा सकता था लेकिन जब उसको लागू करने के लिए 15 वर्ष का समय मांगा गया वहीं सबसे बड़ी भूल थी।
यह अवधि अनायास मानी गई थी या शायद आज इसकी चर्चा व्यर्थ है। यह अवधि राज्य और प्रशासन में बैठे आ भारतीय मानसिकता वाले महापुरुषों के लिए महत्वपूर्ण जीत हुई।इस देश पर योजनाबद्ध तरीके से अंग्रेजों का वर्चस्व और विस्तार इसी अवधि में बढ़ा।
स्वतंत्रता से पहले हिंदी का पठन-पाठन राष्ट्र सेवा का एक अंग समझा जाता था।अनेक वर्षों के स्वतंत्र शासन में हमने हिंदी की इतनी उन्नति कर ली है और हिंदी के प्रति देश में इतना सम्मान बढ़ गया है कि हिंदी वाला अब प्रशंसा की अपेक्षा निंदा का सूचक हो गया है।
आजकल उच्च वर्ग के वही व्यक्ति कहलाते हैं जो अंग्रेजी जानते हैं, समझते हैं और बोलते हैं, यह गलत हैं।
यहां हम यह सोचने को विवश हो जाते हैं कि यदि हमारी सरकारी नीति इसी प्रकार की रही तो राष्ट्रध्वज, राष्ट्रगान, संविधान आदि का हम भारतीय कितने दिनों तक आधार कर सकेंगे, कहा नहीं जा सकता है। शायद ये सभी प्रश्न एक साथ जुड़े हुए हैं। इन्हें पृथक नहीं किया जा सकता।
नागालैंड ने अपनी क्षेत्रीय भाषा अंग्रेजी घोषित की है। भारतीय संविधान, राष्ट्रध्वज, राष्ट्रगान आदि का तो नागालैंड के अंतर्मन में कितना सम्मान है या इसी बात से पता लगाया जा सकता है कि अलगाव की प्रवृत्ति अभी भी वहां पर है।
तमिलनाडु में हिंदी का अत्याधिक विरोध हुआ।राष्ट्रीय ध्वज की वह संविधान की गोली जिस प्रकार तमिलनाडु में जलाई गई, उसे तमिलनाडु के ही देशभक्त अभी तक नहीं भूल सके।
राजनीतिक का तो नाम ही है सरकार का विरोध करना। कुछ और नहीं मिलता तो भाई लोग राष्ट्रभाषा का लाठी लेकर सरकार के पीछे पड़ जाते हैं जबकि यह जगजाहिर तथ्य है कि सरकार ने हमेशा हिंदी को राष्ट्रभाषा माना है। संविधान मैं हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिया है। वह तो वैकल्पिक रूप मैं अंग्रेजी के अल्पकालीन व्यवस्था कर रखी है। उसे तो एक न एक दिन जाना ही है। अल्पकालीन व्यवस्था अल्पकालिक ही होती है।
अंग्रेजी को राजभाषा के रूप में शुरुआत में मात्र 15 वर्ष के लिए अपनाया गया था। उसके बाद उसे जाना था। नहीं गई तो इसलिए कि सरकारी स्तर पर हिंदी अभी राजकाज की भाषा के योग्य नहीं बन पाई थी। अब सरकार भी क्या करें। उसने तो अपने अस्तर पर हर कार्यालय में हिंदी अनुवादक से लेकर राजभाषा अधिकारी तक नियुक्त करने का प्रावधान कर रखा है।
बैंकों व रेलवे स्टेशन पर स्पष्ट लिखा होता है कि यहां हिंदी में फार्म स्वीकार किए जाते हैं। इससे अधिक सरकार क्या कर सकती हैं?फिर भी लोग हैं कि हिंदी को लेकर सरकार की कथनी करनी पर हमेशा अंगुली उठाते रहते हैं।
क्या हुआ यदि शोध छात्रा मां का लाल जैन को विगत 12 वर्षों से संघर्ष के बावजूद आज तक रुड़की विश्वविद्यालय से हिंदी में अभियांत्रिकी में शोध कार्य करने की अनुमति नहीं मिली।क्या हुआ यदि बरसों से लोग संघ लोक सेवा आयोग कार्यालय के समक्ष उनकी परीक्षाएं हिंदी व अन्य भारतीय भाषाओं में कराने की मांग कर रहे हैं।
जब देश का हर नागरिक अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों में प्रवेश दिलवाना चाहता है, हर भारतीय नागरिक विदेश जाकर धन कमाना चाहता है, तब तो कोई आपत्ति नहीं करता। बस सरकार के पीछे लाठी लेकर पड़े रहते हैं। सरकार आखिर कर ही क्या सकती है?
सरकार ने तो हिंदी के लिए कानून बनाया, विभागों व हिंदी पदो की स्थापना की, हिंदी दिवस घोषित किया और सबसे बड़ी बात कि हिंदी के विकास के लिए करोड़ों का बजट भी तय किया।
हिंदी के साथ आप कितने ही पुरस्कार जुड़ गए हैं। अंग्रेजी में अधिक पत्राचार करने पर किसी सरकारी विभाग में पुरस्कार नहीं मिलता, पर हिंदी में अधिक पत्राचार करने व टिप्पणी या लिखने पर पुरस्कार मिलता है।
हिंदी के विकास के लिए कार्यशाला आयोजित की जाती है।अंग्रेजी हटाओ आंदोलनकारियों की दुकानदारी भी इसलिए चल रही है कि हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा है।
By: Prof. Rakesh Giri
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें