EPC1 reading and reflecting on text (साहित्य का पठन एवं उसपर मनन नोट्स ) notes for Exam B.Ed. Guess Questions



Reading and contemplating question paper literature Question paper code - EPC - 1 Instructions: - Describe the following topics in detail and Figure 1. Dialogue part of Upanishads-2. Two stories of Panchatantra 3. Stories of Jataka. 4. The tales of Theri. 5. Two stories of Jain literature. 6. Gulista - Two tales of Bosta. 7. Vinovabhave's composition 'Teacher' 8. Education and Life Values ​​composed by Kothari. 9. Objectives of Education by Mahadevi Verma 10. Excerpts from Ragdarbari 11. Prof. Anil Sad Gopal's article Literacy National Mission or Educational Criteria 13. Avadheshpreet Taleem composed by 14. Murdahiya composed by Tulsiram 15. Gyandev Mani Tripathi's quest for education 16. What do Virendra Singh Rawat's writings say questions 17. Description of some local tales 18. Description of folklore 19. Some description of folk songs

EPC-1


1. उपनिषद के संवाद अंश

             उत्तर :- उपनिषद उपनिषद भारतीय आध्यात्मिक चिंतन का मूल आधार है । भारतीय अध्यात्मिक दर्शन का मूल स्रोत है । उपनिषद चिंतनशील ऋषियों की ज्ञान चर्चाओं का सार है । यह कवि हृदय ऋषियों की काव्यमय आध्यात्मिक रचनाएं हैं । उपनिषद हिंदू धर्म के महत्वपूर्ण श्रुति धर्म ग्रंथ है ( श्रुति हिंदू धर्म के सर्वोच्च और सर्वोपरि धर्मग्रंथों का समूह है । श्रुति का शाब्दिक अर्थ है- सुना हुआ यानी ईशवर की बाणी । प्राचीन काल में ऋषियो द्वारा कही गई और उनके शिष्यों द्वारा सुनकर जगत में फैलाई गई उसे ही श्रुतिग्रंथ कहा जाता है ) इनमें परमेश्वर परमात्मा और आत्मा के स्वभाव और संबंध का बहुत ही दार्शनिक व ज्ञान पूर्वक वर्णन दिया गया है । उपनिषद ही समस्त भारतीय दर्शनों के मूल स्रोत है । दुनिया के अधिकतर दार्शनिक उपनिषदों को ही सबसे महत्वपूर्ण ज्ञानकोष ( Encyclopedia ) मानते हैं । उपनिषद भारतीय सभ्यता की विश्व के लिए अमूल्य धरोहर है । उपनिषद संस्कृत में लिखे गए हैं


उपनिषद का अर्थ : - उपनिषद का अर्थ होता है- समीप उपवेशन या समीप बैठना ( ब्रह्म विद्या की प्राप्ति के लिए शिष्य का गुरु के पास बैठना ) उपनिषद में ऋषि और शिष्य के बीच बहुत सुंदर और गूढ़ संवाद है जो पाठक को वेद के मर्म तक पहुंचाता है । उपनिषद की संख्या 108 हैं । लेकिन इस पर एक विचार नहीं मिलते हैं । अनेक विद्वानों द्वारा अलग – अलग संख्या बताई गई है । ऐसा माना जाता है कि कुल 1131 उपनिषद की रचना की गई थी लेकिन वर्तमान में हमारे समक्ष 108 उपनिषद उपलब्ध है । उपनिषदों की रचना काल के संबंध में कोई एक मत स्वीकार नहीं किया गया है । प्राचीन भारत मे गुरुकुलो या गुरुओं के आश्रमों में आत्मा , परमात्मा और सृष्टि आदि के संबंध में गूढ रहस्य हैं जो गुरु शिष्य संवाद की शैली में हैं । शिष्य प्रश्न पूछता है और गुरु उसका उत्तर देता है । बहुत ही अनूठे और रहस्यों से भरे हैं उपनिषद ।

नचिकेता और यम का संबाद 


नचिकेता और यमराज के बीच हुए संवाद का उल्लेख हमें कठोपनिषद में मिलता है । नचिकेता के पिता जब विश्वजीत यज्ञ के बाद बूढ़ी एवं बीमार गायों को ब्राह्मणों को दान में देने लगे तो नचिकेता ने अपने पिता से पूछा कि आप मुझे दान में किसे देंगे ? तब नचिकेता के पिता क्रोध से भरकर बोले कि मैं तुम्हें यमराज को दान में दूंगा । चूंकि ये शब्द यज्ञ के समय कहे गए थे , अतः नचिकेता को यमराज के पास जाना ही पड़ा । यमराज अपने महल से बाहर थे , इस कारण नचिकेता ने तीन दिन एवं तीन रातों तक यमराज के महल के बाहर प्रतीक्षा की।तीन दिन बाद जब यमराज आए तो उन्होंने इस धीरज भरी प्रतीक्षा से प्रसन्न होकर नचिकेता से तीन वरदान मांगने को कहा । नचिकेता ने पहले वरदान में कहा कि जब वह घर वापस पहुंचे तो उसके पिता उसे स्वीकार करें एवं उसके पिता का क्रोध शांत हो । दूसरे वरदान में नचिकेता ने जानना चाहा कि क्या देवी – देवता स्वर्ग में अजर एवं अमर रहते हैं और निर्भय होकर विचरण करते हैं ! तब यमराज ने नचिकेता को अग्नि ज्ञान दिया , जिसे नचिकेताग्नि भी कहते हैं । तीसरे वरदान में नचिकेता ने पूछा कि ‘ हे यमराज , सुना है कि आत्मा अजर – अमर है । मृत्यु एवं जीवन का चक्र चलता रहता है । लेकिन आत्मा न कभी जन्म लेती है और न ही कभी मरती है । ‘ नचिकेता ने पूछा कि इस मृत्यु एवं जन्म का रहस्य क्या है ? क्या इस चक्र से बाहर आने का कोई उपाय है ? तब यमराज ने कहा कि यह प्रश्न मत पूछो , मैं तुम्हें अपार धन , संपदा , राज्य इत्यादि इस प्रश्न के बदले दे दूंगा । लेकिन नचिकेता अडिग रहे और तब यमराज ने नचिकेता को आत्मज्ञान दिया । नचिकेता द्वारा प्राप्त किया गया आत्मज्ञान आज भी प्रासंगिक और विश्व प्रसिद्ध है । सत्य हमेशा प्रासंगिक ही होता है । यमराज – नचिकेता संवाद का वर्णन संक्षिप्त में .... नचिकेता प्रश्न : किस तरह शरीर से होता है ब्रह्म का ज्ञान व दर्शन ? यमराज उत्तर : मनुष्य शरीर दो आंखं , दो कान , दो नाक के छिद्र , एक मुंह , ब्रह्मरन्ध्र , नाभि , गुदा और शिश्न के रूप में 11 दरवाजों वाले नगर की तरह है , जो ब्रह्म की नगरी ही है । वे मनुष्य के हृदय में रहते हैं । इस रहस्य को समझकर जो मनुष्य ध्यान और चिंतन करता है , उसे किसी प्रकार का दुख नहीं होता है । ऐसा ध्यान और चिंतन करने वाले लोग मृत्यु के बाद जन्म – मृत्यु के बंधन से भी मुक्त हो जाता है ।

नचिकेता प्रश्न : क्या आत्मा मरती या मारती है ? यमराज उत्तर : जो लोग आत्मा को मारने वाला या मरने वाला मानते हैं , वे असल में आत्मा को नहीं जानते और भटके हुए हैं । उनकी बातों को नजरअंदाज करना चाहिए , क्योंकि आत्मा न मरती है , न किसी को मार सकती है । नचिकेता प्रश्न : कैसे हृदय में माना जाता है परमात्मा का वास ?

2. पंचतंत्र की दो कहानियां 

Ans.बोलने वाली गुफा 

एक वक्त की बात है, किसी शहर में एक कंजूस ब्राह्मण रहता था। एक दिन उसे भिक्षा में जो सत्तू मिला, उसमें से थोड़ा खाकर बाकी का उसने एक मटके में भरकर रख दिया। फिर उसने उस मटके को खूंटी से टांग दिया और पास में ही खाट डालकर सो गया। सोते-सोते वो सपनों की अनोखी दुनिया में खो गया और विचित्र कल्पनाएं करने लगा।वो सोचने लगा कि जब शहर में अकाल पड़ेगा, तो सत्तू का दाम 100 रुपये हो जाएगा। मैं सत्तू बेचकर बकरियां खरीद लूंगा। बाद में इन बकरियों को बेचकर गाय खरीदूंगा। इसके बाद भैंस और घोड़े भी खरीद लूंगा।


कंजूस ब्राह्मण कल्पनाओं की विचित्र दुनिया में पूरी तरह खो चुका था। उसने सोचा कि घोड़ों को अच्छी कीमत पर बेचकर खूब सारा सोना खरीद लूंगा। फिर सोने को अच्छे दाम पर बेचकर बड़ा-सा घर बनाऊंगा। मेरी संपत्ति को देखकर कोई भी अपनी बेटी की शादी मुझसे करा देगा। शादी के बाद मेरा जो बच्चा होगा, मैं उसका नाम मंगल रखूंगा।



फिर जब मेरा बच्चा अपने पैरों पर चलने लगेगा, तो मैं दूर से ही उसे खेलते हुए देखकर आनंद लूंगा। जब बच्चा मुझे परेशान करने लगेगा, तो मैं गुस्से में पत्नी को बोलूंगा और कहूंगा कि तुम बच्चे को ठीक से संभाल भी नहीं सकती हो। अगर वह घर के काम में व्यस्त होगी और मेरी बात का पालन नहीं करेगी, तब मैं गुस्से में उठकर उसके पास जाऊंगा और उसे पैर से ठोकर मारूंगा। ये सारी बातें सोचते-सोचते ब्राह्मण का पैर ऊपर उठता है और सत्तू से भरे मटके में ठोकर मार देता है, जिससे उसका मटका टूट जाता है।


इस तरह सत्तू से भरे मटके के साथ ही कंजूस ब्राह्मण का सपना भी चकनाचूर हो जाता है।


कहानी से सीख

इस कहानी से हमें यह सीख मिलती है कि किसी भी काम को करते वक्त मन में लोभ नहीं आना चाहिए। लोभ का फल कभी भी मीठा नहीं होता है। साथ ही सिर्फ सपने देखने से सफलता नहीं मिलती, इसके लिए मेहनत करना भी जरूरी है।


2. बोलने वाली गुफा

बहुत पुरानी बात है, एक घने जंगल में बड़ा-सा शेर रहता था। उससे जंगल के सभी जानवर थर-थर कांपते थे। वह हर रोज जंगल के जानवरों का शिकार करता और अपना पेट भरता था।

एक दिन वह पूरा दिन जंगल में भटकता रहा, लेकिन उसे एक भी शिकार नहीं मिला। भटकते-भटकते शाम हो गई और भूख से उसकी हालत खराब हो चुकी थी। तभी उस शेर को एक गुफा दिखी। शेर ने सोचा कि क्यों न इस गुफा में बैठकर इसके मालिक का इंतजार किया जाए और जैसे ही वो आएगा, तो उसे मारकर वही अपनी भूख मिटा लेगा। यह सोचते ही शेर दौड़कर उस गुफा के अंदर जाकर बैठ गया।


वह गुफा एक सियार की थी, जो दोपहर में बाहर गया था। जब वह रात को अपनी गुफा में लौट रहा था, तो उसने गुफा के बाहर शेर के पंजों के निशान देखे। यह देखकर वह सतर्क हो गया। उसने जब ध्यान से निशानों को देखा, तो उसे समझ आया कि पंजे के निशान गुफा के अंदर जाने के हैं, लेकिन बाहर आने के नहीं हैं। अब उसे इस बात का विश्वास हो गया कि शेर गुफा के अंदर ही बैठा हुआ है।


फिर भी इस बात की पुष्टि करने के लिए सियार ने एक तरकीब निकाली। उसने गुफा के बाहर से ही आवाज लगाई, “अरी ओ गुफा! क्या बात है, आज तुमने मुझे आवाज नहीं लगाई। रोज तुम पुकारकर बुलाती हो, लेकिन आज बड़ी चुप हो। ऐसा क्या हुआ है?”


अंदर बैठे शेर ने सोचा, “हो सकता है यह गुफा रोज आवाज लगाकर इस सियार को बुलाती हो, लेकिन आज मेरे वजह से बोल नहीं रही है। कोई बात नहीं, आज मैं ही इसे पुकारता हूं।” यह सोचकर शेर ने जोर से आवाज लगाई, “आ जाओ मेरे प्रिय मित्र सियार। अंदर आ जाओ।”


इस आवाज को सुनते ही सियार को पता चल गया कि शेर अंदर ही बैठा है। वो तेजी से अपनी जान बचाकर वहां से भाग गया।

कहानी से सीख :


मुश्किल से मुश्किल परिस्थिति में भी बुद्धि से काम लिया जाए, तो उसका हल निकल सकता है।

Q 3. जातक की कथाएं 


जातक या जातक पालि या जातक कथाएं बौद्ध ग्रंथ त्रिपिटक का सुत्तपिटक अंतर्गत खुद्दकनिकाय का १०वां भाग है। इन कथाओं में भगवान बुद्ध के पूर्व जन्मों की कथायें हैं। जो मान्यता है कि खुद गौतमबुद्ध जी के द्वारा कहे गए है, हालांकि की कुछ विद्वानों का मानना है कि कुछ जातक कथाएँ, गौतमबुद्ध के निर्वाण के बाद उनके शिष्यों द्वारा कही गयी है। विश्व की प्राचीनतम लिखित कहानियाँ जातक कथाएँ हैं जिसमें लगभग 600 कहानियाँ संग्रह की गयी है। यह ईसवी संवत से 300 वर्ष पूर्व की घटना है। इन कथाओं में मनोरंजन के माध्यम से नीति और धर्म को समझाने का प्रयास किया गया है।






कथा – अकल बिना नकल 

एक देश में अकाल पड़ा। पानी की कमी से सारी फसलें मारी गईं। देशवासी अपने लिए एक वक्त की रोटी भी नहीं जुटा पाते थे। ऐसे समय कौवों को रोटी के टुकड़े मिलने बंद हो गए। वे जंगल की ओर उड़ चले।


उनमें से एक कौवा-कौवी ने पेड़ पर अपना बसेरा कर लिया। उस पेड़ के नीचे एक तालाब था जिसमें जलकौवा रहता था। वह सारे दिन पानी में खड़े रहकर कभी मछलियां पकड़ता, कभी पानी की सतह पर पंख फैलाकर लहरों के साथ नाचता नजर आता।


पेड़ पर बैठे कौए ने सोचा- मैं तो भूख से भटक रहा हूं और यह चार-चार मछलियां एकसाथ गटक कर आनंद में है। यदि इससे दोस्ती कर लूं तो मुझे मछलियां खाने को जरूर मिलेंगी।


वह उड़कर तालाब के किनारे गया और शहद-सी मीठी बोली में कहने लगा- मित्र, तुम तो बहुत चुस्त-दुरुस्त हो। एक ही झटके में मछली को अपनी चोंच में फंसा लेते हो, मुझे भी यह कला सिखा दो।


तुम सीखकर क्या करोगे? तुम्हें मछलियां ही तो खानी हैं। मैं तुम्हारे लिए पकड़ दिया करूंगा।


उस दिन के बाद से जलकौवा ढेर सारी मछलियां पकड़ता, कुछ खुद खाता और कुछ अपने मित्र के लिए किनारे पर रख देता। कौवा उन्हें चोंच में दबाकर पेड़ पर जा बैठता और कौवी के साथ स्वाद ले लेकर खाता।


कुछ दिनों के बाद उसने सोचा- मछली पकड़ने में है ही क्या! मैं भी पकड़ सकता हूं। जलकौवे की कृपा पर पलना ज्यादा ठीक नहीं।

ऐसा मन में ठानकर वह पानी में उतरने लगा।


अरे दोस्त! यह क्या कर रहे हो? तुम पानी में मत जाओ। तुम थल कौवा हो, जल कौवा नहीं। तुम जल में मछली पकड़ने के दांवपेंच नहीं जानते, मुसीबत में पड़ जाओगे।


यह तुम नहीं, तुम्हारा अभिमान बोल रहा है। मैं अभी मछली पकड़कर दिखाता हूं। कौवे ने अकड़ कर कहा।


कौवा छपाक से पानी में घुस गया, पर ऊपर न निकल सका। तालाब में काई जमी हुई थी। काई में छेद करने का उसे अनुभव न था। उस बेचारे ने उसमें छेद करने की को‍शिश भी की, ऊपर से थोड़ी-सी चोंच दिखाई दे रही थी, पर निकलने के लिए बड़ा-सा छेद होना था। नतीजतन उसका अंदर ही अंदर दम घुटने लगा और वह मर गया।


कौवी कौवे को ढूंढती हुई जलकौवे के पास आई और अपने पति के बारे में पूछने लगी।


बहन, कौवा मेरी नकल करता हुआ पानी में मछली पकड़ने उतर पड़ा और प्राणों से हाथ धो बैठा। उसने यह नहीं सोचा कि मैं जलवासी हूं और जमीन पर भी चल सकता हूं, पर वह केवल थलवासी है। मैंने उसे बहुत समझाया, पर उसने एक न सुनी।


कहानी की सीख : नकल के लिए भी तो अक्ल चाहिए।


थेरी की कथाएं 

Ans. 


आज जब स्त्री आंदोलनों का एक पूरा दौर बीत चुका है और अब उसकी पुनर्व्याख्या भी की जा रही है, मुख्यतया स्त्री अध्ययन की बुनियाद के रूप में भक्ति आंदोलन को रेखांकित किया जाता है। अंडाल, पद्मावती (रामानंद की शिष्या) और मीरा के क्रांतिकारी स्वर इस अध्ययन का बीज माने जाते हैं। यह ठीक है कि इनके योगदान को नकारा नहीं जा सकता, पर इन्हीं सबके बीच एक आवाज उन थेरियों की भी है, जिन्होंने धारा के विपरीत बहने का सफल प्रयत्न किया। अगर उस समय की सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और धार्मिक परिस्थितियों को ध्यान में रख कर इन थेरी गाथाओं का अध्ययन किया जाए तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि भारतीय संदर्भों में यही स्त्री मुक्ति की पहली आवाज थी।

थेरी गाथा बौद्ध साहित्य का प्रमुख अंग है। बौद्ध धर्म के त्रिपिटकों में सुत्तपिटक का अलग महत्त्व है। सुत्तपिटक का एक भाग खुद्दक निकाय है। इसी निकाय में थेरीगाथाएं संग्रहित हैं। बुद्ध द्वारा निर्मित संघ में जो स्त्री प्रव्रज्या प्राप्त कर लेती थी वह थेरी कहलाती थी। ऐसा माना जाता है कि बुद्ध की मौसी गौतमी अपने साथ लगभग पांच सौ स्त्रियों को लेकर प्रव्रजित हुई थीं। कुछ समय बाद इन भिक्षुणियों का अलग ही संघ बन गया। संघ की तिहत्तर थेरियों की लगभग पांच सौ गाथाओं को ही थेरीगाथा कहा गया। थेरीगाथा को खुद्दक निकाय के पंद्रह ग्रंथों में स्थान दिया गया है।


जैन साहित्य की दो कथा 

Ans. दहेज में मांगा जैन मंदिर


पिता के स्वर्गवासी हो जाने के कारण छोटी उजम बहन की शादी के अवसर पर होने वाली विधि की जवाबदारी बड़े भाई के ऊपर आई थी। बहन को पिता की गैरहाजरी बिल्कुल लगे नहीं, इस हेतु से भाई ने उसकी शादी का कार्य बड़े ठाठ-बाट से किया। बहिन की विदाई बेला में भाई ने बहन का 9 गाड़ी भरकर विविध सोने-चांदी के आभूषण वस्त्र आदि सभी वस्तुएँ दहेज में दी।


भाई ने वे 9 गाड़ियाँ बहन को बताई और पूछा कि इससे तुझे संतोष है ना? तुझे पिताजी की कमी न लगे इसका मैंने बराबर ध्यान रखा है। अतः बोल, कुछ कमी तो नहीं है? परन्तु बहन तो उदास ही रही। उसके मुंह के ऊपर उदासी थी, यह देखकर भाई ने पुनः पूछा- बहिन और भी कुछ बढ़ाने जैसा लगता हो तो बोल।


यह सुनकर बहिन को विचार आया कि भाई को मेरे संबंध में गलत-फहमी हो रही है, अतः उसे दूर करना चाहिए। अतः बहिन ने कहा भाई-इन 9 गाड़ियों में तूने ऐसी सामग्री भरी है कि जिनको भोगने से संसार बढ़े। हम तो वीतरागी परमात्मा के अनुयायी हैं, भोग सामाग्री से अपने संसार-दुख का निर्माण होता है। मुझे तो इसमें से कुछ नहीं चाहिए। हां भाई! यदि तुम मेरी प्रसन्नता की इच्छा रखते हो तो एक ही कार्य करो। विराट जिनालय का निर्माण करो। यही है मेरी दहेज, इसी में है मेरी प्रसन्नता। यह सुनकर भाई ने दसवीं गाड़ी मंगवाई, वह खाली थी। उसमें एक चिट्ठी रखी और ऊजम बहिन का जैन मन्दिर बनाकर तैयार कराया।

समान स्वभाव में मित्रता


महाराष्ट्र के महान् सन्त गुरु रामदास के अपने आश्रम में एक दिन कुछ बच्चे आ गए। बच्चे उनके साथ खेल रहे थे और वे बच्चों के साथ; सब चहक रहे थे। इतने में एक विद्वान आ पहुँचे। विद्वानों के दिमाग में शास्त्र भरे रहते हैं। उनके हृदय में शास्त्र नहीं रहते। वे शास्त्रों का बोझ सिर्फ दिमाग पर ढोते रहते हैं। वह आया था सन्त रामदास से शास्त्रों पर बात करने, पर देखता है कि इतना बड़ा विद्वान् सन्त बच्चों के साथ खेल रहा है। वह आश्चर्यान्वित मुद्रा में देखता रहा।


सन्त ने कहा- “पण्डित जी, क्या देख रहे हैं, खेल रहा हूँ।”

आगत विद्वान ने कहा- “जी, ठीक है पर, बच्चों के साथ ?”

“बच्चों के साथ नहीं तो क्या बूढ़ों के साथ खेला जाता है? खेल का आनन्द तो बच्चों के साथ ही आता है। निश्छल-निर्मल जैसा मैं, वैसे ही ये। मैं साधना के द्वारा निश्छल-निर्मल बना हूँ और ये सहज प्रकृति से निश्छल हैं। यदि इनके साथ न खेलूं तो बताइए किसके साथ खेलूं ?” सन्त रामदास ने हँसते हुए, विद्वान को खेल का मर्म समझाया।


 Answer –

6.

गुलिस्ता बोस्ता से कथाएं निम्न हैं :-

( 1 ) उत्तम उपासना

( 2 ) सुखद समाचार

( 3 ) दो फ़क़ीर

( 4 ) निंदा शेख सादी

शेख सादी

12 वीं सदी के सुप्रसिद्ध साहित्यकार के साथ – ही – साथ महान संत और विचारक थे । उनकी कहानियां मूल पर्शियन भाषा में कही गई है । शेख शादी की शिक्षाप्रद कहानियां सदियों से सारे जगत के लिए प्रेरणास्रोत भी बनी हुई है । शेख शादी का पूरा नाम शेख मुसलिदुद्दीन सादी था । ईरान के दक्षिणी प्रांत में स्थित शीराज नगर में इनका जन्म हुआ था | इनकी प्रारंभिक शिक्षा शिराज में ही हुई । उसके बाद उच्च शिक्षा के लिए उसने बगदाद के निजामिया कॉलेज में प्रवेश लिया । पढ़ाई समाप्ति के बाद उन्होंने इस्लामी दुनिया के कई भागों में लंबी

 यात्राएं की । जिसमें सीरिया , तुर्की , इत्यादि । उन्होंने भारत की भी यात्रा की जहां उसने सोमनाथ का प्रसिद्ध मंदिर देखने का जिक्र किया है । ( सोमनाथ मंदिर , गुजरात में स्थित है । सरदार बल्लभ भाई पटेल के द्वारा पुनः निर्मित । प्रथम ज्योतिर्लिंग ) सीरिया में एक बार उन्हें जेल भी जाना पड़ा । जहां से उसके एक पुराने दोस्त ने 10 सोने के दीनार ( सिक्के ) देकर वहां से मुक्त किया । और 100 दीनार दहेज में देकर अपनी लड़की का विवाह भी सादी से कर दिया । वह लड़की बड़ी ही दुष्ट स्वभाव की थी । वह अपने पिता द्वारा धन दे कर छुड़ाए जाने की चर्चा कर अक्सर सादी का मजाक उड़ाया करती थी । ऐसे ही एक अवसर पर सादी ने उसके व्यग्य का उत्तर देते जवाब दिया- हां तुम्हारे पिता ने 10 दीनार देकर मुझे आजाद तो करवाया था लेकिन फिर 100 दिनार के बदले उसने मुझे पुनः दास्तां / गुलामी ( slavery ) के बंधन में बांध दिया ।

कई वर्षों की लंबी यात्रा के बाद सादी शिराज लौट आया और अपनी प्रसिद्ध पुस्तक गुलिस्ता – बोस्ता के लिखने का कार्य आरंभ किया । इसमें उसने विभिन्न देशों से प्राप्त अनोखे तथा मूल्यवान अनुभवो का वर्णन किया है । फारस के अन्य कवियों की तरह सादी सूफी नहीं थे । वे व्यवहारिक व्यक्ति थे । जिनमें प्रचुर मात्रा में सांसारिक बुद्धि एवं विलक्षण प्रतिभा विधमान ( Present ) थी ।

निंदा

शेख सादी बाल्यावस्था में अपने पिता के साथ मक्का जा रहे थे । सारी – सारी रात वो कुरान पढ़ते रहे । कई आदमी उनके पास खर्राटे ले रहे थे । सादी ने अपने पिता से कहा , इन सोने वालों को देखिये , कितने आलसी हैं । नमाज पढ़ना तो दूर रहा कोई सुबह उठता तक नहीं । उनके पिता ने उत्तर दिया बेटा तू भी सोया रहता तो अच्छा था , किसी की निंदा करने से तो बचा रहता ।

कवि को देखकर कुत्ते भौकने लगे , कुत्तों को मार भगाने के लिए कवि ने पास ही का पत्थर उठाना चाहा । परंतु वह जमीन में धंसा हुआ था । कवि गुस्से में चिल्लाया : कैसे कमीने हैं !!! लोग यहां के यहां के , कुत्तों को तो खुला छोड़ देते हैं और पत्थरों को जमीन में गाड़ कर रखते हैं । कवि गुस्से से कांप रहा था । डाकुओं के सरदार ने कवि कि गुस्से भरी यह बातें सुनी तो हंसकर कवि को वापस बुलाया और कहा- तुम तो बड़े बुद्धिमान मालूम होते हो । चलो तुम्हारी इच्छा पूरी की जाएगी । जो चाहते हो मांगो ?? कवि बोला- बस मेरे कपड़े वापस कर दीजिए । और मुझे जाने दीजिए । सरदार बोला- बस , अरे भाई कुछ और मांगो । कवि बोला- कामना किसी भले मानस से ही की जाती है आप डाकू हैं । इंसानियत के दुश्मन हैं । लुटेरे हैं । भय और गुस्से से कवि की आवाज कांप रही थी । सरदार उठाकर हंसा और बोला- कवि महोदय , यह जो तुमने अभी कहा ना । यही तुम्हारी सच्ची कविता है । सच्ची कविता वही है , जिसमें सच्ची बातें कही जाएँ ।

दो फकीर

दो फकीर थे । उनकी आपस में गहरी दोस्ती थी । पर दोनों की शक्ल – सूरत और खान – पान में बड़ा अन्तर था । एक मोटा – मुस्टंड़ा था और दिन में कई – कई बार खाने पर हाथ साफ करता था । पर दूसरा कई – कई दिन उपवास करता था , इसलिए वह दुबला – पतला हो गया था । एक बार राजा के लोगों को इन फकीरों पर शक हुआ- ये तो हमारे किसी वैरी बादशाह के जासूस हैं । बस , फिर क्या था ? दोनों को पकड़ लिया गया और जेल की काल – कोठरी में डाल दिया गया । कई दिनों बाद जेल के दरवाजे खुले । जेल के अधिकारियों ने देखा – दोनों कैदी धरती पर लुढ़के पड़े थे । उन्होंने पास जाकर देखा कि मोटा – तगड़ा कैदी तो दम तोड़ चुका था , पर दूसरा दुबला – पतला कैदी आँखें मूंदें पड़ा था । और कदमों की आहट पाकर उठ बैठा था । लोगों की हैरानी का ठिकाना ना था । सबको हैरान देखकर एक समझदार आदमी ने कहा- “ ठीक तो है । मोटा – तगड़ा फकीर देखने में ही तगड़ा था । असल में उसमें सहने की ताकत दूसरे से कम थी । वह दिन में कई बार खाता था । पर जब उसको कई दिन तक खाने को कुछ न मिला तो वह कैसे जिंदा रहता ? हाँ , यह जो बचा है , इसने कई बार फाके किये होंगे । इसने भूख को रोक सकने की आदत डाल रखी थी जो इस कठिनाई में काम आई । “ अपनी भूख और लालसाओं को वश में करने से सचमुच ताकत बहुत बढ़ जाती है ।

7. आज की विचित्र शिक्षा-पद्धति के कारण जीवन के दो टुकड़े हो जाते हैं। पन्द्रह से बीस वर्ष तक आदमी जीने के झंझट में न पड़कर सिर्फ शिक्षा प्राप्त करे और बाद में, शिक्षण को बस्ते में लपेटकर रख, मरने तक जिये। भगवान ने अर्जुन से कुरुक्षेत्र में ही भगवद्गीता कही। पहले भगवद्गीता का ‘क्लास’ लेकर फिर अर्जुन को कुरुक्षेत्र में नहीं ढकेला। तभी उसे वह गीता पची। हम जिसे जीवन की तैयारी का ज्ञान कहते हैं, उसे जीवन से बिल्कुल अलिप्त रखना चाहते हैं, इसलिए उक्त ज्ञान में मौत की ही तैयारी होती है।

आज की विचित्र शिक्षा-पद्धति के कारण जीवन के दो टुकड़े हो जाते हैं। पन्द्रह से बीस वर्ष तक आदमी जीने के झंझट में न पड़कर सिर्फ शिक्षा प्राप्त करे और बाद में, शिक्षण को बस्ते में लपेटकर रख, मरने तक जिये।

यह रीति प्रकृति की योजना के विरुद्ध है। हाथ-भर लम्बाई का बालक साढ़े तीन हाथ कैसे हो जाता है, यह उसके अथवा औरों के ध्यान में भी नहीं आता। शरीर की वृद्धि रोज होती रहती है। यह वृद्धि सावकाश क्रम-क्रम से, थोड़ी-थोड़ी होती है। इसलिए उसके होने का भास तक नहीं होता। यह नहीं होता कि आज रात को सोये, तब दो फुट ऊँचाई थी और सबेरे उठकर देखा तो ढाई फुट हो गयी। आज की शिक्षण-पद्धति का तो यह ढंग है कि अमुक वर्ष के बिल्कुल आखिरी दिन तक मनुष्य, जीवन के विषय में पूर्ण रूप से गैर-जिम्मेदार रहे तो भी कोई हर्ज नहीं! यही नहीं, उसे गैर-जिम्मेदार रहना चाहिए और आगामी वर्ष का पहला दिन निकले कि सारी जिम्मेदारी उठा लेने को तैयार हो जाना चाहिए। सम्पूर्ण गैर-जिम्मेदारी से सम्पूर्ण जिम्मेदारी में कूदना तो एक हनुमान कूद ही हुई। ऐसी हनुमान कूद की कोशिश में हाथ-पैर टूट जाये, तो क्या अचरज!

भगवान ने अर्जुन से कुरुक्षेत्र में ही भगवद्गीता कही। पहले भगवद्गीता का ‘क्लास’ लेकर फिर अर्जुन को कुरुक्षेत्र में नहीं ढकेला। तभी उसे वह गीता पची। हम जिसे जीवन की तैयारी का ज्ञान कहते हैं, उसे जीवन से बिल्कुल अलिप्त रखना चाहते हैं, इसलिए उक्त ज्ञान में मौत की ही तैयारी होती है।

बीस वर्ष का उत्साही युवक अध्ययन में मग्न है। तरह-तरह के ऊँचे विचारों के महल बना रहा है। ‘मैं शिवाजी महाराज की तरह मातृभूमि की सेवा करूँगा। मैं वाल्मीकि-सा कवि बनूँगा। मैं न्यूटन की तरह खोज करूँगा।‘ एक, दो, चार-जाने क्या क्या कल्पना करता है। ऐसी कल्पना करने का भाग्य भी थोड़े को ही मिलता है। पर जिनको मिलता है, उनकी ही बात लेते हैं। इन कल्पनाओं का क्या नतीजा निकलता है ? जब नोन-तेल-लकड़ी के फेर में पड़ा, जब पेट का प्रश्न सामने आया, तब बेचारा दीन बन जाता है। जीवन की जिम्मेदारी क्या चीज है, आजतक इसकी बिल्कुल ही कल्पना नहीं थी और अब तो पहाड़ सामने खड़ा हो गया।

मैट्रिक पास एक विद्यार्थी से पूछा – ‘क्यों जी, तुम आगे क्या करोगे ?’

‘आगे क्या ? कालेज में जाऊँगा।‘

‘ठीक है। कालेज में तो जाओगे। लेकिन उसके बाद ? यह सवाल तो बना ही रहता है।‘

‘सवाल तो बना रहता है। पर अभी से उसका विचार क्यों किया जाय, आगे देखा जायेगा।‘

फिर तीन साल बाद विद्यार्थी से वही सवाल पूछा।

‘अभी तक कोई विचार नहीं हुआ।‘

‘विचार नहीं हुआ, यानी ? लेकिन, विचार किया था, क्या ?’

‘नहीं साहब विचार किया ही नहीं। क्या विचार करें ? कुछ सूझता ही नहीं। पर अभी डेढ़ बरस बाकी है। आगे देखा जायेगा।‘

‘आगे देखा जायेगा।‘ – ये वही शब्द है, जो तीन वर्ष पहले कहे गये थे। पर पहले की आवाज में बेफिक्री थी। आज की आवाज में थोड़ी चिन्ता की झलक थी।

फिर डेढ़ वर्ष बाद प्रश्नकर्ता ने उसी विद्यार्थी से – अथवा कहो, अब ‘गृहस्थ’ से – वही प्रश्न पूछा। इस बार चेहरा चिन्ताक्रान्त था। आवाज की बेफिक्री गायब थी। ततः किं ? यह शंकराचार्यजी का पूछा हुआ सनातन सवाल अब दिमाग में कसकर चक्कर लगाने लगा था। पर उसका जबाब नहीं था।

8.

डॉ दौलत सिंह कोठारी (1906–1993) भारत के प्रसिद्ध वैज्ञानिक थे। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की विज्ञान नीति में जो लोग शामिल थे उनमें डॉ॰ कोठारी, होमी भाभा, डॉ॰ मेघनाथ साहा और सी.वी. रमन थे। डॉ॰ कोठारी रक्षा मंत्री के वैज्ञानिक सलाहकार रहे। 1961 में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष नियुक्त हुए जहां वे दस वर्ष तक रहे। 1964 में उन्हें राष्ट्रीय शिक्षा आयोग का अध्यक्ष बनाया गया।

जीवन मूल्य शिक्षा का महत्त्व :

हमारे जीवन में जीवन मूल्य शिक्षा का बहुत महत्व है ।

मूल्य शिक्षा के माध्यम से हम व्यक्ति समाज में सकारात्मक मूल्यों के क्षमताओं और अन्य प्रकार के व्यवहार को विकसित करता है जिसमें वह रहता है ‘ । मूल्य शिक्षा का अर्थ है , दैनिक जीवन में कौशल , व्यक्तित्व के सभी दौरों को समझना । इसके माध्यम से छात्र जिम्मेदारी , अच्छी या बुरी दिशा में जीवन का महत्व , लोकतांत्रिक तरीके से जीवन यापन , संस्कृति की समझ , महत्वपूर्ण सोच आदि को समझ सकते हैं । मूल्य शिक्षा का मुख्य उद्देश्य अधिक नैतिक और लोकतांत्रिक समाज बनाना है ।

मूल्य शिक्षा के कुछ सिद्धांत इस प्रकार हैं : - •सहानुभूति

•समानता

•सभी का सम्मान . .

•स्वास्थ्य की देखभाल करें .

•गहन सोच

मूल्य शिक्षा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से छात्र को मदद करती है । यह उन्हें विकल्प बनाने में भी सक्षम करेगा जो उनकी व्यक्तिगत वृद्धि में मदद करता ।

9.

महादेवी वर्मा का जन्म होली के दिन 26 मार्च, 1907 को फ़र्रुख़ाबाद, उत्तर प्रदेश में हुआ था। महादेवी वर्मा के पिता श्री गोविन्द प्रसाद वर्मा एक वकील थे और माता श्रीमती हेमरानी देवी थीं। महादेवी वर्मा के माता-पिता दोनों ही शिक्षा के अनन्य प्रेमी थे।[2] महादेवी वर्मा को ‘आधुनिक काल की मीराबाई’ कहा जाता है। महादेवी जी छायावाद रहस्यवाद के प्रमुख कवियों में से एक हैं। हिन्दुस्तानी स्त्री की उदारता, करुणा, सात्विकता, आधुनिक बौद्धिकता, गंभीरता और सरलता महादेवी वर्मा के व्यक्तित्व में समाविष्ट थी। उनके व्यक्तित्व और कृतित्व की विलक्षणता से अभिभूत रचनाकारों ने उन्हें ‘साहित्य साम्राज्ञी’, ‘हिन्दी के विशाल मंदिर की वीणापाणि’, ‘शारदा की प्रतिमा’ आदि विशेषणों से अभिहित करके उनकी असाधारणता को लक्षित किया। महादेवी जी ने एक निश्चित दायित्व के साथ भाषा, साहित्य, समाज, शिक्षा और संस्कृति को संस्कारित किया। कविता में रहस्यवाद, छायावाद की भूमि ग्रहण करने के बावज़ूद सामयिक समस्याओं के निवारण में महादेवी वर्मा ने सक्रिय भागीदारी निभाई।

वैदिक कालीन शिक्षा का अर्थ अत्यधिक व्यापक था। वह शिक्षा जीवन से संबंधित थी और व्यक्ति को सभ्य तथा उन्नत बनाने में सहायक मानी जाती थी। विद्या के अभाव में व्यक्ति केवल पशु मात्र ही रह जाता है।

शिक्षा के उद्देश्य और आदर्श महान थे।

धार्मिकता के अतिरिक्त चरित्र का निर्माण , व्यक्ति का सर्वांगीण विकास नागरिक और सामाजिक कर्तव्यों पर बल सामाजिक सुख और कौशल की उन्नति तथा राष्ट्रीय संस्कृति का संरक्षण और प्रसार।

समय के साथ-साथ शिक्षा के उद्देश्यों में भी परिवर्तन होता रहा वैदिक काल में जहां शिक्षा अध्यात्म , संगीत, वेद उपनिषद, राजनीति, रणकौशल, आदि पर आधारित हुआ करती थी।

मध्यकाल में शिक्षा का उद्देश्य धर्म के प्रचार – प्रसार के लिए हो गया।

आधुनिक काल में शिक्षा का उद्देश्य पुनः बालक के सर्वांगीण विकास पर आधारित हो गया।

इस शिक्षा में बालक के मस्तिष्क के विकास की ही नहीं अपितु उसके शारीरिक विकास पर भी ध्यान दिया जाता है। आधुनिक पाठ्यक्रम में बालक के हर एक रूचि को ध्यान में रखा जाता है अथवा उसके सर्वांगीण विकास पर विशेष बल दिया जाता है।

शिक्षा का उद्देश्य – वैदिक कालीन मध्यकालीन आधुनिक शिक्षा

पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा में एक स्थल पर स्पष्ट रूप से इस तथ्य का उल्लेख किया है कि

” भारतीय संस्कृति का उद्देश्य ज्ञान की खोज है इसी दृष्टि से यही प्राचीन भारतीयों ने शिक्षा प्रणाली का विकास किया था। भारतीयों के लिए ज्ञान शब्द का कोई सीमित अर्थ नहीं था। शिक्षा के द्वारा वे केवल सांसारिक ज्ञान की ही नहीं अपितु परलोक संबंधी ज्ञान को भी प्राप्त करने का प्रयत्न करते थे। ”

10.

रागदरबारी विख्यात हिन्दी साहित्यकार श्रीलाल शुक्ल की प्रसिद्ध व्यंग्य रचना है जिसके लिये उन्हें सन् 1969 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। यह ऐसा उपन्यास है जो गाँव की कथा के माध्यम से आधुनिक भारतीय जीवन की मूल्यहीनता को सहजता और निर्ममता से अनावृत करता है। शुरू से अन्त तक इतने निस्संग और सोद्देश्य व्यंग्य के साथ लिखा गया हिंदी का शायद यह पहला वृहत् उपन्यास है।‘राग दरबारी’ का लेखन 1964 के अन्त में शुरू हुआ और अपने अन्तिम रूप में 1967 में समाप्त हुआ। 1968 में इसका प्रकाशन हुआ और 1969 में इस पर श्रीलाल शुक्ल को साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला। 1986 में एक दूरदर्शन-धारावाहिक के रूप में इसे लाखों दर्शकों की सराहना प्राप्त हुई।

श्रीलाल शुक्ल का व्यक्तित्व अपनी मिसाल आप था। सहज लेकिन सतर्क, विनोदी लेकिन विद्वान, अनुशासनप्रिय लेकिन अराजक।समकालीन कथा-साहित्य में उद्देश्यपूर्ण व्यंग्य लेखन के लिये विख्यात शुक्ल जी को ‘राग दरबारी’ के लिये साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। यह ऐसा उपन्यास है जो गाँव की कथा के माध्यम से आधुनिक भारतीय जीवन की मूल्यहीनता को सहजता और निर्ममता से अनावृत करता है। शुरू से अन्त तक इतने निस्संग और सोद्देश्य व्यंग्य के साथ लिखा गया हिंदी का शायद यह पहला वृहत् उपन्यास है।उनके इस उपन्यास पर एक दूरदर्शन-धारावाहिक का निर्माण भी हुआ। आइये पढ़ते हैं श्रीलाल शुक्ल के कालजयी उपन्यास ‘राग दरबारी’ से एक अंश

उपन्यास ‘राग दरबारी’ : जाना रंगनाथ का शिवपालगंज

शहर का किनारा। उसे छोड़ते ही भारतीय देहात का महासागर शुरू हो जाता था। वहीं एक ट्रक खड़ा था। उसे देखते ही यकीन हो जाता था, इसका जन्म केवल सड़कों के साथ बलात्कार करने के लिए हुआ है। जैसे कि सत्य के होते हैं, इस ट्रक के भी कई पहलू थे। पुलिसवाले उसे एक ओर से देखकर कह सकते थे कि वह सड़क के बीच में खड़ा है, दूसरी ओर से देखकर ड्राइवर कह सकता था कि वह सड़क के किनारे पर है। चालू फैशन के हिसाब से ड्राइवर ने ट्रक का दाहिना दरवाज़ा खोलकर डैने की तरह फैला दिया था। इससे ट्रक की खूबसूरती बढ़ गई थी, साथ ही यह खतरा मिट गया था कि उसके वहाँ होते हुए कोई दूसरी सवारी भी सड़क के ऊपर से निकल सकती है।

सड़क के एक ओर पेट्रोल-स्टेशन था; दूसरी ओर छप्परों, लकड़ी और टीन के सड़े टुकड़े और स्थानीय क्षमता के अनुसार निकलनेवाले कबाड़ की मदद से खड़ी की हुई दुकाने थीं। पहली निगाह में ही मालूम हो जाता था कि दुकानों की गिनती नहीं हो सकती। प्रायः सभी में जनता का एक मनपसन्द पेय मिलता था जिसे वहाँ गर्द, चीकट, चाय की कई बार इस्तेमाल की हुई पत्ती और खौलते पानी आदि के सहारे बनाया जाता था। उनमें मिठाइयाँ भी थीं जो दिन-रात आँधी-पानी और मक्खी-मच्छरों के हमलों का बहादुरी से मुकाबला करती थीं। वे हमारे देसी कारीगरों के हस्त कौशल और उनकी वैज्ञानिक दक्षता का सबूत देती थीं। वे बताती थीं कि हमें एक अच्छा रेजर-ब्लेड बनाने का नुस्खा भले ही न मालूम हो, पर कूड़े को स्वादिष्ट खाद्य पदार्थों में बदल देने की तरकीब सारी दुनिया में अकेले हमीं को आती है।ट्रक के ड्राइवर और क्लीनर एक दुकान के सामने खड़े चाय पी रहे थे।

रंगनाथ ने दूर से इस ट्रक को देखा और देखते ही उसके पैर तेज़ी से चलने लगे। आज रेलवे ने उसे धोखा दिया था। स्थानीय पैसेंजर्स ट्रेन को रोज की तरह दो घण्टा लेट समझकर वह घर से चला था, पर वह सिर्फ डेढ़ घण्टा लेट होकर चल दी थी। शिकायती किताब के कथा-साहित्य में अपना योगदान देकर और रेलवे अधिकारियों की निगाह में हास्यास्पद बनकर वह स्टेशन से बाहर निकल आया था। रास्ते में चलते हुए उसने ट्रक देखा और उसकी बाछें-वे जिस्म में जहाँ कहीं भी होतीं हों;खिल गईं।

जब वह ट्रक के पास पहुँचा, क्लीनर और ड्राइवर चाय की आखिरी चुस्कियाँ ले रहे थे। इधर-उधर ताकककर, अपनी खिली हुई बाछों को छिपाते हुए, उसने ड्राइवर से निर्विकार ढंग से पूछा;क्यों ड्राइवर साहब, यह ट्रक क्या शिवपालगंज की ओर जाएगा ?

ड्राइवर के पीने को चाय थी और देखने की दुकानदारिन थी। उसने लापरवाही से जवाब दिया, “जायगा”।

हमें भी ले चलिएगा अपने साथ ? पन्द्रहवें मील पर उतर पड़ेंगे। शिवपालगंज तक जाना है।

ड्राइवर ने दुकानदारिन की सारी संभावनाएँ एक साथ देख डालीं और अपनी निगाह रंगनाथ की ओर घुमायी। अहा ! क्या हुलिया था ! नवकंजलोचन कंजमुख करकंज पदकंजारुणम् ! पैर खद्दर के पैजामे में, सिर खद्दर की टोपी में, बदन खद्दर के कुर्ते में। कन्धें से लटकता हुआ भूदानी झोला। हाथ में चमड़े की अटैची। ड्राइवर ने उसे देखा और देखता ही रह गया। फिर कुछ सोचकर बोला,बैठ जाइए शिरिमानजी, अभी चलते हैं।

घरघराकर ट्रक चला। शहर की टेढ़ी-मेढ़ी लपेट से फुरसत पाकर कुछ दूर आगे साफ़ और वीरान सड़क आ गई। यहाँ ड्राइवर ने पहली बार टॉप गियर का प्रयोग किया पर वह फिसल-फिसल कर न्यूटल में गिरने लगा। हर सौ गज़ के बाद गियर फिसल जाता और एक्सिलेटर दबे होने से ट्रक की घरघराहट बढ़ जाती, रफ्तार धीमी हो जाती रंगनाथ ने कहा,ड्राइवर साहब, तुम्हारा गियर तो बिलकुल अपने देश की हुकूमत जैसा है।

ड्राइवर ने मुस्करा कर वह प्रशंसा-पत्र ग्रहण किया। रंगनाथ ने अपनी बात साफ़ करने की कोशिश की। कहा,उसे चाहे जितनी बार टॉप गियर में डालो, दो गज़ चलते ही फिसल जाती है और लौटकर अपने खाँचे में आ जाती है।

ड्राइवर हँसा। बोला, “ऊँची बात कह दी शिरिमानजी ने”। इस बार उसने गियर को टॉप में डालकर अपनी टाँग लगभग नब्बे अंश के कोण पर उठायी और गियर को जाँघ के नीचे दबा लिया। रंगनाथ ने कहना चाहा कि हुकूमत को चलाने का भी यही नुस्खा है, पर यह सोचकर कि बात ज़रा और ऊँची हो जाएगी, वह चुप बैठा रहा।

उधर ड्राइवर ने अपनी जाँघ गियर से हटाकर यथास्थान वापस पहुँचा दी थी। गियर पर उसने एक लम्बी लकड़ी लगा दी और उसका एक सिरा पेनल के नीचे ठोंक दिया। ट्रक ते़ज़ी से चलता रहा। उसे देखते ही साइकिल-सावर, पैदल, इक्के-सभी सवारियाँ कई फर्लांग पहले ही से खौफ के मारे सड़क से उतरकर नीचे चली जातीं। जिस तेज़ी से वे भाग रही थीं, उससे लगता था कि उनकी निगाह में वह ट्रक नहीं है; वह आग की लहर है, बंगाल की खाड़ी से उठा हुआ तूफान है, जनता पर छोड़ा हुआ कोई बदकलाम अहलकार है, पिंडारियों का गिरोह है। रंगनाथ ने सोचा, उसे पहले ही ऐलान करा देना था कि अपने-अपने जानवर और बच्चे घरों में बन्द कर लो, शहर से अभी-अभी एक ट्रक छूटा है।

तब तक ड्राइव ने पूछा, “कहिए शिरिमानजी ! क्या हालचाल हैं ? बहुत दिन बाद देहात की ओर जा रहे हैं “!

रंगनाथ ने शिष्टाचार की इस कोशिश को मुस्कराकर बढ़ावा दिया। ड्राइवर ने कहा, “शिरिमानजी, आजकल क्या कर रहे हैं”?

घास खोद रहा हूँ। ड्राइवर हँसा। दुर्घटनावश एक दस साल का नंग-धड़ंग लड़का ट्रक से बिलकुल ही बच गया। बचकर वह एक पुलिया के सहारे छिपकली-सा गिर पड़ा। ड्राइवर इससे प्रभावित नहीं हुआ। एक्सिलेटर दबाकर हँसते-हँसते बोला, “क्या बात कही है ! ज़रा खुलासा समझाइए”।

“कहा तो, घास खोद रहा हूँ। इसी को अंग्रेजी में रिसर्च कहते हैं”।

“परसाल एम.ए. किया था। इस साल से रिसर्च शुरू की है”; ड्राइवर जैसे अलिफ-लैला की कहानियाँ सुन रहा हो, मुस्कराता हुआ बोला, “और शिरिमानजी, शिवपालगंज क्या करने जा रहे हैं”

“वहाँ मेरे मामा रहते हैं। बीमार पड़ गया था। कुछ दिन देहात में जाकर तन्दुरस्ती बनाऊँगा”।

इस बार ड्राइवर काफ़ी देर तक हँसता रहा। बोला, “क्या बात बनायी है शिरिमानजी ने”!

रंगनाथ ने उसकी ओर सन्देह से देखते हुए पूछा, “जी ! इसमें बात बनाने की क्या बात”?

वह इस मासूमियत पर लोट-पोट हो गया। पहले ही की तरह हँसते हुए बोला, “क्या कहने हैं ! अच्छा जी, छोड़िए बात को। बताइए, मित्तल साहब के क्या हाल हैं ? क्या हुआ उस हवालाती के खूनवाले मामले का”?

रंगनाथ का खून सूख गया। भर्राए गले से बोला, “अजी, मैं क्या जानूँ वह मित्तल कौन है”?

ड्राइवर की हँसी में ब्रेक लग गया। ट्रक की रफ्तार भी कुछ कम पड़ गई। उसने रंगनाथ को एक बार गौर से देखकर पूछा, “आप मित्तल साहब को नहीं जानते”?

“नहीं”।

“जैन साहब को”?

“नहीं”।

ड्राइवर ने खिड़की के बाहर थूक दिया और साफ़ आवाज़ में सवाल किया, “आप सी.आई.डी. में काम नहीं करते”? रंगनाथ ने झुँझलाकर कहा, “सी.आई.डी. ? यह किस चिड़िया का नाम है “?

ड्राइवर से जोर की सांस छोड़ी और सामने सड़क की दशा का निरीक्षण करने लगा।

जब कहीं और जहां भी कहीं मौका मिले, वहां टांगे फैला देनी चाहिये, इस लोकप्रिय सिद्धांत के अनुसार गाड़ीवान बैलगाड़ियों पर लेटे हुये थे और मुंह ढांपकर सो रहे थे।

कूछ बैलगाड़ियां जा रही थीं। जब कहीं और जहां भी कहीं मौका मिले, वहां टांगे फैला देनी चाहिये, इस लोकप्रिय सिद्धांत के अनुसार गाड़ीवान बैलगाड़ियों पर लेटे हुये थे और मुंह ढांपकर सो रहे थे। बैल अपनी काबिलियत से नहीं, बल्कि अभ्यास के सहारे चुपचाप सड़क पर गाड़ी घसीटे लिये जा रहे थे। यह भी जनता और जनार्दन वाला मजनून था, पर रंगनाथ की हिम्मत कुछ कहने की नहीं हुयी। वह सी.आई.डी. वाली बात से उखड़ गया था। ड्राइवर ने पहले रबड़वाला हार्न बजाया, फिर एक ऐसा हार्न बजाया जो संगीत के आरोह-अवरोह के बावजूद बहुत डरावना था, पर गाड़ियां अपनी राह चलती रहीं। ड्राइवर काफ़ी रफ्तार से ट्रक चला रहा था, और बैलगाड़ियों के ऊपर से निकाल ले जाने वाला था; पर गाड़ियों के पास पहुंचते-पहुंचते उसे शायद अचानक मालूम हो गया कि वह ट्रक चला रहा है, हेलीकाप्टर नहीं। उसने एकदम से ब्रेक लगाया, पेनल से लगी हुई लकड़ी नीचे गिरा दी, गियर बदला और बैलगाड़ियों को लगभग छूता हुआ उनसे आगे निकल गया। आगे जाकर उसने घृणापूर्वक रंगनाथ से कहा,”सी.आई.डी. में नहीं हो तो तुमने यह खद्दर क्यों डांट रखी है जी?”

रंगनाथ इन हमलों से लड़खड़ा गया था। पर उसने इस बात को मामूली जांच-पड़ताल का सवाल मानकर सरलता से जवाब दिया,”खद्दर तो आजकल सभी पहनते हैं।”

“अजी कोई तुक का आदमी तो पहनता नहीं।” कहकर उसने दुबारा खिड़की के बाहर थूका और गियर को टाप में डाल दिया।

रंगनाथ का पर्सनालिटी कल्ट समाप्त हो गया। थोड़ी देर वह चुपचाप बैठा रहा। बाद में मुंह से सीटी बजाने लगा। ड्राइवर ने उसे कुहनी से हिलाकर कहा,”देखो जी, चुपचाप बैठो, यह कीर्तन की जगह नहीं है।”

रंगनाथ चुप हो गया। तभी ड्राइवर ने झुंझलाकर कहा,”यह गियर बार-बार फिसलकर न्यूट्रल ही में घुसता है। देख क्या रहे हो? ज़रा पकड़े रहो जी। थोड़ी देर में उसने दुबारा झुंझलाकर कहा,”ऐसे नहीं इस तरह! दबाकर ठीक से पकड़े रहो।

ट्रक के पीछे काफ़ी देर से हार्न बजता आ रहा था। रंगनाथ उसे सुनता रहा था और ड्राइवर उसे अनसुना करता रहा था और ड्राइवर उसे अनसुना करता रहा था। कुछ देर बाद पीछे से क्लीनर ने लटककर ड्राइवर की कनपटी के पास खिड़की पर खट-खट करना शुरू कर दिया। ट्रकवालों की भाषा में इस कार्रवाई का निश्चित ही कोई खौफ़नाक मतलब होगा, क्योंकि उसी वक्त ड्राइवर ने रफ़्तार कम कर दी और ट्रक को सड़क की बायीं पटरी पर कर लिया।

हार्न की आवाज़ एक ऐसे स्टेशन-वैगन से आ रही थी जो आजकल विदेशों के आशीर्वाद से सैकड़ों की संख्या में यहां देश की प्रगति के लिये इस्तेमाल होते हैं और हर सड़क पर हर वक्त देखे जा सकते हैं। स्टेशन-वैगन दायें से निकलकर आगे धीमा पड़ गया और उससे बाहर निकले हुये एक खाकी हाथ ने ट्रक को रुकने का इशारा दिया। दोनों गाड़ियां रुक गयीं।

स्टेशन-वैगन से एक अफसरनुमा चपरासी और एक चपरासीनुमा अफसर उतरे।

स्टेशन-वैगन से एक अफसरनुमा चपरासी और एक चपरासीनुमा अफसर उतरे। खाकी कपड़े पहने हुये दो सिपाही भी उतरे। उनके उतरते ही पिंडारियों-जैसी लूट खसोट शुरू हो गयी। किसी ने ड्राइवर का ड्राइविंग लाइसेंस छीना, किसी ने रजिस्ट्रेशन-कार्ड; कोई बैक्व्यू मिरर खटखटाने लगा, कोई ट्रक का हार्न बजाने लगा। कोई ब्रेक देखने लगा। उन्होंने फुटबोर्ड हिलाकर देखा, बत्तियां जलायीं, पीछे बजनेवाली घंटी टुनटुनायी। उन्होंने जो कुछ भी देखा, वह खराब निकला; जिस चीज को भी छुआ, उसी में गड़बड़ी आ गयी। इस तरह उन चार आदमियों ने चार मिनट में लगभग चालिस दोष निकाले और फिर एक पेड़ के नीचे खड़े होकर इस प्रश्न पर बहस करनी शुरू कर दी कि दुश्मन के साथ कैसा सुलूक किया जाये।

उन्होंने जो कुछ भी देखा, वह खराब निकला; जिस चीज को भी छुआ, उसी में गड़बड़ी आ गयी। इस तरह उन चार आदमियों ने चार मिनट में लगभग चालिस दोष निकाले और फिर एक पेड़ के नीचे खड़े होकर इस प्रश्न पर बहस करनी शुरू कर दी कि दुश्मन के साथ कैसा सुलूक किया जाये।

रंगनाथ की समझ में कुल यही आया कि दुनिया में कर्मवाद के सिद्धान्त,’पोयटिक जस्टिस’ आदि की कहानियां सच्ची हैं; ट्रक की चेकिंग हो रही है और ड्राइवर से भगवान उसके अपमान का बदला ले रहा है। वह अपनी जगह बैठा रहा। पर इसी बीच ड्राइवर ने मौका निकालकर कहा,” शिरिमानजी, ज़रा नीचे उतर आयें। वहां गियर पकड़कर बैठने की अब क्या जरूरत है?”

रंगनाथ एक दूसरे पेड़ के नीचे जाकर खड़ा हो गया। उधर ड्राइवर और चेकिंग जत्थे में ट्रक के एक-एक पुर्जे को लेकर बहस चल रही थी। देखते-देखते बहस पुर्जों से फिसलकर देश की सामान्य दशा और आर्थिक दुरवस्था पर आ गयी और थोड़ी ही देर में उपस्थित लोगों की छोटी-छोटी उपसमितियां बन गयीं। वे अलग-अलग पेड़ों के नीचे एक-एक विषय पर विशेषज्ञ की हैसियत से विचार करने लगीं। काफ़ी बहस हो जाने के बाद एक पेड़ के नीचे खुला अधिवेशन जैसा होने लगा और कुछ देर में जान पड़ा, गोष्ठी खत्म होने वाली है।

आखिर में रंगनाथ को अफ़सर की मिमियाती हुयी आवाज़ सुनायी पड़ी, “क्यों मियां अशफ़ाक, क्या राय है? माफ़ किया जाये?”

चपरासी ने कहा, “और कर ही क्या सकते हैं हुजूर? कहां तक चालान कीजियेगा। एकाध गड़बड़ी हो तो चालान भी करें।

एक सिपाही ने कहा, ” चार्जशीट भरते-भरते सुबह हो जायेगी।”

इधर-उधर की बातों के बाद अफ़सर ने कहा, ” अच्छा जाओ जी बंटासिंह, तुम्हें माफ़ किया।”

ड्राइवर ने खुशामद के साथ कहा, “ऐसा काम शिरिमानजी ही कर सकते हैं।”

अफ़सर काफ़ी देर से दूसरे पेड़ के नीचे खड़े हुये रंगनाथ की ओर देख रहा था। सिगरेट सुलगाता हुआ वह वह उसकी ऒर आया । पास आकर पूछा, “आप भी इसी ट्रक पर जा रहे हैं?”

“जी हां।”

“आपसे इसने कुछ किराया तो नहीं लिया है?”

“जी, नहीं।”

अफ़सर बोला, “वह तो मैं आपकी पोशाक ही देखकर समझ गया था, पर जांच करना मेरा फ़र्ज था।”

रंगनाथ ने उसे चिढा़ने के लिये कहा, “यह असली खादी थोड़े ही है। यह मिल की खादी है।”

उसने इज्जत के साथ कहा, “अरे साहब, खादी तो खादी! उसमें असली-नकली का क्या फर्क?”

अफ़सर के चले जाने के बाद ड्राइवर और चपरासी रंगनाथ के पास आये। ड्राइवर ने कहा, “ज़रा दो रुपये तो निकालना जी।”

उसने मुंह फेरकर कड़ाई से कहा, “क्या मतलब है? मैं रुपया क्यों दूं?”

ड्रायवर ने चपरासी का हाथ पकड़कर कहा, “आइये शिरिमानजी, मेरे साथ आइये। जाते-जाते वह रंगनाथ से कहने लगा। तुम्हारी ही वजह से मेरी चेकिंग हुई। और तुम्ही मुसीबत में मुझमे इस तरह से बात करते हो? तुम्हारी यही तालीम है?”

वर्तमान शिक्षा-पद्धति रास्ते में पड़ी हुयी कुतिया है, जिसे कोई भी लात मार सकता है।

ड्राइवर भी उस पर रास्ता चलते-चलते एक जुम्ला मारकर चपरासी के साथ ट्रक की ऒर चल दिया। रंगनाथ ने देखा, शाम घिर रही है, उसका अटैची ट्रक में रखा है, शिवपालगंज अभी पांच मील दूर है और उसे लोगों की सद्भावना की जरूरत है। वह धीरे-धीरे ट्रक की ओर आया। उधर स्टेशन वैगन का ड्राइवर हार्न बजा-बजाकर चपरासी को वापस बुला रहा था। रंगनाथ ने दो रुपये ड्राइवर को देने चाहे। उसने कहा, ” अब दे ही रहे हो तो अर्दली साहब को दो। मैं तुम्हारे रुपयों का क्या करूंगा?”

कहते-कहते उसकी आवाज में सन्यासियों की खनक आ गयी जो पैसा हाथ से नहीं छूते, सिर्फ दूसरों को यह बताते हैं कि तुम्हारा पैसा हाथ का मैल है। चपरासी रुपयों को जेब में रखकर, बीड़ी का आखिरी कश खींचकर, उसका अधजला टुकड़ा लगभग रंगनाथ के पैजामे पर फेंककर स्टेशन-वैगन की ओर चला गया। उसके रवाना होने पर ड्राइवर ने भी ट्रक चलाया और पहले की तरह गियर को ‘टाप’ में लेकर रंगनाथ को पकड़ा दिया।फिर अचानक,बिना किसी वजह के, वह मुंह को गोल-गोल बनाकर सीटी पर सिनेमा की एक धुन निकालने लगा। रंगनाथ चुपचाप सुनता रहा।

थोड़ी देर में ही धुंधलके में सड़क की पटरी पर दोनों ओर कुछ गठरियां-सी रखी हुई नजर आयीं। ये औरतें थीं, जो कतार बांधकर बैठी हुयी थीं। वे इत्मीनान से बातचीत करती हुयी वायु सेवन कर रहीं थीं और लगे हाथ मल-मूत्र विसर्जन भी। सड़क के नीचे घूरे पटे पड़े थे और उनकी बदबू के बोझ से शाम की हवा किसी गर्भवती की तरह अलसायी हुयी-सी चल रही थी। कुछ दूरी पर कुत्तों के भौंकने की आवजें हुईं। आंखों के आगे धुएं के जाले उड़ते हुये नज़र आये। इससे इन्कार नहीं हो सकता था कि वे किसी गांव के पास आ गये थे। यही शिवपालगंज था।








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