डॉ . एस . एन . सेन ने 1857 की घटना के बारे में कहा है कि- " उसका प्रारंभ एक धार्मिक आंदोलन के स्वरूप में हुआ और उसका अन्त स्वतन्त्रता संग्राम के रूप में हुआ । " चर्चा कीजिए । ( Dr S. N. Sen has said about the event of 1857- " I began as a religious movement and ended as a War of Independence . " Discuss . )

 प्रश्न . डॉ . एस . एन . सेन ने 1857 की घटना के बारे में कहा है कि- " उसका प्रारंभ एक धार्मिक आंदोलन के स्वरूप में हुआ और उसका अन्त स्वतन्त्रता संग्राम के रूप में हुआ । " चर्चा कीजिए । ( Dr S. N. Sen has said about the event of 1857- " I began as a religious movement and ended as a War of Independence . " Discuss . )

 उत्तर -1857 के विद्रोह के स्वरूप के संबंध में पश्चिमी ही नहीं , बल्कि भारतीय इतिहासकारों के बीच भी मतभेद है । दो आधुनिक भारतीय इतिहासकारों , डॉ . आर . सी . मजुमदार तथा डॉ . एस . एन . सेन इस बात पर सहमत हैं कि 1857 का विद्रोह सचेत योजनाका परिणाम नहीं था और न ही इसके पीछे कोई कुशल और सिद्धहस्त व्यक्ति था । इस तथ्य को भी दोनों विद्वान स्वीकार करते हैं कि 19 वीं सदी के मध्य भारतीय राष्ट्रीयता भ्रूणावस्था में थी । डॉ . सेन का मत है कि " उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में ' भारत ' केवल भौगोलिक कथन ही था । 1857 में बंगालियों , पंजाबियों , हिन्दुस्तानियों , महाराष्ट्रियों और मद्रासियों ने कभी भी यह अनुभव नहीं किया था कि वे एक ही राष्ट्र के सदस्य हैं । विद्रोह के नेता , राष्ट्रीय नेता नहीं थे । इन नेताओं में अधिकतर आपस में भी ईर्ष्या और द्वेष करते थे और लगातार एक दूसरे के विरुद्ध षड्यंत्र रच रहे थे । जन साधारण भी इनसे अधिक अच्छी स्थिति में नहीं थे । उनकी बहुसंख्या तटस्थ और उदासीन रही । इस आन्दोलन ने अवध और बिहार के शाहाबाद जिले के अतिरिक्त कहीं भी सामान्य वर्ग का समर्थन प्राप्त नहीं किया । राष्ट्रवाद को जिस अर्थ में आज हम लेते हैं , उस समय तक देश में नहीं आया था ।

आर . सी . मजुमदार ने 1858 के विद्रोह का विश्लेषण अपनी पुस्तक Sepoy Muting and the Revolt of 1857 में दिया है । उसके तर्क का मुख्य आशय यह है कि सन् सत्तावन का विद्रोह स्वतन्त्रता संग्राम नहीं था । उसका अनुरोध है कि विद्रोह ने भिन्न - भिन्न स्थानों पर भिन्न - भिन्न रूप धारण किया । कुछ प्रदेशों में जैसे पंजाब और मध्यप्रदेश में यह केवल सैनिक विद्रोह ही था जिसमें कालातन्तर में कुछ असन्तुष्ट व्यक्ति भी गड़बड़ी का लाभ उठाकर सम्मिलित हो गए । दूसरी ओर उत्तर प्रदेश में , मध्य प्रदेश के कुछ भागों में और बिहार के पश्चिमी भागों में सैनिक विप्लव के पश्चात् एक सर्वसाधारणा विद्रोह हो गया जिसमें सैनिकों के अतिरिक्त अन्य तत्वों ने भाग लिया । इसके अतिरिक्त कुछ भाग ( जैसे कि राजस्थान और महाराष्ट्र ) ऐसे थे जहाँ जनता की सहानुभूति विद्रोहियों के साथ थी , परन्तु उन्होंने कानून की सीमाओं को पार कर किसी पर अत्याचार नहीं किया । इसके अतिरिक्त डॉ . मजुमदार एक और तथ्य की ओर भी ध्यान दिलाते हैं कि इस विद्रोह का राष्ट्रीय महत्त्व अप्रत्यक्ष और उत्तरकालिक था । वह लिखते हैं कि “ यह कहा जाता है कि जूलियस सीजर जीवित के स्थान पर मरा हुआ अधिक शक्तिशाली था । " यही बात 1857 के विद्रोह के विषय में भी की जा सकती है । इसका वास्तविक स्वरूप कुछ भी क्यों न हो , शीघ्र ही यह भारत में अंग्रेजी सत्ता के लिए एक चुनौती का प्रतीक बन गया । अंग्रेजी दासता से स्वतन्त्रता प्राप्त करने के लिए लड़ते हुए जन्म ले रहे भारतीय राष्ट्रवाद के लिए , यह एक चमकता हुआ उदाहरण था और यह अंग्रेजों के विरुद्ध राष्ट्रीय स्वतन्त्रता युद्ध बना ।

डाक्टर एस . एन . सेन का विश्वास है कि यह स्वतन्त्रता संग्राम ही था । उनका तर्क है कि क्रान्तियाँ प्रायः एक छोटे से वर्ग का कार्य होती है , जिसमें जनता का समर्थन होता भी है और नहीं भी होता । अमेरिका की क्रान्ति ( 1775-83 ) और फ्रांसीसी क्रान्ति में यही हुआ । अमेरिका में बसे अधिकतर अंग्रेज इंग्लैण्ड के प्रति स्वामिभक्त रहे और युद्ध के अन्त में लगभग 60,000 लोग तो कनाडा में जाकर बस गए । इसी प्रका , र क्रान्तिकारी फ्रांस में भी राजशाही समर्थक बहुत से थे । डॉ . सेन के अनुसार यदि “ एक विद्रोह जिसमें बहुत से लोग सम्मिलित हो जाएँ तो उसका स्वरूप राष्ट्रीय हो जाता है । " दुर्भाग्य से भारत में अधिकतर लोग निष्पक्ष और तटस्थ रहे । इसलिए 1857 को राष्ट्रीय कहना ठीक नहीं ।

डाक्टर सेन के अनुसार सैनिक विप्लव विद्रोह के रूप में आरम्भ हुआ और इसने उस समय राजनैतिक स्वरूप धारण कर लिया , जब विद्रोहियों ने अपने आपको दिल्ली के राजा के अधीन होने की घोषणा कर दी और भूमिपतियों और बहुत - सी असैनिक जनसंख्या न भी अपने आपको उसी के अधीन मान लिया । जो युद्ध धर्म - रक्षा के लिए एक युद्ध के रूप में आरम्भ हुआ उसने शीघ्र ही स्वतन्त्रता संग्राम का रूप धारण कर लिया और इसमें तनिक भी सन्देह नहीं कि विद्रोही एक विदेशी सरकार को समाप्त करना चाहते थे और उस प्राचीन व्यवस्था को पुनः स्थापित करना चाहते थे जिसमें दिल्ली का राजा ही वास्तविक प्रतिनिधि था ।

एक अन्य भारतीय विद्वान डॉ . एस . बी . चौधरी ने अपनी पुस्तक Civil Rebellions in the Indian Mutinles , 1857-59 में 1857 में हुए सैनिक विद्रोह के साथ - साथ असैनिक विद्रोहों का विस्तारपूर्वक विश्लेषण करने तक ही अपने आपको सीमित रखा है । उसके अनुसार हम इस विद्रोह को दो भागों में बाँट सकते हैं सैनिक विप्लव और विद्रोह । उसका विश्वास है कि 1857 का विस्फोट दो प्रकार की अशान्तियों का एकत्रित होना था , सैनिक तथा असैनिक । दोनों स्वतन्त्र कारणों द्वारा आरम्भ हुई । डॉ . मजुमदार का विचार है कि " 1857 से पहले के विस्फोट , सैनिक अथा असैनिक वास्तव में एक ही श्रृंखला की कड़ियाँ थीं और पृथक् - पृथक् उफान मिल कर 1857 का विस्फोट और दावानल बन गया ।

 1857 का विद्रोह , आधार रूप से साम्राज्यवाद के विरुद्ध था । सैनिकों तथा असैनिकोंने ने साम्राज्यीय तत्वों को उखाड़ फेंकने का प्रयत्न किया । वास्तव में कोई भी विद्रोह जो इतना विस्तृत हो तथा जिसका विदेशी राज्य को समाप्त करना एक ध्येय हो , वह हमें वास्तव में ही स्वतन्त्रता संग्राम प्रतीत ही होगा । परन्तु यह स्मरण रहे कि राजभक्ति केवल क्षेत्रीय थी तथा नेतृत्व असन्तुष्ट राजाओं तथा जमींदारों के हाथ में था जो प्राय : निजी कारणों से ही प्रेरित थे । उनकी देशभक्ति की भावना कुछ भी क्यों न हो , ये हमें पीछे की ओर सामन्तशाही की गोद में धकेलना चाहते थे । 




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