Bihar D.El.Ed. ,( F - 2 ): बचपन और बाल विकास Pdf handwritten Notes


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F - 2

बचपन और बाल विकास 

 इकाई -1 : बचपन व बाल विकास की समझ

• बच्चे तथा बचपन : मनो - सामाजिक अवधारणा बचपन को प्रभावित करने वाले मनोसामाजिक कारक बाल विकास : अवधारणा , विकास के विविध आयाम , प्रभावित करनेवाले कारक

• वृद्धि एवं विकास : अंतर्सम्बंधों की समझ , अध्ययन के तरीके . . .


बच्चे तथा बचपन की संकल्पना काल व स्थान के अनुसार सदैव बदलती रही है जिसके संदर्भ में मनो - सामाजिक तथा शैक्षिक विमर्शों की बहुलता है ।इस इकाई में बच्चे तथा बचपन की मनो - सामाजिक अवधारणा को स्पष्ट किया जाएगा । इस अवधारणा को जानने के उपरांत शिक्षक अपने विद्यार्थियों को मनो - सामाजिक परिप्रेक्ष्य में समझ सकेंगे तथा उम्र के सापेक्ष अधिगम कार्य संपन्न करवाने में उन्हें आसानी होगी । बचपन की विशेषताओं के आधार पर शिक्षक तथा माता - पिता उनके विकास की व्यवस्था करता है । इस हेतु उन्हें बाल विकास की अवधारणा , विकास के विभिन्न आयाम , वृद्धि एवं विकास में अंतर्सम्बंध तथा प्रभावित करनेवाले कारक की व्यापक चर्चा इस इकाई में की जाएगी तथा साथ ही वृद्धि एवं विकास के अध्ययन के तरीके का भी विश्लेषण किया जाएगा ।

 इकाई -2 : बच्चों का शारीरिक एवं मनोगत्यात्मक विकास

. शारीरिक विकास की समझ . मनोगत्यात्मक विकास की समझ बच्चों के शारीरिक एवं मनोगत्यात्मक विकास की समझ

. एक स्वस्थ बच्चे में ही स्वस्थ मस्तिष्क व चिंतन का विकास संभव है ।

अतः मनोविज्ञान के दृष्टिकोण से बच्चे के शारीरिक विकास को अति महत्त्वपूर्ण माना गया है । इसी संदर्भ में मनोगत्यात्मक विकास की समझ प्रशिक्षुओं में होनी चाहिए ताकि वे बच्चों द्वारा की जाने वाली सामान्य क्रियाओं के विषय में सूक्ष्म व मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित कर सकें । शारीरिक व मनोगत्यात्मक विकास सिर्फ शरीर से सम्बद्ध नहीं है बल्कि उनका प्रभाव बच्चे से जुड़ी सीखने की अन्य प्रक्रियाओं पर भी पड़ता है । अतएव , शिक्षक , माता - पिता व समुदाय बच्चों के शारीरिक व मनोगत्यात्मक विकास में क्या भूमिका निभा सकते हैं इसे भी समझना आवश्यक है । इन सभी विषयों पर इस इकाई में विस्तार से चर्चा की जाएगी ।

इकाई -3 : बच्चों में सृजनात्मकता

. सृजनात्मकता : अवधारणा , बच्चों के संदर्भ में विशेष महत्त्व बच्चों में सृजनात्मक विकास हेतु विविध तरीके सृजनात्मकता : प्रभावित करने वाले कारक

. आज हम सब सीखने में सृजनात्मकता के महत्त्व को समझ रहे हैं । नवाचारी शैक्षिक विमर्शों में यह जोर देकर कहा जा रहा है कि बच्चे अपनी सृजनात्मकता के कारण बेहतर सीख सकते हैं । अतः शिक्षक या शिक्षिका के लिए यह जरूरी है कि वह बच्चों में निरन्तर सृजनात्मकता के पोषण के लिए रास्ते तैयार करें । इसके लिए क्या तरीके होने चाहिए तथा शिक्षक की उसमें क्या भूमिका हो , इसपर चर्चा इस इकाई में की जाएगी ।

 इकाई -4 : खेल और बाल विकास

• खेल से आशय : अवधारणा , विशेषता , बच्चों के विकास के संदर्भ में महत्त्व बच्चों के खेल : विविध प्रकार एवं संदर्भ

• बच्चों के विविध खेल : सीखने - सिखाने के माध्यम के रूप में

. बच्चों के सीखने में उनके खेल की भी अहम भूमिका होती है । बच्चे दिन भर खेल में लगे रहना चाहते हैं । यह खेल सिर्फ मनोरंजन के साधन नहीं है जैसा कि आम धारणा है , बल्कि बच्चों के विकास के सबसे प्रभावी कारकों में से एक है । खेल के माध्यम से बच्चों के शारीरिक , संज्ञानात्मक , भावात्मक एवं नैतिक विकास को सम्बोधित किया जा सकता है ।

 सीखने - सिखाने के दृष्टिकोण से खेलों के विविध स्वरूपों को अपनाने से बच्चे खेल - खेल में ही वैसी अवधारणाओं से आसानी से समझ जाते हैं जो वे कक्षा - कक्ष में प्रत्यक्ष शिक्षण से नहीं समझ पाते हैं । अतः सीखने के संदर्भ में खेलों को समझना और अपने शिक्षण में उनका इस्तेमाल करना हर शिक्षक या शिक्षिका के लिए जरूरी है । इन सब बिन्दुओं पर इस इकाई में चर्चा की गई है ।

. इकाई -5 : बच्चे और व्यक्तित्व विकास

•व्यक्तित्व विकास के विविध आयाम : एरिक्सन के सिद्धांत का विशेष संदर्भ • बच्चों में भावनात्मक / संवेगात्मक विकास का पहलू : जॉन बाल्बी का सिद्धांत एवं अन्य विचार नैतिक विकास और बच्चे : सही - गलत की अवधारणा , ज्यां पियाजे तथा कोलबर्ग का सिद्धांत

• सीखने - सिखाने का बच्चों के व्यक्तित्व पर गहरा प्रभाव पड़ता है । साथ ही , बच्चों के परिवेश का भी उनके व्यक्तित्व विकास में अहम भूमिका है ।

अतः , बच्चों के विकास को सकारात्मक दिशा देने के लिए हर शिक्षक या शिक्षिका के लिए व्यक्तित्व विकास के वैसे पहलुओं को समझना जरूरी है जिनसे हर व्यक्ति को गुजरना होता है । भावनात्मक एवं नैतिक पहलुओं का व्यक्तित्व विकास में एक महत्त्वपूर्ण स्थान है , जिनसे सम्बंधित सैद्धांतिक बिन्दुओं की समझ शिक्षकों को इस इकाई में दी जाएगी । इनकी स्पष्ट समझ से शिक्षकों को वह बल मिलता है जिससे वे अपने विद्यार्थियों के सीखने को प्रभावी तौर पर बाल केन्द्रित व सार्थक बना सकते हैं ।

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