भाषा -
विशिष्ट ध्वनियों, शब्दों और वाक्यों का वह समूह जिसके द्वारा मन के भावों को प्रकट किया जा सके, भाषा कहलाती है। महाकाव्य में भाषा की परिभाषा महर्षि पतंजलि ने निम्नलिखित शब्दों में दी है
व्यक्ता वाचि वर्णा यषांत इमे व्यक्तः वाचः अर्थात जो वाडी वर्णों में व्यक्त होती है उसे भाषा।यह वह साधन है जिसके द्वारा मनुष्य अपने विचारों को दूसरों पर भली-भांति प्रकट करता है और दूसरे के विचारों को स्पष्ट दया समझ सकता है।
मातृभाषा का अर्थ है:-
माता से सीखी गई भाषा। बच्चा जन्म लेने के 1 वर्ष के अंतर्गत अपने माता-पिता और अन्य पारिवारिक सदस्यों द्वारा बेहद भाषा को सुनता और उसे बोलने की चेष्टा करता है। जब उसके अंग बोलने के योग्य हो जाते हैं तब उसी भाषा का प्रयोग करने लगता है जिस भाषा को उसके माता-पिता प्रयोग करते हैं। मातृभाषा माता से ग्रहण की हुई भाषा है लेकिन यह तो रहा मातृभाषा का संकुचित अर्थ ।
व्यापक अर्थ में जिस जन्मभूमि ने पाल पोस कर हमको बड़ा किया है कामा उस जन्मभूमि में बोली जाने वाली भाषा मात्र भाषा कहलाती है उदाहरण के लिए राजस्थान में मेवाती बागड़ी दुधारी मालवीय आदि अनेक बोलियां हैं जिसको वह क्षेत्र विशेष के व्यक्ति बोलते हैं और उनके बच्चे भी उन्हीं बोलियों को सीखते और प्रयोग में लाते हैं वह बोलियां हो सकती हैं किंतु स्वतंत्र भाषाएं नहीं है किंतु मातृभाषा हिंदी है। मातृभाषा इसलिए व्यापक अर्थ में वह भाषा है जिसको हम जननी जन्मभूमि के समान श्रेष्ठ और पूज्य मानते हैं। राजस्थान की विभिन्न बोलियां जनपदीय भाषाएं हो सकती हैं किंतु जनपद की भाषा को मातृभाषा के समकक्ष नहीं माना जा सकता।
मातृभाषा का महत्व
आत्म निर्देशन हेतु एवं भावों की अभिव्यक्ति के लिए तथा दूसरों के विचारों को ग्रहण करने के लिए मनुष्य को किसी ना किसी भाषा का अवश्य प्रयोग करना पड़ता है। परिणाम स्वरुप अपने अंतर्द्वंद ओं उद्योगों तथा महानुभाव का अभि व्यंजन जितनी सुंदरता सरलता स्पष्टता एवं शुभ सुगठित रूप में अपनी मातृभाषा में किया जा सकता है उतना किसी अन्य भाषा में नहीं।
अतः मातृभाषा में ही हमारी संस्कृति का इतिहास समाहित रहता है। इसके द्वारा हम अपने घर जाती और उन भाषा भाषियों से एक सूत्र में बंध जाते हैं इसके प्रयोग में हम अनुभव करते हैं कि वह हमारी कुछ निज की संपत्ति है। मातृभाषा, भाव प्रकाशन, मनोरंजन, ज्ञान, आनंद तथा भावनाओं का अभिव्यंजन एवं मस्तिष्क का विकास करने वाली भगवान की दी हुई सर्वोत्तम सकती है, जिसके द्वारा हम उसके समीप पहुंचते हैं।
इस प्रकार दूसरे शब्दों में मातृभाषा के अध्ययन से निम्नलिखित लाभ हैं।
1. यह शब्द और ज्ञान भंडार को बढ़ाती
2. इससे बालक की मानसिक संवेगात्मक शक्ति तथा नैतिकता का विकास होता है।
3. मातृभाषा शक्ति के सर्वांगीण व्यक्तित्व के विकास का साधन होती है।
4. इससे भाऊ क्रियाओं प्रतिक्रियाओं की सुंदर स्पष्ट और सरल सरल रूप से अभी व्यंजन करने की कला का विकास होता है।
5. इसके द्वारा मस्तिष्क की शक्तियां अनुशासित हो जाती हैं जिनसे बालक में उचित निर्णय तारक विवेक तथा धारणा की गति में तीव्रता आ जाती है।
6. इसके माध्यम से उच्च कोटि के साहित्यिक भाव काव्या अनुभूति एवं रस अनुभूति चमत्कार आदि के समझने में दक्षता आ जाती है।
7. इससे बालकों में अपने विचारों को धाराप्रवाह और प्रभावशाली रीति से प्रकट उत्पन्न होती है।
अतः उपयुक्त मातृभाषा के गुण एवं उपयोगिता ए होने के कारण मात्र भाषा ज्ञान की आधारशिला है अर्थात यही हमारे ज्ञान की प्रथम सीढ़ी कहलाता है।
मातृभाषा का पाठ्यक्रम में स्थान
मातृभाषा का पाठ्यक्रम में महत्वपूर्ण स्थान है। मात्र भाषा के शब्दों में हमारी जाति संस्कृति का इतिहास छिपा रहता है। बालकों का बौद्धिक, नैतिक एवं सांस्कृतिक विकास उनकी भाषा क्षमता पर ही निर्भर करता है। इस प्रकार बाल मनोविज्ञान का प्रधान साधन मात्र भाषा की ही शिक्षा है। विद्यार्थी के मस्तिष्क ज्ञान विचार विनिमय निर्माण, कुशलता, मौलिकता का विकास इसी पर निर्भर है। भाव अनुभूति और व्यक्तित्व का विकास भी इसी के सहारे होता है क्योंकि मातृ भाषा को सीखने में अधिक कठिनाई नहीं पड़ती। मातृभाषा ही सभी विषयों ज्ञान विज्ञानों का मूल आधार हो ती है। वह स्वयं एक विषय ही नहीं वरन अन्य विषयों का आधार स्तंभ भी है। जो छात्र स्पष्ट रूप से विचार कर सकता है और ना विचारों एवं भावनाओं को स्पष्ट रूप से व्यक्त कर सकता है वह किसी भी विषय में अच्छा ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता चाहे वह इतिहास हो चाहे विज्ञान हो और चाहे कोई अन्य विषय।
अतः पाठ्यक्रम में मातृभाषा को बिना उचित स्थान दिए हुए शिक्षा के सर्वतोमुखी विकास के उद्देश्य की पूर्ति होना असंभव है । परिणाम स्वरुप पाठ्यक्रम में मातृभाषा को उचित स्थान देना चाहिए। मातृभाषा की व्यवस्थित शिक्षा प्राप्त व्यक्ति विभिन्न विषयों से संबंधित अपने चिंतन मनन को अधिक प्रभावकारी ढंग से अभिव्यक्त कर सकता है, साथ ही वह वक्ता या लेखक के सूक्ष्म तथा गूढ़ भावों एवं विचारों को ग्रहण करने में अपने को असमर्थ महसूस नहीं करता। मातृभाषा शिक्षा प्राप्त व्यक्ति ही अपने किसी विशिष्ट या कुछ विषयों के बारे में अपने ज्ञान को अच्छी तरह व्यक्त कर सकता है| अतः यह कहा जा सकता है कि मातृभाषा की व्यवस्थित शिक्षा ही ज्ञान विज्ञान के विभिन्न विषयों को ग्रहण तथा अभिव्यक्त करने की आधारशिला है।
अतः राष्ट्र का सुयोग्य नागरिक बनने तथा सम्यक रूप से जीवन यापन करने की दिशा दिखाने में मातृभाषा के व्यवस्थित शिक्षण की व्यवस्था पाठ्यक्रम में होनी चाहिए।
मातृभाषा के रूप में हिंदी शिक्षण की समस्याएं-
मातृ भाषा के रूप में हिंदी की समस्याएं निम्नलिखित हैं-
1. हिंदी भाषा के अधिकांश शिक्षक अप्रशिक्षित हैं और अंग्रेजी आदि दूसरी भाषाओं से पूर्ण परिचित न होने के कारण उनका दृष्टिकोण और ज्ञान पूर्ण विकसित नहीं रहता। अपने निजी अध्ययन के प्रति हुए उदासीन रहते हैं।
2. विगत वर्षो की तुलना में मात्र भाषा का स्थान पर्याप्त नहीं है और इसके शिक्षण के लिए शिक्षकों के प्रशिक्षण आदि पर विशेष ध्यान नहीं है।
3. स्कूलों में हिंदी भाषा के शिक्षकों के प्रति उपेक्षा भाव के कारण उनमें कुछ हीन भावना का प्रादुर्भाव होता है। इसके कारण शिक्षक में उचित वातावरण की कमी हो जाती है।
4. विद्यार्थियों में भी अन्य विषयों की अपेक्षा मातृभाषा के प्रति उपेक्षा या उदासीनता का भाव और अरुचि देखी जाती है।
5. अध्यापक अपनी तैयारी और कक्षा की पढ़ाई में छात्रों में मातृभाषा के प्रति उत्साह और रुचि उत्पन्न करने में असमर्थ हैं ।
6. वर्तमान परीक्षा प्रणाली भी मातृभाषा की कमजोरी का एक कारण है। विषय का पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने के स्थान पर विद्यार्थियों में किसी बाजारो नोट आदि से हटकर सफलता प्राप्त करने की इच्छा उनके शब्द भंडार एवं भाषा ज्ञान की वृद्धि नहीं करती है।
7. स्कूलों में बच्चों की रचनात्मक प्रवृत्ति को उत्साहित करने और हिंदी भाषा के अन्य ग्रंथों के प्रति रुचि उत्पन्न करने के वातावरण का अभाव है।
8. बच्चों के घरों में क्षेत्रीय भाषाओं का व्यवहार है।
9. एक ही वर्ग में भिन्न स्तर के बच्चों की उपस्थिति है।
10. वर्ग में विद्यार्थियों की संख्या के कारण व्यक्तिगत निरीक्षण एवं सहायता की कमी है।
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