19 वीं शताब्दी के सुधारकों के धार्मिक और सामाजिक विचारों की चर्चा

 प्रश्न . 19 वीं शताब्दी के सुधारकों के धार्मिक और सामाजिक विचारों की चर्चा कीजिए और उनकी मर्यादाएँ दर्शाइए । ( Discuss the social and religious ideas of the reformers of the 19th century and trace its limitations . )

उत्तर -

19 वीं सदी को भारत में सामाजिक एवं धार्मिक सुधार आंदोलन का काल माना गया है । कुछ विद्वान इसे पुनर्जागरण की सदी भी कहते हैं । पाश्चात्य शिक्षा से प्रभावित लोगों ने हिन्दू सामाजिक रचना , धर्म , रीति - रिवाज और परम्पराओं को तर्क की कसौटी पर कसना आरंभ कर दिया । इससे सामाजिक एवं धार्मिक आंदोलन का जन्म हुआ । इस समय भारत के लगभग सभी धर्मों में सुधार आन्दोलन चला , जिसके प्रमुख नेता के रूप में राजा राममोहन राव , दयानन्द सरस्वती , रामकृष्ण परमहंस , विवेकानन्द , ज्योतिबा फूले , ईश्वरचन्द्र विद्यासागर , सर सैयद अहमद खाँ आदि प्रमुख थे ।

 उपरोक्त सुधारकों ने जो विचार व्यक्त किया और उन विचारों को धरातल पर लागू करने के लिए जो कार्य किया , उसके स्वरूप और प्रभाव के संबंध में आधुनिक विद्वानों का अलग - अलग राय है । इन आंदोलनों के बारे में उत्तरोत्तर बदलते विचारों के संदर्भ में इनके स्वरूप एवं प्रभाव का आलोचनात्मक अध्ययन आवश्यक प्रतीत होता है । भौगोलिक खोज , वैज्ञानिक आविष्कार और कला एवं साहित्य के क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रगति यूरोपीय पुनर्जागरण की महत्त्वपूर्ण उपलब्धियाँ थीं ।

 लेकिन भारतीय पुनर्जागरण में ये तत्त्व प्रायः अनुपस्थित रहे । इस प्रकार भारतीय पुनर्जागरण यूरोपीय पुनर्जागरण से कई अर्थों में भिन्न था । तो भी , सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया के रूप में इन आंदोलनों को ' नवजागरण ' मानने में आपत्ति नहीं होनी चाहिए । निस्संदेह यूरोपीय पूनर्जागरण की ही तरह भारतीय पुनर्जागरण को मध्य युग की समाप्ति एवं आधुनिक युग के आगमन के संकेत के रूप में माना जा सकता है । कुछ विद्वानों का यह भी विचार है कि इस पुनर्जागरण से भारत का आधुनिकीकरण हुआ , क्योंकि पुनर्जागरण के मूल में बुद्धिवाद , वैज्ञानिक दृष्टिकोण एवं वे आधुनिक विचार थे जो हर जगह आधुनिकता के वाहक रहे हैं ।

प्रारंभ में इस आंदोलन के प्रति ऐसी ही धारणा थी । लेकिन तथ्यों के आलोचनात्मक अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि इन आंदोलनों से भले ही कुछ मौलिक परिवर्तनों की शुरुआत हुई हो परंतु इनसे देश का आधुनिकीकरण नहीं हुआ । प्रारंभ में जिसे देश का आधुनिकीकरण माना गया था , वह पश्चिमीकरण ( Westernization ) से ज्यादा कुछ नहीं था । यह सच है कि इस आंदोलन के परिणामस्वरूप देश में अंग्रेजी शिक्षा एवं पश्चिमी विचारों का प्रसार शुरू हुआ । कुछ हद तक भारतीय समाज पर पश्चिमी संस्कृति को आरोपित करने का प्रयास किया गया । लेकिन इस सब से देश आधुनिक हो गया , ऐसा नहीं माना जा सकता ।

आधुनिकता के मुख्य आधार मानव विवेक , ज्ञान , वैज्ञानिक दृष्टिकोण एवं मानवतावाद आदि हैं । लेकिन ये सभी तत्त्व किसी समाज या देश विशेष को तभी आधुनिक बना सकते हैं जब इनका उस समाज के संदर्भ में स्वाभाविक रूप से विकास और विवेकपूर्ण उपयोग हो । इस तरह अलग - अलग देशों में आधुनिकीकरण की प्रक्रिया एवं आयाम अलग - अलग हो सकते हैं । ग्रेट ब्रिटेन और भारतीय जीवन की पृष्ठभूमि एक - दूसरे से पूर्णतः भिन्न थीं । ऐसी हालत में भारत का आधुनिकीकरण ब्रिटेन के ही मॉडल पर हो , यह जरूरी नहीं था ।

भारत में आधुनिकता अंग्रेजी नहीं बल्कि संस्कृत या हिन्दी के माध्यम से आ सकती थी , और यहाँ के ज्ञान - विज्ञान को यहाँ के परंपरागत ज्ञान विज्ञान ( जैसे आयुर्वेद , गणित , ज्योतिष , खगोल आदि ) के अध्ययन एवं विकास के जरिए आधुनिक बनाया जा सकता था । जापान और चीन का आधुनिकीकरण इस तथ्य का ज्वलंत उदाहरण है । इन देशों का आधुनिकीकरण देशी भाषा एवं अन्य देशी साधनों के माध्यम से हुआ व्यवहारिक तौर पर उदारवाद के समर्थन का अंतर्निहित परिणाम पूँजीवाद का पोषण एवं शोषण का समर्थन था । उदारवाद की जो कुछ उपयोगिता हो सकती थी , भारतीय परिस्थितियों के बीच वह भी निष्क्रिय एवं निष्फल होकर रह गई । स्पष्ट है कि ऐसी स्थिति में राममोहन राय या सैयद अहमद का प्रयत्न ब्रिटिश साम्राज्यवाद के औपनिवेशिक ढाँचे में एक तरह का तालमेल बैठाने तक ही सीमित था । उदारवादी सुधारों का आम लोगों से बहुत ही कम संबंध था । तब सबसे बड़ी समस्या एक ब्रह्म की उपासना , सतीप्रथा या बाल हत्या नहीं , बल्कि आर्थिक , सामाजिक और राजनैतिक शोषण एवं गरीबी थी । इन आधारभूत प्रश्नों पर सुधारकों का ध्यान नाममात्र हो ही गया । इस दिशा में जो प्रयत्न हुए भी , वे अस्पष्ट तथा असफल रहे । दूसरी तरफ , आंदोलन पश्चिमी संस्कृति के अत्यधिक प्रभाव एवं उदारवादी विचारों में आस्था ने भारत के देशी साधनों ( मेधा , ज्ञान , विज्ञान आदि ) के जरिए आधुनिकीकरण के आसार अवरुद्ध कर दिए और आने वाले वर्षों में देश पश्चिमी सभ्यता की चकाचौंध में ' आधुनिकता ' का भ्रम संजोता रहा ।

यही कारण है कि संपूर्ण समाज के स्तर पर सुधारों के परिणामस्वरूप कोई मौलिक परिवर्तन नहीं आया । आंदोलन का वास्तविक स्वरूप मध्यमवर्गीय बना रहा और इसका कार्यक्षेत्र मुख्यतः शहर के शिक्षित मध्य वर्ग की समस्याओं से बाहर नहीं जा पाया । सुधारकों ने किसानों या आम आदमी तक पहुँचने की कोशिश नहीं की । उनके विचारों की सूक्ष्मता ने भी आम अनपढ़ लोगों में सुधारों को लोकप्रिय नहीं होने दिया । यदि आंदोलन धर्मनिरपेक्ष और सच्चे अर्थों में प्रगतिशील होता तो वह मौलिक परिवर्तन एवं अंततः आधुनिकता ला सकता था । मगर अपने आधुनिक मुखौटे के बावजूद यह आंदोलन छद्म वैज्ञानिकता का पोषक और बहुत हद तक रूढ़िवादी था । पुनर्जागरण काल का कोई भी आंदोलन धर्म से ऊपर नहीं उठ सका ।

ब्रह्म समाज , आर्य समाज ,रामकृष्ण मिशन आदि का समग्र चिंतन हिन्दू धर्म पर आधारित था और अलीगढ़ आंदोलन का इस्लाम पर । इसके कई घातक परिणाम हुए । इनमें से कोई भी एक आंदोलन समस्त भारतीय जनजीवन को अपना कार्यक्षेत्र नहीं बना सकता था । सभी आंदोलनों के मसले अलग - अलग थे । बाल - हत्या या विधवा - विवाह हिन्दू समाज के दोष थे जिनसे मुसलमानों का कोई वास्ता नहीं था । वैसे ही , कुरान की व्याख्या चाहे कितने भी आधुनिक तरीके से क्यों न हो , उससे बहुसंख्यक हिन्दुओं को कोई वास्ता नहीं था । कोई भी आंदोलन धर्म से पूर्णतः संबंध विच्छेद नहीं करना चाहता था ।

 अत : उनमें से कोई भी समाज में आमूल परिवर्तन लाने की स्थिति में नहीं था । यही कारण है कि इन आंदोलनों में प्राय : आंतरिक द्वन्द्व और अंतर्विरोध व्याप्त रहे । खुद सुधारक ही अपने - अपने धर्म की परंपरागत मान्यताओं और रूढ़ियों से पूर्णतः मुक्त नहीं थे । इन आंदोलनों का एक बड़ा दोष यह था कि उनमें से प्रायः सभी अतीत , वेद या कुरान से प्रेरणा ले रहे थे । यह प्रकृति गैर - वैज्ञानिक तो थी ही , गैर - ऐतिहासिक भी थी । पुनर्जागरण के प्रायः सभी हिन्दू आंदोलन वैदिक जीवन को आदर्श मानते थे - विशेषकर आर्य समाज का मुख्य नारा ' वेदों की ओर वापसी ' ( Back to the Vedas ) का था ।

वेद को आदर्श मानने का तात्पर्य था वेदोत्तर पिछले तीन हजार वर्षों की भारतीय सभ्यता की उपलब्धियों को नकार देना , जिसमें मध्य काल की उपलब्धियाँ भी शामिल थीं । इसका मतलब था कुछ खास वर्ग और कुछ खास धर्म के लोगों की उपलब्धियों को नकाराना । वेदकालीन सभ्यता और प्राचीनकाल के ' स्वर्ण युग ' की उपलब्धियों में शूद्रों एवं निम्न वर्ग के बाकी हिन्दुओं का योगदान या तो था ही नहीं या स्पष्ट नहीं था । इस तरह इन आंदोलनों की धर्म पर निर्भरता ने इनमें संकीर्णता एवं कट्टरता ला दी जो आगे चलकर साम्प्रदायिकता का कारण बनी । वेदकालीन जीवन दर्शन को आदर्श मानने में एक और कठिनाई थी । पिछले तीन हजार वर्षों के दरम्यान हिंदुओं के धार्मिक अनुभव ने वैदिक धर्म को काफी पीछे छोड़ दिया था और इस बीच वैदिक जीवन के कई तत्त्वों पर गीता प्रहार कर चुकी थी । आर्य समाज का एकेश्वरवाद का सिद्धान्त हिन्दू धर्म की परंपरा के विरुद्ध था । इसीलिए पुनर्जागरण के हिन्दू आन्दोलनों को सभी सवर्ण और उच्चवर्गीय हिन्दुओं का भी समर्थन प्राप्त नहीं था ।

वेदों में वर्णित जीवन चरवाहा समाज के लिए तो आदर्श हो सकता था , पर 19 वीं -20 वीं शताब्दी के समाज के लिए वह कतई उपयुक्त नहीं था । जहाँ तक धर्म की बात है , वह सुदूर अतीत में ही मानवीय संगठन का प्रभावशाली माध्यम हो सकता था , 19 वीं -20 वीं शताब्दी में सामाजिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए धर्म बहुत सशक्त माध्यम नहीं बन सकता था । इससे अतीत में " स्वर्ण युग " ढूँढ़ने के आग्रह से मिथ्याभिमान एवं आत्मतुष्टि की भावना को बल मिला । इस प्रकार यह आंदोलन अपनी संकीर्णता , धर्मसापेक्ष दृष्टिकोण , सैद्धांतिक अंतर्विरोध एवं ऐतिहासिक संदर्भ में सामाजिक पृष्ठभूमि की यथोचित समझ के अभाव के फलस्वरूप अपने उद्देश्यों में अपेक्षित रूप से सफल नहीं हो पाया । लेकिन इसकी विफलता का एक और भी कारण था । यह था इस आंदोलन का औपनिवेशिक संदर्भ ।

साम्राज्यवादी शोषण और औपनिवेशिक ढाँचे के अंदर इस आंदोलन को बहुत ज्यादा सफलता मिल भी नहीं सकती थी । परन्तु भारतीय पुनर्जागरण की यह कमजोरी रही है कि कुछ आंदोलन पश्चिमी सभ्यता के विरोध में शुरू किये गये । उदाहरण के लिये आर्य समाज द्वारा चालू की गई शुद्धि आंदोलन ने संकीर्ण राष्ट्रीयता का विकास किया , जिसके परिणामस्वरूप साम्प्रदायिकता की वृद्धि हुई । मुस्लिम सुधार आंदोलन भी इस संकीर्णता से नहीं बच पायी , क्योंकि अलीगढ़ आंदोलन में भी 1875 ई . के बाद अलगाववादी तत्त्व आ गये , जिसने साम्प्रदायिकता को बढ़ावा दिया ।

 भारतीय पुनर्जागरणा को एक मध्यम वर्गीय आंदोलन कहा गया है और आलोचकों का कहना है कि इसका प्रभाव भी मध्यम वर्ग तक ही सीमित रहा । यह आंदोलन मुख्य रूप से शहरी रहा । इन आंदोलनों के अधिकतर नेता शिक्षित थे और उनका मुख्य उद्देश्य रहा कि पश्चिमी सभ्यता और पूर्वी सभ्यता के बीच समन्वय स्थापित किया जाय । पुनर्जागरण आंदोलन ने ऐसे धर्म और समाज सुधार आंदोलनों को जन्म दिया , जिनके आधार प्रांतीय रहे हैं ।

उदाहरण के लिए ब्रह्म समाज आंदोलन सिर्फ बंगाल और महाराष्ट्र में ही फैला , आर्य समाज पंजाब और उत्तरी भारत के कुछ इलाकों तक ही सीमित रहा तथा रामकृष्णा मिशन बंगाल में ही केन्द्रित रहा । आधुनिक मार्क्सवादी इतिहासकारों का कहना है कि पुनर्जागरण आंदोलन में आर्थिक तत्त्वों का सर्वथा अभाव रहा है । यद्यपि भारत में इतिहास के सभी चरणों में दरिद्रता और भूखमरी की समस्या रही है । फिर भी इन आंदोलनों ने इन समस्याओं को अनदेखा कर दिया । धर्म परिवर्तन को रोकने के प्रयास धार्मिक विचारों से प्रभावित था । उसी तरह जैसे सती प्रथा को रोकने का प्रयास धार्मिक विचारों से प्रभावित था । सामाजिक मान्यताओं के आर्थिक दुष्प्रभाव की ओर सुधारकों ने ध्यान नहीं दिया । एक समय ऐसा लगा कि इस जागरण से समस्त राष्ट्रीय जीवन की कायापलट हो जाएगी और देश में आधुनिक युग का अभ्युदय होगा । पर ऐसा हुआ नहीं और सुधार आंदोलन भारत में मध्य युग से आधुनिक युग के बीच संक्रमण की एक गोधूलि बनकर रह गया । अलबत्ता , यह गोधूलि मध्ययुग के अवसान और आधुनिक युग के आगमन का संकेत अवश्य दे रही थी । 

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