भाषा के सामाजिक संदर्भ:
भाषा और समाज का संबंध अभिन्न है। मनुष्य के पास भाषा सीखने की क्षमता होती है, किंतु वह भाषा को तभी सीख पाता है जब उसे एक भाषाई समाज का परिवेश प्राप्त होता है। एक ओर समाज के माध्यम से ही भाषा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचती है, तो दूसरी ओर भाषा के माध्यम से समाज संगठित और संचालित होता है। यदि मनुष्य से भाषा छीन ली जाए तो उसकी सामाजिक संरचना भी ध्वस्त हो जाएगी। इसी प्रकार यदि किसी व्यक्ति को समाज के बाहर (जैसे, जंगल में) छोड़ दिया जाए, जहां वह दूसरे व्यक्तियों से नहीं मिल सकता तो भाषा उसके साथ ही मृत हो जाएगी। भाषा अध्ययन के संदर्भ में ‘मनोवादी’ और ‘व्यवहारवादी’ विचारधाराएँ प्रचलित हैं। व्यवहारवादियों द्वारा भाषा को सामाजिक वस्तु माना गया है। उनके अनुसार भाषा समाज में होता है और मानव शिशु इसे अपने समाज से ही ग्रहण करता है। उपर्युक्त बातों के आलोक में भाषा को एक सामाजिक व्यवहार या सामाजिक वस्तु के रूप में देखा जा सकता है। इसे निम्नलिखित बिंदुओं द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है।
1.समाजिक जीवन के आधार के रूप में भाषा भाषा मनुष्य के सामाजिक जीवन का आधार है। इसी के कारण मनुष्य एक सामाजिक प्राणी के रूप में परिभाषित हो गया है। भाषा के अभाव में विचारों की अभिव्यक्ति और बातचीत – प्रदान संभव नहीं है। अतः भाषा नहीं होने पर हम भी अन्य प्राणियों की तरह बख्श विजिटगे।
2. सांस्कृतिक विरासत के रूप में भाषा भाषा किसी भी समाज और संस्कृति की वाहक होती है। यह एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को प्राप्त होता है। मानव शिशु के परिवार और समाज में जो भाषा बोली जाती है वह उसे सीखता है।
3. सामाजिक पहचान के रूप में भाषा भाषा किसी भी व्यक्ति की सामाजिक पहचान प्रदान करने में सक्षम होती है। व्यक्ति का सुर (टोन), शब्द चयन (शब्द चयन) और बातचीत का तरीका उसके भौगोलिक क्षेत्र, धर्म और सामाजिक पृष्ठभूमि की पहचान करते हैं।
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