Unit-1 (इकाई -1)
स्व का बोध और इसका अस्मिता से संबंध
• स्व की अवधारणा की समझ और अस्मिता के साथ इसके संबंध
• व्यक्तिगत , सामाजिक तथा ( वृत्तिक ) पेशेवर स्व का प्रत्ययय अपवत्य ( अनेक ) अस्मिता की समझ : व्यक्ति के संदर्भ में एवं वैयक्तिक विश्वास का बोध
• अस्व एवं अस्मिता के निर्माण में स्वंय अपने सामाजिकरण , प्रक्रियाओं का प्रभाव
• सैद्धांतिक परियेक्षण : शिक्षक स्व समकालीन , वार्तालाप एक आदर्श शिक्षकों के विचार
• भारतीय परिदृश्य में शिक्षकों के स्व में परिवर्तन : गुरु से प्रोफेशनल तक ।
Unit-2(इकाई -2)
शिक्षकों में स्व का निर्माण
• छात्र , व्यस्क और छात्राध्यापक के रूप में , अपने बदलते अस्मिता की जागरुकता
• एक शिक्षक बनने में अपनी स्वयं की आकांक्षाओं को प्रतिबिम्बित करना तथा अस्मिता के निर्माण में इसकी भूमिका ।
• शिक्षकों के स्व और अस्मिता को प्रभावित करने वाले विभिन्न कारक : सामाजिक , सांस्कृतिक , राजनैतिक , आर्थिक संदर्भ : शिक्षक शिक्षा कार्यक्रम की भूमिका ।
• शिक्षकों के वृतांत ( चरित्र ) को उत्पन्न करना और उसमें प्रतिबिम्बित करना ।
• ज्ञान ओर वृतिक नीतिशास्त्र का अभ्यास । शिक्षकों स्वशासनः अस्मिता विकास का विकास .
Unit -3(इकाई -3)
नेतृत्व का प्रत्यय : मूलभूत सिद्धांत और स्कूल में निर्णय करना ।
UNIT - 1 : स्वयं की समझ ( Understanding Self )
Q.1 . आत्म सजगता का वर्णन कीजिए । ( Discuss the Self Awareness . )
आत्म जागरूक(Self Aware) होने का मतलब आपके व्यक्तित्व का तेज अहसास है, जिसमें आपकी शक्तियां, कमजोरियां, आपके विचार और विश्वास, आपकी भावनाएं और आपकी प्रेरणा शामिल है। यदि आप स्वयं से अवगत हों तो अन्य लोगों को समझना और यह पता लगाना आसान है कि वे आपको बदले में कैसा महसूस करते हैं।
आत्म जागरूकता क्यों जरूरी है Why Self Awareness Is Important?
आत्म-जागरुक बनना जीवन के निर्माण में एक प्रारंभिक कदम है। इससे आपको यह पता लगाने में मदद मिलती है कि आपका जुनून(Passion) और भावनाएं(Feelings) क्या हैं, और आपका व्यक्तित्व(Personality) आपके जीवन में आपकी मदद कैसे कर सकता है। जब आप आत्म जागरूक(Self Aware) होते हैं, तो आप देख सकते हैं कि आपके विचार और भावनाएं आपको कहां ले जा रही हैं। एक बार जब आप अपने विचारों, शब्दों, भावनाओं और व्यवहार से अवगत हो जाते हैं, तो आप अपने भविष्य की दिशा में बदलाव करने में सक्षम हो जाते हैं।
आत्म जागरूक होने के फायदे Benefits Of Being Self-Aware?
जब आप आत्म-जागरूकता विकसित(Develop Self Awareness) करते हैं, तो आपके व्यक्तिगत विचारों और व्याख्याओं में बदलाव आना शुरू हो जाता है। मानसिक स्थिति में यह परिवर्तन आपकी भावनाओं को भी बदल देता है और आपकी भावनात्मक बुद्धि को बढ़ाता है, जो समग्र सफलता प्राप्त करने में एक महत्वपूर्ण कारक है।
अलग-अलग क्षेत्रों में आत्म-जागरूकता कैसे महत्वपूर्ण हो सकती है?
नेतृत्व “LEADERSHIP”
“आत्म जागरूकता क्या है?” का उत्तर देने में सक्षम होने के बिना आप एक प्रभावी नेता नहीं बन सकते।
यह मजबूत चरित्र रखने के लिए आवश्यक आधार प्रदान करता है, उद्धेश्य, विश्वास, प्रमाणिकता और खुलेपन के साथ नेतृत्व करने की क्षमता पैदा करता है। यह नेताओं को उनके प्रबंधन कौशल में होने वाले किसी भी अंतर की पहचान करने का मौका भी देता है, और उन क्षेत्रों को बताता है जिनमें वे प्रभावी हैं और जहां उन्हें अतिरिक्त कार्य की आवश्यकता हो सकती है।
इन चीजों को जानना नेताओं(Leaders) को समझदार निर्णय लेने में मदद करता है। आत्म-जागरुक होना या सीखना एक साधारण प्रक्रिया नहीं है, लेकिन ऐसा करने से किसी के नेतृत्व कौशल में सुधार हो सकता है और अधिक सहायक व्यावसायिक संस्कृति का कारण बन सकता है।
सामाजिक कार्य “Social Work”
एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में, आत्म-जागरूकता रखना विशिष्ट स्थितियों में सामना करने की तैयारी का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। एक प्रभावी सामाजिक कार्यकर्ता बनने की अधिकांश प्रक्रिया आत्म-जागरूक होने से बनी है।
शिक्षा “Education”
आत्म जागरुकता का अर्थ क्या है और शिक्षा में यह महत्वपूर्ण क्यों है?
आत्म-जागरूकता शिक्षा में एक बड़ी भूमिका निभाता है क्योंकि इससे छात्रों को सीखने की आवश्यकता पर ध्यान केंद्रित करने में मदद मिलती है।
जब शिक्षक छात्रों के साथ काम करते हैं, उन्हें खुद को प्रतिबिंबित करने, निगरानी करने और मूल्यांकन करने के लिए सिखाते हैं, तो छात्र अधिक आत्मनिर्भर और उत्पादक बनते हैं। यह छात्रों को अपने भावनात्मक और सामाजिक जीवन में आत्म-प्रतिबिंबित करने और Grow करने के लिए भी Tool प्रदान करता है।
आत्म जागरूक कैसे बनें
“How To Develop And Increase Self-Awareness In HIndi”
1. अपने आप को निष्पक्ष रूप से देखें Look At Yourself Objectively
वास्तविक रूप में खुद को देखने का एक बहुत ही कठिन प्रक्रिया हो सकती है, लेकिन यदि आप सही प्रयास करते हैं, तो अपने असली आत्म को जानना बेहद पुरस्कृत हो सकता है। जब आप अपने आप को निष्पक्ष रूप से देखने में सक्षम होते हैं, तो आप सीख सकते हैं कि कैसे स्वयं को स्वीकार करें और भविष्य में खुद को सुधारने के तरीके खोजें।
v अपनी धारणाओं(Perceptions) को लिखकर अपनी वर्तमान समझ को पहचानने का प्रयास करें। यह चीजें हो सकती है जो आपको लगता है कि आप ऐसा करने में अच्छे हैं, या आपको सुधारने की आवश्यकता है।
v उन चीजों के बारे में सोचें जिनके बारे में आप गर्व करते हैं, या आपके जीवन भर में वास्तव में मिली किसी भी उपलब्धि के बारे में सोचें।
v अपने बचपन के बारे में सोचें आपको कौन सी चीजों से खुशी मिलती थी। क्या बदल गया है और क्या शेष बचा है? परिवर्तन के कारण क्या है?
v दूसरों को आपके बारे में ईमानदार होने के लिए प्रोत्साहित करें कि वे आपके बारे में कैसा महसूस करते हैं, और फिर वे जो कहते हैं उन्हें आप दिल से लो।
अंत में, आप अपने और अपने जीवन पर एक नए परिप्रेक्ष्य(Perspective) के साथ बाहर आएंगे।
2. अपने लक्ष्य, योजनाएं, और प्राथमिकताओं को लिखें Write Down Your Goals, Plans
एक Blank Paper या Worksheet में अपने लक्ष्यों की योजना बनाएं ताकि वे Step-By-Step प्रक्रिया में विचारों के रूप में सामने आयें। अपने बड़े Goals को Mini Goals में तोड़े, जिससे यह कम भारी लगता है, और फिर इसे आगे बढ़ाएं।
3. ध्यान और अन्य दिमागी आदतों का अभ्यास करें Practice Meditation And Other Mental Habits
ध्यान(Meditation) आपके दिमागी जागरूकता में सुधार का अभ्यास है। ध्यान के अधिकांश प्रकार सांस पर ध्यान केंद्रित करते हैं। ध्यान और अन्य दिमागीपन आदतों का अभ्यास करने से आपको बड़ी स्पष्टता और आत्म-जागरूकता मिलती है।
ध्यान के सबसे लगातार रूपों में से एक आप अभ्यास कर सकते हैं जो आपको चिकित्सकीय शांति की भावना देता है, जैसे कि एक दौड़ के लिए जाना, व्यायाम करना और मंदिर या चर्च जाना।
4. भरोसेमंद दोस्तों से आपको बताने के लिए कहें “Ask Trusted Friends To Describe You”
हम कैसे जान सकते हैं कि अन्य लोग हमारे बारे में क्या सोचते हैं? हमें अपने साथियों और सलाहकारों की प्रतिक्रिया सुनना है, कि वे हमारे बारे में क्या सोचते हैं। और उन्हें एक ईमानदार दर्पण(Mirror) की भूमिका निभाने को कहना है। आप यह भी सुनिश्चित करें कि आपके मित्र जानते हैं कि वे आपकी मदद करने के लिए ऐसा कर रहे हैं, आपको चोट पहुंचाने के लिए नहीं। इसके अलावा, आप अपने दोस्तों को प्रश्न पूछने के लिए भी कह सकते हैं।
भरोसेमंद दोस्तों से आपको बताने के लिए कहें। अपने दोस्तों को सुरक्षित महसूस करने दें, जबकि वे आपको एक अनौपचारिक लेकिन ईमानदार दृश्य दे रहे हैं।
आत्म-जागरूकता क्या है? What Is Self-Awareness?
आत्म-जागरूकता क्यों जरूरी है? Why Is Self-Awareness Important?
आत्म-जागरूक होने के फायदे Benefits Of Being Self-Aware?
आत्म जाकगरूकता कैसे विकसित करें और बढ़ाएं How To Develop And Increase Self-Awareness In HIndi
Q.2 . . ' स्व ' की अवधारणा का विवेचन करें । --- ( Discuss the conception of ' Self . )
Ans . जहाँ एक ओर आलोचकों की दृष्टि में व्यक्तित्व की गुण विचारधारा , मनोविश्लेषक विचारधारा तथा सामाजिक - मनोवैज्ञानिक विचारधारा एक परम्परागत विचारधारा है , वहीं दूसरी ओर ' स्व ' विचारधारा है जो व्यक्तित्व संरचना के विभिन्न भागों में ' अर्थपूर्ण सम्पूर्णता ' में एकीकृत करती है । यद्यपि इस विचारधारा के विकास में कई विद्वानों , जैसे मैस्लो , हर्जबर्ग , लेविन आदि ने महत्वपूर्ण योगदान दिया है किन्तु कार्ल सी , रोजर्स ( Carl C. Rogers ) का नाम इस विचारधारा के साथ विशेष रूप से जुड़ा हुआ है ।
रोजर्स ( Karl Rogers ) ' स्व ' अथवा ' स्व अवधारणा ' को निम्न प्रकार से परिभाषित करते हैं — ' स्व ' अथवा ' स्व ' अवधारणा एक संगठित , सुसंगत वैचारिक संरूपण है जो ' मैं ' और ' मुझे ' के लक्षणों के अवबोध एवं ' मैं ' और ' मुझे ' के दूसरों के एवं जीवन के अन्य पहलुओं के साथ सम्बन्धों के अवबोध तथा इन अवबोधों के साथ जुड़े मूल्यों से निर्मित होता है । " ( " Self or self - concept is an organized , consistent conceptual , gestalt composed of perceptions of the characteristics of the ' l ' or ' me ' and the perceptions of the relationship of ' T ' or ' me ' to others and to various aspects of life , to gether with the values attached to these perceptions . " )
ई . इर्कसन ( E. Erkson ) के अनुसार , ' स्व - अवधारणा ' के निम्न चार घटक हैं :
1. स्व - छवि ( Self - image ) - स्व - छवि एक ऐसा मार्ग है जिसमें व्यक्ति स्वयं को देखता है । प्रकृति के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति के अपन बारे में कुछ विचार होते हैं कि आखिर वह कौन एवं क्या है ? ये विचार ही उस व्यक्ति की ' स्व - छवि ' अथवा ' पहचान '
2. ' आदर्श - स्व ' ( Ideal Self ) आदर्श - स्व यह बताता है कि व्यक्ति कैसा बनना चाहता है । ' स्व - छवि ' और ' आदर्श - स्व ' में मूलभूत अन्तर यह है कि जहाँ एक ' स्व - छवि ' व्यक्ति की वास्तविकता को इंगित करती है , वहीं दूसरी ओर ' आदर्श - स्व ' व्यक्ति के आदर्श को इंगित करता है अथवा व्यक्ति कैसा बनना चाहता है । ' स्व - छवि ' की तुलना में ' आदर्श - स्व ' अधिक महत्वपूर्ण है । यह व्यक्ति को एक विशेष प्रकार से व्यवहार करने के लिए अभिप्रेरित करता है । व्यक्ति उन्हीं उत्तेजनों का चयन करेगा जोकि उसके ' आदर्श - स्व ' में निखार लाने में सहयोग प्रदान करते हैं ।
3. दर्पण - स्व ( Looking glass - self ) - ' दर्पण - स -स्व ' व्यक्ति विशेष का अवबोध न है कि दूसरे लोग उसके गुणों एवं विशेषताओं का किस प्रकार से अवर्बोधन करते हैं । दूसरे शब्दों में ' दर्पण - स्व ' से आशय एक ऐसे तरीके से है जिसमें व्यक्ति यह सोचता है कि तथा लोग उसके बारे में क्या सोचते हैं न कि उस तरीके से जिसमें लोग उसे वास्तव में देखने हैं । यदि देखा जाय तो ' दर्पण - स्व ' व्यक्ति के ' स्व ' की परछाई है जिसका अन्य लोग अवबोधन करते हैं ।
4. वास्तविक - स्व ( Real - self ) – ' वास्तविक - स्व ' एक वास्तविकता है कि आखिर व्यक्ति है क्या । ' स्व - अवधारणा ' के प्रथम तीन पहलू ( जिनका वर्णन किया जा चुका है । तो व्यक्ति के स्वयं के बारे में अवबोधन है । वे वास्तव में स्व के समान अथवा उससे भिन्न हो सकते हैं ।
कार्ल रोजर्स ( Karl Rogers ) ने निम्न दो प्रकार की ' स्व - अवधारणाओं ' का उल्लेख किया है।
( क ) व्यक्तिगत ' स्व ' ( Personal Self ) - रोजर्स कहता है कि ' मैं '
( 1 ) व्यक्तिगत स्व की अवधारणा है । स्व वह है जो एक व्यक्ति अपने होने में विश्वास करता है स्वयं होने का प्रयास करता है । यह एक व्यक्ति की मनोवैज्ञानिक प्रक्रियाओं जैसे अवबोधन , सीखना एवं अभिप्रेरणा आदि से निर्मित होता है जो कि संयुक्त रूप से एक अद्वितीय सम्पूर्णता में रूपान्तरित हो जाती है ।
( ख ) सामाजिक ' स्व ' ( Social Self ) - मुझे या मेरा ( Me ) सामाजिक ' स्व ' को दर्शाता है और उसका प्रतिनिधित्व करता है । ' मुझे ' या ' मेरा ' वह ढंग है जिससे एक व्यक्ति दूसरों के प्रति प्रकट होता है या दूसरों से जुड़ता है अथवा वह ढंग है जिसमें वह व्यक्ति सोचता है कि वह दूसरों के साथ कैसे प्रकट हो रहा । एक व्यक्ति जो भूमिका समाज में निभाता है , वह उसके आन्तरिक ' स्व ' का परावर्तन है । यह एक ' दर्पण छवि ' ( Mirror Image ) है । मेरे उस विश्वास की कि लोग मुझसे क्या चाहते हैं । स्पष्ट है कि ' मुझे ' या मेरा उस भूमिका प्रत्याशाओं से जुड़ा है जो मेरे ' स्व ' के बारे में दूसरे रखते हैं ।
संगठनात्मक व्यवहार का विश्लेषण करने में ' स्व ' अवधारणा की महत्वपूर्ण भूमिका होती है । एक व्यक्ति ऐसी स्थिति का अवबोधन करता है जोकि उसकी ' स्व - अवधारणा ' पर निर्भर करती है । इसका मानव के व्यवहार पर सीधा प्रभाव पड़ता है । इसका आशय हुआ कि विभिन्न स्व - अवधारणा वाले व्यक्तियों के लिए विभिन्न प्रकार के प्रबन्धकीय व्यवहारों की आवश्यकता होती है मनोविज्ञान के इतिहास में कार्ल रोजर्स'अमेरिका के एक अत्यन्त आशावादी मनोचिकित्सक के रूप में चित्रित किए गए हैं !
रोजर्स ने व्यक्ति उसके व्यक्तित्व को सही रूप में जानने के उद्देश्य से एक विशिष्ट दृष्टिकोण को अपनाया और एक अभूतपूर्व उपागम का अनुसरण किया ।
रोजर्स के चिन्तन पर गोल्डस्टीन ( Goldstein ) और अब्राहम मैस्लो ( Abraham Maslow ) के दार्शनिक विचारों का सीधा प्रभाव पड़ा है । उनका व्यक्तित्व सिद्धान्त एक दृष्टि से समग्रवादी : ( Organismic ) , अस्तित्ववादी ( exitential ) , फेनॉमेनालॉजिकल ( Phenomenological ) तथा मानवतावादी ( humanistic ) कहा जाता है ।
मैस्लो ने आत्मसिद्धि ( self actualization ) को व्यक्ति की सबसे महत्वपूर्ण प्रेरकवृत्ति माना है और आत्मसिद्ध व्यक्तियों की व्यक्तिगत विशेषताओं का गहन अध्ययन किया है । रोजर्स ने मैस्लो की इस अवधारणा को आत्मसात कर आत्मसिद्धि को व्यक्ति के जीवन का एक मात्र लक्ष्य माना । आल्पोर्ट , गोल्डस्टीन , युंग और हेनरी मरे की ही भांति रोजर्स ने भी व्यक्ति का उसकी समग्रत ( totality ) में अध्ययन करना उचित बताया है और कहा है कि व्यक्ति के किसी व्यवहार को पृथक् कर उसके वास्तविक अर्थ तक नहीं पहुँचा जा सकता ।
इसे ही मनोविज्ञान में समग्रतावादी ( organismic ) दृष्टिकोण कहा गया कार्ल रोजर्स ने व्यक्तित्व मनोविज्ञान के क्षेत्र में एक मानवतावादी विचारक के रूप में भी अपनी पहचान बनाई है । इस संदर्भ में उनका दृष्टिकोण अत्यन्त उदारवादी रहा है ।
मानव व्यक्तित्व के संदर्भ में रोजर्स ने एक और फ्रायड की निराशावादी मान्यताओं को पूर्णत : अस्वीकार कर दिया है और रोजर्स ने अपने मानवतावादी मनोविज्ञान में स्वस्थ और रचनात्मक विकास की संभावनाओं से परिपूर्ण मानव की संकल्पना प्रस्तुत की है । एक मनोचिकित्सक के रूप में कार्ल रोजर्स से सम्पूर्ण व्यक्तित्व को दो संघटकों प्राणी ( organism ) और स्व ( self ) के रूप में विच्छेदित कर प्रत्येक की व्याख्या प्रस्तुत की है । प्राणी और स्व ही व्यक्ति के समस्त अनुभवों के केन्द्र बिन्दु माने गए हैं और व्यक्ति को इन्हीं अनुभवों का संज्ञान उसके स्वस्थ और सुखी जीवन के लिए आवश्यक होता है इसीलिए रोजस का सिद्धान्त व्यक्ति केन्द्रित सिद्धान्त ( person centred theory ) भी कहा जाता है ।
वस्तुतः प्राणी और स्व के सम्प्रत्ययों को इन्द्रियानुभविक अन्वेषण ( empirical investigation ) का विषय बनाने का श्रेय केवल रोजर्स को ही है । वैसे प्रकारान्तर से रोजर्स के लिए प्राणी , स्व तथा व्यक्ति ( person ) में कोई स्पष्ट भेद नहीं है । रोजर्स का सिद्धान्त फेनॉमेनालॉजिकल ( phenomenological ) इसलिए कहा जाता है क्योंकि रोजर्स के अनुसार , व्यक्ति अपने भीतर निहत संभावनाओं ( potwntialities ) का प्रत्यक्ष अनुभव करता है और उसी के अनुरूप व्यवहार करता है । इसी प्रकार चूँकि व्यक्ति का व्यवहार उसकी क्षमताओं के संज्ञान या प्रत्यक्षीकरण पर निर्भर होता है इसलिए रोजर्स का सिद्धान्त संज्ञानात्मक सिद्धान्तों ( cognitive theories ) के समूह में वर्गीकृत किया जा सकता है ।
Q.3 . आत्म - प्रत्यय से आप क्या समझते हैं ? इसको प्रभावित करने वाले कारकों की विवेचना करें । ( What do you understand by Self Concept ? Discuss its influencing factors . )
उत्तर -
आत्म - प्रत्यय वह सामान्य पद है , जिसका अर्थ है व्यक्ति के गुणों और व्यवहार आदि के सम्बन्ध में उसका मत । एक व्यक्ति अपने गुणों और क्रूवहार आदि के सम्बन्ध में जो मत रखता है , वही उसका आत्म - प्रत्यय है । प्रत्येक व्यक्ति का आत्म - प्रत्यय उसके विचारों पर आधारित होता है तथा उस व्यक्ति के लिए यह आत्म - प्रत्यय बहुत महत्वपूर्ण होता है । मनोविज्ञान में आत्म - प्रत्यय से सम्बन्धित शोध अध्ययन का सन् 1950 के आस - पास से बहुत अधिक महत्व दिया जा रहा है । आत्म - प्रत्यय व्यक्तित्व का केन्द्र बिन्दु है । व्यक्तित्व की तुलना साइकिल के पहिए से करें तो कहा जा सकता है कि साइकिल के पहिए में लगा हुआ अब आत्म - प्रत्यय है तथा हब से जुड़ी हुई तीलियाँ व्यक्तित्व के विभिन्न लक्षण या शीलगुण हैं । कैटेल ( 1957 ) ने इस सम्बन्ध में विचार व्यक्त करते हुए लिखा है- " Self - concept is keystone of personality . " शैफर और शोबिन ( 1956 ) ने इस सम्बन्ध में लिखा है कि- " The major function of traits is to integrate lesser habits , attitudes and skills into larger thoughts , feeling action patterns . The concept of self , in turn , integrates the psychological capacities of the person and initiates action in this role , the concept of self is the true core centre of gravity of the pattern . " " आइजनेक और उनके साथियों ( 1972 ) ने आत्म - प्रत्यय को परिभाषित करते हुए लिखा है कि " व्यक्ति के व्यवहार , योग्यताओं और गुणों के सम्बन्ध में उसकी अभिवृत्ति , निर्णयों और मूल्यों के योग को ही आत्म - प्रत्यय कहते हैं । " आत्म - प्रत्यय के अवयव ( Components of Self - Concept ) — आत्म - प्रत्यय के निम्नलिखित तीन प्रमुख अवयव हैं 1. प्रत्यक्षपरक अवयव ( Perceptual Component ) - इस अवयव के अन्तर्गत उसके शरीर की प्रतिभा आती है तथा दूसरों पर क्या छाप छोड़ता है यह भी उसके प्रत्यक्षपरक अवयव के अन्तर्गत आता है । दूसरे शब्दों में व्यक्ति शारीरिक रूप से कितना आकर्षक है । इस अवयव को शारीरिक आत्म - प्रत्यय भी कहते हैं । 2. प्रत्ययात्मक अवयव ( Conceptual Component ) — इसके अन्तर्गत उसकी वह विशेषताएँ आती है , जिनके कारण वह दूसरों से भिन्न है । इसके अन्तर्गत उसकी योग्यताएँ और अयोग्यताएँ भी आती हैं । इसके अन्तर्गत जीवन के समायोजन से सम्बन्धित विशेषताएँ भी आती हैं , जैसे ईमानदारी , आत्म - शिवस , स्वतंत्रता , साहस अथवा इन गुणों के विपरीत गुण । इस अवयव को मनोवैज्ञानिक आत्म - प्रत्यय भी कहते हैं । 3. अभिवृत्तिपरक अवयव ( Attitudinal Self - concept ) - इसके अन्तर्गत व्यक्ति के स्वयं के प्रति भाव आते हैं । इसके अन्तर्गत यह अभिवृत्तियाँ भी आती हैं जो इसके आत्म - सम्मान , आत्म - उपागम , गर्व आदि से सम्बन्धित होती हैं । इसके अन्तर्गत उसके विश्वास , धारणाएँ और विभिन्न प्रकार के मूल्य , आदर्श और आकांक्षाएँ भी आती आत्म - प्रत्यय के प्रकार ( Kinds of Self - Concept ) आत्म - प्रत्यय मुख्यतः दो प्रकार का हो सकता है ( 1 ) वास्तविक आत्म - प्रत्यय — वह कौन और क्या है , से सम्बन्धित आत्म - प्रत्यय ही वास्तविक आत्म - प्रत्यय है । ( 2 ) आदर्श आत्म - प्रत्यय वह क्या बनना चाहेगा , से सम्बन्धित आत्म - प्रत्यय ही आदर्श आत्म - प्रत्यय है । उपर्युक्त दोनों प्रकार का आत्म - प्रत्यय प्राय : दो - दो प्रकार का हो सकता है . ( 1 ) शारीरिक आत्म - प्रत्यय , ( 2 ) मनोवैज्ञानिक आत्म - प्रत्यय । इन दोनों प्रकार के आत्म - प्रत्यय का अर्थ ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है । कुछ अनुसंधानकर्ताओं ने दो प्रकार के आत्म - प्रत्यय बताए हैं ( 1 ) गुणात्मक आत्म - प्रत्यय ( Subjective Self - Concept ) - यह आत्म - प्रत्यय अस्थिर होता है । यह " What I think of myself " कथन पर आधारित होता है । ( 2 ) वस्तुनिष्ठ आत्म - प्रत्यय ( Objective Self - concept ) - यह आत्म - प्रत्यय अपेक्षाकृत स्थिर होता है । यह " What others think of me " कथन पर आधारित होता है । किसी भी प्रकार का आत्म्म - प्रत्यय इन दो प्रकार में से किसी एक प्रकार का हो सकता है । आत्म - प्रत्यय को प्रभावित करने वाले कारक ( Factors Effecting Self Concept ) बालकों में आत्म - प्रत्यय का विकास अनेक कारकों पर आधारित है । इन्हीं कारकों के प्रभावों के परिणामस्वरूप बालकों में आत्म - प्रत्यय का विकास होता है । कुछ महत्त्वपूर्ण कारक निम्न प्रकार से हैं ( 1 ) परिपक्वता , ( 2 ) बौद्धिक योग्यताएँ , जैसे बुद्धि , तर्क , कल्पना , स्मृति और चिन्तन आदि ( 3 ) सीखने के अवसर , ( 4 ) बालक के परिवार का आर्थिक - सामाजिक स्तर , ( 5 ) अनुभव , विशेष रूप से मूर्त अनुभव , ( 6 ) लिंग , आयु बढ़ने के साथ - साथ यह कारक आत्म - प्रत्यय निर्माण को महत्त्वपूर्ण ढंग से प्रभावित करता है , ( 7 ) सूचना प्रतिपूर्ति , ( 8 ) समायोजन , ( 9 ) सामाजिक तथा मनोवैज्ञानिक वातावरण आदि कुछ प्रमुख कारक हैं ।
Q.4 . आत्म प्रत्यय के विकास पर प्रकाश डालें । ( Throw light the development of Self Concept . )
उत्तर -
Anks आत्म - प्रत्यय ( Self - concept ) - जीवन के प्रथम वर्ष के अंत तक वह अपने आपको एक अलग प्राणी के रूप में समझने लगता है । वह अपनी आवाज से पहले अपनी माँ की आवाज पहचानता है । इसी प्रकार से वह शीशे में अपनी शक्ल से दूसरों की शक्ल पहले पहचानना सीखता है । हरलॉक ( 1978 ) का विचार है कि " Because baby is primarily egocentric ; he forms concept about himself before he forms concepts about others . " बच्चे के आत्म - प्रत्यय में दो प्रकार की प्रतिभाएँ होती हैं । पहली आत्म - प्रतिभाएँ शारीरिक आत्म - प्रतिभाएँ हैं । इन आत्म - प्रतिभाओं का विकास पहले होता है । इसका सम्बन्ध बालकों की शारीरिक बनावट और रंग - रूप से होता है । दूसरी आत्म - प्रतिभाएँ मनोवैज्ञानिक आत्म - प्रतिभाएँ होती हैं । इन आत्म - प्रतिभाओं में बालकों की भावनाएँ , विचार , संवेग , साहस , ईमानदारी , स्वतंत्रता , आत्म - विश्वास , योग्यताएँ तथा आकांक्षाएँ आदि सम्मिलित होती हैं । बालक की आयु जैसे - जैसे बढ़ती जाती है केले - वैसे शारीरिक और मनोवैज्ञानिक प्रतिभाएँ आपस में एक - दूसरे से सात्मीकरण हो जाती है या पपूज हो जाती है । एल , के . फ्रैन्क और एम . एच . फ्रैंक ( 1956 ) का विचार है कि " The child learn to think ard fee ! about himself as defined by others . He develops an image of self as tne chief actor in his ' private world ' . This image devel ops primarily from the way parents , teachers and other significant persons describe , punish , praise , or iove him . " बालक अपने चारों ओर के वातावरण में जैसा अपने - आपको देखता है और जै . उसके परिवार के लोग और परिचित उसे देखते हैं । इसी आधार पर वह अपने आत्म - प्रत्यय का निर्माण करता है । यही कारण है कि आत्म - प्रत्यय को दर्पण प्रतिमा कहा गया है । हरलॉक ( 1978 ) का भी विचार है कि " The child's concept of himself as a person to a mirror image of what he believes significant people in his life think of him . " कभी - कभी जब परिवार के लोग बालक को शैतान समझने लगते हैं , खेल के साथी भी इसी प्रकार का मत बना लेते हैं तो बालक अपना आत्म - प्रत्यय भी इसी प्रकार का बनाता है जिसमें वह अपने आपको एक शैतान बच्चे के रूप में देखता है । चूंकि बच्चा कम अनुभवों वाला होता है इसलिए दूसरे लोग उसके साथ कैसा व्यवहार करते हैं इस बात को कभी - कभी वह Misinter pret कर जाता है । एक बार आत्म - प्रत्यय बनने के बाद यद्यपि यह स्थिर होते हैं परन्तु नए अनुभवों के बढ़ने के साथ - साथ इनमें भी संशोधन और परिवर्द्धन होता रहता है । आत्म - प्रत्ययों में क्रमबद्धता पाई जाती है । बालक में प्रारम्भिक अवस्था में जो आत्म - प्रतयय बनते हैं उन्हें प्राथमिक आत्म - प्रत्यय कहा जाता है यह आत्म - प्रतयय माता - पिता के शिक्षण के आधार पर अथवा परिवार के सदस्यों के शिक्षण के आधार पर बनते हैं । इन प्राथमिक आत्म - प्रत्ययों में भी शारीरिक और मनोवैज्ञानिक , दोनों प्रकार की आत्म - प्रतिभाएँ पाई जाती है । जब बालक दूसरे बच्चों के साथ खेलना प्रारम्भ करता है , स्कूल जाना प्रारम्भ करता है तब उसमें पहले से बने प्राथमिक प्रत्ययों का संशोधन और परिवर्द्धन होने लगता है । इस अवस्था के आत्म - प्रत्यय उद्दीपक आत्म - प्रत्यय कहे जाते हैं । इस प्रकार के आत्म - प्रत्यय बहुधा इस बात पर आधारित होते हैं कि दूसरे लोग बालक को किस प्रकार और किस दृष्टि से देखते हैं । बहुधा यह देखा गया है कि बालकों का प्राथमिक आत्म - प्रत्यय अधिक अनुकूल होता है तथा द्वितीयक आत्म - प्रत्यय उतना उनके अनुकूल नहीं होता है । अध्ययनों में देखा गया है कि समय - समय पर बालक अपने आत्म - प्रत्ययों में अपने सामाजिक और सांस्कृतिक समूहों के मूल्यों , नियमों और प्रतिमानों के अनुसार संशोधन करते रहते हैं । लगभग तीन - चार वर्ष की अवस्था तक बालक सेक्स - सम्बन्धी अन्तर समझने ही नहीं लगता , बल्कि वह बालों और कपड़ों के रख - रखाव के आधार पर लड़के - लड़कियों , स्त्री - पुरुषों को अलग - अलग पहचानने भी लग जाता । जब वह स्कूल जाना प्रारम्भ करता है , तो उसका यह अन्तर और अधिक स्पष्ट हो जाता है परन्तु वय - सन्धि अवस्था में वह दो सेक्स के अन्तर को पूर्णतः पहचान जाता है । बालक जब स्कूल जाना प्रारम्भ करता है , उस समय तक मेल और फीमेल सेक्स के कार्यों को भी जानने लग जाता है । लगभग चार साल का बालक अपने जातीय और प्रजातीय अन्तरों को भी इसलिए पहचानने लग जाता है कि खेल के साथी और दूसरे लोग उससे उसकी जाति और प्रजाति के अनुसार का 14 व्यवहार करने लग जाते हैं । जब वह स्कूल जाने लग जाता है तब वह अपन प्रतिष्ठा और अपने परिवार के सामाजिक और आर्थिक स्तर का भी ज्ञान प्राप्त कर लेता । स्कूल जाने तक वह यह समझने लगता है कि परिवार की और उसकी प्रतिष्ठा तथा सामाजिक - आर्थिक स्तर माता - पिता के व्यवसाय से निर्धारित होता है । वह इन वर्षों को अपने आत्म - प्रत्यय से जोड़ लेता है । कुछ महत्त्वपूर्ण शोध अध्ययन ( Some Important Research Studies ) अनेक शोध अध्ययनों ( सारबिन और रोजनबर्ग , 1955 ; अमातोरा , 1957 ; इन्गिल , 1959 ; स्मिथ और क्लीफन , 1962 ) से यह स्पष्ट हुआ है कि बालक और बालिकाओं के आत्म - प्रत्यय में सार्थक अन्तर होता है । लाइवली ( 1962 ) ने अपने अध्ययनों के आधार पर यह स्पष्ट किया कि जीवन के प्रारम्भिक वर्षों में आत्म - प्रत्यय अस्थिर होता है । आयु बढ़ने के साथ - साथ उसमें स्थिरता आती है । जिन लोगों का आत्म - प्रत्यय अस्थिर होता है उनका समायोजन अच्छा नहीं होता है ( वार्चेल , 1957 ; क्रपरस्मिथ , 1959 ) । दीक्षित ( 1985 ) ने अपने अध्ययनों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला कि किशोरों के आत्म - प्रत्यय को कुण्ठा तथा कुण्ठा के विभिन्न मोड्स महत्वपूर्ण ढंग से प्रभावित करते जरसील्ड ( 1971 ) का विचार है कि आत्म - प्रत्यय व्यक्ति के विचारों और अनुभवों से बनता है । चूँकि विचार और अनुभव परिवर्तित होते रहते हैं , अत : आत्म - प्रत्यय भी परिवर्तित होता रहता है । वाइली ( 1961 ) ने अपने अध्ययनों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला कि आत्म - प्रत्यय का सम्बन्ध समायोजन से होता है । इस दिशा में हुए कुछ अध्ययनों ( मेरिस , 1958 ) ; क्रपरस्मिथ , 1967 ; सियर्स , 1970 ) से यह निष्कर्ष प्राप्त हुआ कि जिन व्यक्तियों में आत्म - स्वीकृति जितनी ही अधिक होती है , उनका समायोजन उतना ही अधिक होता है । कुछ अन्य अध्ययनों ( मूसैन ओर पोर्टर , 1959 , जिम्बार्डो और फारिमिका , 1963 ; रंग और साथी , 1965 ; हरटप और कोट्स 1967 ; मैकडोनाल्ड , 1969 आदि ) में यह सिद्ध किया गया है कि व्यक्ति के आत्म - प्रत्यय की शुद्धता उसके जीवन के विभिन्न क्षेत्रों के समायोजन को सार्थक ढंग से प्रभावित करती है । इसमें हुए अध्ययनों से यह भी स्पष्ट हुआ कि आत्म - प्रत्यय की स्थिरता भी उसके समायोजन को महत्वपूर्ण ढंग से प्रभावित करती है । यह पाया गया है कि आत्म - प्रत्यय जितना ही अधिक स्थिर होता है , विभिन्न क्षेत्रों का समायोजन उतना ही दुर्बल होता है ( कैटल , 1967 ; कार्टराइट , 1963 ; हरलॉक , 1974 ) । कुछ अध्ययनों ( बेरी , 1974 ; टोनोबेथ , 1980 ; थॉमस , 1982 ) में यह सिद्ध किया गया है किक व्यक्ति जितना ही कम आक्रामक होता है , उसका आत्म - प्रत्यय उतना ही अधिक उच्च होता है । आकांक्षा स्तर और आत्म - प्रत्यय में भी महत्वपूर्ण सम्बन्ध होता है । मरगारी ( 1979 ) के अनुसार आकांक्षा स्तर और आत्म - प्रत्यय में ऋणात्मक सम्बन्ध होता . है । यह देखा गया है कि जब व्यक्ति की उपलब्धि और उसके लक्ष्य में अन्तर अधिक होता है , तब उसका आत्म - प्रत्यय ऋणात्मक रूप से प्रभावित होता है । कमलेश रानी और डी . एन . श्रीवास्तव ( 1992 ) को अपने अध्ययनों के आधार पर निम्नलिखित महत्वपूर्ण निष्कर्ष प्राप्त हुए ( 1 ) आन्तरिक लोकस ऑफ कन्ट्रोल जिन प्रयोज्यों का उच्च होता है , उनका आत्म - प्रत्यय भी उसी रूप में उच्च होता है । ( 2 ) इसी अध्ययन में यह भी देखा गया कि प्रयोज्यों के जीवन मूल्यों का भी आत्म - प्रत्यय से महत्वपूर्ण सम्बन्ध है । उदाहरण के लिए जिन प्रयोज्यों में धार्मिक मूल्य , सामाजिक मूल्य , आर्थिक मूल्य और ज्ञान मूल्य आदि उच्च स्तर के होते हैं उन प्रयोज्यों का आत्म - प्रत्यय अपेक्षाकृत अच्छा होता है । ( 3 ) तृतीय महत्वपूर्ण निष्कर्ष यह प्राप्त हुआ कि जिन प्रयोज्यों का गृह समायोजन , स्वास्थ्य रमायोजन , सामाजिक समायोजन , संवेगात्मक समायोजन और शैक्षिक समायोजन उच्च होता है उन प्रयोज्यों का आत्म - प्रत्यय भी अपेक्षाकृत अच्छा होता है । ( 4 ) स्वास्थ्य समायोजन या सामाजिक समायोजन या संवेगात्मक समायोजन और लोकस ऑफ कन्ट्रोल का आत्म - प्रत्यय पर अन्त : क्रियात्मक प्रभाव पड़ता है । ( 5 ) धार्मिक मूल्य या सामाजिक मूल्य या आर्थिक मूल्य और संवेगात्मक समायोजन का आत्म - प्रत्यय पर अन्त : क्रियात्मक प्रभाव पड़ता है । ( 6 ) संवेगात्मक समायोजन लोकस ऑफ कन्ट्रोल और कुछ मूल्य , जैसे सामाजिक मूल्य , स्वास्थ्य मूल्य आदि एक - दूसरे पर आश्रित होकर प्रयोज्यों के आत्म - प्रत्यय को महत्वपूर्ण ढंग से प्रभावित करते हैं अथवा इनका आत्म - प्रत्यय पर अन्तःक्रियात्मक प्रभाव पड़ता
Q.5 . आत्म सम्मान से आप क्या समझते हैं ? आत्म सम्मान के विकास एवं घटक की विवेचना करें । ( What do you understand by Self - Esteem ? Dicuss the development and component of Self - Esteem . )
Ans . जैसे - जैसे बच्चों में विकास की प्रक्रिया आगे बढ़ती है , वैसे - वैसे उनमें मूल्यांकन की योग्यता में भी वृद्धि होती है । वे केवल अपन ही चित्रण नहीं करते हैं , अपितु अपने गुणों , विशेषताओं एवं योग्यताओं आदि का मूल्यांकन भी करना प्रारम्भ कर देते हैं । अत : आत्म - सम्मान आत्मा का ही एक पक्ष है । यह आत्मा का मूल्यांकनात्मक पक्ष है । यह एक महत्त्वपूर्ण पक्ष है क्योंकि व्यक्ति के व्यक्तित्व , व्यवहार एवं सामाजिक परिस्थितियों में इसका प्रभाव स्पष्टतः परिलक्षित होता है । मनोवैज्ञानिकों ने इसे इसी रूप में परिभाषित किया है । शैफर एवं किफ के अनुसार , " आत्म - सम्मान का आशय किसी व्यक्ति में उसके आत्म से सम्बन्धित गुणों के मापन पर आधारित उसकी योग्यता के आत्म - मूल्यांकन से 14 । कून एवं मिट्टरर के अनुसार , आत्म - सम्मान का आशय स्वयं को एक उपयोगी व्यक्ति मानने ; स्वयं का अनुकूल मूल्यांकन करने से है । " उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट होता है कि आत्म - सम्मान किसी व्यक्ति द्वारा स्वयं की योग्यताओं एवं विशेषताओं के बारे में मूल्यांकनात्मक व्यवहार से है । संक्षेप में कह सकते हैं कि ( i ) आत्म - सम्मान , आत्म का ही एक पक्ष है । ( ii ) यह आत्म का मूल्यांकनात्मक पक्ष है ( iii ) इसका तात्पर्य स्वयं की योग्यताओं के बारे में निर्मित धारणा से है । ( iv ) आत्म - सम्मान व्यक्ति के स्वयं की विशेषताओं क मूल्यांकन पर आधारित है । ( v ) लोग प्रायः घनात्मक आत्म- -मूल्यांकन करते हैं । आत्म - सम्मान के स्तर ( Levels of Self - Esteem ) सामान्यत : आत्म - सम्मान की भावना को वस्तुपरक बनाये रखना चाहिये । आत्म सम्मान की भावना की दृष्टि से बच्चों या वयस्कों को दो वर्गों में विभक्त किया जा सकता है । इन्हें उच्च एवं निम्न आत्म - सम्मान स्तर कहा जाता है । इनकी विशषताएँ निम्न तालिका में प्रस्तुत है ।

आत्म - सम्मान का विकास ( Development of Self - Esteem ) - सहज , सार्थक एवं सामंजस्यपूर्ण जीवन व्यतीत करने के लिए व्यक्ति को अपनी विशेषताओं , योग्यताओं , गुण एवं दोषों का सही मूल्यांकन करना चाहिए । अपने बारे में अनावश्यक अच्छी धारणाएँ बना लेना या नकारात्मक धारणाएँ ही बना लेना , दोनों ही स्वस्थ जीवन एवं स्वस्ति - बोध की दृष्टि से अवांछित है । यही बात बच्चों क भी विषय में लागू होती है । अत : बच्चों को समुचित आत्म - सम्मान के विकास के लिए ही प्रेरित , प्रशिक्षित तथा निर्देशित करना चाहिए । बच्चे आत्म - साथकता की भावना कैसे विकसित करते हैं , यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है । बोल्बी ( 1988 ) ने इस पर अपना मत व्यक्त करते हुए लिखा है , " जो बच्चे स्वयं को सुरक्षित अनुभव करते हैं , वे स्वयं के बारे में अनुकूल धारणा विकसित करते हैं । वे अपना मूल्यांकन अधिकाधिक धनात्मक रूप में करते हैं । इसके विपरीत असुरक्षा की भावना से ग्रस्त बच्चे स्वयं के बारे में धनात्मक धारणा नहीं बना पाते हैं या कम बना पाते हैं अर्थात् वे अपने बारे में कैसा क्रियात्मक मॉडल निर्मित करते हैं , उसी पर आधारित वे अपने बारे में धनात्मक या नकारात्मक धारणा बनाते हैं । " एक उदाहरण — एक अध्ययन में 4 से 5 वर्ष के बच्चों से पूछा गया कि ( i ) क्या तुम इस खिलौने को पसन्द करते हो ? ( ii ) क्या यह एक अच्छा बालक / बालिका है ? बच्चों के उत्तरों का विश्लेषण करने पर पता चला कि जिन बच्चों को अपनी माता से अधिक स्नेह प्राप्त था , उन्होंने अनुकूल ( धनात्मक ) प्रतिक्रिया व्यक्त की परन्तु जिन्हें कम स्नेह प्राप्त था , उनमें अनुकूल धारणा कम पायी गयी । इतना ही नहीं , जिन्हें माता - पिता दोनों का लगाव प्राप्त था , उनमें आत्म - सम्मान की भावना और भी अधिक पायी गयी । यह पाया गया है कि 4-5 वर्ष की आयु में जो धारणा बच्चों में बन जाती है उसमें आगामी वर्षों में स्थिरता भी प्रदर्शित होती है । उपर्युक्त समीक्षा से स्पष्ट होता है कि बच्चों में 4-5 वर्ष की अवधि में आत्म - सम्मान की भावना विकसित होना प्रारम्भ हो जाती है । इसमें परिवार से अनुभूत स्नेह तथा अध्यापकों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है प्राथमिक प्राध्यापकों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
ध्यान में रखकर करते हैं । जैसे - माता - पिता , परिवार के सदस्य , पड़ोसी , मित्र इत्यादि । हार्टर ने इसे सम्बन्धपरक आत्म - सार्थकता का नाम दिया है । इस प्रकार उनका आत्म - सम्मान विभिन्न आयामों का सम्मिश्रण होता है परन्तु यह भी सही है कि वे किसी एक पक्ष को अन्य पक्ष या पक्षों की अपेक्षा अधिक महत्त्व दे सकते हैं , जैसे - सामाजिक स्वीकार्यता या कोई और पक्ष । किशोरावस्था में पारस्परिक सम्बन्ध अधिक महत्त्वपूर्ण बन जाते हैं । नवीन सम्बन्धों या घनिष्ठ मित्रता की स्थापना किशोरावस्था द्वारा की जाती है । मित्रता की गुणवत्ता उनके लिए विशेष महत्व रखती है । इसका उनके समग्र आत्म - सम्मान पर प्रबल प्रभाव पड़ता है । इस गुणवत्ता आयाम का किशोर तथा किशोरियों पर अलग - अलग प्रभाव पड़ता है । इस प्रसंग में कुछ प्रमुख निष्कर्ष इस प्रकार हैं ( i ) उन किशोरियों में उच्च आत्म - सम्मान अधिक पाया जाता है जिन्हें अपने मित्रों का अच्छा समर्थन प्राप्त रहता है । ( ii ) किशोरों में उच्च आत्म - सम्मान का प्रदर्शन अपने मित्रों को प्रभावित करने में सफल होने पर होता है । ( ii ) यदि किशोरियाँ अपने मित्रों को प्रभावित करने में असफल रहती हैं तो उनमें आत्म - सम्मान की भावना कम हो जाती है ( iv ) यदि किशोर अपन घनिष्ठ मित्रों या महिला मित्रों का अपनापन प्राप्त करने में असफल होता है तो उनमें आत्म - सम्मान की भावना कम हो जाती है । आत्म - सम्मान में परिवर्तन ( Changes in Self - Esteem ) - क्या आत्म - सम्मान की भावना में परिवर्तन होता है अथवा उसमें स्थिरता बनी रहती है ? क्या किसी पाँच वर्ष के बच्चे में आत्म - सम्मान की जो भावना है , वहीं उसमें आगे चलकर भी बनी रहेगी ? जो प्रश्न आत्म - सम्मान में परिवर्तन से सम्बन्धित हैं । इस प्रसंग में कुछ प्रमुख निष्कर्षों का उल्लेख किया जा सकता है ( 1 ) अधिकांश शोधकर्ताओं का निष्कर्ष है कि बचपन में निर्मित आत्म - सम्मान की भावना आगे चलकर परिवर्तित होती है । ( ii ) बच्चे जैसे - जैसे शिक्षा के विभिन्न स्तरों को पार करते हैं , उनके आत्म - सम्मान में भी वैसे - वैसे परिवर्तन होता रहता है । ( iii ) नवीन परिस्थितियों का सामना होने पर बच्चे प्राय : भ्रमित हो जाते हैं । वे समझ नहीं पाते कि उनकी वर्तमान सक्षमता या योग्यता से समाधान क्यों नहीं हो रहा है । परन्तु उसके ( iv ) एक अध्ययन में 9 से 90 वर्ष के तीन लाख व्यक्तियों में आत्म - सम्मान का अध्ययन किया गया । परिणाम यह पाया गया कि 9 से 20 वर्ष के बीच आत्म - सम्मान में हास प्रदर्शित हुआ । ( v ) परन्तु आत्म - सम्मान में पुनः युवा प्रौढ़ावस्था में वृद्धि प्रदर्शित हुई और 65 वर्ष तक यह स्थिति बनी रही । इसके बाद उसमें पुनः कमी पायी गयी । ( vi ) 50 शोधों का सूक्ष्म विश्लेषण करके शोधकर्ताओं ने निष्कर्ष दिया है कि आत्म - सम्मान में बाल्यावस्था से प्रारम्भिक किशोरावस्था के बीच स्थिरता कम पायी जाती पश्चात् उसमें स्थिरता प्रदर्शित होती है । ( vii ) स्वयं में शारीरिक परिवर्तनों को लेकर प्रारम्भ में लड़कियाँ असाहज अनुभव कर सकती हैं परन्तु शीघ्र ही वे समायोजन भी स्थापित कर लेती हैं । संक्षेप में कह सकते हैं कि जैसे - जैसे किशोरों या प्रौढ़ों में कार्यात्मक परिपक्वता आती जाती है , वैसे - वैसे उनमें आत्म - सम्मान की भावना भी बढ़ती है । आत्म - सम्मान के सामाजिक परिवर्तन ( Social Determinants of Self - Es teem ) - व्यक्ति में आत्म - सम्मान के विकास पर जैविक एवं संज्ञानात्मक कारकों के अतिरिक्त सामाजिक कारकों का भी प्रभाव पड़ता है । इस प्रसंग में कुछ ऐसे कारकों के योगदान की चर्चा की जायेगी । 1. जनकीय शैली ( Parenting Style ) - आत्म - सम्मान के विभिन्न निर्धारकों में माता - पिता की पालन - पोषण की शैली विशेष महत्त्व रखती है । प्रारम्भ में बच्चे अपने घर - परिवार में जैसा अनुभव करते हैं , उसका उनके बाद के आत्म - विकास पर भी प्रभाव जारी रहता है । जिन बच्चों के माता - पिता बच्चों के प्रति स्नेह , लगाव तथा प्रोत्साहक व्यवहार प्रदर्शित करते हैं , उन बच्चों में आत्म - सम्मान की भावना उच्च होती है । उन्हें दिशा - निर्देश देना , उचित परामर्श देना , लक्ष्य - निर्धारण में सहायता करना आदि उच्च आत्म सम्मान की भावना विकसित होने के लिए बहुत ही उपयोगी है । बच्चों से यह कहना , ' तुम एक अच्छे बच्चे हो , मैं तुम्हें पसन्द करता हूँ'- यह उनके लिए अत्यधिक विश्वासोत्पादक होता है । यदि उन्हें ' गन्दा ' या ' खराब ' कहा जाता है तो उनमें हीनता आ जाती है । इससे आत्म - सम्मान का स्तर निम्न हो जाता । अत : माता - पिता को चाहिए कि वे बच्चों के प्रति अनुकूल व्यवहार प्रदर्शित करें । 2. सहपाठियों का प्रभाव ( Effect of Peers ) - बच्चे अपने साथियों के साथ 4 5 वर्ष की अवधि में स्वयं की तुलना प्रारम्भ करने लगते हैं । जैसे , मैंने कितना कार्य किया , उसने क्या किया , मेरी लेखन शैली अन्य बच्चों से अच्छी है या खराब है , मेरा परिणाम अन्य की तुलना में अच्छा है ..... इत्यादि । इसे सामाजिक तुलना कहा जाता है । इस तरह की भावनाओं का बच्चों के आत्म - विकास पर व्यापक प्रभाव पड़ता है । पश्चिमी देशों के बच्चों में यह प्रवृत्ति अधिक पायी जाती है क्योंकि वहाँ प्रतिस्पर्धा का वातावरण अधिक है परन्तु सहयोगात्मक परिवेश में सामूहिक भावना का विकास अधिक होता है क्योंकि वहाँ बच्चों को व्यक्तिगत लक्ष्यों के स्थान पर सामूहिक लक्ष्यों को अधिक महत्त्व देने का परिवेश प्रदान किया जाता है । बच्चों के आत्म - सम्मान पर मित्रों का प्रभाव किशोरावस्था में और भी बढ़ जाता है क्योंकि इस अवधि में उनके जीवन में मित्रों का महत्त्व अधिक हो जाता है , वे उन पर अधिक विश्वास करते हैं । 3. संस्कृति का प्रभाव ( Effects of Culture ) यदि विभिन्न संस्कृतियों की तुलना की जाये तो उनमें स्पष्टतः अन्तर प्राप्त होगा । उदाहरणार्थ , कुछ संस्कृतियाँ व्यक्तिपरक होती हैं । अधिकांश पश्चिमी देश इसके उदाहरण हैं , जैसे - अमेरिका , कनाडा एवं आस्ट्रेलिया आदि । इसके विपरीत कुछ देशों में समूहपरक संस्कृति प्रभावी होती है , जैसे - भारत , चीन , जापान एवं कोरिया आदि । विभिन्न अध्ययनों से स्पष्ट हुआ है कि व्यक्तिपरक संस्कृति के बच्चों में समग्र आत्म - सम्मान की भावना अधिक तथा समूहपरक संस्कृति के बच्चों में समग्र आत्म - सम्मान का स्तर अपेक्षाकृत निम्न होता है । यह अन्तर क्यों पाया जाता है ? उत्तर स्पष्ट है । व्यक्तिपरक समाज में व्यक्तिगत लक्ष्यों को प्राप्त करने पर अधिक बल दिया जाता है । इसके विपरीत , समूहपरक समाज में अन्तरआश्रितता अधिक पायी जाती है । उनके लिए समूह के प्रति प्रतिबद्धता अधिक महत्त्वपूर्ण होती है । उनमें यह धारणा प्रबल हो जाती है कि यदि अपने समूह के काम आये तो यह एक बड़ी बात है । उपर्युक्त दोनों प्रकार की संस्कृतियों में बच्चे के पालन - पोषण की विधियों में काफी असमानता पायी जाती है इसलिए भी इन दो प्रकार को संस्कृतियों में समाजीकृत बच्चों के समग्र आत्म - सम्मान में भी अन्तर पाया जाता है । Q.6 . आत्म - सम्मान को विकसित करने की विधियों का वर्णन करें । ( Describe the methods for Self - Esteem Development . ) Ans . आत्म - सम्मान को विकसित करने की विधियाँ निम्न प्रकार हैं 1. रिपोर्ट करना ( Self Report ) इस विधि में छात्र को किसी कार्य अथवा कार्यशाला की व्यक्तिगत व सामूहिक रिपोर्ट देने के लिए कहा जाता है , जिसमें छात्र को अपने अधिगम का आत्म मूल्यांकन स्वयं के . चेतन व अर्चतन स्तर पर करना पड़ता है व अमूर्त चिन्तन और तार्किक चिन्तन प्रक्रिया का प्रयोग कर वह सही व गलत के विषय में अपने तर्क प्रस्तुत करता है । इस प्रकार उसकी स्वायत्तता को विकसित करते हुए उसके आत्म - सम्मान के स्तर को विकसित किया जाता है । 2. डायरी लिखना – छात्रों द्वारा प्रतिदिन के क्रियाकलापों का आत्मवलोकन किया जाता है तथा उन्हें प्रतिदिन की क्रियाओं को डायरी में लिखने को कहा जाता है , जो क्रमश : स्व मूल्यांकन से स्वायत्तता के विकास को करती है और छात्र का आत्म - सम्मान व स्वयं के प्रति दृष्टिकोण को बढ़ाती है । 3. वाद - विवाद व विचार - विमर्श छात्र के दृष्टिकोण व मनोवृत्तियाँ को ध्यान में रखते हुए विचार - वमर्श व वाद - विवाद प्रक्रिया में बालक स्वयं के विचारों , दृष्टिकोणों को प्रभावशाली लक्ष्य केन्द्रित भाषा में प्रयोग करने के साथ - साथ आत्म मूल्यांकन भी करता है और आवश्यकता पड़ने पर दूसरों के दृष्टिकोणों को स्वीकार कर अपने आत्म - सम्मान व स्वायत्तता के गुण को विकसित करता है परन्तु यह तभी सम्भव है जब उसके सहभागी का मानसिक स्तर स्वयं छात्र से उच्च हो । योजना विधि ( Project Strategy ) - जॉन डीवी के शिष्य किलपैट्रिक ने इस विधि को जन्म दिया । उनके अनुसार " प्रायोजना वह क्रिया है जिसमें संलग्नता के साथ सामाजिक वातावरण में लक्ष्य प्राप्त किया जाता है । " स्टीवेंसन ने प्रायोजना को एक समस्यामूलक कार्य बताया , जो अपनी स्वाभाविक परिस्थितियों के अन्तर्गत पूर्णता प्राप्त करता है । इस विधि में छात्रों के समक्ष एक समस्या प्रस्तुत की जाती है और छात्र उसका हल निकालने में लगे रहते हैं । इसमें छात्र अपनी रुचि व इच्छा के अनुसार कार्य करता है । प्रायोजना के सिद्धान्त ( 1 ) सोद्देश्यता का सिद्धान्त ( Purposiveness ) , ( 2 ) क्रियाशीलता का सिद्धान्त ( Activity ) , ( 3 ) वास्तविकता का सिद्धान्त ( Reality ) , ( 4 ) उपयोगिता का सिद्धान्त ( Utility ) , ( 5 ) स्वतंत्रता का सिद्धान्त ( Freedom ) , ( 6 ) सामाजिक विकास का सिद्धान्त ( Social Development ) । प्रत्येक प्रायोजना के नियोजन एवं नियमन करने के लिए इन सिद्धान्तों पर विशेष रूप से बल दिया जाता है । प्रायोजना के पद ( Steps of Project Strategy ) - प्रत्येक प्रायोजना को निम्नांकित भागों में बाँटा जाता है-
1. प्रायोजना का चयन शिक्षक को ऐसी परिस्थिति का निर्माण करना चाहिए जिसमें छात्र स्वयं योजनाएँ बनाने लगें । इस प्रकार से छात्रों द्वारा प्रदत्त विभिन्न प्रायोजनाओं पर स्वतंत्रतापूर्वक छात्र एवं शिक्षक मिलकर विचार - विमर्श करें । जहाँ तक हो सके छात्रों को स्वयं ही प्रायोजना के चयन का अवसर मिलना चाहिए । शिक्षक को आवश्यकतानुसार चयन की प्रक्रिया में परामर्श देना चाहिए । 2. रूपरेखा तैयार करना — प्रायोजना के चयन के पश्चात् उसे पूर्ण करने के लिए कार्यक्रम बनाना चाहिए । कार्यक्रम के निर्धारण में छात्रों को विचार - विमर्श के लिए पूर्ण छूट होनी चाहिए । निश्चित रूपरेखा तैयार होने पर विभिन्न उत्तरदायित्व सभी छात्रों में उनकी योग्यतानुसार बाँट देने चाहिए और इन सबका आलेख करना चाहिए । जैसे विद्यालय को सुन्दर बनाने की प्रायोजना के लिए भूमि की नाप , वाटिका का आकार लगाये जाने वाले पौधों का नाम , पौधे के बीच मँगाने का प्रबंध तथा आवश्यक उपकरणों आदि पर भली - भाँति वार्तालाप करके विभिन्न उत्तरदायित्व छात्रों के समूह में बाँट देना चाहिए । 3. कार्यक्रम का क्रियान्वयन कार्यक्रम की रूपरेखा बनाने के बाद प्रायोजना के अन्तर्गत कार्य प्रारंभ हो जाता है । जिन छात्रों को जो उत्तरदायित्व सौंपे गए हैं , वे पूरे करना शुरू कर देते हैं । छात्रों को अपने उत्तरदायित्व पूरे करने के लिए विभिन्न प्रकार का ज्ञान प्राप्त करना पड़ता । इस प्रकार से प्राप्त ज्ञान अधिक स्थायी होता है । शिक्षक छात्रों को प्रोत्साहन देता है , उनके कार्यों का निरीक्षण करता है और योजना में आवश्यकतानुसार संशोधन भी कर सकता है । 4. मूल्यांकन — योजनापूर्ण होने के बाद शिक्षक एवं छात्र मिलकर मूल्यांकन करते हैं । प्रायोजना के उद्देश्य के आधार पर प्रायोजना की सफलता तथा असफलता पर विचार किया जाता है । समय - समय पर छात्र अपने - अपने कार्य पर विचार करते हैं , की गयी गलतियों को ठीक करते हैं और उपयोगी ज्ञान की पुनरावृत्ति करते हैं । प्रायोजना के प्रकार शिक्षण के क्षेत्र में विभिन्न प्रकार की प्रायोजनाएँ बनकर छात्रों को सक्रिय ज्ञान प्रदान किया जा सकता है । ये प्रायोजनाएँ निम्न प्रकार की हो सकती हैं ।
1. निर्माण सम्बन्धी प्रायोजना — जैसे विद्यालय में वाटिका , संग्रहालय , टेटेरियम , वाइवेरियम , यंत्रों आदि के निर्माण सम्बन्धी प्रायोजनाएँ ।
2. निरीक्षण सम्बन्धी प्रायोजना — इसमें पर्यटन आदि के माध्यम से विभिन्न स्थानों पर विभिन्न प्रकार के जीव - जन्तु , कीट , पतंगें , जलवायु , वनस्पति , पुष्पों आदि की विशिष्ट विशेषताओं के निरीक्षण के लिए प्रायोजनाएँ बनाई जा सकती हैं ।
3. उपभोक्ता प्रायोजना - जैसे कृषि , बागवानी आदि । 4. संग्रह सम्बन्धी प्रायेजना — जैसे विभिन्न स्थानों से विभिन्न प्रकार के जीव - जन्तु , पक्षी , पौधे , चित्र , मॉडल आदि के संग्रह सम्बन्धी प्रायोजनाएँ । 5. पहचान सम्बन्धी प्रायोजना - जैसे फल , फूल , बीज , जड़ , जीव - जन्तु के वर्ग एवं श्रेणी सम्बन्धी प्रायोजनाएँ । 6. शल्यकार्य सम्बन्धी प्रायोजना - जैसे जीव - जन्तु , जड़ - तना , फूल , फल आदि को काटकर उनके आन्तरिक अंगों के अध्ययन सम्बन्धी प्रायोजनाएँ । 7. समस्यात्मक प्रयोजना — जैसे आधार में सुधार , स्वास्थ्य में सुधार ।
Q.7 . आत्म को प्रभावित करने वाले कारकों की विवेचना करें । ( Discuss the factor Influencing Self . ) Ans . ऐसा देखा गया है कि एक बार जब आत्मा का निर्माण व विकास हो जाता है , तब वह कुछ विशिष्ट व्यवहार प्रतिमान अपना लेता है और कुछ ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न हो जाती है , जो उसे किसी प्रकार के परिवर्तन से प्रभावित न होने के लिए क्रियाशील कर देती है । व्यक्ति अपने चारों ओर जो अन्तरवैयक्तिक पर्यावरण निर्मित करता स्थायी होता है । व्यक्ति पर वातावरण से उत्पन्न परिस्थितियाँ परिवर्तन के लिए उस पर दबाव डालती हैं परन्तु व्यक्ति आत्म की स्थिरता बनाये रखने का प्रयास करता है । उसे आत्म के द्वारा मदद मिलती है । जैसे ( 1 ) व्यक्ति की स्वयं के बारे में अवधारणा ( 2 ) व्यक्ति का अधिगम व्यवहार प्रतिमान ( 3 ) दूसरे व्यक्तियों के प्रत्यक्षीकरण के बारे में उसके व्यक्तिगत तरीके । व्यक्ति के आत्म के इस पहलू के सम्बन्ध में दूसरे व्यक्तियों के व्याख्या और अनुभव क्या हैं तथा इस सम्बन्ध में व्यक्ति के क्या विचार हैं । आत्म और व्यवहार की स्थिरता बनाये रखने के लिए व्यक्ति इन तीनों में ही समरूपता बनाये रखता है । आत्म को निम्नलिखित कारक प्रभावित करते हैं ( 1 ) अशुद्ध प्रत्यक्षीकरण ( Misperception ) - जब एक व्यक्ति दूसरे व्यक्तियों की प्रत्याशाओं के अनुसार व्यवहार नहीं करता है , तब उन परिस्थितियों में एक व्यक्ति दूसरे व्यक्तियों का अशुद्ध प्रत्यक्षीकरण करता है । वह यह जानना चाहता है कि दूसरे व्यक्ति उसे किस रूप में देख रहे हैं । प्रयोगात्मक अध्ययनों से अशुद्ध प्रत्यक्षीकरण की पुष्टि हो चुकी है ।
( 2 ) चयनात्मक अन्तःक्रिया ( Selective Interaction ) - अपने आत्म को जानन के लिए व्यक्ति अपने चारों ओर के वातावरण में चयनात्मक अन्त : क्रिया करता है । वह उन व्यक्तियों के साथ ही अन्त : क्रिया करता है , जो उसको अत्यन्त उच्च बुद्धि वाला समझते हैं । उन्हीं व्यक्तियों से वह सम्पर्क रखना चाहता है । प्रत्येक व्यक्ति से वह अपना सम्बन्ध नहीं रखता है । ( 3 ) अन्य व्यक्तियों का चयनित मूल्यांकन ( Selective Evaluation of other Persons ) - अध्ययनों में यह भी पाया गया है कि एक व्यक्ति उसको पसन्द नहीं करता है , जो उसका ऋणात्मक मूल्यांकन करता है तब वह भी उस व्यक्ति के साथ इसके विपरीत व्यवहार करना आरम्भ कर देता है । वह केवल उन्हीं व्यक्तियों के साथ अनुकूल व्यवहार करता है , जो उसके समान विचार रखते हैं । ( 4 ) चयनात्मक आरम्भ मूल्यांकन ( Selective Evaluation of Self ) व्यक्ति अपने आत्म के विभिन्न पहलुओं का मूल्यांकन करता है । वह आत्म के महत्वपूर्ण तथा कुछ कम महत्त्वपूर्ण दोनों ही पहलुओं को चुनता है परन्तु वह आत्म के उन्हीं पहलुओं को चुनता है , जो उसके आत्म की स्थिरता तनाये रखते हैं । ( 5 ) अनुक्रिया उत्पत्ति ( Response Evocation ) कभी - कभी व्यक्ति जान - बूझकर या अनजाने में तथा चेतन या अचेतन स्तर पर ऐसा व्यवहार करता है कि इस व्यवहार से दूसरे व्यक्ति अपना व्यवहार इस शक्ति के अनुरूप बना लें । एक व्यक्ति दूसरे व्यक्तियों के साथ इस प्रकार का व्यवहार करता है कि दूसरे व्यक्ति इस व्यक्ति के व्यवहार को वांछित समझते हैं । उदाहरण के लिए एक व्यक्ति अपने व्यवहार , भाषा तथा पहनावे आदि से दूसरों के सामने ऐसा प्रदर्शित करता है कि वह कोई डॉन हैं परन्तु वास्तविक रूप में वह अच्छे विचारों वाला तथा चरित्रवान व्यक्ति है । इस प्रकार से वह दूसरे व्यक्तियों में अपने प्रति समरूपी अनुक्रियाएँ उत्पन्न कर सकता है ( 6 ) भावात्मक समरूपता ( Affective Congruency ) - भावात्मक समरूपता का अर्थ है कि व्यक्ति अपने आत्म के सम्बन्ध में जिस प्रकार के विचार रखता है , ठीक उसी प्रकार के विचार उस व्यक्ति के लिए दूसरे व्यक्ति में भी है । व्यक्ति जिस रूप में अपने आत्म को देखता है उसी के अनुरूप व्यवहार करना आरम्भ कर देता 1 जैसे - जैसे व्यक्ति की आयु बढ़ती है उसके आत्म में भी परिवर्तन होना आरम्भ हो जाता है । एक व्यक्ति को समाज में रहते हुए विभिन्न प्रकार की भूमिकाएं निभानी होती है । पहले वह शिशु , फिर बालक , किशोर , युवा , वयस्क तथा बुजुर्ग आदि अनेक भूमिकाएँ देखता है तथा इन अवस्थाओं के साथ वह पुत्र , पिता , पति तथा संरक्षक आदि की अलग - अलग भूमिकाओं को निभाता है । जैसे - जैसे उसकी आयु बढ़ती है , वह नई भूमिकाओं को निभाता है तथा विशिष्ट परिस्थितियों के कारण उसके आत्म में भी परिवर्तन आ जाता है । आत्म विकास तथा परिवर्तन को वे विभिन्न व्यवहार में भी प्रभावित करते हैं , जो वह समय - समय पर अपने जीवन में अपनाता है ।
Q.8 . आत्म - पहचान तथा आत्म - सम्मान के विकास पर प्रकाश डालें । ( ( Throw light on the development of Self Identity and Self - Esteem . ) ) आत्म विश्वास से क्या आशय है ? आत्म विश्वास के विकास के उपाय का वर्णन करें ।
Q.9 . ( What do you mean by self confidence ? Describe the measures for development of Self Confidence . ) . )
Q. 10. आत्म - अभिव्यक्ति से आप क्या समझते हैं ? विवेचना कीजिए । ( What do you understand by Self Expression ? Discuss . )
Q.11 . आत्म - अभिव्यक्ति को प्रभावित करनेक वाले तत्वों की विवेचना ( Discuss the factors affecting Self Expression . )
Q. 12. आत्म विश्वास के विकास में शिक्षक एवं विद्यालय की भूमिका का वर्णन करें । ( ( Describe the role of Teacher and School in Self Confidence Building . ) .
Q. 13. व्यक्तित्व निर्माण में परिवार स्कूल एवं समाज की भूमिका का वर्णन करें । ( ( Describe the role of Family School and Society in Personality development . )
Q.14 . एक शिक्षक की पेशेवर पहचान पर प्रकाश डालें । ( Throw light on professional identity of a teacher . )
Q.15 . ' स्व ' पर सामाजिक परिवेश के प्रभाव का विवेचन करें । ( Discuss the influence of social milienu on ' self . )
Q.16 . तनाव क्या है ? इसकी नकारात्मक प्रतिक्रियाओं का विवेचन करें । ( What is Stress ? Discuss its negative reactions . )
Q.17 . " नकारात्मक अनुभव तनाव उत्पन्न करते हैं " इस कथन की व्याख्या करें । ( " Negative experiences generate stress . " Explain . )
UNIT - 2 : स्वयं की प्रगति में योग तथा उनकी भूमिका ( Yoga and its Role in Self - Well - Being )
Q. 18. योग क्या है ? इसके उद्देश्यों , लक्ष्यों एवं महत्त्व का वर्णन करें । ( What is Yoga ? Describe its aims , objects and importance . )
Q.19 . दबाव ( तनाव ) से मुक्ति और योग की भूमिका पर एक टिप्पणी लिखें । ( Write a note on Stress Relief and Role of Yoga . )
Q.20 . ध्यान क्या है ? इसकी आवश्यकता और महत्व पर प्रकाश डालें । ( What is Meditation ? Throw light on its need and importance . )
Q.21 . योग के तत्त्वों का वर्णन करें । ( Describe the elements of Yoga . )
Q.22 . योग के प्रकार का वर्णन करें । ( Describe the types of Yoga system . )
Q.23 , अष्टांग योग का वर्णन करें । ( Describe Astang Yoga . )
Q.24 . समाजिक पहचान के सिद्धान्त की विवेचना करें । ( Discuss the theories of Social Identity Development . )
Q.25 . संस्कृति का मूल्य के स्रोत के रूप में विवेचना कीजिए । ( ( Discuss the Culture as the Source of Value . )
Q.26 . भारतीय संस्कृति की विशेषताओं का वर्णन करें । ( Describe the characteristics of Indian Culture . )
Q.27 . संस्कृति का शिक्षा से परस्पर संबंध एवं प्रभाव का वर्णन करें । ( Describe the Interaction and Influence of Culture with Education . )
Q.28 . संस्कृति के प्रति शिक्षा के कार्य की विवचेना करें । ( Discuss the functions of education towards culture . )
Q.29 . संघर्ष या द्वन्द्व क्या है ? इसके सुलझाने के कौशलों या उपायों पर प्रकाश डालें । ( What is conflict or uproar ? Throw light on skills or measures for resolution . )
Q.30 . अन्तर्द्वन्द्व को सुलझाने वाली रणनीतियों का वर्णन करें । ( Descibe the strategies for conflict resolution . )
Q.31 . संघर्ष - समाधान की वैकल्पिक रणनीतियों पर रक्षा युक्तियों का वर्णन करें । ( Describe the alternative strategies or safety measures for conflict resolution . )
UNIT - 3 : जंचनेवाला एक दयालु शिक्षक ( Becoming a Humane Teacher )
Q.32 . प्रगति से आप क्या समझते हैं ? इसकी विशेषताओं का वर्णन करें । ( What do you understand by Progress ? Describe its Characteristics . )
Q.33 . सामाजिक प्रगति की सहायक परिस्थितियों का वर्णन करें । ( ( Describe the Conditions Conductive for Social Progress . )
Q.34 . स्वयं के विचारों का समाज पर प्रभाव का वर्णन करें । ( Describe the Impact of Self Ideas on Society . )
Q.35 . सृजनात्मकता से क्या तात्पर्य है ? इसके तत्वों का वर्णन करें । ( What do you mean by creativity ? Discuss its elements . )
Q.36 . सृजनात्मक की प्रकृति एवं विकास की अवस्थाओं का वर्णन करें । ( Describe the nature and stages of development of creativity . )
Q.37 . सृजनात्मकता के सिद्धान्त की विवेचना करें । ( Discuss the theoriese of creavity . )
Q.38 . सृजनात्मकता के विकास पर प्रकाश डालें । ( Throw light on the development of creativity . )
Q.39 . तद्नुभूति पर एक टिप्पणी लिखें । ( Write a note on Empthy . )
Q.40 , सम्प्रेषण क्या है ? इसके कौशल का विवेचन करें । ( ( What is communication ? Discuss its skills . )
Q.41 . सम्प्रेषण की प्रक्रिया तथा उद्देश्यों का वर्णन करें । ( ( Discuss the process of communication and objectives . )
Q.42 . आत्मानुशासन का वर्णन कीजिए । ( Discuss the Self - Discipline . )
Epam
Siwan
Bihar BEd