अभिवृत्ति की अवधारणा
( Concept of attitude )
अभिवृत्ति का अर्थ (abhivrtti ka arth) अभिवृत्ति व्यक्तित्व का वह गुण है जो व्यक्ति की पसंद या नापसंद को दर्शाता है। अभिवृत्ति को आंग्ल भाषा में Attitude कहते हैं। Attitude शब्द लेटिन भाषा के शब्द Abtus शब्द से बना है इसका अर्थ है योग्यता या सुविधा। अभिवृत्ति का सम्बन्ध अनुकूल या प्रतिकूल प्रभाव से है। यह एक मानसिक दशा है जो सामाजिक व्यवहार की अभिव्यक्ति करने में विशेष भूमिका प्रस्तुत करती है। अभिवृत्ति को ही कभी-कभी मनोवृत्ति के नाम से प्रयोग किया जाता हैं। ये दोनों ही शब्द एक ही भावनात्मक गुण को प्रदर्शित करते हैं।
अभिवृत्ति व्यक्ति के मनोभावों (Feelings) अथवा विश्वासों (believe) को इंगित करती है। ये बताती है कि व्यक्ति क्या महसूस करता है अथवा उसके पूर्व विश्वास क्या हैं? अभिवृत्ति से अभिप्राय व्यक्ति के उस दृष्टिकोण से हैं जिसके कारण वह किन्हीं वस्तुओं, व्यक्तियों, संस्थाओं, परिस्थितियों, योजनाओं आदि के प्रति किसी विशेष प्रकार का व्यवहार करता है। दूसरे शब्दों में अभिवृत्ति व्यक्ति के व्यक्तित्व की वे प्रवृत्तियाँ है, जो उसे किसी वस्तु, व्यक्ति आदि के सम्बन्ध में किसी विशिष्ट प्रकार के व्यवहार को प्रदर्शित करने का निर्णय लेने के लिए प्रेरित करती हैं।
अभिवृत्ति की परिभाषा
अभिवृत्ति की परिभाषा (abhivritti ki paribhasha) मनोवैज्ञानिकों ने ‘अभिवृत्ति’ शब्द को भिन्न-भिन्न ढंग से परिभाषित किया है।
- आलपोर्ट के अनुसार – ‘‘अभिवृत्ति, प्रत्युत्तर देने की वह मानसिक तथा स्नायुविक तत्परताओं से सम्बन्धित अवस्था है जो अनुभव द्वारा संगठित होती है तथा जिसके व्यवहार पर निर्देशात्मक तथा गत्यात्मक पभाव पड़ता है।’’
- वुडवर्थ के अनुसार – अभिवृत्तियाँ मत, रुचि या उद्देश्य की थोड़ी-बहुत स्थायी प्रवृत्तियाँ हैं जिनमें किसी प्रकार के पूर्वज्ञान की प्रत्याशा और उचित प्रक्रिया की तत्परता निहित है।’’
- जैम्स डेवर ने अभिवृत्ति को परिभाषित करते हुए कहा है कि, ‘‘अभिवृत्ति मत रुचि अथवा उद्देश्य की एक लगभग स्थायी तत्परता या प्रवृत्ति है जिसमें एक विशेष प्रकार के अनुभव की आशा और एक उचित प्रतिक्रिया की तैयारी निहित होती है।’’
- आईजनेक के अनुसार – ‘‘सामान्यत: अभिवृत्ति की परिभाषा किसी वस्तु या समूह के सम्बंध में प्रत्याक्षात्मक बाह्य उत्तेजनाओं में व्यक्ति की स्थिति और प्रत्युत्तर तत्परता के रूप में भी की जाती है।’’
- फ्रीमेन के शब्दों में – ‘‘अभिवृत्ति किन्हीं परिस्थितियों व्यक्तियों या वस्तुओं के प्रति संगत ढंग से प्रतिक्रिया करने की स्वाभाविक तत्परता है, जिसे सीख लिया गया है तथा जो व्यक्ति विशेष के द्वारा प्रतिक्रिया करने का विशिष्ट ढंग बन गया है।’’
अभिवृत्तियों की प्रकृति
अभिवृत्ति की प्रकृति (abhivritti ki prakrati) तीन प्रकार की होती है।
- धनात्मक – इसमें किसी भी सम्बन्धित व्यक्ति, घटना, समूह के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण ही घनात्मक प्रवृत्ति की अभिवृत्ति है।
- ऋणात्मक – इसमें व्यक्ति, समूह या घटना के प्रति ऋणात्मक दृष्टिकोण पाया जाता है। यही ऋणात्मक दृष्टिकोण ऋणात्मक प्रवृति की अभिवृत्ति है।
- शून्य – यह अभिवृत्ति न तो सकारात्मक होती है और न ही नकारात्मक। किसी व्यक्ति, समूह या घटना के प्रति किसी भी प्रकार की कोई मनोवृति न होना शून्य अभिवृत्ति कहलाती है।
अभिवृत्ति के प्रकार
- विशिष्ट अभिवृत्ति – जो अभिवृत्ति किसी व्यक्ति, वस्तु, घटना, विचार तथा संस्था विशेष के प्रति व्यक्त की जाती है, विशिष्ट अभिवृत्ति कहलाती है। जैसे एक छात्र में अपने शिक्षक के प्रति जो सम्मान व श्रद्धा का भाव पाया जाता है वह उसकी विशिष्ट अभिवृत्ति कहलाती है।
- सामान्य अभिवृत्ति – जो अभिवृत्ति व्यक्ति, वस्तु, घटना, विचार आदि के बारे में सामान्य या सामूहिक रूप से व्यक्त की जाती है वह सामान्य अभिवृत्ति कहलाती हैं जैसे – घड़ियों के विषय में अभिवृत्ति, राजनैतिक दलों के बारे में दृष्टिकोण या रेल दुर्घटनाओं के प्रति अभिवृत्ति आदि।
- नकारात्मक अभिवृत्ति – जब हमारा दृष्टिकोण किसी वस्तु, घटना या विचार के प्रति सुखद नहीं होता या हम उसे पसन्द नहीं करते हैं या उसके प्रति उत्तेजनात्मक प्रतिक्रिया करते हैं तो वह नकारात्मक अभिवृत्ति कहलाती है। इस प्रकार जब हम किसी राजनैतिक पार्टी, प्रक्रिया, जाति, स्थान या व्यक्ति से घृणा करते हैं, उनसे निराश होते हैं उनमें अविश्वास रखते हैं तथा अपने को दूर रखने का प्रयास करते हैं वह नकारात्मक अभिवृत्ति कहलाती है।
- सकारात्मक अभिवृत्ति – जब किसी व्यक्ति, विचार या घटना या संस्था आदि की उपस्थिति हमें सुखद लगती है जब उसके प्रति हमारी अनुकूल प्रतिक्रया होती है तथा जब हम उसके पक्ष में बोलते हैं तब हमारी सकारात्मक अभिवृत्ति होती है अर्थात् जब हम किसी वस्तु, व्यक्ति, संस्था, विचार, धर्म प्रक्रिया के प्रति विश्वास रखते हैं उसे पसन्द करते हैं स्वीकार करते हैं, उसके प्रति आकर्षित होते हैं तथा उसके अनुकूल अपने को समायोजित करने की चेष्टा करते हैं वह हमारी सकारात्मक अभिवृत्ति कहलाती है।
- मानसिक अभिवृत्ति – मानसिक रूप से जीवन के विभिन्न क्षेत्रों के सम्बधं में पृथक-पृथक अभिवृत्ति होती है। इन्हें अनेक क्षेत्र के नाम से ही पुकारते हैं, जैसे – सौन्दर्यनुभूति अभिवृत्ति, सामाजिक अभिवृत्ति, धार्मिक अभिवृत्ति। इसी प्रकार प्रत्येक क्षेत्र से सम्बंधित अभिवृत्ति हो सकती है।
अभिवृत्ति की विशेषताएं
अभिवृत्ति की विशेषताएं (abhivritti ki visheshta) होती हैं –
- अभिवृत्ति भावनाओं की गहराई का स्वरूप हैं।
- अभिवृत्तियों का विकास सामाजिक सम्बंधों के कारण होता है।
- अभिवृत्ति के सामाजिक तथा मानसिक दोनों ही पक्ष होते हैं।
- अभिवृत्ति व्यक्तिगत एवं सामाजिक दोनों ही प्रकार की होती है।
- अभिवृत्ति जन्मजात नहीं होती है।
- अभिवृत्ति व्यक्ति के व्यवहार का प्रतिबिम्ब होती है।
- अभिवृत्ति का स्वरूप स्थायी तथा एकरूप होता है।
- अभिवृत्ति सदैव परिवर्तनशील होती है।
- अभिवृत्ति सदैव संवेगों तथा भावों से प्रभावित होती है।
- अभिवृत्ति का सम्बंध समस्याओं तथा आवश्यकताओं से होता है।
- अभिवृत्ति किसी व्यक्ति, घटना, विचार या वस्तु के प्रति अनुकूल अथवा प्रतिकूल भावना का प्रदर्शन करती है।
- अभिवृत्ति का स्वरूप लगभग स्थायी होता है किन्तु ये अपना रूप बदल भी देती है। अभिवृत्ति को अधिक समय में बदला जा सकता हैं
- यह अनुभवों के आधार पर अर्जित होती है तथा वस्तुओं, मूल्यों एवं व्यक्तियों के सम्बंध में सीखी जाती है।
- अभिवृत्ति का सम्बंध व्यक्तित्व के विभिन्न पक्षों बुद्धि, मानसिक प्रतिभा एवं विचारों से होता है।
- यह व्यवहार को प्रभावित करती है अतएव एक व्यक्ति की अभिवृत्तियों का प्रभाव दूसरे व्यक्ति की अभिवृत्ति पर पड़ता है।
अभिवृत्ति की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
अभिवृत्ति – मापन की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि अत्यधिक प्राचीन नहीं है। अभिवृत्ति मापन की प्रविधियों का निर्माण कार्य 1927 में थस्र्टन ने ‘‘युग्म तुलनात्मक प्रविधि’’ से प्रारम्भ किया। इसके पश्चात् मोस्टेलर (1951) ने इस विधि की परीक्षण सार्थकता को ज्ञात करने के लिए काई वर्ग का प्रतिपादन किया। दो वर्ष पश्चात् थस्र्टन ने चेब के साथ मिलकर ‘‘सम-दृष्टि अन्तर विधि’’ को विकसित किया। लिकर्ट (1932) ने ‘‘योग निर्धारण विधि’’ का प्रतिपादन किया। इसके पश्चात् सफीर (1937) ने ‘‘क्रमबद्ध अन्तर विधि’’ की रचना की। गट्मैन (1945) ने अभिवृत्ति – मापन की ‘‘स्केलोग्राम विधि’’ को तत्पश्चात् एडवर्स तथा किलपैट्रिक (1948) ने ‘‘भेद बोधक मापनी विधि’’ का निर्माण किया। इस प्रकार समस्त प्रविधियों के आधार पर समय-समय पर शिक्षकों, औद्योगिक प्रबन्धकर्ताओं, शिक्षा शास्त्रियों, मनावैज्ञानिकों आदि के द्वारा विभिन्न अभिवृत्ति मापनियों की रचना की जाती रही है।
अभिवृत्ति का मापन
लगभग सात दशक पूर्व ही अभिवृत्ति मापन के लिए प्रविधियाँ विकसित की जा सकी हैं। इसमें पहले साक्षात्कार एवं अवलोकन की सहायता से ही अभिवृत्तियों का मापन किया जाता था। सन् 1927 में थर्सटन ने तुलनात्मक नियम का प्रतिपादन किया। अभिवृत्ति मापन की विधियों को दो भागों में वर्गीकृत किया गया है –
- व्यवहारिक प्रविधियाँ
- मनोवैज्ञानिक प्रविधियाँ ।
- प्रत्यक्ष प्रश्नविधि – प्रत्यक्ष प्रश्नविधि में किसी व्यक्ति, किसी वस्तु, व्यक्ति आदि के प्रति अभिवृत्ति को ज्ञात करने के लिए सीधे-सीधे प्रश्न पूछे जाते हैं। व्यक्ति के द्वारा दिये गये उत्तरों के आधार पर अभिवृत्ति से सम्बंधित जानकारी मिल जाती है। इस विधि में अभिवृत्ति का मापन तीन वर्गों में किया जा सकता है :- (i) ऐसे व्यक्ति जिनकी अनुकूल अभिवृत्ति है। (ii) ऐसे व्यक्ति जिनकी प्रतिकूल अभिवृत्ति है। (iii) ऐसे व्यक्ति जो यह कहते हैं कि वे अभिवृत्ति के संबंध में कोई स्पष्ट मत नहीं बना पा रहे हैं।
- व्यवहार के प्रत्यक्ष निरीक्षण की विधि – अभिवृत्ति ज्ञात करने की प्रत्यक्ष निरीक्षण विधि में व्यक्तियों के व्यवहार का निरीक्षण करके उनकी अभिवृत्ति का पता लगाया जाता है। इस विधि में व्यक्ति के द्वारा अपने दिन प्रतिदिन की दिनचर्या के दौरान किये जाने वाले व्यवहार के द्वारा किसी वस्तु, व्यक्ति अथवा संस्था के प्रति उसकी अभिवृत्ति को ज्ञात किया जा सकता है। इस विधि के द्वारा भी व्यक्तियों को उनकी अभिवृत्ति के आधार पर तीन वर्गों में अनुकूल अभिवृत्ति, प्रतिकूल अभिवृत्ति तथा अनिश्चित अभिवृत्ति में वर्गीकृत किया जा सकता है। यह विधि प्रत्यक्ष प्रश्न विधि की तुलना में अधिक उपयुक्त विधि है क्योंकि इसमें व्यक्ति को यह आभास ही नहीं हो पाता कि उसका निरीक्षण हो रहा है। जिसके फलस्वरूप वह वास्तविक व्यवहार का प्रदर्शन कर देता है।
- थस्र्टन ‘युग्म तुलनात्मक विधि’ – इस विधि का विकास सन् 1972 ई. में थस्र्टन ने किया। थस्र्टन ने युग्म रूप से कुछ कथनों की सूची तैयार की और छात्रों से प्रत्येक जोड़े में दिये गये कथनों में से उसकी सहमति किसके साथ है या उसकी असहमति किसके साथ है, यह जानने का प्रयास किया गया। इस विधि में प्रत्येक कथन को किसी अन्य कथनों के साथ उसको जोड़कर युग्म तैयार किया गया। साथ ही, समस्त जोड़ों के सम्बन्ध में उनकी सहमति या असहमति पूछी जाती हें इस प्रकार इस विधि में व्यक्ति को एक ही समय में दो कथनों के जोड़े के रूप में विभिन्न मिश्रणों के साथ तुलना करनी होती है तथा व्यक्ति को दोनों कथनों क प्रति अपना निर्णय देना होता है। अत: अभिवृत्ति मापन की यह श्रेष्ठ विधि है।
- थस्र्टन तथा चेव की समदृष्टि अन्तर विधि – इस विधि के प्रतिपादक थस्र्टन तथा चेव हैं। इस विधि में कुछ कथन होते हैं किन्तु उनकी संख्या अधिक होती है। कथन जोड़ों में न होकर स्वतन्त्र रूप से होते हैं। प्रत्येक प्रश्न पर व्यक्ति की प्रतिकूल, अनुकूल तथा तटस्थ स्थिति की सहमति पूछी जाती है। यह सहमति या असहमति 11 बिन्दुओं वाले निर्धारण मापनी पर पूछी जाती है।
- लिकर्ट योग-निर्धारण विधि – इस विधि का लिकर्ट ने प्रतिपादन किया। उन्होंने देखा कि थस्र्टन तथा चेव की ‘‘समान उपस्थिति अन्तराल’’ विधि में समय कम या बहुत अधिक लगता है। साथ ही इसमें पूर्ण प्रशिक्षित व्यक्तियों की आवश्यकता होती है यह काफी कठिन कार्य है तो लिकर्ट ने एक सरल विधि का निर्माण किया। इस विधि में भी निर्धारण मान का प्रयोग किया जाता है किन्तु इसमें निर्धारण मान ग्यारह बिन्दुओं के स्थान पर केवल पाँच बिन्दु ही रखे गये हैं- 1. पूर्ण सहमति 2.सहमति 3. अनिश्चित 4. असहमति 4. पूर्ण असहमति
- सफीर क्रमबद्ध अन्तर विधि – इस विधि पर सर्वप्रथम कार्य थस्र्टन ने किया, किन्तु इसके सम्बंध में व्यापक प्रयोग तथा प्रचार सफीर ने किया। इसलिये इसे सफीर क्रमबद्ध अन्तर विधि के नाम से जाना जाता है। इस विधि में कथन बहुत अधिक मात्रा में होते हैं तथा कथनों को क्रम अन्तर में मापा जाता है। प्रत्येक कथन का आवृति विवरण यह बताता है कि कथनों की कितनी पुनरावृत्ति हुई है।
- गटमैन स्कैलांग्राम विधि – गटमेन ने सर्वथा एक नई विधि का प्रतिपादन किया है। इस विधि में भी कथनों को जोड़ों में दिया जाता है। सहमति की मात्रा जितनी अधिक होगी अभिवृत्ति अंक उतने ही अधिक होंगे। इस विधि में व्यक्ति के कथन के बारे में केवल सहमति या असहमति ही पूछी जाती है। सहमति की स्थिति में 1 अंक तथा असहमति की स्थिति में 0 अंक प्रदान करके सबका योग करके कुल अभिवृत्ति अंक प्राप्त कर लेते हैं।
- एडवर्डस एवं किलपैट्रिक ‘‘भेद बोधक मापनी विधि’’ – इस विधि का सन् 1948 में एडवर्डस तथा किलपैट्रिक ने प्रतिपादन किया। यह विधि भौतिक विधि नहीं है वरन् इसमें उपलब्ध समान विधियों को मिलाकर एक नया रूप प्रस्तुत किया है। इस विधि को प्रमुख रूप से समान उपस्थिति विधि तथा भेद बोधक मापनी विधि कहते हैं।
- ओस गुड सिमेन्टिक डिफरेंशियल विधि – इस विधि का 1952 से ओसगुड ने सर्वप्रथम प्रयोग किया। यह स्कूल स्वीकार करके चलता है कि एक ही मनोवैज्ञानिक पदार्थ के प्रति विभिन्न व्यक्तियों की विभिन्न धारणा होती है। धारणा में विभिन्नता व्यक्तिगत विभिन्नताओं के कारण होती है। इस मान्यता को ही लेकर ओसगुड ने अनेक कथन बनाये जिनके वर्णन तथा निर्णय को एक निर्धारित मान पर प्रदर्शित किया गया था। इस निर्धारण मान के सात स्थान होते हैं तथा प्रत्येक व्यक्तिगत पर दो विपरीत शब्दों में व्यक्त किया होता है।
- रेमर्स की मास्टर टाइप मापनी – रैमर्स ने अनुकूलता के घटते हुए क्रम में अभिवृत्ति मापन की मास्टर टाइप मापनी की रचना की। अभिवृत्ति मापनियों की विश्वसनीयता एवं वैधता (Reliability and Validity of Attitude Scales) : अधिकांशत: अभिवृत्ति मापनियों की विश्वसनीयता का सम रूपान्तर तथा सम-विषय प्राप्तांक विधि के द्वारा ज्ञात किया जा सकता है। विभिन अभिवृत्ति मापनियों की विश्वसनीयता में काफी अन्तर दृष्टिगोचर होता है। कुछ की मध्यांक विश्वसनीयता 70, कुछ की 60 तो अन्य की 50 से भी कम ज्ञात की गई। थस्र्टन एवं लिकर्ट विधियों की विश्वसनीयता को 90 पाया गया। सांख्यिकीय विधियों से अभिवृत्ति मापनी की वैधता जानने के लिये इनके दो पदों को देख कर इनकी वैधता को ज्ञात किया जा सकता है।
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