पाठ्यचर्या निर्माण के उपागम का वर्णन करे । Describe the approach of curriculum construction . (पाठ्यचर्या निर्माण के दृष्टिकोण का वर्णन करें।)

4. पाठ्यचर्या निर्माण के उपागम का वर्णन करे ।

Describe the approach of curriculum construction . (पाठ्यचर्या निर्माण के दृष्टिकोण का वर्णन करें।)


पाठ्यचर्या निर्माण के उपागम

पाठ्यचर्या उपागम किसी भी संगठन संबंधी कार्यक्रम के लिए निर्णय लेते समय एक प्रकार का प्रारूप है जो शिक्षण अधिगम प्रक्रिया के विभिन्न तरंगों से संबंधित होता है । पाठ्यचर्या उपागम विशेष रूप से चार प्रकार के होते हैं जो कि निम्नलिखित हैं

1. विषय क्षेत्र उपागम

2. विस्तृत क्षेत्र उपागम

3. सामाजिक समस्या उपागम

4. उदीयमान आवश्यकता उपागम

1. विषय क्षेत्र उपागम

यथार्थवादी दर्शन के विद्वानों द्वारा पाठ्यचर्या को अलग - अलग विषयों के संदर्भ में संगठित करना चाहिए । विश्व के अनेक विद्यालय द्वारा इस पाठ्यचर्या में निश्चित शैक्षिक स्तर तक कुछ अनिवार्य विषयों को शामिल किया जाता है और बाद की आवश्यकताओं या अवस्थाओं में उनमें कुछ अतिरिक्त क्रियाओं को शामिल कर दिया जाता है । उपागम के अंतर्गत अधिगम उद्देश्यों में विषय वस्तु संबंधी प्रभुत्व अधिगम शामिल होता है जिसमें छात्रों के कौशलों का विकास निहित होता है । वर्तमान विषय वस्तु संबंधी विचारों के संदर्भ में महत्वपूर्ण अधिगम का विश्लेषण शामिल होता है ।

2. विस्तृत क्षेत्र उपागम

पाठ्यचर्या में आदर्शवादी विचारधारा के विचारक पाठ्यचर्या को दो या दो से अधिक विषय छात्रों को एक साथ मिलाकर व्यापक रूप प्रदान करने की सिफारिश करते हैं । उदाहरण स्वरूप सामाजिक विज्ञान की पाठ्यचर्या को निर्मित करते समय इतिहास , नागरिक शास्त्र , भूगोल तथा अर्थशास्त्र आदि विषयों को एक में मिलाकर व्यापक स्वरूप प्रदान किया जाता है । ठीक इसी तरह सामान्य विज्ञान को भौतिक विज्ञान , जीव विज्ञान तथा रसायन विज्ञान आदि विषयों को एक साथ मिलाकर व्यापक स्वरूप प्रदान किया जाता है । इस उपागम के समर्थक विद्वान विषय संबंधी उपागम से हटकर एक लाभ प्राप्त करने की दिशा में इसके आपसी संबंधों पर अधिक ध्यान केंद्रित करने की बात करते हैं । इस उपागम के अंतर्गत व्यापक विचारधारा और संप्रत्यय पर बल दिया जाता है ।

3.सामाजिक समस्या उपागम संरचनावाद विद्वान पाठ्यचर्या को समाज में उभरती हुई महत्वपूर्ण समस्याओं के संदर्भ में निर्मित करने की सिफारिश करते हैं । उदाहरण स्वरूप पाठ्यचर्या को संगठित करते समय छोटी छोटी इकाइयों के रूप में जैसे धर्मनिरपेक्षता , पर्यावरण संबंधी समस्या , आतंकवाद , जातिवाद , क्षेत्रवाद आदि को पाठ्यचर्या में शामिल किया जाता है । इस उपागम के अंतर्गत समस्याओं यहां महत्वपूर्ण बिंदुओं को अधिगम उद्देश्यों के संदर्भ में विश्लेषक किया जाता है । यदि अध्ययन संबंधी प्रकरण की समस्या से संबंधित है तो विद्यार्थियों को सामाजिक विज्ञान के साथ - साथ सामान्य विज्ञान के अध्ययन हेतु सुझाव दिया जा सकता है । यद्यपि इस उपागम के अंतर्गत विषय वस्तु को विभिन्न विषयों से ग्रहण किया जाता है परंतु इसमें विषयों की अपनी अलग अलग पहचान को ध्यान में नहीं रखा जाता है ।

4. उदीयमान आवश्यकता उपागम पाठ्यचर्या में प्रयोजनवाद विचारधारा के समर्थक विद्वान पाठ्यचर्या को निर्मित करते समय छात्रों की उभरती हुई व्यक्तिगत और सामाजिक समस्याओं से संबंधित विषय वस्तुओं को पाठ्यचर्या में शामिल करने की वकालत करते हैं । उपागम के अंतर्गत इकाइयों को उन संदर्भ में निर्मित किया जाता है जो छात्रों की सभ्यता , संस्कृति , रीति रिवाज आदि से संबंधित होती हैं । सामाजिक तथा नैतिक मूल्य भी विकसित करने होते हैं । इस उपागम का एक महत्वपूर्ण लाभ यह है कि छात्र अपनी वर्तमान समस्याओं के बारे में अवगत हो जाते हैं । इसके अंतर्गत छात्रों को अपने वर्तमान जीवन के लिए उचित अवसर प्रदान किया जाता है परंतु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि प्रोढ़ जीवन की तैयारी के संदर्भ में उनके वर्तमान जीवन की तैयारी का क्रम व्यर्थ में खर्च हो रहा है । इस तरह की विद्यार्थियों की समस्याओं के समाधान के लिए स्रोत के रूप में शिक्षक महत्वपूर्ण सिद्ध हो सकते हैं क्योंकि छात्र जब उनके साथ अपनी समस्याओं का समाधान स्वतः आसानी से सिद्ध हो जाता है ।

  पाठ्यचर्या विकास का दृष्टिकोण 

पाठ्यचर्या व्यवसायी और कार्यान्वयनकर्ता पाठ्यचर्या की योजना, क्रियान्वयन और मूल्यांकन में एक या अधिक उपागमों का उपयोग कर सकते हैं।  पाठ्यचर्या विकास के दृष्टिकोणों पर चर्चा करते समय, कार्यान्वयनकर्ता द्वारा प्रभावी वितरण की सुविधा के लिए पाठ्यक्रम की व्यवस्था करने के तरीके पर ध्यान केंद्रित किया जाता है।  पाठ्यचर्या विकास के उपागम पाठ्यचर्या सामग्री और अधिगम गतिविधियों को व्यवस्थित करने की रणनीतियाँ हैं जो शिक्षार्थियों को प्रस्तुत की जाती हैं।  वे एक कार्यात्मक पाठ्यक्रम विकास प्राप्त करने के तरीके हैं।  Mbakwem (2009), लिखते हैं कि पाठ्यक्रम दृष्टिकोण और डिजाइन में नियोजित को एक दूसरे के स्थान पर इस्तेमाल किया जा सकता है। पाठ्यचर्या विकास के उपागमों को पाठ्यचर्या विकास के मॉडल के रूप में भी माना जा सकता है।

  चार-चरणीय दृष्टिकोण

पाठ्यचर्या विकास के लिए विभिन्न दृष्टिकोण हैं, जो पाठ्यचर्या विकास के तत्वों और पाठ्यक्रम के संचालन के स्तर पर ध्यान केंद्रित करने के अनुसार प्रस्तुत किए जाते हैं।  कोई फर्क नहीं पड़ता दृष्टिकोण या डिजाइन या मॉडल, वे सभी एक कार्यात्मक पाठ्यक्रम विकसित करने के लिए आवश्यक समान दायरे को कवर करते हैं।  जाइल्स, मैककचेन और ज़ेचील (1942) ने पाठ्यचर्या विकास का एक चार-चरणीय मॉडल विकसित किया।  चार चरण हैं: उद्देश्यों का चयन, सीखने के अनुभवों का चयन, सीखने के अनुभवों का संगठन और मूल्यांकन। पाठ्यचर्या विकास दृष्टिकोण के बारे में उनकी समझ यह है कि विकासकर्ता को सबसे पहले उन उद्देश्यों का चयन करना चाहिए जिनके बारे में उनका मानना ​​है कि वे अन्य चरणों को आगे बढ़ाते हैं, क्योंकि हर दूसरे चरण में उद्देश्यों की प्राप्ति पर ध्यान केंद्रित किया जाता है।

 पाठ्यचर्या विकास के लिए टायलर (1975) के दृष्टिकोण में भी जाइल्स एट अल की तरह ही चार चरण हैं।  दो दृष्टिकोणों के बीच एकमात्र अंतर यह है कि टायलर का दृष्टिकोण लाइनर है, यह दर्शाता है कि एक कदम दूसरे की ओर जाता है;  जबकि जाइल्स एट अल चरणों की अंतर्संबंध और अन्योन्याश्रयता दिखाते हैं।  उनका मानना ​​है कि उद्देश्य निर्धारित करें कि अन्य चरणों में क्या होता है। 

टायलर ने पाठ्यचर्या विकास के उपागमों की व्याख्या करने के लिए चार बुनियादी प्रश्न प्रस्तुत किए, अर्थात्:

1. विद्यालय को किन शैक्षिक उद्देश्यों को प्राप्त करना चाहिए?

2.  कौन से शैक्षिक अनुभव प्रदान किए जा सकते हैं जो इन उद्देश्यों को प्राप्त करने की संभावना रखते हैं? 

3. इन शैक्षिक अनुभवों को प्रभावी ढंग से कैसे व्यवस्थित किया जा सकता है? 

4. हम कैसे निर्धारित कर सकते हैं कि इन उद्देश्यों को प्राप्त किया जा रहा है या नहीं? 

 प्रश्नों के उत्तर देने में एक पाठ्यचर्या विकासकर्ता एक अच्छा पाठ्यक्रम विकसित करेगा क्योंकि उसने उद्देश्यों का चयन किया होगा, अनुभवों को अर्जित किया होगा, सीखने के अनुभवों को व्यवस्थित किया होगा और मूल्यांकन शुरू किया होगा।  प्रश्न विशिष्ट होते हैं और पाठ्यचर्या विकासकर्ता को हमेशा उद्देश्यों पर ध्यान केंद्रित करते हुए ट्रैक पर रहने में मदद करते हैं।

  केर (1968) के दृष्टिकोण में उद्देश्यों के चयन, सामग्री के चयन, सीखने के अनुभवों के चयन और मूल्यांकन से संबंधित चार चरण हैं।  यद्यपि चरण आपस में जुड़े हुए हैं और एक-दूसरे पर निर्भर हैं, फिर भी उन्होंने सीखने के अनुभवों के संगठन के बारे में कुछ नहीं कहा।  यह इस मॉडल की एक सीमा है, क्योंकि सीखने के अनुभवों के प्रभावी संगठन के बिना पाठ्यचर्या कार्यान्वयन प्राप्त नहीं किया जा सकता है। 

पाँच-चरणीय दृष्टिकोण

पाँच-चरणीय दृष्टिकोण चार-चरणीय दृष्टिकोण से एक प्रस्थान प्रस्तुत करता है जैसा कि ऊपर चर्चा की गई है।  निकोल्स और निकोल्स (1978) ने इस प्रकार के दृष्टिकोण की सिफारिश की। अतिरिक्त कदम स्थितिजन्य विश्लेषण पर उनके जोर के कारण है।  वे इसे पाठ्यचर्या विकास प्रक्रिया के एक अत्यंत महत्वपूर्ण घटक के रूप में देखते हैं।  स्थितिपरक विश्लेषण पाठ्यचर्या योजना और विकास में शामिल सभी कारकों और मुद्दों का निदान है।  यह सुनिश्चित करने के लिए इन कारकों की पहचान और विश्लेषण किया जाता है कि पाठ्यक्रम का विकास अड़चन मुक्त होगा और एक सार्थक और कार्यात्मक पाठ्यक्रम विकसित किया जाएगा।  उनका मानना ​​​​है कि स्थितिजन्य विश्लेषण शुरू करने से उन उद्देश्यों के चयन में सुविधा होगी जो समाज की जरूरतों को दर्शाते हैं।तो निकोल्स और निकोल्स के दृष्टिकोण में शामिल हैं: स्थितिजन्य विश्लेषण, उद्देश्यों का चयन, सामग्री का चयन, विधियाँ और मूल्यांकन। शिक्षार्थियों को आत्मसात करने के लिए पाठ्यक्रम में प्रस्तुत ज्ञान, कौशल, दृष्टिकोण और मूल्यों को योग्य बनाने के लिए चार-चरणीय दृष्टिकोण के समर्थकों ने सामग्री का उपयोग नहीं किया, बल्कि सीखने के अनुभवों का उपयोग किया। निकोल्स और निकोल्स इसे सामग्री कहते हैं। वे सीखने के अनुभवों के संगठन को विधियों के रूप में भी संदर्भित करते हैं। विधियाँ शिक्षार्थियों को प्रस्तुत की जाने वाली पाठ्यचर्या सामग्री की व्यवस्था से संबंधित हैं, जो संगठन के समान है। यह प्रभावी संगठन के सिद्धांतों का पालन करने से संबंधित है, जिसमें अनुक्रमण, एकीकरण, निरंतरता और कार्यक्षेत्र शामिल हैं। उनका दृष्टिकोण चक्रीय प्रकृति का है जो एक लचीली प्रक्रिया को दर्शाता है जिससे पाठ्यचर्या कार्यकर्ता किसी भी बिंदु से पाठ्यचर्या को विकसित करने के लिए शुरू कर सकता है। यह पाठ्यचर्या विकास को एक सतत और सतत प्रक्रिया के रूप में प्रस्तुत करता है।

उसी तरह, व्हीलर (1980) का दृष्टिकोण निकोल्स और निकोल्स के दृष्टिकोण का समर्थन करता है। उनका मॉडल पांच चरणों वाला, चक्रीय दृष्टिकोण है, जो निम्न से बना है: उद्देश्यों का चयन, सामग्री का चयन, सीखने के अनुभवों का चयन, सामग्री और सीखने के अनुभवों का संगठन, और मूल्यांकन। व्हीलर सीखने के अनुभव और सामग्री दोनों को समायोजित करके दूसरों से अलग था, जिसे वह दो अलग-अलग घटकों के रूप में दिखाता है। सामग्री ज्ञान का संग्रह है, विषय वस्तु, तथ्य, विचार आदि शिक्षार्थियों को प्रस्तुत किया जाता है, जबकि सीखने के अनुभव शिक्षार्थियों द्वारा सामग्री सीखने में मदद करने के लिए शुरू की गई गतिविधियाँ हैं। वे शारीरिक या मानसिक हो सकते हैं; खुला या गुप्त। वे शिक्षार्थी-उन्मुख और लक्ष्य-उन्मुख हैं। तो सीखने के अनुभव साधन हैं, जबकि सामग्री अंत है।

व्हीलर पाठ्यक्रम के दो कार्यान्वयन के संगठन को भी देखता है। जैसा कि व्हीलर में लागू की गई विधियाँ स्थितिजन्य विश्लेषण की उपेक्षा करती हैं जो आवश्यकता विश्लेषण से संबंधित है। उनका दृष्टिकोण भी चक्रीय और लचीला है कि कोई भी किसी भी बिंदु से पाठ्यचर्या विकास कार्य शुरू कर सकता है। यह यह भी दर्शाता है कि पाठ्यचर्या एक सतत गतिविधि है क्योंकि समाज गतिशील है, और इसलिए, पाठ्यचर्या, समाज के कार्यात्मक सदस्यों को उत्पन्न करने के लिए उपयोग किया जाने वाला वाहन भी गतिशील होना चाहिए।

सेवन-स्टेप अप्रोच

तबा (1962) ने अपने मॉडल या पाठ्यक्रम के विकास के दृष्टिकोण को सात घटकों के लिए प्रस्तावित किया है। वह दृढ़ता से मानती है कि पाठ्यक्रम डेवलपर को भ्रमित करने से बचने के लिए चरणों को निर्दिष्ट किया जाना चाहिए। निकोल्स और निकोल्स के साथ उसकी यही बात है; कि पाठ्यचर्या विकास स्थितिजन्य विश्लेषण के साथ शुरू होना चाहिए। वह स्थितिजन्य विश्लेषण चरण में अध्ययन किए जाने वाले कारकों की पहचान करने के लिए आगे बढ़ी, जिसमें शामिल हैं: शिक्षार्थी, शिक्षक, सीखने की प्रक्रिया, ज्ञान के उपलब्ध संचित शरीर की प्रकृति, शैक्षिक प्रणाली और सुविधाओं की प्रकृति, पर्यावरण पर प्रभाव सीखने वाला। इस विश्लेषण से एकत्र किया गया डेटा पाठ्यचर्या के उद्देश्यों का चयन करने के लिए पाठ्यचर्या विकासकर्ता को आवश्यक विवरणों से लैस करेगा। प्रक्रिया या दृष्टिकोण में निम्नलिखित चरण होते हैं: स्थितिगत विश्लेषण, उद्देश्यों का चयन, सीखने के अनुभवों का चयन, सामग्री का चयन, सीखने के अनुभवों का संगठन, सामग्री का संगठन और मूल्यांकन। व्हीलर के विपरीत, सीखने के अनुभव और सामग्री को अलग से व्यवस्थित किया जाता है।



 पाठ्यचर्या निर्माण के प्रमुख सिद्धांत 

Major theory of curriculum construction

        


  पाठ्यचर्या विद्यालयी शिक्षा के केंद्र बिंदु है ! पाठ्यचर्या एक सुनिश्चित क्रिया है ! इसका निर्माण बिना सोचे-समझे नहीं किया जा सकता है क्योंकि इसके द्वारा कुछ निश्चित उद्देश्य प्राप्त करने होते है ! पाठ्यचर्या निर्माण के अनेक दृष्टिकोण है ! ये दृष्टिकोण विभिन्न दार्शनिको एवं प्रवृत्तियों की देन है ! पाठ्यचर्या निर्माण के निम्नलिखित सिद्धांत हैं -


1. शैक्षिक उद्देश्यों की अनुकूलता का सिद्धांत -




2.बच्चों को आवश्यकताओ योग्यताओ रुचिओ एवं भावनाओं की अनुकूलत्ता का सिद्धांत - 



3. जीवन से संबंधित होने का सिद्धांत - 



4. पाठ्यचर्या में मानव जीवन के समस्त उपयोगी अनुभवो के समावेश का सिद्धांत -



5. उपयोगिता का सिद्धांत -



6. पाठ्यचर्या के विभिन्न विषयों एवं क्रियाओं में सह -सम्बन्ध तथा एकीकरण का सिद्धांत -



7. प्रदान किये जानेवाले ज्ञान के वर्गीकरण का सिद्धांत 



8. पाठ्यचर्या में अगुवाई एवं सामान्यीकरण का सिद्धांत - 



9. आगे की ओर देखने का सिद्धांत -


10 सीखने के अनुभव में निरंतरता का सिद्धांत - 


11. क्रिया का सिद्धांत - 




12. तत्परता का सिद्धांत -


13. अवकाश के सदुपयोग का सिद्धांत -  


14. विविधता और लचीलेपन का सिद्धांत -

15. राष्ट्रीय लक्ष्यों एवं लोकतंत्रात्मक गुणों के विकास का सिद्धांत -


1. शैक्षिक उद्देश्यों की अनुकूलता का सिद्धांत -


 

 


पाठयचर्या को शैक्षिक उद्देश्यों की प्राप्ति का सदा ध्यान रखना चाहिए क्योंकि उद्देश्य ही निर्धारित करते हैं कि उन विषयों एवं क्रियाओं को जो उद्देश्यों को जो उदेश्यो को प्राप्त करने के लिए बालको को दी जानी है !


2.बच्चों को आवश्यकताओ योग्यताओ रुचिओ एवं भावनाओं की अनुकूलत्ता का सिद्धांत -  


इस सिद्धांत को बाल-केंद्रित सिद्धांत भी कहा जाता है ! यह तो सभी जानते हैं और मानते हैं कि बच्चे योग्यता, रुचि एवं भावना की दृष्टि से संपन्न नहीं होते ! इसलिए पाठ्यचर्या सामान्य बालकों की आवश्यकताओं, योग्यताओं, रुचियों, भावनाओं एवं क्रियाओं के आधार पर बनाई जाती है ! बच्चों की आत्माभीव्यक्ति और उपक्रम को प्रभावित करने के लिए केवल वही विषय एवं क्रियाएं सम्मिलित नहीं की जाती है जो उनके अनुकूल हो ! छात्रों में असमानता होती है, इसलिए उसके रुझान, रुचि एवं आवश्यकता के आधार पर उन्हें अनेक वर्गो में बांटा जाता है ! इन विभिन्न वर्गों के लिए अलग-अलग पाठ्यचर्या बनाई जानी चाहिए इससे उन्हें अपनी योग्यताओं, क्षमताओं को विकास करने का अवसर मिल सकेगा !


3. जीवन से संबंधित होने का सिद्धांत - 


पाठ्यचार्य का निर्माण करते समय ध्यान रखा जाए कि यह शैक्षिक विषयों से संबंधित पाठय -पुस्तकों तक ही सीमित न रहे, वरन यह ऐसी होनी चाहिए कि छात्रों को समस्त शैक्षिक वातावरण की अभिव्यक्ति कराने की क्षमता रखती हो ! साथ ही यह भी ध्यान रखा जाए कि छात्रों की भावनाओं को ठेस ना पहुंचे ! यह व्यवस्था ही छात्रों के दृष्टिकोण को व्यापक बनाने में सहायक सिद्ध होगी !


4. पाठ्यचर्या में मानव जीवन के समस्त उपयोगी अनुभवो के समावेश का सिद्धांत -


 यह सर्वविदित है कि मानव अपने पूर्वजों के अनुभवो से सीखता है और उनमें अपने अनुभव जोड़कर उन्हें विकसित करता है ! यदि मानव जाति के समस्त अनुभवो का लाभ छात्रों को पहुंचाना है तो उन्हें पाठ्यचर्या में स्थान देना होगा ! साथ ही, प्रत्येक व्यक्ति द्वारा दूसरो के अनुभवो की कसौटी पर रखकर सत्य तथा असत्य का निर्णय लिया जा सकेगा !


5. उपयोगिता का सिद्धांत -


 पाठ्यचर्या का निर्माण करते समय इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि कौन-कौन से विषय एवं क्रियाएं छात्रों के लिए उपयोगी है ! इसलिए उपयोगिता के आधार पर विषय एवं क्रियाओं का क्रम निर्धारित करना चाहिए ! स्वतंत्र भारत ने स्वेच्छा से लोकतांत्रिक शासन एवं समाजिक पद्धति अपनाई है ! इसलिए प्रत्येक स्तर की पाठ्यचर्या में लोकतांत्रिक के आवश्यक गुणों राष्ट्रिय अखंडता एवं राष्ट्रिय भावना को उपयुक्त स्थान मिलना चाहिए !


6. पाठ्यचर्या के विभिन्न विषयों एवं क्रियाओं में सह -सम्बन्ध तथा एकीकरण का सिद्धांत -


 ज्ञान को एक इकाई के रूप में माना व् समझा जाता है ! परंतु शिक्षाविदों ने शिक्षण के सुविधा के लिए विश्लेषणात्मक ढंग से ज्ञान को विभिन्न विषयों में विभाजित कर दिया है ! सीखने की सुविधा एवं उपयोगिता के आधार पर पाठ्यचर्या का निर्माण करते समय उन्हीं विषयों और क्रियाओं को शामिल किया जाना चाहिए तो परस्पर संबंधित हो ! विभिन्न विषयों की सामग्री का चयन करते समय भी ऐसी सामग्री का चयन करना होगा जिसे एक -दूसरे के आधार पर पढ़ाया या विकसित किया जा सके ! ऐसी ही पाठ्यचर्या को एकीकृत पाठ्यचर्या कहा जाता है !


7. प्रदान किये जानेवाले ज्ञान के वर्गीकरण का सिद्धांत -


 यह सर्वविदित है कि मानव जीवन सीमित है और इसके विपरीत ज्ञान असीमित है और साथ ही ज्ञान का विस्फोट भी हो रहा है ! ऐसी स्थिति में, मानव अपने सीमित जीवन काल में समस्त ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता ! प्रत्येक व्यक्ति को लिखने पढ़ने और सामान्य व्यवहार में दक्ष होना चाहिए ! इसी प्रकार भाषा, गणित और समाजशास्त्र या समाजिक अध्ययन या सामाजिक विज्ञान अनिवार्य विषय होने चाहिए ! कृषि, वाणिज्य आदि जैसे विषय एकचक्षिक वर्ग में रखे जाने चाहिए ! प्रत्येक व्यक्ति की अपनी रूचि के अनुसार विषय चुनने का अवसर मिल सके !

8. पाठ्यचर्या में अगुवाई एवं सामान्यीकरण का सिद्धांत - 


 इस सिद्धांत के अनुसार पाठ्यचर्या का निर्माण इस प्रकार किया जाना चाहिए कि उसमें अगुआई की भावना जागृत हो सके ! इसके फलस्वरूप छात्र ज्ञान प्राप्त करने एवं क्रियाओं में दक्षता प्राप्त करने के लिए प्रशिक्षण लेने की भावना तथा जिज्ञासा प्रकट करेंगे ! 

  प्राप्त ज्ञान बेकार है यदि छात्र उसका प्रयोग ना कर सके ! इसलिए प्रयोग करने की क्षमता को ही ज्ञान का सामान्यीकरण कहा जायेगा ! इसलिए पाठ्यक्रम ऐसी बनाई जाए कि छात्र ज्ञान प्राप्त कर सके और क्रियाओं की ओर आकर्षित हो सकें ! यही योग्यता उनके भावी जीवन को सफल बनाने में सहायक सिद्ध होगी !


9. आगे की ओर देखने का सिद्धांत -


 आज का बच्चा कल का नागरिक है ! उसे ही आगे चलकर विभिन्न उत्तर दायित्व संभालने होंगे ! इसलिए पाठ्यचर्या की रचना ऐसे ढंग से की जानी चाहिए कि वे समाज के की प्रगति एवं भलाई में प्रभावशाली योगदान दे सके और अपने वातावरण में आवश्यकतानुसार वांछित परिवर्तन ला सकें !इसलिए कहा जा सकता है कि बालक को दिया जाने वाले ज्ञान ऐसा हो कि उज्जवल भविष्य के लिए सहायक सिद्ध हो सके !


.10 सीखने के अनुभव में निरंतरता का सिद्धांत - 


छात्रों की अधिगम गति को तेज करने के लिए सीखने के अनुभवों में निरंतरता होनी चाहिए ! यहा स्थल से सूक्ष्म की ओर के सिद्धांतों का अनुकरण किया जाना हितकर सिद्ध होगा ! 


11. क्रिया का सिद्धांत - 


आज के युग में क्रिया द्वारा सीखना श्रेष्ठ माना जाता है और प्राप्त ज्ञान स्थाई होता है ! इसलिए पाठ्यचर्या में छात्रों की सक्रियता को बनाए रखने के लिए विभिन्न उपयोगी क्रियाओं का समावेश किया जाना चाहिए !


12. तत्परता का सिद्धांत -


 यह सभी मानते हैं कि वही ज्ञान प्रभावशाली एवं अर्थपूर्ण होता है जिसके सीखने के लिए छात्र प्रेरित होता है या उसमें सीखने के प्रति तत्परता होती है ! तत्परता के लिए आवश्यक है कि छात्र के पास उपयुक्त ज्ञान एवं कौशल हो और सीखने के प्रति उसका सकारात्मक दृष्टिकोण हो ! इसके साथ वातावरण भी अधिगम तत्परता को प्रभावित करता है ! इसलिए पाठ्यचर्या रचना ऐसे ढंग से की जानी चाहिए कि अध्यापक उपयुक्त समय पर ही विषय पढ़ा सके !


13. अवकाश के सदुपयोग का सिद्धांत -  


शिक्षा के उद्देश्य व्यवसाय के लिए तैयार करना नहीं होता वरन छात्रों को अवकाश के समय सदुपयोग का भी प्रशिक्षण देना चाहिए ! इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए पाठ्यचर्या में समाजिक सौंदर्य, बोधक, रुचि एवं क्रिडात्मक क्रियाओं का समावेश होना चाहिए !



 14. विविधता और लचीलेपन का सिद्धांत -


 पाठ्यचर्या की रचना में ज्ञान, कुशलता और भावनाओं के उन विस्तृत क्षेत्रों का समावेश किया जाना चाहिए जो बालक की व्यक्तिगत भिन्नता की दृष्टि से विकास की प्रक्रिया को विकसित कर सके ! ऐसी स्थिति में आवश्यकता हो जाता है कि पाठ्यचर्या में विविधता के साथ लचीलापन भी हो !


15. राष्ट्रीय लक्ष्यों एवं लोकतंत्रात्मक गुणों के विकास का सिद्धांत - 


स्वतंत्र भारत ने अपने राष्ट्र लक्ष्य निर्धारित किए हुए हैं ! देश की समस्त शिक्षा प्रणाली का आधार राष्ट्रीय लक्ष्य है ! पाठ्यचर्या की रचना करते समय राष्ट्रीय लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए आवश्यक ज्ञान कौशल एवं भावनाओं का समावेश करना आवश्यक है ! इसके अंतर्गत हमें अपने छात्रों को जनसंख्या की समस्या, उत्पादन वृद्धि, वैज्ञानिक दृष्टिकोण के लिए पर्याप्त अवसर उपलब्ध कराने होंगे ! 



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