Epc-4 Swayam ki samajh /आत्म अवधारणा /प्रत्यय ( self-concept ) - आत्म सम्मान / आत्म सम्मान के विकास एवं घटक ( Self - Esteem ? the development and component of Self - Esteem . ) EPC-4 Notes in hindi

 


आत्म अवधारणा /प्रत्यय ( self-concept ) - आत्म सम्मान / आत्म सम्मान के विकास एवं घटक ( Self - Esteem ? the development and component of Self - Esteem . ) EPC-4 Notes in hindi


आत्म - प्रत्यय/अवधारणा

( Self - concept ) -

जीवन के प्रथम वर्ष के अंत तक वह अपने आपको एक अलग प्राणी के रूप में समझने लगता है । वह अपनी आवाज से पहले अपनी माँ की आवाज पहचानता है । इसी प्रकार से वह शीशे में अपनी शक्ल से दूसरों की शक्ल पहले पहचानना सीखता है । हरलॉक ( 1978 ) का विचार है कि " Because baby is primarily egocentric ; he forms concept about himself before he forms concepts about others . " बच्चे के आत्म - प्रत्यय में दो प्रकार की प्रतिभाएँ होती हैं । पहली आत्म - प्रतिभाएँ शारीरिक आत्म - प्रतिभाएँ हैं । इन आत्म - प्रतिभाओं का विकास पहले होता है । इसका सम्बन्ध बालकों की शारीरिक बनावट और रंग - रूप से होता है । दूसरी आत्म - प्रतिभाएँ मनोवैज्ञानिक आत्म - प्रतिभाएँ होती हैं । इन आत्म - प्रतिभाओं बालकों की भावनाएँ , विचार , संवेग , साहस , ईमानदारी , स्वतंत्रता , आत्म - विश्वास , योग्यताएँ तथा आकांक्षाएँ आदि सम्मिलित होती हैं । बालक की आयु जैसे - जैसे बढ़ती जाती है वैसे - वैसे शारीरिक और मनोवैज्ञानिक प्रतिभाएँ आपस में एक - दूसरे से सात्मीकरण हो जाती है या फ्यूज हो जाती है ।

एल . के . फ्रैन्क और एम . एच . फ्रैंक ( 1956 ) का विचार है कि " The child learn to think ard feel about himself as defined by others . He develops an image of self as the chief actor in his ' private world ' . This image devel ops primarily from the way parents , teachers and other significant persons describe , punish , praise , or iove him . " बालक अपने चारों ओर के वातावरण में जैसा अपने - आपको देखता है और जै उसके परिवार के लोग और परिचित उसे देखते हैं । इसी आधार पर वह अपने आत्म - प्रत्यय का निर्माण करता है । यही कारण है कि आत्म - प्रत्यय को दर्पण प्रतिमा कहा गया है । हरलॉक ( 1978 ) का भी विचार है कि " The child's concept of himself as a person to a mirror image of what he believes significant people in his life think of him . " कभी - कभी जब परिवार के लोग बालक को शैतान समझने लगते हैं , खेल के साथी भी इसी प्रकार का मत बना लेते हैं तो बालक अपना आत्म - प्रत्यय भी इसी प्रकार का बनाता है जिसमें वह अपने आपको एक शैतान बच्चे के रूप में देखता है । चूँकि बच्चा कम अनुभवों वाला होता है इसलिए दूसरे लोग उसके साथ कैसा व्यवहार करते हैं इस बात को कभी - कभी वह Misinterpret कर जाता है।

एक बार आत्म - प्रत्यय बनने के बाद यद्यपि यह स्थिर होते हैं परन्तु नए अनुभवों के बढ़ने के साथ - साथ इनमें भी संशोधन और परिवर्द्धन होता रहता है । आत्म - प्रत्ययों में क्रमबद्धता पाई जाती है । बालक में प्रारम्भिक अवस्था में जो आत्म - प्रतयय बनते हैं उन्हें प्राथमिक आत्म - प्रत्यय कहा जाता है यह आत्म - प्रतयय माता - पिता के शिक्षण के आधार पर अथवा परिवार के सदस्यों के शिक्षण के आधार पर बनते हैं । इन प्राथमिक आत्म - प्रत्ययों में भी शारीरिक और मनोवैज्ञानिक , दोनों प्रकार की आत्म - प्रतिभाएँ पाई जाती है । जब बालक दूसरे बच्चों के साथ खेलना प्रारम्भ करता है , स्कूल जाना प्रारम्भ करता है तब उसमें पहले से बने प्राथमिक प्रत्ययों का संशोधन और परिवर्द्धन होने लगता है । इस अवस्था के आत्म - प्रत्यय उद्दीपक आत्म - प्रत्यय कहे जाते हैं । इस प्रकार के आत्म - प्रत्यय बहुधा इस बात पर आधारित होते हैं कि दूसरे लोग बालक को किस प्रकार और किस दृष्टि से देखते हैं । बहुधा यह देखा गया है कि बालकों का प्राथमिक आत्म - प्रत्यय अधिक अनुकूल होता है तथा द्वितीयक आत्म - प्रत्यय उतना उनके अनुकूल नहीं होता है । अध्ययनों में देखा गया है कि समय - समय पर बालक अपने आत्म - प्रत्ययों में अपने सामाजिक और सांस्कृतिक समूहों के मूल्यों , नियमों और प्रतिमानों के अनुसार संशोधन करते रहते हैं ।

 लगभग तीन - चार वर्ष की अवस्था तक बालक सेक्स - सम्बन्धी अन्तर समझने ही नहीं लगता , बल्कि वह बालों और कपड़ों के रख - रखाव के आधार पर लड़के - लड़कियों , स्त्री - पुरुषों को अलग - अलग पहचानने भी लग जाता है । जब वह स्कूल जाना प्रारम्भ करता है , तो उसका यह अन्तर और अधिक स्पष्ट हो जाता है परन्तु वय - सन्धि अवस्था में वह दो सेक्स के अन्तर को पूर्णतः पहचान जाता है । बालक जब स्कूल जाना प्रारम्भ करता है , उस समय तक मेल और फीमेल सेक्स के कार्यों को भी जानने लग जाता है । लगभग चार साल का बालक अपने जातीय और प्रजातीय अन्तरों को भी इसलिए पहचानने लग जाता है कि खेल के साथी और दूसरे लोग उससे उसकी जाति और प्रजाति के अनुसार व्यवहार करने लग जाते हैं । जब वह स्कूल जाने लग जाता है तब वह अपने परिवार की प्रतिष्ठा और अपने परिवार के सामाजिक और आर्थिक स्तर का भी ज्ञान प्राप्त कर लेता । है । स्कूल जाने तक वह यह समझने लगता है कि परिवार की और उसकी प्रतिष्ठा तथा | सामाजिक - आर्थिक स्तर माता - पिता के व्यवसाय से निर्धारित होता है । वह इन वर्षों को अपने आत्म - प्रत्यय से जोड़ लेता है ।

 कुछ महत्त्वपूर्ण शोध अध्ययन ( Some Important Research Studies )-

 अनेक शोध अध्ययनों ( सारबिन और रोजनबर्ग , 1955 ; अमातोरा , 1957 ; इन्गिल , 1959 ; स्मिथ और क्लीफन , 1962 ) से यह स्पष्ट हुआ है कि बालक और बालिकाओं के आत्म - प्रत्यय में सार्थक अन्तर होता है । लाइवली ( 1962 ) ने अपने अध्ययनों के आधार | पर यह स्पष्ट किया कि जीवन के प्रारम्भिक वर्षों में आत्म - प्रत्यय अस्थिर होता है । आयु | बढ़ने के साथ - साथ उसमें स्थिरता आती है । जिन लोगों का आत्म - प्रत्यय अस्थिर होता | है उनका समायोजन अच्छा नहीं होता है ( वार्चेल , 1957 ; क्रपरस्मिथ , 1959 ) । दीक्षित ( 1983 ) ने अपने अध्ययनों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला कि किशोरों के आत्म - प्रत्यय को कुण्ठा तथा कुण्ठा के विभिन्न मोड्स महत्वपूर्ण ढंग से प्रभावित करते हैं।

जरसील्ड ( 1971 ) का विचार है कि आत्म - प्रत्यय व्यक्ति के विचारों और अनुभवों | से बनता है । चूँकि विचार और अनुभव परिवर्तित होते रहते हैं , अतः आत्म - प्रत्यय भी परिवर्तित होता रहता है । वाइली ( 1961 ) ने अपने अध्ययनों के आधार पर यह निष्कर्ष | निकाला कि आत्म - प्रत्यय का सम्बन्ध समायोजन से होता है । इस दिशा में हुए कुछ अध्ययनों ( मेरिस , 1958 ) ; क्रपरस्मिथ , 1967 ; सियर्स , 1970 ) से यह निष्कर्ष प्राप्त हुआ कि जिन व्यक्तियों में आत्म- -स्वीकृति जितनी ही अधिक होती है , उनका समायोजन उतना ही अधिक होता है । कुछ अन्य अध्ययनों ( मूसैन ओर पोर्टर , 1959 , जिम्बार्डो और फारिमिका , 1963 ; रंग और साथी , 1965 ; हरटप और कोट्स 1967 ; मैकडोनाल्ड , 1969 आदि ) में यह सिद्ध किया गया है कि व्यक्ति के आत्म - प्रत्यय की शुद्धता उसके जीवन के विभिन्न क्षेत्रों के समायोजन को सार्थक ढंग से प्रभावित करती है । इसमें हुए अध्ययनों से यह भी स्पष्ट हुआ कि आत्म - प्रत्यय की स्थिरता भी उसके समायोजन को महत्वपूर्ण ढंग से प्रभावित करती है । यह पाया गया है कि आत्म - प्रत्यय जितना ही अधिक स्थिर होता है , विभिन्न क्षेत्रों का समायोजन उतना ही दुर्बल होता है ( कैटल , 1967 ; कार्टराइट , 1963 ; हरलॉक , 1974 ) ।

कुछ अध्ययनों ( बेरी , 1974 ; टोनोबेथ , 1980 ; थॉमस , 1982 ) में यह सिद्ध किया गया है किक व्यक्ति जितना ही कम आक्रामक होता है , उसका आत्म - प्रत्यय उतना ही अधिक उच्च होता है । आकांक्षा स्तर और आत्म - प्रत्यय में भी महत्वपूर्ण सम्बन्ध होता है । मरगोरी ( 1979 ) के अनुसार आकांक्षा स्तर और आत्म - प्रत्यय में ऋणात्मक सम्बन्ध होता . । यह देखा गया है कि जब व्यक्ति की उपलब्धि और उसके लक्ष्य में अन्तर अधिक होता है , तब उसका आत्म - प्रत्यय ऋणात्मक रूप से प्रभावित होता है।

 कमलेश रानी और डी . एन . श्रीवास्तव ( 1992 ) को अपने अध्ययनों के आधार पर निम्नलिखित महत्वपूर्ण निष्कर्ष प्राप्त हुए

 ( 1 ) आन्तरिक लोकस ऑफ कन्ट्रोल जिन प्रयोज्यों का उच्च होता है , उनका आत्म - प्रत्यय भी उसी रूप में उच्च होता है ।

( 2 ) इसी अध्ययन में यह भी देखा गया कि प्रयोज्यों के जीवन मूल्यों का भी आत्म - प्रत्यय से महत्वपूर्ण सम्बन्ध है । उदाहरण के लिए जिन प्रयोज्यों में धार्मिक मूल्य , सामाजिक मूल्य , और ज्ञान मूल्य आदि उच्च स्तर के होते हैं उन प्रयोज्यों का आत्म - प्रत्यय अपेक्षाकृत अच्छा होता है ।

( 3 ) तृतीय महत्वपूर्ण निष्कर्ष यह प्राप्त हुआ कि जिन प्रयोज्यों का गृह समायोजन , स्वास्थ्य रामायोजन , सामाजिक समायोजन , संवेगात्मक समायोजन और शैक्षिक समायोजन उच्च होता है उन प्रयोज्यों का आत्म - प्रत्यय भी अपेक्षाकृत अच्छा होता है ।

( 4 ) स्वास्थ्य समायोजन या सामाजिक समायोजन या संवेगात्मक समायोजन और लोकस ऑफ कन्ट्रोल का आत्म - प्रत्यय पर अन्त : क्रियात्मक प्रभाव पड़ता

( 5 ) धार्मिक मूल्य या सामाजिक मूल्य या आर्थिक मूल्य और संवेगात्मक समायोजन का आत्म - प्रत्यय पर अन्त : क्रियात्मक प्रभाव पड़ता

( 6 ) संवेगात्मक समायोजन लोकस ऑफ कन्ट्रोल और कुछ मूल्य , जैसे सामाजिक मूल्य , स्वास्थ्य मूल्य आदि एक - दूसरे पर आश्रित होकर प्रयोज्यों के आत्म - प्रत्यय को महत्वपूर्ण ढंग से प्रभावित करते हैं अथवा इनका आत्म - प्रत्यय पर अन्त : क्रियात्मक प्रभाव  पड़ता है ।

आत्म सम्मान / आत्म सम्मान के विकास एवं घटक ( Self - Esteem ? the development and component of Self - Esteem . ) 

जैसे - जैसे बच्चों में विकास की प्रक्रिया आगे बढ़ती है , वैसे - वैसे उनमें मूल्यांकन की योग्यता में भी वृद्धि होती है । वे केवल अपन ही चित्रण नहीं करते हैं , अपितु अपने गुणों , विशेषताओं एवं योग्यताओं आदि का मूल्यांकन भी करना प्रारम्भ कर देते हैं । अतः आत्म - सम्मान आत्मा का ही एक पक्ष है । यह आत्मा का मूल्यांकनात्मक पक्ष है । यह एक महत्त्वपूर्ण पक्ष है क्योंकि व्यक्ति के व्यक्तित्व , व्यवहार एवं सामाजिक परिस्थितियों में इसका प्रभाव स्पष्टतः परिलक्षित होता है । मनोवैज्ञानिकों ने इसे इसी रूप में परिभाषित किया है ।

शैफर एवं किफ के अनुसार , " आत्म - सम्मान का आशय किसी व्यक्ति में उसके आत्म से सम्बन्धित गुणों के मापन पर आधारित उसकी योग्यता के आत्म - मूल्यांकन से ।

कून एवं मिट्टरर के अनुसार , " आत्म - सम्मान का आशय स्वयं को एक उपयोगी व्यक्ति मानने ; स्वयं का अनुकूल मूल्यांकन करने से है । "

उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट होता है कि आत्म - सम्मान किसी व्यक्ति द्वारा स्वयं की योग्यताओं एवं विशेषताओं के बारे में मूल्यांकनात्मक व्यवहार से है । संक्षेप में कह सकते हैं कि-

 ( i ) आत्म - सम्मान , आत्म का ही एक पक्ष है ।

( ii ) यह आत्म का मूल्यांकनात्मक पक्ष है।

( iii ) इसका तात्पर्य स्वयं की योग्यताओं के बारे में निर्मित धारणा से है।

 ( iv ) आत्म - सम्मान व्यक्ति के स्वयं की विशेषताओं क मूल्यांकन पर आधारित है ।

 ( v ) लोग प्रायः घनात्मक आत्म - मूल्यांकन करते हैं ।

आत्म - सम्मान के स्तर ( Levels of Self - Esteem ):-

 सामान्यत : आत्म - सम्मान की भावना को वस्तुपरक बनाये रखना चाहिये । आत्म सम्मान की भावना की दृष्टि से बच्चों या वयस्कों को दो वर्गों में विभक्त किया जा सकता है । इन्हें उच्च एवं निम्न आत्म - सम्मान स्तर कहा जाता है । इनकी विशषताएँ निम्न तालिका में प्रस्तुत ।


उच्च आत्म - सम्मान

1. उच्च आत्म - सम्मान वाले बच्चों में संतुष्टि स्तर उच्च होता है ।

2. उन्हें अपनी अच्छाइयों का ज्ञान होता है ।

3. वे कमियों को स्वीकार करते हैं ।

4. वह कमियों को दूर करने के प्रति आश्वस्त होते हैं।

5. वे अपनी विशेषताओं तथा क्षमताओं के प्रति धनात्मक दृष्टिकोण रखते हैं। 


निम्न आत्म - सम्मान

 1. निम्न आत्म - सम्मान के बच्चों में संतुष्टि स्तर निम्न होता है ।

 2. वे अपनी कमियाँ कम मानते हैं ।

 3. उनमें अपनी कमियों को दूर करने की इच्छा कम होती है ।

4. फोन में जो क्षमता या कौशल होता भी है उनका प्रदर्शन कम ही कर पाते हैं।

5. वे स्वयं के बारे में नकारात्मक भाव रखते हैं।

आत्म - सम्मान का विकास ( Development of Self - Esteem ) —

सहज , सार्थक एवं सामंजस्यपूर्ण जीवन व्यतीत करने के लिए व्यक्ति को अपनी विशेषताओं , योग्यताओं , गुण एवं दोषों का सही मूल्यांकन करना चाहिए । अपने बारे में अनावश्यक अच्छी धारणाएँ बना लेना या नकारात्मक धारणाएँ ही बना लेना , दोनों ही स्वस्थ जीवन एवं स्वस्ति - बोध की दृष्टि से अवांछित है । यही बात बच्चों क भी विषय में लागू होती है । अत : बच्चों को समुचित आत्म - सम्मान के विकास के लिए ही प्रेरित , प्रशिक्षित तथा निर्देशित करना चाहिए ।

 बच्चे आत्म - साथकता की भावना कैसे विकसित करते हैं , यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है । बोल्बी ( 1988 ) ने इस पर अपना मत व्यक्त करते हुए लिखा है , " जो बच्चे स्वयं को सुरक्षित अनुभव करते हैं , वे स्वयं के बारे में अनुकूल धारणा विकसित करते हैं । वे अपना मूल्यांकन अधिकाधिक धनात्मक रूप में करते हैं । इसके विपरीत असुरक्षा की भावना से ग्रस्त बच्चे स्वयं के बारे में धनात्मक धारणा नहीं बना पाते हैं या कम बना पाते हैं अर्थात् वे अपने बारे में कैसा क्रियात्मक मॉडल निर्मित करते हैं , उसी पर आधारित वे अपने बारे में धनात्मक या नकारात्मक धारणा बनाते हैं । "

एक उदाहरण — एक अध्ययन में 4 से 5 वर्ष के बच्चों से पूछा गया कि

( i ) क्या तुम इस खिलौने को पसन्द करते हो ?

( ii ) क्या यह एक अच्छा बालक / बालिका है ?

 बच्चों के उत्तरों का विश्लेषण करने पर पता चला कि जिन बच्चों को अपनी माता से अधिक स्नेह प्राप्त था , उन्होंने अनुकूल ( धनात्मक ) प्रतिक्रिया व्यक्त की परन्तु जिन्हें कम स्नेह प्राप्त था , उनमें अनुकूल धारणा कम पायी गयी । इतना ही नहीं , जिन्हें माता - पिता दोनों का लगाव प्राप्त था , उनमें आत्म - सम्मान की भावना और भी अधिक पायी गयी । यह पाया गया है कि 4-5 वर्ष की आयु में जो धारणा बच्चों में बन जाती है उसमें आगामी वर्षों में स्थिरता भी प्रदर्शित होती है ।

 उपर्युक्त समीक्षा से स्पष्ट होता है कि बच्चों में 4-5 वर्ष की अवधि में आत्म - सम्मान की भावना विकसित होना प्रारम्भ हो जाती है । इसमें परिवार से अनुभूत स्नेह तथा प्राथमिक प्राध्यापकों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है अर्थात वे बच्चों को कैसे मूल्यांकन करते हैं तथा कितना प्रोत्साहित करते हैं।







Epam Siwan 

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