B.Ed. EPC-4 Swayam ki samajh /understanding the self pdf Notes in hindi ( स्वयं की समझ ) common questions - answers for all university


 Project Work FOR B.Ed.
Subject -Epc-4

Q. आत्म - सम्मान को विकसित करने की विधियों का वर्णन करें। आत्म-सम्मान विकसित करने में डायरी लेखन और वाद- विवाद किस प्रकार उपयोगी है? वाद विवाद प्रतियोगिता का एक सचित्र वर्णन करें।(describe the methods for self-esteem development. How are diary writing and debate useful in developing self-respect? Give a pictorial description of the debate competition.)

Ans. आत्म - सम्मान को विकसित करने की विधियां निम्नलिखित हैं -

1. रिपोर्ट करना (Self-Report)-


 इस विधि में छात्रों को किसी कार्य अथवा कार्यशाला की व्यक्तिगत व सामूहिक रिपोर्ट देने के लिए कहा जाता है, जिसमें छात्रों को अपने अधिगम का आत्मा मूल्यांकन स्वयं के चेतन और अचेतन स्तर पर करना पड़ता है वह अमूर्त चिंतन और तार्किक चिंतन प्रक्रिया का प्रयोग कर वह सही और गलत के विषय में अपने तर्क प्रस्तुत करता है। इस प्रकार की स्वायत्ता को विकसित करते हुए उसके आत्मसम्मान के स्तर को विकसित किया जाता है।

2. डायरी लिखना ( Diary Writing )-



 छात्रों द्वारा प्रतिदिन के क्रियाकलापों का आत्माओं लोकन किया जाता है तथा उन्हें प्रतिदिन की क्रियाओं को डायरी में लिखने को कहा जाता है, जो कर्म सा स्व मूल्यांकन से स्वायत्ता के विकास को करती है और छात्र का आत्म सम्मान व स्वयं के प्रति दृष्टिकोण को बढ़ाती है।

3. वाद-विवाद का विचार-विमर्श -


 छात्रों के दृष्टिकोण व मानव वृत्तियों को ध्यान में रखते हुए विचार-विमर्श व वाद-विवाद प्रक्रिया में बालक स्वयं के विचारों, दृष्टिकोण को प्रभावशाली लक्ष्य केंद्रित भाषा में प्रयोग करने के साथ-साथ आत्म मूल्यांकन भी करता है और आवश्यकता पड़ने पर दूसरों के दृष्टिकोण को स्वीकार कर अपने आत्मसम्मान वसु आयतन के गुण को विकसित करता है परंतु यह तभी संभव है जब उसके साथ भागी का मानसिक स्तर स्वयं छात्र से उच्च हो ।

योजना विधि(Project Strategy)-

 जॉन डीवी के शिष्य किलपैट्रिक ने इस विधि को जन्म दिया। उनके अनुसार, " प्रायोजना वह प्रक्रिया है जिसमें संलग्नता के साथ सामाजिक वातावरण में लक्ष्य प्राप्त किया जाता है।" स्टीवेंस ने परियोजना को एक समस्या मूलक कार्य बताया, जो अपनी स्वाभाविक परिस्थितियों के अंतर्गत पूर्णता प्राप्त करता है।

       इस विधि में छात्रों के समक्ष एक समस्या प्रस्तुत की जाती है और छात्र उसका हल निकालने में लगे रहते हैं। इसमें छात्रा अपनी रुचि वह इच्छा के अनुसार कार्य करता है।

 परियोजना के सिद्धांत-


  1.  सोउद्देश्यता का सिद्धांत  (Purposiveness)
  2.  क्रियाशीलता का सिद्धांत (Activity)
  3.  वास्तविकता का सिद्धांत(Reality )
  4.  उपयोगिता का सिद्धांत(Utility )
  5. स्वतंत्रता का सिद्धांतFreedom )
  6. सामाजिक विकास का सिद्धांत Social Development )



          प्रत्येक परियोजना के नियोजन एवं नियम करने के लिए इन सिद्धांतों पर विशेष रूप से बल दिया जाता है।


 प्रायोजना के पद

(Steps of Project Strategy )-



1. प्रायोजना का चयन—

 शिक्षक को ऐसी परिस्थिति का निर्माण करना चाहिए जिसमें छात्र स्वयं योजनाएँ बनाने लगें । इस प्रकार से छात्रों द्वारा प्रदत्त विभिन्न प्रायोजनाओं पर स्वतंत्रतापूर्वक छात्र एवं शिक्षक मिलकर विचार - विमर्श करें । जहाँ तक हो सके छात्रों को स्वयं ही प्रायोजना के चयन का अवसर मिलना चाहिए । शिक्षक को आवश्यकतानुसार चयन की प्रक्रिया में परामर्श देना चाहिए ।

2. रूपरेखा तैयार करना —

प्रायोजना के चयन के पश्चात् उसे पूर्ण करने के लिए कार्यक्रम बनाना चाहिए । कार्यक्रम के निर्धारण में छात्रों को विचार - विमर्श के लिए पूर्ण छूट होनी चाहिए । निश्चित रूपरेखा तैयार होने पर विभिन्न उत्तरदायित्व सभी छात्रों में उनकी योग्यतानुसार बाँट देने चाहिए और इन सबका आलेख करना चाहिए । जैसे विद्यालय को सुन्दर बनाने की प्रायोजना के लिए भूमि की नाप , वाटिका का आकार लगाये जाने वाले पौधों का नाम , पौधे के बीच मँगाने का प्रबंध तथा आवश्यक उपकरणों आदि पर भली - भाँति वार्तालाप करके विभिन्न उत्तरदायित्व छात्रों के समूह में बाँट देना चाहिए ।

3. कार्यक्रम का क्रियान्वयन

कार्यक्रम की रूपरेखा बनाने के बाद प्रायोजना के अन्तर्गत कार्य प्रारंभ हो जाता है । जिन छात्रों को जो उत्तरदायित्व सौंपे गए हैं , वे पूरे करना शुरू कर देते हैं । छात्रों को अपने उत्तरदायित्व पूरे करने के लिए विभिन्न प्रकार का ज्ञान प्राप्त करना पड़ता है । इस प्रकार से प्राप्त ज्ञान अधिक स्थायी होता है । शिक्षक छात्रों को प्रोत्साहन देता है , उनके कार्यों का निरीक्षण करता है और योजना में आवश्यकतानुसार संशोधन भी कर सकता है ।

4. मूल्यांकन —

योजनापूर्ण होने के बाद शिक्षक एवं छात्र मिलकर मूल्यांकन करते हैं । प्रायोजना के उद्देश्य के आधार पर प्रायोजना की सफलता तथा असफलता पर विचार किया जाता है । समय - समय पर छात्र अपने - अपने कार्य पर विचार करते हैं , की गयी गलतियों को ठीक करते हैं और उपयोगी ज्ञान की पुनरावृत्ति करते हैं ।

प्रायोजना के प्रकार

शिक्षण के क्षेत्र में विभिन्न प्रकार की प्रायोजनाएँ बनकर छात्रों को सक्रिय ज्ञान प्रान किया जा सकता है । ये प्रायोजनाएँ निम्न प्रकार की हो सकती हैं

 1. निर्माण सम्बन्धी प्रायोजना — जैसे विद्यालय में वाटिका , संग्रहालय , एक्वेरियम , टेटेरियम , वाइवेरियम , यंत्रों आदि के निर्माण सम्बन्धी प्रायोजनाएँ ।

2. निरीक्षण सम्बन्धी प्रायोजना — इसमें पर्यटन आदि के माध्यम से विभिन्न स्थानों पर विभिन्न प्रकार के जीव - जन्तु , कीट , पतंगें , जलवायु , वनस्पति , पुष्पों आदि की विशिष्ट विशेषताओं के निरीक्षण के लिए प्रायोजनाएँ बनाई जा सकती हैं ।

3. उपभोक्ता प्रायोजना - जैसे कृषि , बागवानी आदि ।

4. संग्रह सम्बन्धी प्रायेजना - जैसे विभिन्न स्थानों से विभिन्न प्रकार के जीव - जन्तु , पक्षी , पौधे , चित्र , मॉडल आदि के संग्रह सम्बन्धी प्रायोजनाएँ ।

5. पहचान सम्बन्धी प्रायोजना — जैसे फल , फूल , बीज , जड़ , जीव - जन्तु के वर्ग एवं श्रेणी सम्बन्धी प्रायोजनाएँ ।

6. शल्यकार्य सम्बन्धी प्रायोजना — जैसे जीव - जन्तु , जड़ - तना , फूल , फल आदि को काटकर उनके आन्तरिक अंगों के अध्ययन सम्बन्धी प्रायोजनाएँ ।

7. समस्यात्मक प्रयोजना — जैसे आधार में सुधार , स्वास्थ्य में सुधार ।








Epam Siwan 

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