Q.शिक्षण विषय स्कूली पाठ्यक्रम में रखने का क्या औचित्य या महत्त्व है? नई शिक्षा नीति 1986 के संदर्भ में उत्तर दें |
उत्तर -
नई शिक्षा नीति 1986 के संदर्भ में,शिक्षण विषय स्कूली पाठ्यक्रम में रखने का क्या औचित्य या महत्त्व निम्नलिखित है -
सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य
- इस समय शिक्षा की औपचारिक पद्धति और देश की समृद्ध और विविध सांस्कृतिक परंपराओं के बीच एक खाई है, जिसे पाटना आवश्यक है। आधुनिक टेक्नॉलाजी की धुन में यह नहीं होना चाहिए कि नई पीढ़ी भारतीय इतिहास और संस्कृतिके मूल में ही कट जाये। संस्कृतिविहीनता-अमानवीयता और विलगाव ;एलिएनेशनद्ध के भाव से हर कीमत पर बचना होगा। परिवर्तनपरक टेक्नॉलाजी और सतत् चली आ रही देश की सांस्कृतिक परंपरा में एक सुन्दर समन्वय की आवश्यकता है और शिक्षा इसे बखूबी कर सकती है।
- शिक्षा की पाठ्यचर्या और प्रक्रियाओं को सांस्कृतिक विषयवस्तु के समावेश द्वारा अधिक से अधिक रूपों में समृद्ध किया जाएगा। इस बात का प्रयत्न होगा कि सौन्दर्य, सामंजस्य और परिष्कार के प्रति बच्चों की संवेदनशीलता बढ़े। सांस्कृतिक परंपरा में निष्णात व्यक्तियों को, उनके पास औपचारिक शैक्षिक उपाधि के न होने पर भी, शिक्षा में सांस्कृतिक तत्त्वों का योगदान करने के लिए आमंत्रित किया जाएगा। इस काम में लिखित और मौखिकदोनों परंपराएं शामिल होंगी। सांस्कृतिक परंपरा को कायम रखने और आगे बढ़ाने के लिए परम्परागत तरीकों से पढ़ाने वाले गुरुओं और उस्तादों की सहायता की जाएगी और उनके कार्य को मान्यता दी जाएगी।
- विश्वविद्यालय प्रणाली के और कला, पुरातत्व, प्राच्य अध्ययन आदि की उच्च संस्थाओं के बीच संपर्क कायम किया जाएगा। ललित कलाओं, संग्रहालय-विज्ञान, लोक साहित्य आदि विशिष्ट विषयों पर उचित ध्यान दिया जाएगा। इन क्षेत्रों में शिक्षण, प्रशिक्षण और अनुसंधान की अधिक व्यवस्था की जाएगी ताकि उनके लिए आवश्यक विशेष योग्यता प्राप्तव्यक्तियों की कमी को पूरा किया जाता रहे।
मूल्यों की शिक्षा
- इस बात पर गहरी चिन्ता प्रकट की जा रही है कि जीवन के लिए आवश्यक मूल्यों का ह्रास हो रहा है और मूल्यों पर से ही लोगों का विश्वास उठता जा रहा है। शिक्षाक्रम में ऐसे परिवर्तन की जरूरत है जिससे सामाजिक और नैतिक मूल्यों के विकास में शिक्षा एक सशक्त साधन बन सके।
- हमारा समाज सांस्कृतिक रूप से बहु-आयामी है, इसलिएशिक्षा के द्वारा उन सार्वजनीन और शाश्वत मूल्यों का विकास होना चाहिए जो हमारे लोगों को एकता की ओर ले जा सकें। इन मूल्यों से धार्मिक अंधविश्वास, कट्टरता, असहिष्णुता, हिंसा और भाग्यवाद का अन्त करने में सहायता मिलनी चाहिए।
- इस संघर्षात्मक भूमिका के साथ-साथ मूल्य-शिक्षा का एक गंभीर सकारात्मक पहलू भी है जिसका आधार हमारी सांस्कृतिक विरासत, राष्ट्रीय लक्ष्य और सार्वभौम दृष्टि है, जिस पर मुख्य तौर से बल दिया जाना चाहिए।
भाषाएँ
- 1968 की शिक्षा नीति में भाषाओं के विकास के प्रश्न पर विस्तृत रूप से विचार किया गया था।
- उस नीति की मूल सिपफारिशों में सुधार की संभावना शायद ही हो और वे जितनी प्रासंगिक पहले थीं उतनी ही आज भी हैं। किन्तु देश भर में 1968 की नीति का पालन एक समान नहीं हुआ। अब इस नीति की अधिक सक्रियता और सोद्देश्यता से लागू किया जाएगा।
पुस्तकें और पुस्तकालय
- जन शिक्षा के लिए कम कीमत पर पुस्तकों का उपलब्ध होना बहुत ही जरूरी है। समाज के सभी वर्गों को आसानी से पुस्तकें उपलब्ध कराने केप्रयास किए जाएंगे। साथ ही पुस्तकों की गुणात्मकता को सुधारने, पढ़ने की आदत का विकास करनेऔर सृजनात्मक लेखन को प्रोत्साहित करने के लिए कदम उठाये जाएंगे। लेखकों के हितों की रक्षाकी जाएगी। विदेशी पुस्तकों के भारतीय भाषाओं में अच्छे अनुवादों को सहायता दी जायेगी। बच्चों के लिए अच्छी पुस्तकों के निर्माण पर विशेष ध्यान दिया जाएगा। इनमें पाठ्य पुस्तकें और अभ्यास पुस्तकें भी सम्मिलित होंगी।
- पुस्तकों के विकास के साथ-साथ मौजूदा पुस्तकालयों के सुधार के लिए और नए पुस्तकालयों की स्थापना के लिए एक राष्ट्रव्यापी अभियानचलाया जायेगा। प्रत्येक शैक्षिक संस्था में पुस्तकालय की सुविधा के लिए प्रावधान किया जाएगा और पुस्तकालाध्यक्षों के स्तर को सुधारा जाएगा। संचार माध्यम और शैक्षिक प्रौद्योगिकी
- आधुनिक संचार-प्रौद्योगिकी से यह संभव हो गया है कि पहले की दशाब्दियों में शिक्षा की जिन अवस्थाओं और क्रमों से गुजरना पड़ता था उनमें से अधिकांश को लांघकर आगे बढ़ा जाए। इस टेक्नालॉजी से देश और काल के बंधनों पर काबू पा सकना संभव हो गया है। हमारा समाज दो खंडों में बँटा न रहे, इसके लिए आवश्यक है कि शैक्षिक प्रौद्योगिकी संपन्न वर्गों के साथ-साथ उन क्षेत्रों में पहुंचे जो इस समय अधिक से अधिक अभावग्रस्त हैं।
- शैक्षिक प्रौद्योगिकी का प्रयोग उपयोगी जानकारी के लिए, अध्यापकों के प्रशिक्षण और पुनःप्रशिक्षण के लिए, शिक्षा की गुणवत्ता को सुधारने के लिए, और कला और संस्कृति के प्रति जागरूकता और स्थाई मूल्यों के संस्कार उत्पन्न करने केलिए किया जाएगा। औपचारिक और अनौपचारिक दोनों प्रकार की शिक्षा में इस टेक्नॉलाजी का प्रयोग होगा। मौजूदा व्यवस्थाओं (इन्फ्रास्ट्राक्चर) का अधिक से अधिक लाभ उठाया जाएगा। जिनगांवों में बिजली नहीं है वहां प्रोग्राम चलाने के लिए बैटरी अथवा सौर ऊर्जा पैक से काम लिया जाएगा।
- शैक्षिक टेक्नॉलोजी के द्वारा मुख्य रूप से ऐसे कार्यक्रमों का निर्माण होगा जो प्रासंगिक हों और सांस्कृतिक रूप से संगत हों। इस उद्देश्य के लिएदेश में विद्यमान सभी संसाधनों का उपयोग किया जाएगा।
- संचार माध्यमों का प्रभाव बच्चों और बड़ों केमन पर बहुत गहरा पड़ता है। आजकल इन संचार माध्यमों के कुछ प्रोग्राम अति उपभोग की संस्कृति और हिंसा की प्रवृत्ति को बढ़ावा देते प्रतीत होते हैं और उनका प्रभाव हानिकारक है। रेडियो और दूरदर्शन के ऐसे कार्यक्रमों को बंद किया जाएगा जो शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति में बाधक बन सकते हों। पिफल्मों और अन्य संचार माध्यमों में भी इस प्रवृत्ति को रोकने के लिए कदम उठाए जाएंगे। बच्चों के लिए उच्च कोटि के और उपयोगी पिफल्मों के निर्माण के लिए सक्रिय अभियान चलाया जाएगा।
कार्यानुभव
- कार्यानुभव को, सभी स्तरों पर दी जाने वाली शिक्षा का एक आवश्यक अंग होना चाहिए। कार्यानुभव एक ऐसा उद्देश्यपूर्ण और सार्थक शारीरिक काम है जो सीखने की प्रक्रिया का अनिवार्य अंग है जिससे समाज को वस्तुएँ या सेवाएँ मिलती हैं। यह अनुभव एक सुसंगठित और क्रमबद्ध कार्यक्रम के द्वारा दिया जाना चाहिए।
- कार्यानुभव की गतिविधियाँ विद्यार्थियों की रूचियों, योग्यताओं और आवश्यकताओं पर आधारित होंगी। शिक्षा के स्तर के साथ ही कुशलताओं और ज्ञान के स्तर में वृद्धि होती जाएगी। इसके द्वारा प्राप्त किया गया अनुभव आगे चलकर रोजगार पाने मेंं बहुत सहायक होगा।
- माध्यमिक स्तर पर दिए जाने वाले पूर्व-व्यावसायिक कार्यक्रमों से उच्चतर माध्यमिक स्तर पर व्यावसायिक पाठ्यक्रमों के चुनाव में सहायता मिलेगी।
शिक्षा और पर्यावरण
- पर्यावरण के प्रति जागरूकता पैदा करने की बहुत जरूरत है और यह जागरूकता बच्चों से लेकर समाज के सभी आयुवर्गों और क्षेत्रों में पफैलनी चाहिए।
- पर्यावरण के प्रति जागरूकता विद्यालयों और कॉलेजों की शिक्षा का अंग होनी चाहिए। इसे शिक्षा की पूरी प्रक्रिया में समाहित किया जाएगा।
गणित-शिक्षण
- गणित को एक ऐसा साधन माना जाना चाहिए जो बच्चों को सोचने, तर्क करने, विश्लेषित करने और अपनी बात को तर्कसंगत ढंग से प्रकट करने में समर्थ बना सकता है। एक विशिष्ट विषय होने के अतिरिक्त गणित को ऐसे किसी भी विषय का सहवर्ती माना जाना चाहिए जिसमें विश्लेषण और तर्कशक्ति की जरूरत होती है।
- अब विद्यालयों में भी कम्प्यूटरों का प्रवेश होने लगा है। इससे शैक्षिक कम्प्यूटरी का मौका मिलेगा। कार्यकारण संबंध की ओर चरों की पारस्परिक क्रिया को समझने और सीखने की प्रक्रिया को नई दिशा मिलेगी। गणित शिक्षण को इस प्रकार सेपुनर्गठित किया जाएगा कि वह आधुनिक टेक्नॉलाजी के उपकरणों के साथ जुड़ सके।
विज्ञान शिक्षा
- विज्ञान शिक्षा को सुदृढ़ किया जाएगा ताकि बच्चोंमें जिज्ञासा की भावना, सृजनात्मकता, वस्तुगतता, प्रश्न करने का साहस और सौंदर्यबोध जैसी योग्यताएं और मूल्य विकसित हो सकें।
- विज्ञान शिक्षा के कार्यक्रमों को इस प्रकार बनाया जाएगा कि उनसे विद्यार्थियों में समस्याओं को सुलझाने और निर्णय करने की योग्यताएँउत्पन्न हो सकें और वे स्वास्थ्य, कृषि, उद्योग तथा जीवन के अन्य पहलुओं के साथ विज्ञान के सम्बन्ध को समझ सकें। जो लोग अब तक औपचारिक शिक्षा के दायरे के बाहर रहे हैं उन तक विज्ञान की शिक्षा को पहुंचाने का हर सम्भव प्रयास किया जाएगा।
खेल और शारीरिक शिक्षा
- खेल और शारीरिक शिक्षा सीखने की प्रक्रिया के अभिन्न अंग हैं और इन्हें विद्यार्थियों की कार्यसिद्धि के मूल्यांकन में शामिल किया जाएगा। शारीरिक शिक्षा और खेल-कूद की राष्ट्रव्यापी अधोरचना ;इन्Úास्ट्रक्चरद्ध को शिक्षा व्यवस्था का अंग बनाया जाएगा।
- इस अधोरचना के तहत खेल के मैदानों और उपकरणों की व्यवस्था की जाएगी। शारीरिक शिक्षा के अध्यापकों की नियुक्ति होगी। शहरों में उपलब्ध खुले क्षेत्र खेलों के मैदान के लिए आरक्षित किए जाएंगे और यदि आवश्यक हुआ तो इसके लिए वैधानिक कार्यवाई की जाएगी।
- ऐसा खेल संस्थाएँ और छात्रावास स्थापित किए जाएंगे जहाँ आम शिक्षा के साथ-साथ खेलों की गतिविधियों और उनसे संबद्ध अध्ययन पर विशेष ध्यान दिया जाएगा। खेलकूदमें प्रतिभाशाली खिलाड़ियों को उपयुक्त प्रोत्साहन दिया जाएगा। भारत के पारम्परिक खेलों पर उचित बल दिया जाएगा। शरीर और मन के समेकित विकास के साधन के रूप में योग शिक्षा पर विशेष बल दिया जाएगा। सभी विद्यालयों में योग की शिक्षा की व्यवस्था के लिए प्रयास किए जाएंगे और इस दृष्टि से शिक्षक-प्रशिक्षण पाठ्यक्रमों में योग की शिक्षा भी सम्मिलित की जाएगी।
युवावर्ग की भूमिका
- शैक्षिक संस्थाओं के माध्यम से और उनके बाहर भी युवाओं को राष्ट्रीय और सामाजिक विकास के कार्य में सम्मिलित होने के अवसर दिए जाएंगे।
- इस समय राष्ट्रीय सेवा योजना, राष्ट्रीय कैडेट कोर आदि जो योजनाएँ चल रही हैं उनमें से किसी एक में भाग लेना विद्यार्थियों के लिए अनिवार्य होगा। संस्थाओं के बाहर भी युवाओं को विकास, सुधार और विस्तार के कार्य शुरू करने के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा। राष्ट्रीय सेवाकर्मी योजना को सुदृढ़ किया जाएगा।
मूल्यांकन प्रक्रिया और परीक्षा में सुधार
- विद्यार्थियों के कार्य का मूल्यांकन सीखने और सिखाने की प्रक्रिया का अभिन्न अंग है। एक अच्छी शैक्षिक नीति के अंग के रूप में शिक्षा में गुणात्मक सुधार के लिए परीक्षाओं का उपयोग होना चाहिए।
- परीक्षा में इस प्रकार सुधार किया किया जाएगा जिससे कि मूल्यांकन की एक वैध और विश्वसनीय प्रक्रिया उभर सके और वह सीखने और सिखाने की प्रक्रिया में एक सशक्त साधन के रूप में काम कर सके। क्रियात्मक रूप में इसका अर्थ होगा।
- अत्यधिक संयोग ;चान्सद्ध और आत्मगतता ;सब्जैक्टिविटीद्ध केअंश को समाप्त करना।
- रटाई पर जोर को हटाना।
- ऐसी सतत् और सम्पूर्ण मूल्यांकन प्रक्रिया का विकास करना जिसमें शिक्षा के शास्त्रीय और शास्त्रेत्तर पहलू समाविष्ट हो जाएँ और जो शिक्षण की पूरी अवधि में व्याप्त रहें।
- अध्यापकों, विद्यार्थियों और माता-पिता के द्वारा मूल्यांकन की प्रक्रिया का प्रभाव
उपयोग।
- परीक्षाओं के आयोजन में सुधार।
- परीक्षा में सुधार के साथ-साथ शिक्षण सामग्री और शिक्षण-विधि में भी सुधार।
- माध्यमिक स्तर से क्रमबद्ध रूप में सत्र-प्रणाली का प्रारम्भ।
- अंकों के स्थान पर ‘‘ग्रेड’’ का प्रयोग।
नई शिक्षा नीति 1986 के अनुसार ये उद्देश्य बाह्य परीक्षाओं और शिक्षा-संस्थाओंके अन्दर के मूल्यांकन दोनों के लिए प्रासंगिक हैं। संस्थागत मूल्यांकन की प्रणाली को सरल बनाया जाएगा और बाहरी परीक्षाओं की प्रचुरता को कम किया जाएगा।
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