Q. आपको अपने विषय के वर्तमान स्कूली पाठ्यचार्य या पाठ्यक्रम में क्या कमी दिखती है? वर्णन करें।
उत्तर -
वर्तमान पाठ्यक्रम में कमी
- हमारे पाठ्यक्रम का स्वभाव पुस्तकीय है । उसमें पुस्तकों की भरमार है ।
- हमारा वर्तमान पाठ्यक्रम अव्यावहारिक है ।
- हमारा वर्तमान पाठ्यक्रम अनुपयोगी है ।
- हमारा वर्तमान पाठ्यक्रम मनोवैज्ञानिक और निष्क्रिय है ।
- वर्तमान पाठ्यक्रम परीक्षा - केन्द्रित है ।
- वर्तमान पाठ्यक्रम अनावश्यक विषयों के भार से लदा हुआ है ।
वर्तमान पाठ्यक्रम के इतने ही नहीं अनेक कमीया हो सकती हैं नीचे हम सभी कमीययों के विषय में विस्तार से चर्चा करेंगे -
संकुचित आधार:-
- हमारे वर्तमान पाठ्यक्रम के आधार ही संकुचित है । एक विकासशील राष्ट्र का पाठ्यक्रम जिस स्वस्थ राष्ट्रीय संस्कृति पर आधारित होना चाहिये उस पर आज भी हमारा पाठ्यक्रम आधारित नहीं हो सका है ।
- जब हम अपने पाठ्यक्रम की ओर निगाह दौड़ाते हैं तो हमें उसकी रूप -रेखा ऐसी मालूम पड़ती है जैसे कोई टेड़ा - मेढ़ा , ऊँचा - नीचा क्षीण मार्ग अन्धकार में जाकर विलीन हो गया हो । जबकि पाठ्यक्रम का स्वरूप उस विस्तृत राजमार्ग की तरह होना चाहिये जो स्वस्थ सामाजिक वातावरण की चहल - पहल में जाकर विलीन हुआ हो ।
- राजमार्ग पर चलने वाले यात्री को भविष्य की चिन्ता इसलिए नहीं होनी कि वह किसी अच्छे स्थान में जाकर मिलता है वैसे ही पाठ्यक्रम का सम्बन्ध सीधे समाज से होता है इसलिये उस पर चलने वाले छात्रों का भविष्य अन्धकारमय नहीं होता ।
- ' सिलेबस ' एक क्षीण मार्ग की तरह होता है जिसमें कुछ इनी - गिनी पुस्तकें ही सन्निहित होती हैं जिस पर चलने वाले छात्ररूपी यात्री का भविष्य पूर्णरूपेण अन्धकारमय होता है । पहले एक परीक्षा का क्षीण प्रकाश दिखायी भी देता है पर उसको पार करने पर भीषण अन्धकार सामने आ जाता है । हमारा पाठ्यक्रम संकुचित होने के नाते ' सिलेबस ' ही कहा जा सकता है । अब भी हमारे यहां के छात्रों का भविष्य अन्धकारमय ही रहता है ।
पुस्तकीय स्वभाव
- हमारे यहाँ पाठ्यक्रम और ' सिलेबस ' में कोई अन्तर नही समझा जाता ।
- जब भी हम पाठ्यक्रम के विषय में विचार करते हैं तो संस्कारवश हमारी आँखों के समाने एक - एक कर पुस्तकों का चित्र आने लगता है , वर्कशाप में काम करते हुये , खुली हवा में खिलते हुऐ , एक साथ मिलकर रचनात्मक कामों में हाथ बँटाते हुए छात्रों का चित्र आता ही नहीं ।
- बालकों की शक्तियाँ अपने विकास के लिए स्वतन्त्र और सक्रिय वातावरण चाहती है । ये सक्रिय वातावरण पाठ्यक्रम में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं । पर हमारा पाठ्यक्रम अब भी दिन पर दिन पुस्तकों के भार से लदा जा रहा है ।
सैद्धान्तिक ( अव्यावहारिक ):-
- जीवन में काम आने वाले जिन अनुभवों एवं सामाजिक कुशलता को हम स्वयं कार्य करके अपने आप प्राप्त कर सकते हैं उन्हें भी वर्तमान पाठ्यक्रम हमें पुस्तकों से रटवाता हैं ।
- वर्तमान पाठ्यक्रम गोया हमको सारी जानने योग्य बातों को पुस्तकों से जानने के लिए बाध्य करता है ।
- हम पुस्तक पढ़कर किसी चीज के विषय में जान तो जाते हैं पर उस जानकारी को व्यावहारिक रूप देने की क्षमता न होने के कारण ही समाज हमें बेकार कहता है।
- पाठ्यक्रम का काम केवल किसी विषय का ज्ञान प्राप्त कराना ही नही बल्कि उस ज्ञान को व्यवहार रूप में परिणत करने का अनुभव प्रादान करना भी है ।
- इसमें संदेह नहीं कि हमारा पाठ्यक्रम अभी आधा ही काम कर रहा है ।
तकनीकी तथा व्यवसायिकविषयों की कमी:-
प्रचलित पाठ्यक्रम में तकनीकी तथा व्यावसायिक शिक्षा की कोई व्यवस्था नहीं है।इससे न तो हमारे बालकों मे इस के प्रति महत्व की भावना जागृत हो रही है और न ही देश की वास्तविकता औध्योगिक उन्नति हो प रही है ।
अनुपयोगी
पुस्तकीय ज्ञान प्राप्त करने वाला पाठ्यक्रम जीवनोपयोगी कैसे हो सकता है ? जब हम किसी छात्र को चारपायी पर लेटे यह रटते पाते हैं - " गेहूँ गेहूँ गेंहूँ यह क्वार - क्वार में बोया जाता है " तो हमें भारत के भविष्य पर तरस आती है । गेहूँ क्वार में बोया जाता है , इसकी जानकारी तो खेत में गेहूँ बोते समय होनी चाहिए न की चारपायी पर पुस्तक रटते हुए । कृषि शिक्षा जीवनोपयोगी तो होती अवश्य है पर हमारा पाठ्यक्रम उसे जीवनोपयोगी कहाँ बना पा रहा है ? पाठ्यक्रम में जीवनोपयोगी शिक्षा प्रदान करने वाले साधनों एवं क्रियाओं का पूर्ण अभाव है ।
जीवन के साथ सम्बन्ध नहीं
पाठ्यक्रम के विषय में अपना विचार व्यक्त करते हुए कैसबेल ने लिखा है " जिन प्रवृत्तियों , क्षमताओं आदि की आज बालकों की समस्याओं को हल करने की आवश्यकता है , वे वास्तव में उन समस्याओं से मिलती - जुलती है जो कि प्रौढ़ व्यक्ति की समस्यओं को हल करने के लिए आवश्यक होती है । अन्तर केवल यह है कि अभी ये समस्यायें अपने प्रारम्भिक रूप में हैं । " पाठ्यक्रम में उन समस्याओं , क्रियाओं एवं अनुभवों के लिए स्थान होना चाहिये जिनका बालक के भविष्य के जीवन से समबन्ध होता है ।
एक तरह से पाठ्यक्रम एक ऐसा वातावरण होना चाहिये जो बालक के भविष्य के सामाजिक जीवन के बिल्कुल अनुरूप हो । पर दुर्भाग्य की बात है कि हमारा पाठ्यक्रम सामाजिक जीवन से कुछ भी सम्बन्ध नहीं रखता इसीलिए पढ़े - लिखे लोग विद्यालय से निकलने के बाद समाज में आने से घबड़ाते हैं ।
अध्यापकों का असहयोग
हमारे यहाँ पाठ्यक्रम निर्माण में अध्यापकों से कोई सहयोग नहीं लिया जाता । अध्यापक ही एक ऐसा व्यक्ति होता है जिसके पास विद्यालय के जीवन और सामाजिक जीवन दोनों का अनुभव होता है । पाठ्यक्रम बनाने वाल दूसरा होता है और उसे क्रियान्वित करने वाला दूसरा फिर पाठ्यक्रम की असफलता निश्चित है । हर एक समाज की अपनी स्थानीय समस्यायें और आवश्यकतायें होती है इसलिये पाठ्यक्रम को उन समस्याओं और आवश्यकताओं के अनुकूल बनाने की स्वतन्त्रता विद्यालय के अध्यापकों को भी होनी चाहिए । पूरे राज्य के लिए एक ही कठोर पाठ्यक्रम का होना जनतन्त्रीय व्यवस्था के विपरीत है ।
सह - सम्बन्ध का अभाव
अब भी हमारा पाठ्यक्रम इस ढंग का है कि उससे केवल कुछ इने - गिने विषया का फुटकल और परस्पर आसम्बद्ध ज्ञान ही प्राप्त होता है जो वर्तमान मनोवैज्ञानिक विचारों के बिल्कुल विपरीत है । बेसिक शिक्षा के पाठ्यक्रम में सह - संबंध के सिद्धान्त को सैद्धान्तिक रूप से स्थान दिया गया है पर विद्यालयों में उसी पुराने ढर्रे पर अलग - अलग विषयो की अलग अलग शिक्षा दी जा रही है विषयों के इस तरह असम्बद्ध होने से विद्यालय के वातावरण में जो दुरुहता और नीरसता आती है उसके भीषण परिणाम ही अनुशासनहीनता और अपराध है । व्यवस्था की कोई उपयुक्त मनोवैज्ञानिक विधि न होने के नाते हमारा पाठ्यक्रम एक इकाई का रूप नहीं पा सका है ।
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