Q.कोहलबर्ग का नैतिक विकास का सिद्धांत का आलोचनात्मक वर्णन करे।
जीन पियाजे की तरह कोहलबर्ग ने बताया कि नैतिक विकास कुछ अवस्थायों से होता है।
कोहल बर्ग ने पाया कि अवस्थाएं सार्वभौमिक होती हैं।उन्होंने इस बात का निर्णय 20 वर्ष के बच्चों के साक्षात्कार पर किया।
जिसमें कहानियों के सभी पात्र नैतिक उलझन में घिरे रहते हैं। इन कहानियों को सुनकर प्रश्नों के उत्तर सुनकर कोहल बर्ग ने नैतिक विकास की तीन अवस्थाओं का वर्णन किया।
कोहलबर्ग के नैतिक विकास के सिद्धांत की पृष्ठभूमि :-
कोहलबर्ग ने लगभग 20 वर्षों तक बच्चों के साथ एक विशेष प्रकार के साक्षात्कार विधी का प्रयोग करने के बाद नैतिक विकास की अवस्थाओं को छः चरणों मे विभाजित किया है । साक्षात्कार की प्रक्रिया से पूर्व कोहलबर्ग बच्चों को कहानियाँ सुनाते थे और फिर उसी से सम्बंधित प्रश्नों को साक्षात्कार का आधार बनाते थे । कोहलबर्ग ने इस प्रक्रिया के लिए लगभग 11 कहानियों का चयन किया था जिसमे हाइनज की कहानी प्रमुख थी ।
कोहलबर्ग के नैतिक विकास की अवस्थाएं :-
कोहलबर्ग के मतानुसार बच्चों में नैतिक मूल्यों के विकास के लिए आवश्यक है कि उन्हें नैतिक मुद्दो पर आधारित चर्चाओं में शामिल किया जाये । उन्होंने बताया कि बालको मे नैतिकता या चरित्र के विकास की कुछ निश्चित एवं सार्वभौमिक अवस्थायें पायी जाती हैं।
( A ) पूर्व नैतिक स्तर 【4 - 10 वर्ष】
( 1 ) पुरस्कार ( आज्ञा ) एवं दण्ड की अवस्था
( 2 ) अहंकार की अवस्था
( B ) परंपरागत नैतिक स्तर 【10 - 13 वर्ष】
( 3 ) प्रशंसा की अवस्था
( 4 ) समाजिक व्यवस्था के प्रति सम्मान की अवस्था
( C ) आत्म अंगीकृत नैतिक मूल्य स्तर 【13 से ऊपर】
( 5 ) सामाजिक समझौते की अवस्था
( 6 ) विवेक की अवस्था
( A ) पूर्व नैतिक स्तर या पूर्व परम्परागत स्तर :-
यह स्तर बच्चों के नैतिक विकास की शुरुआती अवस्था होती है । इस अवस्था में बालक का आचरण व कार्य उसके स्वयं के हितों की पूर्ति के लिए होता है। बालक दण्ड या पुरस्कार के आधार पर ही अच्छा-बुरा , सही-गलत आदि का निर्धारण करता है । इसके अन्तर्गत दो चरण आते हैं ।
[ 1 ] पुरस्कार ( आज्ञा ) एवं दण्ड की अवस्था ( दण्ड तथा आज्ञापालन अभिमुखता ) :-
• नैतिकता का अभाव
• इस अवस्था में दण्ड को ही बच्चो की नैतिकता का आधार माना जाता है ।
• किसी भी कार्य को करने या किसी आज्ञा का पालन वह दण्ड से बचने की वजह से ही करता है ।
[ 2 ] अहंकार की अवस्था ( आत्म अभिरुचि तथा प्रतिफल अभिमुखता ) :-
• इस अवस्था में बालक की नैतिकता में अहंकार की झलक पायी जाती है ।
• अपनी रुचि को ही महत्व देता है ।
• इस अवस्था में बालक जिद्दी प्रवृत्ति का होता है ।
• पुरस्कार पाने की मंशा से ही वह किसी की बात या किसी नियम को मानता है ।
( B ) परम्परागत नैतिक स्तर :-
इस स्तर के बालक अपने सामाजिक परिवेश को समझने , नियमो के पालन व लोगों से मेल-मिलाप को महत्त्व देता है एवं स्वयं के साथ-साथ दुसरो की आवश्यकता का भी ध्यान रखता है । इसके अन्तर्गत भी दो चरण होते हैं ।
[ 3 ] प्रशंसा की अवस्था ( अच्छा लड़का या अच्छी लड़की ) :-
• इस अवस्था में बालक के क्रियाकलाप प्रशंसा पाने के लिये होते हैं ।
• इस अवस्था में बालक के चिंतन का स्वरुप समाज व उसके परिवेश से निर्धारित होते हैं ।
• दुसरो के प्रति सम्मान की भावना व स्वयं के लिए सम्मान पाने की इच्छा रखना ।
[ 4 ] सामाजिक व्यवस्था के प्रति सम्मान की अवस्था ( अधिकार संरक्षण अभिमुखता ) :-
• इस अवस्था में बालक समाज द्वारा बनाये नियमो को सम्मान देता है व इन नियमों के विरुद्ध कार्य को अनैतिक समझता है ।
( C ) उत्तर परम्परागत नैतिक स्तर ( आत्म अंगीकृत नैतिक मूल्य स्तर ) :-
इस स्तर पर बालक अपने परिवार, समाज, राष्ट्र आदि को प्राथमिकता देता है एवं किसी कार्य को करने से पूर्व वो समाजिक नियमो , अच्छे-बुरे आदि के बारे में विचार करता है । इस स्तर को भी दो चरणों में विभाजित किया गया है ।
[ 5 ] सामाजिक समझौते की अवस्था ( सामाजिक अनुबंध अभिमुखता ) :-
• इस अवस्था में बालक समाज से जुड़े रहने के लिए प्रयासरत रहता है और उसके द्वारा किये गये कार्यों का आधार भी यही होता है ।
• लेन-देन में विश्वास करता है ।
• सामाजिक नियमों के प्रति अपनी समझ को विस्तार देता है ।
[ 6 ] विवेक की अवस्था ( सार्वभौमिक नैतिक सिद्धांत अभिमुखता ) :-
• इस अवस्था में बालक अपने विचारों व दृष्टिकोण को महत्त्व देता है ।
• सामाजिक नियमों की वैधता को चुनौती देता है ।
कोहलबर्ग ने नैतिक विकास के सिद्धांतों से सम्बन्धित बालकों के आचरण पर एक विस्तृत विवेचना की उपरोक्त अवस्थाओं के अतिरिक्त भी उन्होंने बालकों की अवस्थाओं को अलग-अलग रुप में बाँटा जो निम्नलिखित हैं -
➡️ स्वकेन्द्रित अवस्था
• इस अवस्था का कार्यकाल तीसरे वर्ष से शुरू होकर 6 वर्ष तक होता है ।
• बालक के लिए वही नैतिक होता है , जो उसके स्व अर्थात् आत्म - कल्याण से जुड़ा होता है ।
➡️ परम्पराओं को धारण करने वाली अवस्था
• इस अवस्था का कार्यकाल 7 वर्ष से शुरू होकर किशोरावस्था के प्रारम्भिक काल तक होता है ।
• इस अवस्था मे बालक सामाजिकता के गुणों को धारण करता है एवं उसमे समाज के बनाए नियमों , परम्पराओं तथा मूल्यों को धारण करने सम्बन्धी नैतिकता का विकास होता है ।
• इस अवस्था में उसे अच्छाई - बुराई का ज्ञान हो जाता है और वह यह समझने लगता है कि उसके किस प्रकार के आचरण या व्यवहार से दूसरों का अहित होगा या ठेस पहुंचेगी । .
➡️ आधारहीन आत्मचेतना अवस्था
• यह अवस्था किशोरावस्था से जुड़ी हुई है । इस अवस्था में बालकों का सामाजिक , शारीरिक तथा मानसिक विकास अपनी ऊँचाइयों को छूने लगता है और उसमें आत्मचेतना का शुरुआत हो जाता है
• बालको मे अपने व्यवहार आचरण और व्यक्तित्व सम्बन्धी गुणों की स्वयं ही आलोचना करने की प्रवृत्ति पनपने लगती है । पूर्णता की चाह उसमें स्वयं से असन्तुष्ट रहने का मार्ग प्रशस्त कर देती है । यही असन्तुष्टि उसे समाज तथा परिवेश में जो कुछ गलत हो रहा है , उसे बदल डालने या परम्पराओं के प्रति सुधारवादी दृष्टिकोण अपनाने को प्रेरित करती है ।
➡️ आधारयुक्त आत्मचेतना अवस्था
नैतिक या चारित्रिक विकास की यह चरम अवस्था है । इस अवस्था मे नैतिक आचरण और चारित्रिक मूल्यों की बात बालक विशेष में की जाती है उसके पीछे केवल उसकी भावनाओं का प्रवाह मात्र ही नहीं होता , बल्कि वह अपनी मानसिक शक्तियों का उचित प्रयोग करता हुआ अच्छी तरह सोच - समझकर किसी व्यवहार या आचरण विशेष को अपने व्यक्तित्व गुणों में धारण करता है ।
➡️ कोहलबर्ग के अनुसार 'सही और गलत' के बारे में बच्चे अलग आयु में अलग तरीके से चिन्तन करते हैं ।
BY- Prof. Rakesh Giri
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Epam Siwan
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