Bruner cognitive development theory handwritten notes in Hindi
ब्रूनर के सीखने का सिद्धांत हस्तलिखित नोट्स
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Bruner cognitive development theory handwritten notes in Hindi
ब्रूनर के सीखने का सिद्धांत हस्तलिखित नोट्स
Q. लिंग की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए । आधुनिक भारतीय समाज लिंगभेद की स्थिति क्या है ।
(Explain the concept of gender. What is the status of gender discrimination in modern Indian society.)
Ans. लिंग की अवधारणा-
समाज की संरचना संगठन और व्यवस्था में लिंग समानता और असमानता का विशेष महत्व है। लिंग की असमानता पर समाज के संरचनात्मक संस्थागत और संगठनात्मक ढांचे का प्रभाव पड़ता है। लिंग की असमानता भी समाज के संतुलन व्यवस्था और विकास को प्रभावित करती है। समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से यह अध्ययन करना होगा कि लिंग की असमानता किसे कहते हैं? इस असमानता के कारण कौन-कौन से हैं? लिंग की असमानता के कारण स्त्री और पुरुष में से किसका शोषण हो रहा है? असमानता का शिकार कौन सा वर्ग (स्त्री वर्ग या पुरुष वर्ग) है? लिंग के अनुसार समाज की धारणाएं क्या है? भेदभाव के क्षेत्र कौन-कौन से हैं? लिंग असमानता को दूर करने के लिए क्या क्या प्रयास और प्रावधान किए गए हैं? संवैधानिक अधिकारों और उनके व्यवहार में कितना अंतर है? आदि की विवेचना समाजशास्त्री दृष्टिकोण से यहां किया गया है।लिंग की अवधारणा एक प्राकृतिक तथ्य है, जिसको नकार कर के हम समाज की संकल्पना ही नहीं कर सकते,अतः समष्टि,समाज के संरक्षण व विकास हेतु लिंग की अवधारण अत्यंत ही महत्वपूर्ण है |
लिंग और यौन अवधारणाएं एक दूसरे से संबंधित है इसीलिए लिंग और लिंग भेद को यौन और योन भेद के संदर्भ में समझना अधिक सरल है। इसी संदर्भ में लिंग की परिभाषा और अर्थ की विवेचना प्रस्तुत है।
प्राकृतिक विज्ञान में विशेष प्रणाली से प्राणी विज्ञान स्त्री-पुरुष के जैविक लक्षणों का वैज्ञानिक अध्ययन करते हैं। इनका जैविक और पुनर्जनन कार्यों पर ही ध्यान केंद्रित रहता है। विगत वर्षों में ऐसे अध्ययनों को योनि भेद (सेक्स) से संबंधित किया जाने लगा है। सामाजिक विज्ञानों में विशेष रूप से समाजशास्त्र में स्त्री-पुरुषों का अध्ययन लिंग भेद के आधार पर किया जाता है, जिसका तात्पर्य है कि उन्हें सामाजिक अर्थ प्रदान किया जाता है। “स्त्री” और “पुरुष” का अध्ययन सामाजिक संबंधों को गहराई से समझने के लिए किया जाता है। योनि-भेद जैविक-सामाजिक है, और लिंग-भेद सामाजिक संस्कृतिक है। योनि- भेद शीर्षक के अंतर्गत “स्त्री” “पुरुष” का नर-मादा के बीच विभिन्नताओ का अध्ययन करते हैं, जिसमें जैविक गुण जैसे पुनर्जनन कार्य पद्धति, शुक्राणु-अंडाणु एवं गर्भाधान क्षमता, शारीरिक बल क्षमता, शरीर रचना की भिन्नता आदि पर ध्यान दिया जाता है। लिंग भेद में "स्त्री" और "पुरुष" का अध्ययन पति-पत्नी, माता-पिता, भाई-बहन, पुत्र- पुत्री के रूप में अर्थात सामाजिक सांस्कृतिक दृष्टिकोण से किया जाता है। उनकी समाज में प्रस्थिति और भूमिकाए क्या है? उनके कर्तव्य व अधिकार क्या है? का अध्ययन किया जाता है। लिंग भेद की धारणा का उद्देश्य “स्त्री” और “पुरुष” के बीच सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक आदि विभिन्नताओं, समानताओं और असमानताओं का वर्णन व्याख्या करना है।
लिंग भेद (सेक्स) शब्द का प्रयोग अन्य ओकेल ने 1972 में अपनी कृति “सेक्स जेंडर एंड सोसाइटी” में किया था। आपके अनुसार “योन भेद” का अर्थ “स्त्री” और “पुरुष” का जैविकीय विभाजन है और लिंगभेद से आपका तात्पर्य स्त्रीत्व और पुरुषत्व के रूप में समानांतर एवं सामाजिक रूप से आसामान विभाजन से है। लिंग भेद की अवधारणा के अंतर्गत “स्त्री” और “पुरुष” के बीच में सामाजिक दृष्टिकोण से जो विभिन्नताएं हैं उनका अध्ययन किया जाता है। लिंग भेद शब्द का प्रयोग सांस्कृतिक आदर्शों स्त्रीत्व और पुरुषत्व से संबंधित धारणाओं के लिए किया जाता है। इस अवधारणा का प्रयोग स्त्री और पुरुष के बीच शारीरिक क्षमताओं के आधार पर जो सामाजिक संस्थाओं और संगठनों में श्रम विभाजन होता है,उनके लिए भी किया जाता है।
विगत कुछ वर्षों में समाज विज्ञानों में लिंग के सामाजिक पक्ष को उभारने का प्रयास किया गया है और इसे जेवी किए पक्ष से अधिक समझा जाने लगा 1970 के लगभग सामाजिक संस्थाओं एवं मनोवैज्ञानिकों ने इसके अध्ययन में दिलचस्पी लेनी शुरू की। उनके अध्ययन में यह साबित किया कि भारतीय संस्कृति में लिंग भेद तथा स्त्रियों एवं पुरुषों की भूमिका में संस्कृति के आधार पर काफी भिन्नता है। स्त्री एवं पुरुष के बीच काम के वितरण में भी और समानता पाई गई। समाज शास्त्रियों ने इसे सामाजिक समस्या के रूप में उभारा और पुरुष तथा स्त्रियों के बीच वह ओ समानता की खाई को अपने अध्ययन का विषय बनाया ।
सर्वप्रथम 1972 में क्षत्रिय प्ले ने अपनी पुस्तक सेक्स जेंडर एंड सोसाइटी में सेक्स शब्द की महत्ता का वर्णन किया। उनके अनुसार से स्त्री एवं पुरुष का जेवी किए विभाजन तथा जेंडर का अर्थ स्त्रीत्व एवं पुरुषत्व के रूप में समानांतर और सामाजिक रूप से वह सामान विभाजन से है । अर्थात स्त्रियों और पुरुषों के बीच सामाजिक रूप से निर्मित विनता के पहलुओं पर ध्यान आकर्षित करती है।
आधुनिक भारतीय समाज लिंगभेद की स्थिति:-
भारतीय समाज में लिंग असमानता का मूल कारण इसकी पितृसत्तात्मक व्यवस्था में निहित है। प्रसिद्ध समाजशास्त्री सिल्विया वाल्बे के अनुसार, “पितृसत्तात्मकता सामाजिक संरचना की ऐसी प्रक्रिया और व्यवस्था हैं, जिसमें आदमी औरत पर अपना प्रभुत्व जमाता हैं, उसका दमन करता हैं और उसका शोषण करता हैं।” महिलाओं का शोषण भारतीय समाज की सदियों पुरानी सांस्कृतिक घटना है। पितृसत्तात्मकता व्यवस्था ने अपनी वैधता और स्वीकृति हमारे धार्मिक विश्वासों, चाहे वो हिन्दू, मुस्लिम या किसी अन्य धर्म से ही क्यों न हों, से प्राप्त की हैं।I
उदाहरण के लिये, प्राचीन भारतीय हिन्दू कानून के निर्माता मनु के अनुसार, “ऐसा माना जाता हैं कि औरत को अपने बाल्यकाल में पिता के अधीन, शादी के बाद पति के अधीन और अपनी वृद्धावस्था या विधवा होने के बाद अपने पुत्र के अधीन रहना चाहिये। किसी भी परिस्थिति में उसे खुद को स्वतंत्र रहने की अनुमति नहीं हैं।”
मुस्लिमों में भी समान स्थिति हैं और वहाँ भी भेदभाव या परतंत्रता के लिए मंजूरी धार्मिक ग्रंथों और इस्लामी परंपराओं द्वारा प्रदान की जाती है। इसीस तरह अन्य धार्मिक मान्याताओं में भी महिलाओं के साथ एक ही प्रकार से या अलग तरीके से भेदभाव हो रहा हैं।महिलाओं के समाज में निचला स्तर होने के कुछ कारणों में से अत्यधिक गरीबी और शिक्षा की कमी भी हैं। गरीबी और शिक्षा की कमी के कारण बहुत सी महिलाएं कम वेतन पर घरेलू कार्य करने, संगठित वैश्यावृति का कार्य करने या प्रवासी मजदूरों के रुप में कार्य करने के लिये मजबूर होती हैं
लड़की को बचपन से शिक्षित करना अभी भी एक बुरा निवेश माना जाता हैं क्योंकि एक दिन उसकी शादी होगी और उसे पिता के घर को छोड़कर दूसरे घर जाना पड़ेगा। इसलिये, अच्छी शिक्षा के अभाव में वर्तमान में नौकरियों कौशल माँग की शर्तों को पूरा करने में असक्षम हो जाती हैं, वहीं प्रत्येक साल हाई स्कूल और इंटर मीडिएट में लड़कियों का परिणाम लड़कों से अच्छा होता हैं।अतः उपर्युक्त विवेचन के आझार पर कहा जा सकता हैं कि महिलाओं के साथ असमानता और भेदभाव का व्यवहार समाज में, घर में, और घर के बाहर विभिन्न स्तरों पर किया जाता हैं।
भारत में लिंग के आंकड़े: -
भारत में बालिकाओं एवं महिलाओं की सामाजिक स्थिति पर कई अध्ययन किए गए। ऐतिहासिक काल से लेकर आधुनिक काल तक कोई भी समाज ऐसा नहीं मिला जहां स्त्री पुरुष और समांतर समान रूप में ना पाई गई हो। लिंगभेद में लिंग असमानता एक सार्वभौमिक विशेषता है। सरकार द्वारा कराई गई 2011 जनगणना के आंकड़े के आधार पर भारत में प्रति 1000 पर केवल 919 स्त्रियां है। 2011 की जनगणना के अनुसार हरियाणा में प्रति 1000 पुरुषों पर केवल 834 महिलाएं थी पंजाब में 846 उत्तर प्रदेश में 902 तथा राजस्थान में 888 बालिकाएं हैं।
लिंग और समानता: -
भारत में महिलाओं की संख्या में अंतर का कारण भारतीय समाज की सामाजिक आर्थिक परिस्थितियां है। लड़कियों को समाज में बोझ समझने के कारण उसे पारिवारिक अधिकारों से वंचित कर दिया जाता है। उसे असहाय दिलाता जाता है कि या पुरुष प्रधान समाज है। अथवा उसे उनके अधीन रहना है। उनके अत्याचारों को सहना है परंतु उनके विरुद्ध आवाज नहीं उठानी है। सत्तात्मक समाज में स्त्रियों को ना तो दो वक्त का भोजन मिल पाता है और ना ही उनके इलाज की सुविधाएं दी जाती है । अधिकांश मौतें प्रसव और बच्चे के जन्म के समय ही हो जाती है। कल में लड़की का जन्म पिता के सम्मान में बाधक होता था पूर्णविराम वह परंपरा आज भी कई समाजों में विद्यमान है जहां बेटी के जन्म लेते ही उसे मार दिया जाता था पूर्णविराम राजस्थान में एक ऐसा गांव है जहां कृत कहते हैं कि 50 वर्ष से बारात नहीं आई। या शर्मनाक स्थिति है बेटी के जन्म को अनचाहा मानने की प्रवृत्ति शहरों में और पढ़े-लिखे समाजों में भी देखने को मिलती है। भारतीय समाज में भ्रूण हत्या का प्रचलन तेजी से बढ़ रहा है। 1984 में हुए एक अध्ययन के अनुसार लगभग 40,000 भ्रूण की हत्या की गई पूर्ण राम भारत सरकार ने एक विधेयक पारित किया जिसमें भ्रूण हत्या एवं भ्रूण परीक्षण को कानूनन अपराध माना गया लेकिन इसके बावजूद भ्रूण हत्या एवं भ्रूण परीक्षण पर रोक नहीं लगाई जा सकी पूर्णविराम यदि इस कानून पर अमल किया जाता तो स्त्रियों की संख्या पुरुषों की तुलना में कम ना पड़ती पूर्णब्रह्म शोध एवं सर्वेक्षण में यह भी साबित किया है कि लड़कियों के साथ बचपन से ही और समान व्यवहार शुरू कर दिया जाता है। बालिकाओं के साथ तेजी से बढ़ती घटनाएं समाज शास्त्रियों के समक्ष एक प्रश्न चिन्ह बनकर खड़ी है समाज में ऐसा विपन क्यों है और कौन इसके लिए जिम्मेदार है बढ़ती गुंडागर्दी अपराध और हिंसा ने समाज में असुरक्षा का माहौल खड़ा कर दिया है। इस क्षेत्र में शीघ्रता शीघ्र कदम उठाना आवश्यक है।
लिंग असमानता को दूर करने के उपाय: -
भारत सरकार ने 14 वर्ष तक के बच्चों को बिना किसी भेदभाव के विकास के अधिकार दिए हैं साथ ही साथ बच्चों के साथ होने वाले अन्याय शोषण तथा लिंग के आधार पर होने वाले भेदभाव को रोकने के लिए बच्चों के स्वास्थ्य शिक्षा विकास और उनके जन्म आदि में बाधा डालने वाली समस्याओं को जड़ से समाप्त करने के लिए तथा समाज में बच्चों ने उन लड़कियों के प्रति लोगों का दृष्टिकोण बदलने के लिए कई कानून बनाए जो निम्नलिखित हैं-
अधिनियम 1961 , संरक्षक और प्रतिपाली अधिनियम 1990, किशोर अपराध न्याय अधिनियम 1981 इत्यादि
इनके अलावा एक कानून बनाए गए हैं जिनमें लिंग असमानता दूर करने का प्रयास किया गया। अनेक कल्याणकारी आपराधिक कानून है जिनमें बच्चों की देखभाल और महिलाओं की सुरक्षा के प्रधान है। ऐसे अनेक सर्वाधिक कानून है जिन्हें अधिकांश राज्यों ने कुछ स्थानीय परिशोधन ओं के साथ पारित किया है। विकास की दृष्टि से यह भी अवस्था क्रांतिकारी परिवर्तनों की अवस्था मानी जाती है क्योंकि इस अवस्था में परिवर्तनों का स्वरूप इस प्रकार का होता है कि बालक को ना तो बालक ही कहा जा सकता है ना पूर्ण। परिवर्तनों की प्रक्रिया के फलस्वरूप बाल्यावस्था के सभी शारीरिक व मानसिक गुण समाप्त हो जाते हैं और उनका स्थान नया खून ले लेते हैं। यह परिवर्तन ही बालकों को किशोरावस्था की ओर अग्रसर करते हैं।
जड़ शील्ड के शब्दों में: -
“किशोरावस्था वह काल है जिसमें विकासशील प्राणी बाल्यावस्था से परिपक्वता की ओर बढ़ता है।”
भाषा के सामाजिक ,सांस्कृतिक और राजनीतिक सन्दर्भ, The social, cultural and political context of language
प्रस्तावना:
सामाजिक सांस्कृतिक संदर्भ तत्पर्य है कि मानव अकेला नहीं सकता। भाषा ही उसे समाज और संस्कृति से जोड़ती है और वही इसे ज्ञान प्राप्ति होती है। इसका तात्पर्य है कि जब भाषा सीखी जाती है तब उसे सामाजिक सांस्कृतिक परिवेश को भी ध्यान में रखना चाहिए जिसमें वह देखी जा रही है और ज्ञान को भी उसी से जोड़ना चाहिए।
उदाहरण के लिए,अधिगमकर्ता जब विज्ञापनों को देखते हैं तो वह विज्ञापन तभी प्रभावी बनते हैं जब उस संस्कृति से संबंधित किरिया को उचित भाषा के प्रयोग द्वारा प्रस्तुत किया जाए।
एक कक्षा में सामाजिक सांस्कृतिक संदर्भ से संबंधित क्रियाएं की जा सकती है। जैसे कहानियां, अखबार या पत्रिका की खबरों का विश्लेषण करना, खिचड़ी भाषा अलंकारिक भाषा का भी विश्लेषण करना।
सामाजिक सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य मनोविज्ञान के क्षेत्र में उपयोग किया जाने वाला एक ऐसा सिद्धांत है जिसमें मानव के आसपास की परिस्थितियों की व्याख्या और उनका व्यवहार किस प्रकार परिस्थितियों और सामाजिक और सांस्कृतिक कार्य को से प्रभावित होता है यह बताया जाता है।
भाषा के सामाजिक संदर्भ:
भाषा और समाज का संबंध अभिन्न है। मनुष्य के पास भाषा सीखने की क्षमता होती है, किंतु वह भाषा को तभी सीख पाता है जब उसे एक भाषाई समाज का परिवेश प्राप्त होता है। एक ओर समाज के माध्यम से ही भाषा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचती है, तो दूसरी ओर भाषा के माध्यम से समाज संगठित और संचालित होता है। यदि मनुष्य से भाषा छीन ली जाए तो उसकी सामाजिक संरचना भी ध्वस्त हो जाएगी। इसी प्रकार यदि किसी व्यक्ति को समाज के बाहर (जैसे, जंगल में) छोड़ दिया जाए, जहां वह दूसरे व्यक्तियों से नहीं मिल सकता तो भाषा उसके साथ ही मृत हो जाएगी। भाषा अध्ययन के संदर्भ में ‘मनोवादी’ और ‘व्यवहारवादी’ विचारधाराएँ प्रचलित हैं। व्यवहारवादियों द्वारा भाषा को सामाजिक वस्तु माना गया है। उनके अनुसार भाषा समाज में होता है और मानव शिशु इसे अपने समाज से ही ग्रहण करता है। उपर्युक्त बातों के आलोक में भाषा को एक सामाजिक व्यवहार या सामाजिक वस्तु के रूप में देखा जा सकता है। इसे निम्नलिखित बिंदुओं द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है।
1.समाजिक जीवन के आधार के रूप में भाषा भाषा मनुष्य के सामाजिक जीवन का आधार है। इसी के कारण मनुष्य एक सामाजिक प्राणी के रूप में परिभाषित हो गया है। भाषा के अभाव में विचारों की अभिव्यक्ति और बातचीत – प्रदान संभव नहीं है। अतः भाषा नहीं होने पर हम भी अन्य प्राणियों की तरह बख्श विजिटगे।
2. सांस्कृतिक विरासत के रूप में भाषा भाषा किसी भी समाज और संस्कृति की वाहक होती है। यह एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को प्राप्त होता है। मानव शिशु के परिवार और समाज में जो भाषा बोली जाती है वह उसे सीखता है।
3. सामाजिक पहचान के रूप में भाषा भाषा किसी भी व्यक्ति की सामाजिक पहचान प्रदान करने में सक्षम होती है। व्यक्ति का सुर (टोन), शब्द चयन (शब्द चयन) और बातचीत का तरीका उसके भौगोलिक क्षेत्र, धर्म और सामाजिक पृष्ठभूमि की पहचान करते हैं।
भाषा का सांस्कृतिक संदर्भ:
सामाजिक सांस्कृतिक सिद्धांत के अनुसार सामाजिक अंतः क्रिया और सांस्कृतिक संस्थान; जैसे-विद्यालय, कक्षाएं आदि एक बालक के जीवन के संज्ञानात्मक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
इस सिद्धांत के अनुसार सामाजिक सांस्कृतिक संदर्भ भाषा अधिगम की वर्तमान संज्ञानात्मक और मनोसामाजिक संकल्पना के परेे हैं। यह सिद्धांत बतलाता है कि भाषा अधिगम एक सतत् प्रक्रिया है, जो आसपास के वातावरण से प्रेरित होकर निरंतर चलती रहती है।
हमारा देश एक सांस्कृतिक रूप से भिन्नता लिए हुए देश है। कई संस्कृतियों ने यहां जन्म लिया और विकसित हुई और पनप रही है। इसलिए हर संस्कृति को समावेशित करती हुई शिक्षा दी जानी आवश्यक है।
जी संस्कृति से बालक जुड़ा रहता है उसी से संबंधित पहनावा, खान-पान, रीति रिवाज और रहन-सहन का तरीका उसे सबसे सरल लगता है।यही उसकी विनता का आधार होता है क्योंकि यही उसकी सोच विचार करने की शक्ति को प्रभावित करता है।
विभिन्न धर्मज समुदाय, जाति, जनजाति और व्यवहार व्यवसाय से जुड़े लोग अपने अनुसार अपने समाज में जीवन यापन के लिए नियम निर्माण करते हैं और वही उनके संस्कृति का एक बड़ा हिस्सा बनते हैं। बालक बालक आल से जो संस्कृति परिवेश देखता है उसी में विकसित होता है उसी के अनुसार सीखने के नियम बना लेता है। यही उसकी विनता का आधार बनती है। अतः भाषा शिक्षण में सांस्कृतिक महत्व है।
भाषा के राजनीतिक संदर्भ:
भाषा राजनीतिक संदर्भों से भी प्रभावित होती है। कोई भी राजनीतिक दल भाषा नीति के संदर्भ में स्पष्ट बात नहीं करता है। भाषा नीति पर बात आते ही घुमा फिरा के वक्तव्य दिए जाते हैं। भाषा के संबंध में सरकार ने तो शिथिल नीति अपनाने का परिचय प्रारंभ से ही दे दिया है।
शिक्षा में भाषा के अध्ययन का प्रश्न राजभाषा के प्रश्न के साथ जुड़ा हुआ है। यह नौकरी का प्रश्न बन जाता है। राजभाषा के संबंध में आइ स्थिर शिक्षा नीति आई स्थित भाषा नीति को जन्म देती है। हमारी सरकार ने 1956 तक देव भाषा सूत्र की ओर रुझान दिखाया। 1956 से 1967 तक हम त्रिभाषा सूत्र की चर्चा करते रहे।1967 68 में केंद्र सरकार पुनः दी भाषा शुद्र की ओर झुकी और अब पुनः त्रिभाषा सूत्र की ओर झुकी है।
इस ढोल मूल नीति का मुख्य कारण उत्तर और दक्षिण क्षेत्र के प्रति झुकाव की आलोचना का भय है।जब उत्तर में भाषा को लेकर आंदोलन होते हैं तो सरकार का झोंका उत्तर की ओर हो जाता है और जब दक्षिण में आंदोलन होते हैं तो सरकार का झुकाव दक्षिण की ओर हो जाता है। कभी हिंदी के लिए अत्यधिक उत्साह तो कभी अंग्रेजी की जीवन रक्षा के लिए।
भाषा संशोधन विधेयक! कभी संविधान का उल्लेख तो कभी प्रधानमंत्री के आश्वासन का उल्लेख!कभी गांधीजी की दुहाई तो कभी अंतरराष्ट्रीय ता का स्वप्न!कभी एक राष्ट्रभाषा का उपदेश तो कभी 14 राष्ट्रभाषा ओं को समान दर्जा देने का प्रवचन! यह सब क्या हो रहा है।
हमारी भाषा नीति का प्रभाव शिक्षा का स्तर पर प्रभाव डाल रहा है।माध्यमिक शिक्षा का लगभग संपूर्ण देश में शिक्षा का माध्यम मात्र भाषाएं हैं जो छात्र मात्री भाषा के माध्यम से माध्यमिक कक्षा तक पढ़ता रहता है वह अकस्मात स्नातक एवं स्नातकोत्तर स्तर तक किस प्रकार विदेशी भाषा के माध्यम से शिक्षा ग्रहण कर सकेगा?यह बहुत गलत है विश्वविद्यालयों में भी मात्रिभाषा की परीक्षा एवं शिक्षा का वैकल्पिक माध्यम बनाना ही होगा।
गणतंत्र की स्थापना के साथ ही हिंदी को राष्ट्रभाषा मान लिया गया ।हम सब जानते हैं कि इस गौरव के पीछे स्वामी दयानंद सरस्वती तथा महात्मा गांधी टंडन जी का योगदान सबसे प्रमुख है।
वह समय था जब तत्काल राष्ट्रभाषा को प्रतिस्थापित किया जा सकता था लेकिन जब उसको लागू करने के लिए 15 वर्ष का समय मांगा गया वहीं सबसे बड़ी भूल थी।
यह अवधि अनायास मानी गई थी या शायद आज इसकी चर्चा व्यर्थ है। यह अवधि राज्य और प्रशासन में बैठे आ भारतीय मानसिकता वाले महापुरुषों के लिए महत्वपूर्ण जीत हुई।इस देश पर योजनाबद्ध तरीके से अंग्रेजों का वर्चस्व और विस्तार इसी अवधि में बढ़ा।
स्वतंत्रता से पहले हिंदी का पठन-पाठन राष्ट्र सेवा का एक अंग समझा जाता था।अनेक वर्षों के स्वतंत्र शासन में हमने हिंदी की इतनी उन्नति कर ली है और हिंदी के प्रति देश में इतना सम्मान बढ़ गया है कि हिंदी वाला अब प्रशंसा की अपेक्षा निंदा का सूचक हो गया है।
आजकल उच्च वर्ग के वही व्यक्ति कहलाते हैं जो अंग्रेजी जानते हैं, समझते हैं और बोलते हैं, यह गलत हैं।
यहां हम यह सोचने को विवश हो जाते हैं कि यदि हमारी सरकारी नीति इसी प्रकार की रही तो राष्ट्रध्वज, राष्ट्रगान, संविधान आदि का हम भारतीय कितने दिनों तक आधार कर सकेंगे, कहा नहीं जा सकता है। शायद ये सभी प्रश्न एक साथ जुड़े हुए हैं। इन्हें पृथक नहीं किया जा सकता।
नागालैंड ने अपनी क्षेत्रीय भाषा अंग्रेजी घोषित की है। भारतीय संविधान, राष्ट्रध्वज, राष्ट्रगान आदि का तो नागालैंड के अंतर्मन में कितना सम्मान है या इसी बात से पता लगाया जा सकता है कि अलगाव की प्रवृत्ति अभी भी वहां पर है।
तमिलनाडु में हिंदी का अत्याधिक विरोध हुआ।राष्ट्रीय ध्वज की वह संविधान की गोली जिस प्रकार तमिलनाडु में जलाई गई, उसे तमिलनाडु के ही देशभक्त अभी तक नहीं भूल सके।
राजनीतिक का तो नाम ही है सरकार का विरोध करना। कुछ और नहीं मिलता तो भाई लोग राष्ट्रभाषा का लाठी लेकर सरकार के पीछे पड़ जाते हैं जबकि यह जगजाहिर तथ्य है कि सरकार ने हमेशा हिंदी को राष्ट्रभाषा माना है। संविधान मैं हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिया है। वह तो वैकल्पिक रूप मैं अंग्रेजी के अल्पकालीन व्यवस्था कर रखी है। उसे तो एक न एक दिन जाना ही है। अल्पकालीन व्यवस्था अल्पकालिक ही होती है।
अंग्रेजी को राजभाषा के रूप में शुरुआत में मात्र 15 वर्ष के लिए अपनाया गया था। उसके बाद उसे जाना था। नहीं गई तो इसलिए कि सरकारी स्तर पर हिंदी अभी राजकाज की भाषा के योग्य नहीं बन पाई थी। अब सरकार भी क्या करें। उसने तो अपने अस्तर पर हर कार्यालय में हिंदी अनुवादक से लेकर राजभाषा अधिकारी तक नियुक्त करने का प्रावधान कर रखा है।
बैंकों व रेलवे स्टेशन पर स्पष्ट लिखा होता है कि यहां हिंदी में फार्म स्वीकार किए जाते हैं। इससे अधिक सरकार क्या कर सकती हैं?फिर भी लोग हैं कि हिंदी को लेकर सरकार की कथनी करनी पर हमेशा अंगुली उठाते रहते हैं।
क्या हुआ यदि शोध छात्रा मां का लाल जैन को विगत 12 वर्षों से संघर्ष के बावजूद आज तक रुड़की विश्वविद्यालय से हिंदी में अभियांत्रिकी में शोध कार्य करने की अनुमति नहीं मिली।क्या हुआ यदि बरसों से लोग संघ लोक सेवा आयोग कार्यालय के समक्ष उनकी परीक्षाएं हिंदी व अन्य भारतीय भाषाओं में कराने की मांग कर रहे हैं।
जब देश का हर नागरिक अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों में प्रवेश दिलवाना चाहता है, हर भारतीय नागरिक विदेश जाकर धन कमाना चाहता है, तब तो कोई आपत्ति नहीं करता। बस सरकार के पीछे लाठी लेकर पड़े रहते हैं। सरकार आखिर कर ही क्या सकती है?
सरकार ने तो हिंदी के लिए कानून बनाया, विभागों व हिंदी पदो की स्थापना की, हिंदी दिवस घोषित किया और सबसे बड़ी बात कि हिंदी के विकास के लिए करोड़ों का बजट भी तय किया।
हिंदी के साथ आप कितने ही पुरस्कार जुड़ गए हैं। अंग्रेजी में अधिक पत्राचार करने पर किसी सरकारी विभाग में पुरस्कार नहीं मिलता, पर हिंदी में अधिक पत्राचार करने व टिप्पणी या लिखने पर पुरस्कार मिलता है।
हिंदी के विकास के लिए कार्यशाला आयोजित की जाती है।अंग्रेजी हटाओ आंदोलनकारियों की दुकानदारी भी इसलिए चल रही है कि हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा है।
By: Prof. Rakesh Giri
पास-पड़ोस (Neighbourhood) का प्रभाव -
पास-पड़ोस में जो भी व्यक्ति रहते हैं और जिनके साथ बालक खेलता है तथा अपना समय व्यतीत करता है वे सभी बालक के विकास पर अपना प्रभाव डालते हैं। यही कारण है कि अच्छे पड़ोस की ओर ध्यान दिया जाना बालक के उचित विकास के लिए आवश्यक माना जाता है।
Q. सृजनात्मकता के विकास पर टिप्पणी लिखें।
उत्तर :- सामान्य रूप से जब हम किसी वस्तु या घटना के बारे में विचार करते हैं तो हमारे मन - मस्तिष्क में अनेक प्रकार के विचारों का प्रादुर्भाव होता है । उत्पन्न विचारों को जब हम व्यावहारिक रूप प्रदान करते हैं तो उसके पक्ष एवं विपक्ष , लाभ एवं हानियाँ हमारे समक्ष आती हैं । इस स्थिति में हम अपने विचारों की सार्थकता एवं निरर्थकता को पहचानते हैं । सार्थक विचारों को व्यवहार में प्रयोग करते हैं । इस प्रकार की स्थिति सृजनात्मक चिन्तन कहलाती है ।
विभिन्न अवस्थाओं में सृजनात्मक विकास (Development of Creativity in different stages ):-
शैशवावस्था में सृजनात्मक विकास (Development of Creativity in Infancy)
सृजनात्मकता उस योग्यता को बताती है, जो किसी वस्तु को खाजेने या सृजन से सम्बन्धित होती है। शैशवावस्था में शिशु बहुत कल्पनाशील होता है। वो अपनी कल्पना के आधार पर ही नई वस्तुओं का सृजन करता है, जैसे -कागज की नाव बनाना, पंतग बनाना, उड़ने वाला जहाज बनाना, कागज पर तरह-तरह के चित्र बनाना व कल्पना के आधार पर उनमें रंग भरना आदि। शैशवावस्था में सृजनात्मक क्षमता का विकास भली भांति होना आवश्यक है, क्योंकि इसमें हम बालक की कल्पना शक्ति का पूरा प्रयागे करते हैं। इस क्षमता का विकास करके हम उनके भावी जीवन का निर्माण करते है व शिशु के व्यक्तित्व का उचित विकास करते हैं।
बाल्यावस्था में सृजनात्मक विकास (Development of Creativity in Childhood)
प्रत्येक बच्चे में सृजन की क्षमता जन्मजात होती है, छोटे बच्चोंके खेलों में यह सृजनात्मक शक्ति स्पष्ट रूप से झलकती है। रचनात्मक कार्यों द्वारा वह सीखते और आग ेबढ़ते हैं। इसके लिए हम बच्चों को कुछ स्वयं करने का अवसर दें, आस पास की वस्तुओं का ज्ञान वो अपनी ज्ञानेन्द्रियों द्वारा प्राप्त करें और अनुभव करें | बच्चों की कल्पना निरीक्षण व स्मरण शक्ति के विकास द्वारा ही उनकी सृजनात्मक क्षमता विकसित होगी। सृजनात्मक क्षमता के विकास द्वारा ही वो भावी जीवन की तैयारी करेगें
बच्चों की सृजनात्मक शक्ति का विकास हम कई पक्रार की क्रियाओं द्वारा कर सकते हैं जैसे खेल, कला, नृत्य, अभिनय और बेकार की वस्तुओं से सामग्री तैयार करना आदि।
किशोरावस्था में सृजनात्मक शक्ति का विकास (Creative Development in Adolescence )
किशोरावस्था परिवर्तन की अवस्था है। इस अवस्था में उसके अन्दर बहुत सारे शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक व सामाजिक परिवर्तन होते हैं। वह न तो बच्चा रहता है न प्रौढ़। इस कारण से वो अपने को वातावरण से भलीभांति समायोजित नही कर पाते। उसमें कल्पना की अधिकता होती है, वह सृजनात्मक कार्य करके अपनी कल्पना को यथार्थ का रूप देना चाहता है।
यदि किशोर/किशोरी की सृजनात्मक क्षमता को उचित वातावरण देकर उसका अधिकतम विकास किया जाये , तो वो जीवन में बहुत महत्वपूर्ण उपलब्धियां हासिल कर सकता है तथा अपनी शक्ति का सदुपयागे करके अपने को कुण्ठा व निराशा से बचा सकता है।
किशोर/किशोरी में सृजनात्मक शक्ति के विकास के लिए विद्यालय में तरह-तरह की पाठ्यसहगामी क्रियाओं का आयोजन करना चाहिये। जैसे वाद-विवाद प्रतियोगता, साहित्यिक गोष्ठियां, नाटक एवं संगीत, नाटकीय खेल, व्यर्थ सामग्री का उपयोग करके कुछ नई वस्तु की रचना आदि। सृजनात्मक क्षमता का विकास करके ही उन्हें हम कुशल डॉक्टर, इंजीनियर, साहित्यकार, शिक्षक या समाज का मार्गदर्शन करने वाला बनने में सहायता कर सकते हैं।
प्रश्न. किशोरावस्था को जीवन का सबसे कठिन काल क्यों कहा जाता है? या किशोरावस्था को तनाव तूफान तथा / प्रतिबल संघर्ष का काल क्यों कहा जाता है?
किशोरावस्था (kishoravastha) वह समय है जिसमें किशोर अपने को वयस्क समझता है वयस्क उसे बालक समझते हैं इस अवस्था में किशोर अनेक बुराइयों में पड़ जाते हैं यह एक ऐसा समय है जिसमें बालक तथा बालिका में बहुत ज्यादा परिवर्तन होने लगता है जिसके कारण ही इन्हें तनाव, तूफान तथा संघर्ष का काल कहा जाता है तो चलिए पढ़ते हैं कि किशोरावस्था (kishoravastha) को जीवन का सबसे कठिन काल क्यों कहा जाता है?
ई.ए.किलपैट्रिक का कथन है -
"इस बात पर कोई मतभेद नहीं हो सकता है कि किशोरावस्था जीवन का सबसे कठिन काल है इस कथन की पुष्टि में निम्नलिखित तर्क दिए जा सकते हैं"-
1.अपराधी प्रवृत्ति :-
इस अवस्था में अपराधी प्रवृत्ति अपनी पराकाष्ठा पर पहुंच जाती हैं और नशीली वस्तुओं का प्रयोग आरंभ हो जाता है। सबसे तेजी से लड़के इस अपराधी का शिकार होते है वे गलत सहपाठियों के साथ और दूसरों को चिढ़ाने और सताने में संतुष्ट होने वाले व्यक्ति होते हैं इनके अंदर इतनी शक्तियां आ जाती है कि वे किसी का लिहाज भी नहीं करते और दूसरों को सताने तथा कष्ट पहुंचाने लगते हैं यह एक ऐसा समय होता है जब वे नशीली वस्तुओं का सेवन करना आरंभ कर देते हैं जिसके कारण वे पूरी तरह से दुनिया को अपना समझने लगते हैं और अपने मुताबिक चलने लगते हैं यहां तक की अपने माता पिता से भी लड़ पड़ते हैं उन्हें कोई भी बातें अच्छी नहीं लगती वे खुद में जीना चाहते हैं और खुद में मरना चाहते हैं।
2. समायोजन ना करने से मृत्यु दर की वृद्धि :-
इस अवस्था में समायोजन न कर सकने के कारण मृत्यु दर और मानसिक रोगों की संख्या अन्य अवस्थाओं के तुलना में बहुत अधिक होती हैं बालक एवं बालिकाओं समाज के नियमों को नहीं मानते उन्हें बनाए गए नियम उन्हें गलत लगते हैं उन्हें पूरी तरह से आजादी चाहिए होता है वह समाज के साथ समायोजन नहीं कर पाते जिसके कारण से उनके अंदर मानसिक रोग घर कर जाता है और वह आत्महत्या भी कर बैठते हैं।
3. आवेग और संवेग में तेजी से परिवर्तन:-
इस अवस्था में किशोर के आवेगों और संवेगों में इतनी परिवर्तनशीलता होती है कि वह प्राय: विरोधी व्यवहार करता है जिससे उसे समझाना कठिन हो जाता है अभिभावक द्वारा या बुजुर्गों द्वारा बताए जाने वाले बातें उन्हें अटपटा लगती हैं उन्हें किसी भी काम करने से रोका या टोका जाता है तो उन्हें गुस्सा आने लगता है और वह अपने परिवार वालों से ही लड़ पड़ते हैं।
4. खुद पर अत्यधिक भरोसा :-
इस अवस्था में किशोर अपने मूल्यों आदर्शों और वेदों में संघर्ष का अनुभव करता है जिसके फलस्वरूप वह अपने को कभी-कभी दुविधा में डाल देता है। उनके अंदर खुद पर इतना विश्वास आ जाता है कि वह बिना किसी सोचे समझे कदम उठा लेते हैं जिससे कुछ हद तक उन्हें फायदा में मिलता है और कभी-कभी भारी दुविधा में भी पड़ जाते हैं।
5. इस अवस्था में किशोर बाल्यावस्था और प्रौढ़ावस्था दोनों अवस्थाओं में रहता है अतः उसे न तो बालक समझा जाता है और न प्रौढ़ ही।
6. इस अवस्था में किशोर का शारीरिक विकास इतनी तीव्र गति से होता है कि उसमें क्रोध, घृणा, चिड़चिड़ापन, उदासीनता आदि दुर्गुण उत्पन्न हो जाते हैं।
7. इस अवस्था में किशोर का परिवारिक जीवन कष्टमय होता है, क्योंकि स्वतंत्रता का इच्छुक होने पर भी उसे स्वतंत्रता नहीं मिलती हैं और उससे बड़ों की आज्ञा मानने की आशा की जाती हैं।
8. इस अवस्था में किशोर के संवेग, रुचियों, भावनाओं, दृष्टिकोणों आदि में इतनी अधिक परिवर्तनशीलता और अस्थिरता होती है जितनी उसमें पहले कभी नहीं थी
9. इस अवस्था में किशोर में अनेक अप्रिय बातें होती हैं; जैसे उद्दण्डता, कठोरता, भुक्खड़पन, पशुओं के प्रति निष्ठुरता, आत्म प्रदर्शन की प्रवृत्ति, गंदगी और अव्यवस्था की आदतें एवं कल्पना और दिवास्वप्न में विचरण।
10. इस अवस्था में किशोर को अनेक जटिल समस्याओं का सामना करना पड़ता है जिसे अपनी आयु के बालक बालिकाओं से नए संबंध स्थापित करना, माता-पिता के नियंत्रण से मुक्त होकर स्वतंत्र जीवन व्यतीत करने की इच्छा करना, योग्य नागरिक बनने के लिए उचित कुशलताओं को प्राप्त करना, जीवन के प्रति निश्चित दृष्टिकोण का निर्माण करना एवं विवाह, परिवारिक जीवन और भावी व्यवसाय के लिए तैयारी करना।
इन सभी कारणों के कारण ही किशोरावस्था(kishoravastha) को तनाव, तूफान तथा संघर्ष/ प्रतिबल का काल कहा जाता है या जीवन का सबसे कठिन काल कहा जाता है।
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बालक के विकास में परिवार/घर का योगदान
(Contribution of family/home in child development)
परिवार, बालक के विकास की प्रथम पाठशाला है। यह बालक में निहित योग्यताओं एवं क्षमताओं का विकास करता है। परिवार का प्रत्येक सदस्य, बालक के विकास में योगदान देता है।
यंग एवं मैक (Young & Mack) के अनुसार- " परिवार सबसे पुराना और मौलिक मानव समूह है। पारिवारिक ढांचे का विशिष्ट रूप एक समाज के रूप में समाज में विभिन्न हो सकता है और होता है पर सब जगह परिवार के मुख्य कार्य हैं- बच्चे का पालन करना, उसे समाज की संस्कृति से परिचित कराना, सारांश में उसका सामाजिकरण करना।"
परिवार या घर समाज की न्यूनतम समूह इकाई है। इसमें पति-पत्नी, बच्चे तथा अन्य आश्रित व्यक्ति सम्मिलित हैं। इसका मुख्य आधार रक्त संबंध है। क्लेयर ने परिवार की परिभाषा देते हुए कहा है- " परिवार, संबंधों की वह व्यवस्था है जो माता-पिता तथा संतानों के मध्य पाई जाती है|" ("By family women a system of relationship existing between parents a
बालक के विकास पर घर का प्रभाव
(Influence of home on child development)
मांटेसरी (Montessori) ने बालकों के विकास के लिए परिवार के वातावरण तथा परिस्थिति को महत्वपूर्ण माना है। इसीलिए उन्होंने विद्यालय को बचपन का घर (House of childhood) कहा है।
रेमंट के अनुसार- ”घर ही वह स्थान है जहां वे महान गुण उत्पन्न होते हैं जिन की सामान्य विशेषता सहानुभूति है।” घर में घनिष्ठ प्रेम की भावनाओं का विकास होता है। यही बालक उदारता -अनुदारता, निस्वार्थ और स्वार्थ, न्याय और अन्याय, सत्य और असत्य, परिश्रम और आलस्य में अंतर सीखता है।”
बालक के जीवन पर घर का प्रभाव इस प्रकार पड़ता है:-
घर बालक की प्रथम पाठशाला है। वह घर में सभी गुण सकता है। जिसकी पाठशाला में आवश्यकता होती है।
बालकों को घर पर नैतिकता एवं सामाजिकता का प्रशिक्षण मिलता है।
सामाजिक तथा अनुकूलन के गुण विकसित करता है।
सामाजिक व्यवहार अनुकरण करता है।
सामाजिक,नैतिक तथा आध्यात्मिक मूल्यों का विकास करने में घर का योगदान मुख्य है।
उत्तम आदतों एवं चरित्र के विकास में योग देता है।
रुचि अभिरुचि तथा प्रवृत्तियों का विकास होता है।बालक की व्यक्तिता का विकास होता है।
प्रेम की शिक्षा मिलती है।
सहयोग, परोपकार, सहिष्णुता, कर्तव्य पालन के गुण विकसित होते हैं।
घर बालक को समाज में व्यवहार करने की शिक्षा देता है। प्लेटो के अनुसार:- “यदि आप चाहते हैं कि बालक सुंदर वस्तुओं के प्रशंसा और निर्माण करे तो उसके चारों और सुंदर वस्तुएँ प्रस्तुत करें।”
Motivation
The word motivation is derived from the Latin word "motum", which means motor and motion. According to psychologists Krecht and Krechfield, motivation answers our 'why'. Why do we love someone? Why do we hate someone? Why are stars not visible during the day? Education is a lifelong process i.e. action. There is a force behind any action which we call the driving force. Similarly, the force acting in the process of acquiring education is motivation. tecnicht auffeur ( Classification of motives ) Intrinsic motives which we also call personal, biological, primary, innate motives etc. Hunger, thirst, rest, sleep, love, anger, sex, bowel movement etc.
External motives which we call social, psychological, secondary, acquired motives. Security, performance, curiosity, sociability, knowledge Motivational need + driver + encouragement 3117luchat ( need ) It is a need or lack of our body which causes us to feel physical imbalance or stress. For example, the need to eat when hungry. Need of medicine when sick, need of companion when living alone Need rest when tired Necessity is the internal state of an organism which organizes the field of the organism in relation to some stimulus or goals and generates action to achieve them. " The driver / propulsion / propulsion ( drive ) has a cunning associated with every need. Like hunger from the need to eat, thirst from the need of water, we remain tense until the driver is calm.
Stimulus Incentives are the elements present in the environment which make our driver calm down. For example, when thirsty, the creature quenches its thirst by drinking water from a pond, a waterfall, a river or a stream. “Stimulus is that object, situation or process that stimulates behavior, continues it and gives it direction.” In fact, there is a close relationship between need, driver and stimulus. Necessity gives birth to drivers. Drivers are a stressful situation and give a definite direction and form to behavior. Needs are met by stimulation. Once the need is met, the drivers terminate. According to Thomson there are two types of motivation 1 Inherent 2 Artificial There are two types of Motivation according to Maslow - 1 Innate 2 Acquired According to Garrett there are three types of Motivation - 1 Biological 2 Psychological 3 Types of social motivation 1) Intrinsic Motivation When a person acts by self-motivation, it is called mechanical or positive motivation.
2 External Motivation When a person works on being motivated by some outside person and not motivated by himself, then it is called external or negative motivation.
अभिप्रेरणा ( Motivation ):-
प्रेरणा शब्द लैटिन भाषा के " मौटम " शब्द से बना है , जिसका अर्थ है- motor तथा motion इसके अनुसार प्रेरणा में गति होना अनिवार्य है | मनोवैज्ञानिक क्रेच तथा क्रेचफील्ड के अनुसार प्रेरणा हमारे ' क्यों का उत्तर देती हैं । हम किसी से क्यों प्यार करते हैं ? हम किसी से क्यों घृणा करते हैं ? तारे दिन में क्यों दिखाई नहीं देते हैं ?
शिक्षा एक जीवनपर्यंत चलने वाली प्रक्रिया है अर्थात क्रिया है | किसी भी क्रिया के पीछे एक बल कार्य करता है जिसे हम प्रेरक बल कहते हैं | उसी प्रकार शिक्षा प्राप्त करने की प्रक्रिया में कार्य करने वाला बल अभिप्रेरणा है |
अभिप्रेरणा के प्रकार :-
आंतरिक अभिप्रेरक :- जिन्हें हम व्यक्तिगत , जैविक , प्राथमिक , जन्मजात अभिप्रेरक आदि भी कहते हैं | भूख , प्यास , आराम , नींद , प्यार , क्रोध , सेक्स , मल - मूत्र त्याग आदि |
बाह्य अभिप्रेरक:- जिन्हें हम सामाजिक , मनोवैज्ञानिक , द्वितीयक , अर्जित अभिप्रेरक कहते हैं । सुरक्षा , प्रदर्शन , जिज्ञासा , सामाजिकता , ज्ञान प्रेरक आवश्यकता + चालक + प्रोत्साहन
आवश्यकता ( need ):- यह हमारे शरीर की कोई जरूरत या अभाव है जिसके उत्पन्न होने पर हम शारीरिक असंतुलन या तनाव महसूस करते हैं । जैसे- -भूख लगने पर खाने की आवश्यकता | बीमार पड़ने पर दवा की आवश्यकता अकेले रहने पर साथी की आवश्यकता | थक जाने पर आराम की आवश्यकता | ' आवश्यकता प्राणी की वहां आंतरिक अवस्था है जो किसी उद्दीपन हो अथवा लक्ष्यों के संबंध में जीवो का क्षेत्र संगठित करती हैं और उन की प्राप्ति हेतु क्रिया उत्पन्न करती हैं । " ॥ चालक / अंतर्नोद / प्रणोदन ( drive ):- प्रत्येक आवश्यकता से जुड़ा हुआ एक चालाक होता है | जैसे - खाने की आवश्यकता से भूख , पानी की आवश्यकता से प्यास जब तक चालक शांत नहीं हो जाता तब तक हम तनाव में रहते हैं ।
उद्दीपन / प्रोत्साहन ( Incentive ):- प्रोत्साहन वातावरण में उपस्थित तत्व है जो हमारे चालक को शांत कर देते हैं । जैसे- प्यास लगने पर जीव तालाब , झरना , नदी - नाले का पानी पीकर अपनी प्यास बुझाता है | " उद्दीपन वह वस्तु परिस्थितियां अथवा प्रक्रिया है जो व्यवहार को उत्तेजना प्रदान करती हैं उसे जारी रखती हैं तथा उसे दिशा देती हैं । " वास्तव में आवश्यकता चालक एवं उद्दीपन में घनिष्ठ संबंध है | आवश्यकता चालको को जन्म देती हैं | चालक एक तनावपूर्ण स्थिति हैं तथा व्यवहार को एक निश्चित दिशा और रूप प्रदान करती हैं । उद्दीपन द्वारा आवश्यकता की पूर्ति होती हैं | आवश्यकता की पूर्ति होने के पश्चात चालक समाप्त हो जाते हैं । थॉमसन के अनुसार अभिप्रेरिक दो प्रकार के होते हैं 1 स्वाभाविक 2 कृत्रिम मैस्लो के अनुसार अभिप्रेरक दो प्रकार के होते हैं -
1 जन्मजात
2 अर्जित गैरेट के अनुसार अभिप्रेरक तीन प्रकार के होते हैं -
1 जैविक
2 मनोवैज्ञानिक
3. सामाजिक अभिप्रेरणा के प्रकार ( Type of motivation )
1. आंतरिक अभिप्रेरणा:- जब व्यक्ति स्वयं से प्रेरित होकर कार्य करता है तो इसे यांत्रिक या सकारात्मक अभिप्रेरणा कहते हैं |
2. बाह्य अभिप्रेरणा:- जब व्यक्ति स्वयं से प्रेरित ना होकर किसी बाहर के व्यक्ति के द्वारा प्रेरित करने पर कार्य करता है तो इसे बाह्य या नकारात्मक अभिप्रेरणा कहते हैं ।
Who are you friends? Classification of friendship:- how many parts is friendship divided? Importance of friendship- in hindi - English मित्र किसे कहते हैं ?
Who are you friends?
A child who helps a child in his work and plays with him is called a friend. What is the definition of friend? The relationship between one child and another child is good and with whom he likes to live, work and play, we call that child's friend. Who is Friendship? The mutual relation between friends is called friendship. Friendship is such a relationship in which there is freedom to choose friends according to their convenience and interest. Friendship is such a bond that connects the minds of people and on the basis of this they are ready to do anything for each other.
मित्र किसे कहते हैं ?
किसी बालक के उसके कार्यों में सहयोग करने वाला तथा उसके साथ खेलने वाला बालक मित्र कहलाता है । मित्र की परिभाषा क्या है ? किसी एक बालक एवं दूसरे बालक का संबंध अच्छा होता है एवं जिनके साथ वह रहना , कार्य करना एवं खेलना पसंद करता है , उन्हें हम उस बालक का मित्र कहते हैं । मित्रता किसे कहते हैं ? मित्रों के बीच आपसी संबंध को मित्रता कहा जाता है । मित्रता एक ऐसी रिश्ता है जिसमें अपनी सुविधा एवं रूचि के अनुसार देख परख कर मित्र चुनने की स्वतंत्रता होती है । मित्रता एक ऐसा बंधन है जो लोगों के मन को जोड़ता है और इसी के आधार पर वे एक दूसरे के लिए कुछ भी करने को तैयार रहते हैं ।
Classification of friendship:-
how many parts is friendship divided?
Friendship is divided into three parts :
1. Ffriendship of utility: - In this type of friendship, the friend is the one whose interest and benefit are seen in friendship.
2. Friendship of pleasure: - In this type of friendship, there is an agreement between friends about your interest and they share their happiness among friends.
3. Good Friendship :- In this type of friendship there is mutual respect and love kebab between two friends. This type of friendship is friendship without any purpose. That is, in this type of friendship there is no benefit, interest. And there is no motive to get pleasure.
Write the above three types of friendship have been given by Aristotle.
मित्रता का वर्गीकरण:
मित्रता को कितने भागों में बांटा गया है ?
1. उपयोगिता की मित्रता : - इस प्रकार की मित्रता में मित्र वही होता है जिसकी मित्रता में अपना हित एवं लाभ दिखाई देता है ।
2. आनंद की मित्रता : - इस प्रकार की मित्रता में मित्रों के बीच आपसे हित को लेकर सहमति होती है एवं वे अपनी आप सी खुशी मित्रों के बीच बांटते हैं ।
3. अच्छी मित्रता : - इस प्रकार की मित्रता में दो मित्रों के बीच आपसी सम्मान एवं प्रेम कबाब होता है । इस प्रकार की मित्रता बिना कोई मकसद की मित्रता होती है । अर्थात इस प्रकार के मित्रता में किसी प्रकार की लाभ , हित एवं आनंद प्राप्ति का कोई मकसद नहीं होता है ।
उपरोक्त लिखिए तीनों मित्रता के प्रकार अरस्तु ने दिए हैं ।
Importance of friendship-
मित्रता का महत्व:-
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...
By..
Prof. Rakesh giri
Epam Siwan
Literally Meaning of Curriculum:
Curriculum is made up of two words – text and curriculum. Pathya means "readable" or "to be taught" and charya means 'following the rules'. Thus the meaning of curriculum is - the subject matter and activities to be read or taught as per the rules.
पाठ्यचर्या का शाब्दिक अर्थ :
पाठ्यचर्या दो शब्दों से मिलकर बना है- पाठ्य और चर्या । पाठ्य का अर्थ है “ पढ़ने योग्य " अथवा “ पढ़ाने योग्य ” तथा चर्या का अर्थ है ' नियमपूर्वक अनुसरण ' । इस प्रकार पाठ्यचर्या का अर्थ हुआ- पढ़ने योग्य अथवा पढ़ाने योग्य विषय वस्तु और क्रियाओं का नियम पूर्वक अनुसरण ।
(Curriculum) Curriculum is called Curriculum in English. Curriculum is derived from the Latin word "Currere" which means Run. Curriculum in this context means running on a path to reach a certain goal.
Definition of Curriculum: Talking about the curriculum, all the processes that take place inside the school come under the curriculum. In all these processes both the teacher and the student are involved. For example: - When a child comes to school, all the process (reading, sports, handicraft, music, cleaning, prayer, mid-day meal etc.) by him or with him all the process comes under the curriculum. Not only the process of teaching but all those processes come under the curriculum which are related to education and teaching.
( Curriculum ) पाठ्यचर्या को अंग्रेजी में Curriculum कहते हैं । Curriculum की उत्पत्ति लैटिन शब्द “ Currere ” से हुई है जिसका अर्थ Run होता है । इस संदर्भ में पाठ्यचर्या का अर्थ- किसी निश्चित लक्ष्य तक पहुंचने के लिए मार्ग पर दौड़ना होता है ।
पाठ्यचर्या की परिभाषा :
पाठ्यचर्या के बारे में कहा जाए तो विद्यालय के अंदर होने वाले सभी प्रक्रिया पाठ्यचर्या के अंतर्गत आती है । इन सभी प्रक्रिया में शिक्षक एवं छात्र दोनों परस्पर सम्मिलित होते हैं । जैसे : - जब कोई बालक विद्यालय में आता है तो उसके द्वारा या उसके साथ होने वाली सभी प्रक्रिया ( पठन - पाठन , खेलकूद , हस्तकला , संगीत , सफाई , प्रार्थना , मध्यान भोजन इत्यादि ) सभी प्रक्रिया पाठ्यचर्या के अंतर्गत आती है । सिर्फ पठन - पाठन की प्रक्रिया ही नहीं अपितु उन सभी प्रक्रिया पाठ्यचर्या के अंतर्गत आती है जो शिक्षा तथा शिक्षण से संबंधित होती हैं ।
The definition of curriculum given by scholars is as follows,
according to Cunningham - "Curriculum is the instrument (instrument) which is in the hands of the artist (teacher) to give its material (student) according to his ideals (objectives) in his school. Happens for "
According to Froebel – “Curriculum should be understood as the essence of all knowledge and experience of mankind. "
According to the Secondary Education Commission - "Curriculum does not mean only the academic subjects taught in the school mutually, but it includes the totality of the experience that the child receives in the school."
फ्रोबेल के अनुसार- ” पाठ्यचर्या को मानव जाति के समस्त ज्ञान और अनुभव का सार समझना चाहिए । " माध्यमिक शिक्षा आयोग के अनुसार- ” पाठ्यचर्या का अभिप्राय विद्यालय में पारस्परिक विधि से पढ़ाए जाने वाले केवल शैक्षिक विषयों से नहीं है अपितु इसमें अनुभव की बात समग्रता शामिल है जो बालक को विद्यालय में प्राप्त होता है । " पाठ्यचर्या की आवश्यकता : Curriculum ( पाठ्यचर्या ) का संबंध सीखने वाले से होता है , इसका मतलब पाठ्यचर्या का संबंध सिखाने वाले से ही होता है । यह दोनों ( सीखने वाले और सिखाने वाले ) को जोड़ने वाले एक कड़ी है । पाठ्यचर्या की सहायता से एक शिक्षक यह पता लगाता है कि क्या पढ़ना- पढ़ाना है , किन क्रियाओं में भाग लेना है ? इन सब जानकारी के लिए छात्र और अध्यापक दोनों के लिए पाठ्यचर्या की आवश्यकता होती है । .
Need of Curriculum :
Curriculum (Curriculum) ) is related to the learner, it means the curriculum is related to the teacher. It is a link connecting both (the learner and the learner). With the help of curriculum, a teacher finds out whether to teach, what activities to take part in? All this information is needed in the curriculum for both the student and the teacher. .
Utility and Importance of Curriculum:
“What is necessary will be useful and it will have importance; the same thing is true for the curriculum.”
Importance of Curriculum for the teacher:
With the help of the curriculum, education should be able to determine the nature of its teaching work, teaching work With the help of curriculum, teachers are able to choose their method of teaching and educate the students properly.
Importance of curriculum for learners:
To the learner With the help of curriculum it helps in fulfilling the purpose of education.With the help of curriculum, students are successful in knowing how much facts to read in main subjects and in how much time those facts have to be read.ie, learners based on the curriculum They make their study plan and by following it they achieve success.
पाठ्यचर्या की उपयोगिता और महत्व :
“ जो आवश्यक है वह उपयोगी होगा और उसका महत्व होगा यही बात पाठ्यचर्या के लिए सत्य है "
शिक्षक के लिए पाठ्यचर्या का महत्व :
पाठ्यचर्या की सहायता से शिक्षा को अपने शिक्षण कार्य के स्वरूप को निर्धारित करने , शिक्षण कार्य को संचालन करने तथा छात्रों की उपलब्धियों के बारे में जानने का अवसर प्राप्त होता है । पाठ्यचर्या की मदद से शिक्षक अपनी शिक्षण विधि का चयन करने में तथा छात्रों को उचित प्रकार से शिक्षित करने में समर्थ होते हैं ।
विद्यार्थी के लिए पाठ्यचर्या का महत्व :
शिक्षार्थी को पाठ्यचर्या की मदद से शिक्षा के उद्देश्य को पूरा करने में मदद मिलती है । पाठ्यचर्या की मदद से छात्र यह जानने में सफल होते हैं कि मुख्य विषयों में कितना तथ्य पढ़ना है तथा उन तथ्यों को कितने समय में पढ़ना है । अर्थात पाठ्यचर्या के आधार पर शिक्षार्थी अपनी अध्ययन योजना बनाते हैं तथा इस पर चलकर वे सफलता की प्राप्ति करते हैं ।
...By......
Prof. Rakesh Giri.....
Epam Siwan
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BCF - 2008 Full Notes ctet, TET, STET
After various rounds of discussion on National Curriculum Framework 2005, it was decided that the possibility would be explored to prepare the outline of our school in the state of Bihar also. The Secretary, Human Resource and Development Department entrusted this work to NCERT. After internal deliberations in the council, it was decided to constitute a Kap Acharya committee under the chairmanship of Professor Vinay Kant, to start this work, a workshop was organized in NCERT on 28 and 29 March 2006 but in July 2006 Only then did the work pick up pace. A series of workshops were conducted at SCRT in which expert school teachers, organized and cultural workers and interaction and exchange of ideas with students and parents brought about ambiguity in the idea. The members of the Acharya committee studied the National Curriculum Framework and the vision papers of the Khokha group of NCERT and they were also used in the workshop. Whenever possible small reports were prepared and used in preparing the report.
The English version of the draft Bihar Curriculum Framework was submitted to the Council by the Curriculum Committee on December 3, 2006. Its publication took some time and the publication of the published document was completed on 10 June 2007. There was some further delay in Hindi translation and publication.
The next important point was the discussion among the draft trainers. For this, workshops were organized at the district level, in which apart from this format, some parts of the proposed curriculum and the National Curriculum Framework 2005 were discussed. Through these workshops on one hand the teachers got information about these documents and on the other hand they gave their opinion which were recorded.
S.C.E.R.T. from 12 to 17 March 2008 In order to finalize the curriculum, a five-day workshop was organized in which fortunately many outside experts were also present and gave their views. Final Workshop S.C.E.R.T. It was convened on 14th and 15th May, after which this revised form of the outline of Bihar routine has been prepared. The first question that arose before the committee was why a State-level Curriculum Framework should be prepared, especially when the National Curriculum Framework has been prepared by the NCERT after extensive interaction and discussion across the country. The foreword to the Bihar Curriculum Framework and then its justification have been highlighted in the first chapter. In fact, from Kothari to Krishna Kumar, there has been a recommendation for a decentralized approach in the construction of the education curriculum, which has been approved by most of the sensitive educationists, at the same time, it cannot be ignored that in the context of education, Bihar The situation is distinct and different from that of the national general situation. Considering the contextual need, a need was felt for a separate curriculum framework for the state. Bihar ranks lowest in the economic backwardness or human development index, even as the percentage of urbanization is only 10.47 percent compared to the national average of 27.78 percent. Bihar has a strong tradition of caste based social stratification. The standard of educational infrastructure has been generally low. Despite all these limitations, the state has a strength of its own and the students here are displaying their talents at other places as well.
Guiding Principles - Bihar Curriculum Framework is committed to developing a system of education that promotes equality, harmony and excellence. The guiding principles of the Bihar Curriculum Framework are given in its first chapter, which are as follows-
Connecting education to nature, society and life outside the school
Redesigning textbooks and teaching-learning strategies to develop a positive but critical attitude
Redesigning the classroom and examinations to strengthen the learning process.
To help in the multi-dimensional development of children and to bring out their individual unique qualities.
The Bihar Curriculum Framework has nine chapters which is much more than the NCCEERT document on Curriculum. This is because separate chapters have been given on children, teachers, textbooks, assessment and most importantly, rural education. In the present revised edition, the chapter on Assessment and Evaluation has been clubbed with the chapter on Curriculum Action, so the total number of chapters has gone up to eight. There is a slight difference in the order of the chapters. The children's chapter deals with the issue of child education and adolescent education as well as underprivileged children, who represent a large part of the child population in the state. How to provide them the best education has emerged as the biggest challenge in the state level curriculum design. Issues related to teachers, their changing roles, the need for their training and finally the institutional arrangements for the same are discussed in the third chapter of the document.
The fourth chapter deals with the issue of curriculum, its scope and strategies. Not only is this part the longest but also the most important. Like the NCF, 2005, this chapter has accepted the problem of choice of subjects in the curriculum. Along with this, there is a discussion of level-based choice and definition of the subject and teaching-learning styles. In addition to the four traditional parts of the curriculum, language, mathematics, science and social science, environmental education has been taken as a special area, although its nature is different from the other four. The Bihar Curriculum Framework agrees to a large extent with the National Curriculum Framework that there has been a drastic change in the strategy of teaching traditional subjects.
Environmental education in the curriculum can bring about a massive change, which is possible because of its open dimension. Studying the environment confined in the classroom by mere textbooks often gives nothing but exam preparation. Its significance is questionable and it hardly fulfills the core sentiments of the 1977 Tbilisi Conference. In addition to these core subjects, the curriculum now includes those areas, which till yesterday were known as co-curricular areas. Like art, health, physical education, yoga, work in education and finally value based education.
The focus group of N.C.E.R.T. has given very interesting and important advice in this subject and this insight has been used extensively in the framework of Bihar Curriculum with social changes Chapter on Rural Education Bihar Curriculum Framework The most distinctive and important part of The reason for this is that the number of rural children in Bihar's population is around ninety percent, the most prominent use also looks towards basic education. It is here to discuss this matter. On the one hand if this chapter talks about understanding the village and looking at education from the rural perspective, then on the other hand it would be relevant to the education implemented in India that the concept of basic education was first introduced by Mahatma Gandhi in North Bihar - RK Champaran district. was implemented and later a series of basic schools were opened all over the state. Unfortunately, we have forgotten this important experiment today.
The use of basic education was an important step to increase equality and goodwill among rural children and even today the experience of this experiment will be very beneficial in planning the strategy of rural education. The sixth chapter focuses on curriculum implementation. The introductory part explores how to make full use of textbooks and teaching materials.
The compulsory entry of textbooks in the classroom beyond the teachers and makes a definite contribution to the teaching-learning process, so this tool should be fully utilized without compromising the learning process. Assessment and evaluation have also been included in this chapter, although more emphasis is given on this subject in education even today. Like the National Curriculum Framework, here also the limitations of the examination system have been accepted in the evaluation of certain areas. Also, like other published reports on the curriculum, assessment has been recognized as an important part of the teaching-learning process. Chapter Seven is a relatively new feature of this document on the grounds that the curriculum assumes its original form in every school. The possibility of curriculum formulation at the school level is explored here. Special emphasis has been laid on the possibility of how to multiply learning opportunities within educational spaces and schools so as to meet the learning objectives. Special emphasis has also been laid on the participation of children in this and connecting them with the community. Chapters on systemic reforms and functional issues are also very important because without an efficient system and a clear functional strategy, the entire effort of curriculum restructuring will not start. The Kothari Commission had suggested a uniform school system and this was accepted in later education policies. Although not implemented in any state till date, an expert committee on education in the state brought this debate back into the discussion and recommended its implementation.
Recently the Bihar government has constituted a commission to make these issues functional, and the government has accepted it in principle. The introduction of Panchayati Raj Institutions and partial transfer of school system to Panchayati Raj Institutions have created a new situation which will help in fulfilling the objectives of Bihar Curriculum Framework.
There is a need for the creation of many institutions to make the National Curriculum Framework or Monastery Curriculum a reality. If vocational education needs special attention, it is because new technologies have opened up many possibilities and there is a need to take advantage of them. There are some other functional issues, which are examined in this chapter. Finally, it is necessary to make it clear again that this is only a guideline which is to be finalized in different contexts and schools, although the creation of this document has been done after several rounds of discussions. but the scope of the discussions did not become as wide as expected. The role of teachers, equipped with long and varied experience, will be very effective in giving the final practical shape to the curriculum and the Curriculum Committee is also very optimistic about this. Next Action Plan - The importance and usefulness of any curriculum depends on its effective implementation and the curriculum design is only indicative.
Therefore, many other efforts will have to be made for its monitoring, for which some suggestions are given below-
* The council may publish some small booklets through which information can be given to the schools and teachers about the curriculum, curriculum construction in the school, teaching of subjects etc. In these books, various things can be told in simple language in some detail.
There is a need to create new models for teacher teaching which should include proper discussion about etc. in the curriculum.
* The question of quality in education has become very important today and the strategy for implementation of curriculum and framework is essentially related to it. The Council should make a clear plan in this regard. If possible, quality enhancement should be given the form of a campaign in collaboration with various teacher associations. * There is a need for coherence in the curriculum, syllabus and text-book. Therefore, it is necessary to familiarize the creators of the curriculum with the basic objectives and nature of the curriculum before the creation of textbooks. Also, to ensure school level objectives, this P.O. Equally important is the engagement of teachers with the process.
By- Prof. Rakesh Giri
Epam Siwan
BCF-2008 full Notes ctet, TET, STET
राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 पर विभिन्न दौर की परिचर्चा के उपरांत यह निर्णय लिया गया कि इस बात की संभावना तलाशी जाएगी बिहार राज्य में भी अपनी पाठशाला की रूपरेखा तैयार कर सकें। मानव संसाधन एवं विकास विभाग के सचिव ने इस कार्य को एनसीईआरटी को सौंपा। परिषद में आंतरिक विचार विमर्श के उपरांत इस विषय में एक कप आचार्य समिति का गठन प्रोफेसर विनय कांत की अध्यक्षता में करने का निर्णय लिया गया इस कार्य को आरंभ करने के लिए एनसीईआरटी में एक कार्यशाला 28 तथा 29 मार्च 2006 को आयोजित की गई लेकिन जुलाई 2006 के बाद ही काम रफ्तार पकड़ पाया। कार्यशाला ओं की एक श्रृंखला एससीआरटी में आयोजित की गई जिसमें विशेषज्ञ विद्यालय शिक्षक संगठित व सांस्कृतिक कार्यकर्ता और छात्रों तथा अभिभावकों के साथ संपर्क व विचारों के आदान-प्रदान से विचार में अस्पष्टता आई। आचार्य समिति के सदस्यों ने राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा तथा एनसीईआरटी के खोखा समूह के दृष्टि पत्रों का अध्ययन किया और कार्यशाला में भी उनका उपयोग लिया गया। जब भी संभव हुआ छोटे-छोटे प्रतिवेदन तैयार किए गए वह उसका उपयोग रिपोर्ट को तैयार करने में किया गया।
बिहार पाठ्यचर्या की रूपरेखा के प्रारूप का अंग्रेजी संस्करण 3 दिसम्बर , 2006 को पाठ्यचर्या समिति की ओर से परिषद् को सौंपा गया । इसके प्रकाशन में कुछ वक्त लगा और प्रकाशित दस्तावेज का 10 जून 2007 में लोकार्पण संपन्न हुआ । हिन्दी अनुवाद एवं प्रकाशन में कुछ और विलम्ब हुआ ।
अगली महत्वप y बात थी प्रारूप प्रशिक्षकों के बीच चर्चा । इसके लिए जिला स्तर पर कार्यशालाएँ आयोजित की गई जिसमें इस प्रारूप के अतिरिक्त प्रस्तावित पाठ्यक्रम और राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 के कतिपय अंशों पर चर्चा हुई । इन कार्यशालाओं के द्वारा एक ओर तो शिक्षकों को इन दस्तावेजों की जानकारी मिली और दूसरी ओर उन्होंने अपनी राय दी जिन्हें रिकॉर्ड किया गया ।
12 से 17 मार्च 2008 तक एस.सी.ई.आर.टी. में पाठ्यचर्या को अन्तिम रूप देने के लिए एक पाँच दिवसीय कार्यशाला का आयोजन किया गया , जिसमें सौभाग्य से बाहर के कई विशेषज्ञ भी उपस्थित रहे और अपनी - अपनी राय दी । अन्तिम कार्यशाला एस.सी.ई.आर.टी. में 14 एवं 15 मई को बुलाई गई जिसके उपरान्त बिहार यचर्या की रूपरेखा का यह संशोधित रूप तैयार हुआ है । समिति के सामने पहला प्रश्न यह उता कि आखिर राज्यस्तरीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा क्यों तैयार की जाए , विशेषतया तब जबकि राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा को एन ० सी ० ई ० आर ० टी ० ने सारे देश में विस्तृत संपर्क व परिचर्चा के बाद तैयार किया है । बिहार पाठ्यचर्या की रूपरेखा के प्राक्कथन और फिर पहले अध्याय में इसके औचित्य पर प्रकाश डाला गया है । वस्तुतः सैद्धांतिक रूप में कोठारी से कृष्ण कुमार तक एशिण पाठ्यचर्या के निर्माण में एक विकेंद्रीकृत नजरिए की सिफारिश होती रही है , जो अधिकांश संवेदनशील शिक्षाविदों द्वारा अनुमोदित होता रहा है साथ ही , इस बात को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि शिक्षा के संदर्भ में बिहार की स्थिति राष्ट्रीय सामान्य स्थिति की तुलना में विशिष्ट और अलग है । संदर्भगत आवश्यकता को देखते हुए , राज्य के लिए एक अलग पाठ्यचर्या की रूपरेखा की आवश्यकता महसूस की गई । आर्थिक पिछड़ेपन या मानव विकास सूचकांक में बिहार निम्नतम पाचदान पर हैं , यहाँ तक कि शहरीकरण का प्रतिशत भी राष्ट्रीय औसत 27.78 प्रतिशत की तुलना में केवल 10.47 प्रतिशत है । बिहार में जाति आधारित सामाजिक स्तरीकरण की एक सुदृढ़ परंपरा है । शैक्षणिक अधःसंरचना का स्तर सामान्यता निम्न रहा है । इन सभी सीमाओं के बावजूद राज्य की अपनी एक शक्ति है और यहाँ के छात्र अन्य जगहों पर भी अपनी प्रतिभा प्रदर्शित कर रहे हैं ।
मार्गदर्शक सिद्धांत - बिहार पाठ्यचर्या की रूपरेखा शिक्षा की एक ऐसी प्रणाली विकसित करने को प्रतिबद्ध है जो समानता , सद्भाव और उत्कृष्टता को बढ़ावा दे सके । बिहार पाठ्यचर्या रूपरेखा के मार्गदर्शक सिद्धांत इसके पहले अध्याय में दिए गए हैं जो निम्नलिखित हैं-
बिहार पाठ्यचर्या की रूपरेखा के नौ अध्याय हैं जो पाठ्यचर्या पर एन ० सी ० ई ० आर ० टी ० दस्तावेज की तुलना में काफी अधिक है । इसका कारण है कि बच्चे , शिक्षक , पाठ्य - पुस्तक , मूल्यांकन तथा सबसे महत्वपूर्ण , ग्रामीण शिक्षा पर अलग अध्याय दिए गए हैं । प्रस्तुत संशोधित संस्करण में आकलन एवं मूल्यांकन के अध्याय को पाठ्यचर्या क्रियाशीलन के अध्याय के साथ जोड़ा गया है , इसलिए अध्यायों की कुल संख्या आठ हो गई है । अध्यायों के क्रम में भी थोड़ा अंतर लाया गया है बच्चों के अध्याय के अंदर शिशु शिक्षा एवं किशोर शिक्षा के साथ - साथ वंचित बच्चों के मुद्दे को भी उठाया गया है , जो राज्य में बच्चों की आबादी के एक बड़े हिस्से का प्रतिनिधित्व करते हैं । उन्हें सर्वोत्तम शिक्षा कैसे दी जा सके यह राज्य स्तरीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा की सबसे बड़ी चुनौती बनकर उभरी है । शिक्षकों से संबंधित मुद्दे , उनकी बदलती भूमिका , उनके प्रशिक्षण की आवश्यकता तथा अंतत : उसके लिए संस्थागत व्यवस्था की चर्चा दस्तावेज के तीसरे अध्याय में की गई है ।
चौधा अध्याय पाठ्यचर्या के मुद्दे , इसके क्षेत्र व रणनीतियों से जुड़ा है । न केवल यह भाग सबसे लंबा है बल्कि सबसे महत्वपूर्ण भी है । एन ० सी ० एफ ० , 2005 की तरह इस अध्याय में पाठ्यचर्या में विषयों के चुनाव की समस्या को स्वीकारा गया है । साथ ही यहाँ स्तर आधारित चुनाव तथा विषय को परिभाषा व पढ़ाने - सीखने की शैलियों की चर्चा है । यहाँ पाठ्यक्रम के चार परंपरागत हिस्से , भाषा , गणित , विज्ञान व सामाजिक विज्ञान के अलावा पर्यावरण शिक्षा को विशिष्ट क्षेत्र के रूप में लिया गया है हालांकि इसकी प्रकृति अन्य चार अलग है । बिहार पाठ्यचर्या की रूपरेखा बहुत हद तक राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा से सहमत है कि परंपरागत विषयों के अध्यापन की रणनीति में व्यापक बदलाव की है ।
पाठ्यक्रम में पर्यावरण शिक्षा एक व्यापक बदलाव ला सकता है , जो इसके खुले आयाम कारण संभव है । महज पाठ्य - पुस्तकों से कक्षा में कैद पर्यावरण की पढ़ाई अक्सर परीक्षा की तैयारी के सिवाय कुछ नहीं देती । उसकी सार्थकता संदिग्ध है और वह शायद ही 1977 के तिबलिसी सम्मेलन की मूल भावनाओं को पूरा कर पाए । इन मूल विषयों के अतिरिक्त पाठ्यचर्या में अब उन क्षेत्रों को शामिल करते हैं , जिन्हें कल तक सह - पाठ्यचर्या क्षेत्र के रूप में जाना जाता था । जैसे कला , स्वास्थ्य , शारीरिक शिक्षा , योग , शिक्षा में काम तथा अंततः मूल्य आधारित शिक्षा ।
एन ० सी ० ई ० आर ० टी ० के फोकस समूह ने इस विषय में काफी रोचक व महत्वपूर्ण सलाह दी है तथा बिहार पाठ्यचर्या की रूपरेखा में इस अन्तदृष्टि का भरपूर उपयोग सामाजिक बदलावों के साथ किया गया है ग्रामीण शिक्षा पर अध्याय बिहार पाठ्यचर्या की रूपरेखा का सबसे विशिष्ट व महत्वपूर्ण हिस्सा है । इसका कारण है कि बिहार की जनसंख्या में ग्रामीण बच्चों की संख्या नब्बे फीसदी के आस - पास सबसे प्रमुख प्रयोग बुनियादी शिक्षा की ओर भी देखता है । इस बात की चर्चा करना यहाँ है । एक ओर अगर यह अध्याय गाँव को समझने तथा ग्रामीण परिप्रेक्ष्य में शिक्षा को देखने की बात करता है , तो दूसरी ओर यह भारत में लागू किए गए शिक्षा के समीचीन होगा कि बुनियादी शिक्षा की अवधारणा सबसे पहले महात्मा गाँधी द्वारा उत्तर बिहार -आरके चंपारण जिले में लागू की गई और बाद में बुनियादी विद्यालय की एक श्रृंखला सारे राज्य में खुली । दुर्भाग्यवश हम लोगों ने आज इस अहम प्रयोग को भुला दिया है ।
बुनियादी शिक्षा का प्रयोग ग्रामीण बच्चों में समानता एवं सौहाई बढ़ाने का महत्वपूर्ण कदम था और आज भी ग्रामीण शिक्षा की रणनीति बनाने में इस प्रयोग का अनुभव काफी लाभप्रद होगा । छठा अध्याय पाठ्यचर्या कियाशीलन पर केन्द्रित है । आरंभिक भाग इस बात की संभावना तलाशता है कि पाठ्य - पुस्तकों व शिक्षण सामग्री का भरपूर उपयोग कैसे किया जाए ।
शिक्षकों के परे कक्षा में पाठ्य - पुस्तकों का अनिवार्यतः प्रवेश तथा पढ़ाने सिखाने की प्रक्रिया में निशिचत योगदान बनाता है , इसलिए सीखने की प्रक्रिया को बगैर संकुचित किये इस साधन का पूरा इस्तेमाल किया जाना चाहिए । आकलन एवं मूल्यांकन को भी इसी अध्याय में शामिल कर लिया गया है हालाँकि शिक्षा में इस विषय पर आज भी आवश्यकता से अधिक बल दिया जाता है । राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा की तरह यहाँ भी कुछ क्षेत्रों के मूल्यांकन में परीक्षा प्रणाली की सीमाएँ स्वीकार की गई हैं । साथ ही पाठ्यचर्या पर प्रकाशित अन्य रिपोर्टों की तरह मूल्यांकन को पढ़ाने सिखाने की प्रक्रिया के महत्त्वपूर्ण अंग के रूप में मान्यता प्रदान किया गया है सातवाँ अध्याय इस इस्तावेज की एक अपेक्षाकृत नई विशिष्टता है इस आधार पर कि पाठ्यचर्या अपना वास्तविक रूप हर विद्यालय में ग्रहण करती है , स्कूल स्तर पर पाठ्यचर्या के निर्माण की संभावना की तलाश यहाँ की गई है । इस बात की संभावना पर विशेष रूप बल दिया गया है कि शैक्षणिक स्थलों व स्कूलों के अंदर सीखने के मौकों को कैसे गुणित से जाए ताकि सीखने के उद्देश्य को पूरा किया जा सके । इसमें बच्चों की भागीदारी तथा किया उन्हें समुदाय से जोड़ने पर भी विशेष बल दिया गया है । व्यवस्थागत सुधारों व कार्यात्मक मुद्दों पर अध्याय भी काफी महत्वपूर्ण हैं क्योंकि बिना एक सक्षम व्यवस्था तथा स्पष्ट कार्यात्मक रणनीति के पाठ्यचर्या पुनर्निर्धारण का सारा प्रयास आरंभ ही नहीं हो पाएगा । कोठारी आयोग ने समान स्कूल प्रणाली का सुझाव दिया था तथा इसे बाद की शिक्षा नीतियों में स्वीकार किया गया । हालांकि आज तक किसी भी राज्य में लागू नहीं किया गया है राज्य में शिक्षा पर बनी एक विशेषज्ञ समिति ने इस बहस को पुनः चर्चा में लाया और इसके लागू करने की सिफारिश की है ।
हाल ही में बिहार सरकार ने इन मुद्दों को कार्यात्मक बनाने के लिए एक आयोग का गठन किया है , और सरकार ने सिद्धांत रूप में इसे स्वीकार कर लिया है । पंचायती राज संस्थाओं के लागू होने तथा विद्यालय प्रणाली के पंचायती राज संस्थाओं को आशिक हस्तांतरण ने एक नई स्थिति को जन्म दिया है जो बिहार पाठ्यचर्या की रूपरेखा के उद्देश्यों की पूरी करने में मदद करेगा ।
राष्ट्रीय पाठ्यक्रम की रूपरेखा या विहार पाठ्यक्रम की रूपरेखा को वास्तविकता में बदलने के लिए अनेक संस्थाओं के निर्माण की आवश्यकता है । यदि व्यावसायिक शिक्षा पर विशिष्ट ध्यान दन की आवश्यकता है तो इसका कारण है कि नई तकनीकों ने संभावनाओं के कई खोले हैं व उनका लाभ उठाने की आवश्यकता है । कुछ अन्य कार्यात्मक मुद्दे हैं , जिनका परीक्षण इस अध्याय में किया गया है अन्तत : यह पुनः स्पष्ट कर देना जरूरी है कि यह निर्देशक रूपरेखा मात्र है जिसे विभिन्न संदर्भा एवं विद्यालयों में अंतिम रूप दिया जाना है , हालाँकि इस दस्तावेज का निर्माण कई चक्र के विमर्श के उपरांत किया गया है लेकिन विचार - विमर्श का दायरा अपेक्षित रूप से बड़ा नहीं हो पाया । लंबे व विविध अनुभवों से लैस शिक्षकों की भूमिका पाठ्यचर्या को अंतिम व्यावहारिक रूप देने में काफी कारगर होगी तथा पाठ्यचर्या समिति इस बात को लेकर काफी आशावान भी है । आगामी कार्य - योजना - किसी भी पाठ्यचर्चा की महत्ता एवं उपयोगिता उसके प्रभावी क्रियान्वयन पर निर्भर है और पाठ्यचर्या की रूपरेखा तो महज निर्देशात्मक है ।
इसलिए इसके अनुप्रवर्तन के लिए कई तरह के अन्य प्रयास करने होंगे जिसके लिए कुछ सुझाव , निम्नांकित हैं-
* परिषद् कतिपय छोटी - छोटी पुस्तिकाओं का प्रकाशन कर सकती हैं जिनके माध्यम से विद्यालयों और शिक्षकों तक पाठ्यचर्या , विद्यालय में पाठ्चयां निर्माण , विषयों के शिक्षण इत्यादि के बारे में जानकारी दी जा सकती है । इन पुस्तकों में थोड़े विस्तार से सरल भाषा में विभिन्न बातों को बताया जा सकता है ।
* शिक्षक शिक्षण के लिए नए मॉडल बनाये जाने की जरूरत है जिसमें पाठ्यचर्या में इत्यादि के बारे में समुचित चर्चा शामिल करना चाहिए।
* शिक्षा में गुणवत्ता का सवाल आज बेहद महत्त्वपूर्ण हो चुका है और पाठ्यचर्या व रूपरेखा के क्रियान्वयन की रणनीति अनिवार्यतः इससे जुड़ी हुई है । परिषद् को इस संद में स्पष्ट योजना बनानी चाहिए । संभव हो तो विभिन्न शिक्षक संघों के साथ मिलकर गुणव वृद्धि को अभियान का रूप दिया जाए । * पाठ्यचर्या , पाठ्यक्रम एवं पाठ्य - पुस्तक में तारतम्य आवश्यक है । इसलिए पाठ्य - पुस्तक निर्माण के पूर्व उनके निर्माताओं को पाठ्यचर्या के स्वरूप एवं मूल उद्देश्यों से परिचित कर अनिवार्य है । साथ ही विद्यालय स्तरीय सोद्देश्यता को सुनिश्चित करने के लिए इस पू . प्रक्रिया से शिक्षकों का जुड़ाव उतना ही जरूरी है ।
BCF 2008 का फुल फॉर्म “Bihar Curriculum Framework 2008” है जिसे हिंदी में बिहार पाठ्यक्रम ढांचा 2008 या बिहार पाठ्यक्रम की रुपरेखा 2008 के नाम से जानते हैं. ये बिहार द्वारा खुद के राज्य के शिक्षा पाठ्यक्रम को अलग और अपने अनुसार चलाने के लिए किया गया शोध है।
substitute of a good teacher; BCF (Bihar Curriculum Framework) 2008 in Bihar has been formulated. ... teachers and students and Jagriti module for principals and head masters of the secondary schools. NCERT has approved these modules.
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By- Prof. Rakesh Giri
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संप्रेषण की परिभाषाएं(Communication Definition and Types In Hindi) संप्रेषण का अर्थ ‘एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति को सूचनाओं एवं संदेशो...