Unit-1/C - 2 CONTEMPORARY INDIA AND EDUCATION ( समकालीन भारत और शिक्षा ) Full notes pdf.


Paper : C - 2 CONTEMPORARY INDIA AND EDUCATION ( समकालीन भारत और शिक्षा )

 UNIT - 1 भारत में शिक्षा : अतीत से वर्तमान तक

 ( EDUCATION IN INDIA FROM PAST TO PRESENT )

 वैदिक कालीन एवं बौद्ध कालीन शिक्षा व्यवस्था पर चिंतन - मनन , गुण - दोष तथा प्राचीन शिक्षा केन्द्र:-

वैदिक कालीन शिक्षा :-

वैदिक काल का समय 2500 – 500 ईसा पूर्व के मध्य माना जाता है। वैदिक काल में शिक्षा का मुख्य विषय वेद होता था। वेद शब्द की उत्पत्ति विद् धातु से हुई है जिसका अर्थ होता है ‘ज्ञान प्राप्त करना’

वेद का मुख्य विषय यज्ञ होता था। यज्ञ का आयोजनकर्ता यजमान तथा उसकी पत्नी होती थी। यज्ञ में 4 – अन्य ब्राह्मण सम्मलित होते थे जिनके नाम नीचे दिए गए हैं –

  1. ईश्वर की स्तुति करने वाले को होत्र कहा जाता था जो ऋग्वेद का जानकार होता था।
  2. गायन के माध्यम से ईश्वर की स्तुति करने वाले को उद्गातृ कहा जाता था। जो सामवेद का जानकार होता था।
  3. यज्ञ में आहुति देने वाले को अध्वर्यु कहा जाता था। जो यजुर्वेद का जानकार होता था। इसे यज्ञ प्रधान स्थान प्राप्त होता था।
  4. होत्र, उद्गातृ तथा अध्वर्युपर नियंत्रित रखने वालों को ब्रह्मा कहा जाता था जिसे चारों वेदों की जानकारी होती थी।

वैदिक कालीन शिक्षा के उद्देश्य 

वैदिक कालीन शिक्षा के उद्देश्य निम्नलिखित थे –

  • वैदिक कालीन समाज मुख्य रूप से परा तथा अपरा विद्या के प्रभाव में बटा हुआ था।
  • परा विद्या के लिए अलौकिक विषयों का अध्ययन करना होता था। जिनकी सहायता से ज्ञान, कर्म तथा उपासना के द्वारा मोक्ष की प्राप्ति होती थी।
  • अपरा विद्या के लिए लौकिक विषयों का अध्ययन किया जाता था जिसकी सहायता से सामाजिक व्यवस्था का संचालन किया जाता था।
  • नैतिक चरित्र का निर्माण करना।
  • पवित्रता तथा धार्मिकता का विकास।
  • व्यक्तित्व का विकास।
  • संस्कृति का संरक्षण तथा प्रसार करना।

उपनयन संस्कार 

  • उपनयन का अर्थ होता है ‘समीप या ‘पास ले जाना’
  • गुरुकुल में प्रवेश के समय यज्ञोपवीत संस्कार होता था। यहीं से औपचारिक शिक्षा आरम्भ होती है।
  • उपनयन संस्कार के लिए ब्राह्मण बालक को 3 वर्ष, क्षत्रिय बालक को 11 वर्ष तथा वैश्य को 12 वर्ष की न्यूनतम आयु प्राप्त करना आवश्यक होता था।
  • शूद्र बालक हेतु उपनयन संस्कार का प्रावधान नहीं किया गया था।
  • उपनयन संस्कार के समय ब्राह्मण बालक को गायत्री मंत्र, क्षत्रिय बालक को त्रिष्टुप मंत्र, वैश्य बालक को जगती मंत्र का उच्चारण कराया जाता था।
  • गुरुकुल में रहने वाले बालक को अन्तेवासी या कुलवासी कहा जाता था।

वैदिक कालीन शिक्षा तथा छात्र 

  • वैदिक काल में छात्र एक अनुशासित जीवन निर्वाह करते थे।
  • एक वेद का अध्ययन करने वाले छात्रों को स्नातक कहते हैं।
  • दो वेद का अध्ययन करने वाले छात्रों को वसु कहते हैं।
  • तीन वेद का अध्ययन करने वाले छात्रों को रूद्र कहते हैं।
  • चार वेद का अध्ययन करने वाले छात्रों को आदित्य कहते हैं।
  • वैदिक काल में ब्राह्मण शरीर के ऊपरी भाग के लिए काले नर हिरन की खाल, क्षत्रिय धब्बेदार हिरन की खाल, वैश्य बकरे की खाल का उपयोग करते थे।
  • शरीर के निचले भाग के लिए ब्राह्मण सन से बने पटसन, क्षत्रिय रेशम से बने, वैश्य ऊन से बने परिधान का प्रयोग करते थे।
  • ब्राह्मण सूत से बने यज्ञोपवीत (जनेयु), क्षत्रिय सन से बने तथा वैश्य ऊन से बने हुए तीन लड़ी वाले यज्ञोपवीत का प्रयोग करते थे।
  • वैदिक काल में छात्रों की दिनचर्या कठोर नियमों से बनी होती है।
  • ब्रह्म मूहूर्त में सोकर जगना नित्य क्रिया से निवृत्त होना।
  • विद्या अध्ययन करना, होमाग्नि के लिए लकड़ी इकट्ठा करना, गुरुकुल के गाय तथा अन्य पशुओं को जंगल ले जाना, भिक्षादन करना आदि।
  • वैदिक काल में शिक्षा प्रणाली व्यक्तिगत भिन्नता के सिद्धांत पर आधारित थी।
  • शिक्षण हेतु प्रश्नोत्तर, कथा, व्याख्यान, वाद – विवाद आदि विधियों का प्रयोग किया जाता था।
  • वैदिक काल में ज्ञान प्राप्त करने की दो विधियाँ प्रचलित थीं – तप (लौकिक) और श्रुति (अलौकिक)
  • तप में बालक स्वयं चिंतन, मनन तथा अनुभूति करके ज्ञान प्राप्त करता था।
  • श्रुति में बालक दूसरों से सुनकर ज्ञान प्राप्त करता था।
  • वैदिक काल में कोई निर्धारित परीक्षा प्रणाली नहीं थी।
  • वैदिक काल में गुरु तथा शिष्य के मध्य मधुर तथा आध्यात्मिक सम्बन्ध थे।
  • वैदिक काल में नारी शिक्षा को पर्याप्त महत्त्व दिया गया था।
  • वेद में स्त्री जाति को पुरुष का पूरक माना जाता था।

समावर्तन संस्कार 

  • समावर्तन शब्द का अर्थ है ‘वेद अध्ययन के बाद घर की ओर पुनः प्रस्थान करना’।
  • समावर्तन संस्कार 15 वर्ष की आयु में किया जाता था।
  • गुरु की अनुमति से ब्रह्मचारी समावर्तन संस्कार कराता था तथा गुरु को गुरुदक्षिणा भेट करता था।
  • गुरु के द्वारा ब्रह्मचारी को भविष्य की योजना के अनुरूप दिशा निर्देश प्रदान किये जाते थे।
  • शिक्षा का माध्यम संस्कृत था।
  • वैदिक काल में दंड का कोई प्रावधान नहीं था।
  • शारीरिक दंड पूर्णतः निषिद्ध था।
  • छात्रों से गलती होने पर आत्मसिद्धि के लिए उद्दालक व्रत का पालन कराया जाता था।
  • उद्दालक व्रत में छात्र को 3 से 4 माह में अत्यन्त अल्प आहार में रहना पड़ता था।
  • उद्दालक व्रत में 2 माह तक जौ का माड़, एक माह दूध, आधे माह तक छेन्ना, आठ दिन तक व्रत, 6 दिन तक बिन मांगी भिक्षा, तीन दिन तक केवल पानी तथा 1 दिन तक निराहार रहना पड़ता था।
  • वैदिक काल में वित्त व्यवस्था गुरु के निजी उपार्जित धर्म शिष्यों द्वारा लायी गई भिक्षा, गुरुदक्षिणा दान में मिले पशु व भूमि से प्राप्त आय, उपहार तथा राजकीय शिक्षा की सहायता से संचालित होती थी।

वैदिक कालीन शिक्षा के गुण 

  • आदर्श वादिता
  • स्वाअनुशासन
  • गुरु – शिष्य सम्बन्ध
  • शिक्षा के लिए शांत वातावरण
  • शिक्षा व्यवस्था
  • शिक्षण विधियाँ

वैदिक कालीन शिक्षा के दोष 

  • धर्म को अधिक महत्त्व देना।
  • स्त्री शिक्षा की उपेक्षा।
  • आम जनमानस की भाषा की उपेक्षा।
  • शूद्र वर्ग के शिक्षा पर अप्रत्यक्ष प्रतिबन्ध।


बौद्ध कालीन शिक्षा :-


ईसा पूर्व छठी शताब्दी में धार्मिक आन्दोलन का प्रबलतम रूप हम बौद्ध धर्म की शिक्षाओं तथा सिद्धांतों में पाते है जो पालि लिपितक में संकलित है,जैन परंपरा को ईसा की पाॅचवी शताब्दी में लिखित रूप प्रदान किया गया, इस कारण बौद्ध धर्म से संबंद्ध पालि साहित्य वैदिक ग्रंथों के बाद सबसे प्राचीन रचनाओं की कोटि में आता है। बौद्ध धर्म के समुचित ज्ञान के लिए इस धर्म के श्रिरतन - बुद्ध धर्म तथा संघ तीनों का अध्ययन आवश्यक है।

शिक्षा मनुष्य के सर्वागिंण विकास का माध्यम है इससे मानसिक तथा बौद्धिक शक्ति तो विकसित होती है भोतिक जगत का भी विस्तार होता है। गुरूकुल परंपरा में चली आ रही प्रचीन शिक्षा पद्धति का बौऋ काल में परिवर्तन हुआ और अब मठो तथा बिहारों में दी जाने लगी। आत्मसंयम एवं अनुशासन की पद्धति द्वारा व्यक्तित्व के निर्माण पर बल दिया जाने लगा। शुद्धता एवं सरल जीवन इसका प्रमुख उद्देश्य था। गुरू शिष्य के बीच सद्भावना और सन्मार्ग था। शिक्षा के द्वारा व्यक्ति को समाज का योग्य सदस्य बनाने और फिर भारत को मजबूत बनाने का प्रयास किया जाता था।

शिक्षा के विशय और पद्धति बौद्ध काल में काफी परिवर्तित हो चुकी थी। स्त्री शिक्षा पर भी ध्यान दिया जाने लगा।

 

शब्द कुँजी: बुद्धिष्ट, बौद्धकाल, बौद्धिक शिक्षा, बौद्ध साहित्य, गुरूकुल पद्धति, स्त्री शिक्षा।

 

 

 

प्रस्तावना:

बौद्धकाल में शिक्षा मनुष्य के सर्वागिण विकास का साधना थी। इसका उद्देश्य मात्र पुस्तकीय ज्ञान प्राप्त करना नहीं था, अपितु मनुष्य के स्वास्थ्य का भी विकास करना था। बौद्ध युग में शिक्षा व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक,बौद्धिक तथा आध्यात्मिक उत्थान का सर्वप्रमुख माध्यम थी।

 

बौद्ध साहित्य में व्यक्ति के चरित्र का निर्माण करना शिक्षा का महत्व, उद्देश्य बतलाया गया है। चरित्र एवं आचरणहीन व्यक्ति की सर्वत्र निन्दा की गई है।

 

प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति विश्व की सर्वाधिक रोचक तथा महत्वपूर्ण सभ्यताओ में से एक है। इस सभ्यता के सम्पूर्ण ज्ञान के लिए इसकी शिक्षा पद्धति का अध्ययन आवश्यक है। प्राचीन भारतीयों ने शिक्षा को आध्यात्मिक महत्व प्रदान किया है।

भौतिक तथा आध्यात्मिक उत्थान एवं समाज के विभिन्न उत्तर- दायियों के निर्वाह में शिक्षा की महत्ता को सदा स्वीकार किया गया है, वैदिक युग से ही इसे प्रकाश का स्त्रोत माना गया है। जो मानव के विभिन्न क्षेत्रों को आलोकित करते हुए सही दिशा निर्देश देता है।

 

सुभाशित रत्न संग्रह में कहा गया है, विज्ञान मनुष्य का तीसरा नेत्र है। जो उसे समस्त तत्वों के मूल को जाननें में सहायता करता है तथा सही कार्यो को करने की विघि बताता है।

 

महाभारत में कहा गया है कि विद्या के समान नेत्र तथा सत्य के समान तप कोई दूसरा नहीं है।


शिक्षा का उद्देश्यः-

  • शिक्षा सभ्यता का प्रमुख अंग है। भारतीय समाज में प्राचीन काल से ही शिक्षा का स्वरूप अत्यंत ज्ञानपरक, सुव्यवस्थित, सुनियोजित था, जिसमें व्यक्ति के लौकिक और परलौकिक जीवन के लिए विभिन्न प्रकार ं की शिक्षा प्रदान की जाती थी।
  • मनुष्य  और समाज का आध्यात्मिक और बौद्धिक उत्कर्ष शिक्षा के ही माध्यम से संभव है। शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य मानव सभ्यता का विकास करना है। जिसके अंतर्गत समाज को सुशिक्षित करना महत्वपूर्ण है। विद्या जीवन का समुचित मार्गदर्शन करती है।
  • शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य व्यक्ति के चरित्र का निर्माण करना था।
  • जातकों में सच्चरित्रता पर बहुत अधिक बल दिया गया है, और उसे व्यक्ति का सबसे बड़ा आभूषण कहा गया है। चरित्र और आचरण हीन व्यक्ति की सर्वथा निन्दा की गई है।
  • शिक्षा के माध्यम से मनुष्य अपनी तापसी तथा पाशविक प्रवृत्ति पर नियंत्रण रखता है इससे व्यक्ति में अच्छे तथा बूरे का विवेक करने की बुद्धि जागृत होती है तथा वह बूरे कार्यो को त्यागकर अपने को सत्कर्मों में प्रवृत्त करता है।
  • विद्यार्थी के लिए शिक्षा की व्यवस्था इस प्रकार की गई थी कि प्रारंभ से ही उसे सच्चरित्र होने की प्रेरणा मिलती थ्ी। वह गुरूकुल में आचार्य के सानिध्य में रहता था। जातकों में ज्ञान को शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य माना गया है।

 

शिक्षा का प्रमुख उद्देश्यः-

(1) चरित्र का निर्माण,

(2) व्यक्तित्व का सर्वांगिण विकास,

(3) नागरिक तथा सामाजिक कत्र्तव्योें का ज्ञान,

(4) सामाजिक सुख तथा कौशल की वृद्धि,

(5) संस्कृति का संरक्षण तथा प्रसार,

(6) निष्ठा तथा धार्मिकता का संचार करना।

 

अध्ययन विधिः-

प्राचीन भारत में मौखिक शिक्षा पद्धति का विशेष महत्व था। महाभारत के अनुसार मौखिक पाठ विधि से वेदों का अध्ययन होता था। मौखिक शिक्षा पद्धति का उल्लेख जातको में भी मिलता है बौद्ध शिक्षण पद्धति का आरंभ स्वयं महात्मा बुद्ध ने किया था।

विद्यार्थी को कठोर नियमों का पालन करन पड़ता था। स्नान करते समय विद्यार्थी के लिए जल क्रीड़ा करना निशिद्व था। सुगंध और अलंकार का वह उपयोग नहीं कर सकता था।  वह अपने केशों का गुच्छा बनाकर सिर पर बांध लेता था अथवा शिखा रखकर सिर मुंडवा लेता था। बौद्ध शिक्षा केन्द्र अधिकतर नगरों में तथा अग्रहर ग्रामों में थे । तक्षशिला के अध्यापक राजधानी में ही रहा करते थे।

प्राचीन साहित्य में गुरूकुलों में रहकर अध्ययन करने वाले विद्यार्थियों के नाम मिलते है। ज्ञात होता है कि इतिहास के विभिन्न युगों में शिक्षा की गुरूकुल पद्धति का प्रचलन था। उदाहरण- उद्दालक आरूणि के पुत्र श्वेतकेतु ने गुरूकुल में रहकर अध्ययन किया था। विष्णु पुराण से ज्ञात होता है कि कृष्ण तथा बलराम ने संदीपनि के आश्रम में रहकर अध्यन किया था। रामायण में भारद्वाज तथा वाल्मिकी के गुरूकुलों का उल्लेख मिलता है। महाभारत से ज्ञात होता है कि कण्व तथा मार्कण्डेय ऋृषियो के आश्रमों में प्रसिद्ध शिक्षा केन्द्र थे।

 

बौद्धकाीन शिक्षण संस्थाएंः-

प्राचीन भारत में शिक्षा देने का कार्य अध्यापक व्यक्तिगत रूप से करते थे । शिक्षण संस्थाएं नहीं थी। गुरूकुल में गुरू के निकट रह कर विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करते थें। बौद्ध विद्या केन्दों के रूप में काशी, कश्मीर और तक्षशिला तथा बाद के काल में नालंदा, वलभी एवं विक्रमशिला काफी प्रसिद्ध हुए है।

 

शिक्षा के लिए काशी की पहचान प्राचीन काल से ही कायम है। तक्षशिला में मुख्यरूप से उच्चशिक्षा का शिक्षण कार्य किया जाता था। यह ज्ञान और विद्या के क्षेत्र में बहुत अधिक प्रसिद्ध था।

 

नालंदा विश्वविद्यालय:-

नालंदा विश्वविद्यालय बौद्धधर्म और दर्शन की शिक्षा का प्रसिद्ध केन्द्र था। कालान्तर में अशोक ने यहां पर विशाल विहार का निर्माण करवाया।

 

वलमी विश्वविद्यालयः-

वलमी गुजरात के काठियावाड़ तट पर स्थित एक अंतर्राष्ट्रीय बंदरगाह के साथ-साथ शिक्षा का भी प्रधान केन्द्र था।

 

विक्रमशिला विश्वविद्यालयः-

यह विश्वविद्यालय भी अंतर्राष्ट्रीय ख्याति का शिक्षा कंेन्द्र रहा है।

 

निष्कर्षः-

जातको द्वारा शिक्षा के संबंध में जो जानकारी मिलती है अदि उसकी आलोचना-समीक्षा की जाय तो ज्ञात होगा कि जातक कालीन शिक्षा पद्धति पर धर्म व्यापक प्रभाव था। वह व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास पर  अधिक बल देती थी। इसका दृष्टिकोण व्यवहारिकता की अपेक्षा आदर्शवादी अधिक था।

 

व्याकरण, साहित्य, तर्कविद्या, दर्शन, गणित, ललितकलाएं आदि विविध विषयों की  सापेक्षिक उपयोगिता को जातकों के शिक्षाविदों ने नहीं समझा। संगीत, चित्रकारी, ललितकलाएं सामान्य पाठ्यक्रमों के विषय नहीं थे। प्राचीन भारतीय संस्कृति को समृद्धशाली बनाने में इसका महत्वपूर्ण योगदान है।



• मध्यकाल में शिक्षा : मकतब , मदरसा व संस्कृत शिक्षा . अठारहवीं शताब्दी के दौरान की देशज शिक्षा व्यवस्था


भारत   की   प्राचीन   शिक्षा   आध्यात्मिमकता   पर   आधारित   थी।   मध्ययुगीन   भारत   में   दो   प्रकार   की   शिक्षा   संस्थाएं   थी   मकतब   और   मदरसे। .  इस   काल   में   हिन्दू      मुसलमानों   की   अपनी - अपनी   शिक्षण   पद्धियां ,  संस्थाएं   एवं   पाठ्यक्रम   थे।   मुस्लिम   आक्रमणों   के   फलस्वरूप   तक्षशिला ,  नालन्दा ,  विक्रमशिला   आदि   प्राचीन   उच्च   शिक्षा   के   केन्द्र  ( विश्वविद्यालय )  नष्ट   हो   गये 1   एवं   फिर   अनेक   सदियों   तक   हिन्दू   शिक्षा   के   विशाल   केन्द्र   उत्तरी   भारत   में   स्थापित      किये   जा   सके।   यह   कहना   न्यायसंगत      होगा   कि   इन   विश्वविद्यालयों   के   अन्त   के   साथ   ही   प्राचीन   हिन्दू - शिक्षा   पद्धति   भी   समाप्त   हो   गयी।   अब   इस्लामी   शिक्षा   का   प्रसार   होने   लगा।   इस   शोध - पत्र   में   मध्य   युग   में   भारतीय   शिक्षा   का   अध्ययन   किया   गया   है। .


जब   से   मानव   सभ्यता   का   सूर्य   उदय   हुआ   है   तभी   से   भारत   अपनी   शिक्षा   तथा   दर्शन   के   लिए   प्रसिद्ध   रहा   है   यह   सब   भारतीय   शिक्षा   के   उद्देश्यों   का   ही   चमत्कार   है   कि   भारतीय   संस्कृति   ने   संसार   का   सदैव   पथ - प्रदर्शन   किया   और   आज   भी   जीवित   है   भारतीय   शिक्षा   का   इतिहास   भारतीय   सभ्यता   का   भी   इतिहास   है।   भारतीय   समाज   के   विकास   और   उसमें   होने   वाले   परिवर्तनों   की   रूपरेखा   में   शिक्षा   की   जगह   और   उसकी   भूमिका   को   भी   निरंतर   विकासशील   पाते   हैं।   सूत्रकाल   तथा   लोकायत   के   बीच   शिक्षा   की   सार्वजनिक   प्रणाली   के   पश्चात   हम   बौद्धकालीन   शिक्षा   को   निरंतर   भौतिक   तथा   सामाजिक   प्रतिबद्धता   से   परिपूर्ण   होते   देखते   हैं।   बौद्धकाल   में   स्त्रियों   और   शूद्रों   को   भी   शिक्षा   की   मुख्य   धारा   में   सम्मिलित   किया   गया।   सर्वप्रथम   1781    .  में   बंगाल   के   गवर्नर - जनरल   वारेन   हेस्टिंग्स   ने   फारसी   एवं   अरबी   भाषा   के   अध्ययन   के   लिए   कलकत्ता  ( वर्तमान   कोलकाता )  में   एक   मदरसा   खुलवाया।   1784    .  में   हेस्टिंग्स   के   सहयोगी   सर   विलियम   जोन्स   ने    एशियाटिक   सोसाइटी   ऑफ   बंगाल    की   स्थापना   की ,  जिसने   प्राचीन   भारतीय   इतिहास   और   संस्कृति   के   अध्ययन   हेतु   महत्त्वपूर्ण   प्रयास   किया।   1791    .  में   ब्रिटिश   रेजिडेंट   डंकन   ने   बनारस   में   एक   संस्कृत   विद्यालय   की   स्थापना   करवायी।   प्राच्य   विद्या   के   क्षेत्र   में   किये   गये   ये   शुरुआती   प्रयास   सफल   नहीं   हो   सके।ईसाई   मिशनरियों   ने   कम्पनी   सरकार   के   इस   प्रयास   की   आलोचना   की   और   पाश्चात्य   साहित्य   के   विकास   पर   बल   दिया।
प्राचीन   भारत   में   जिस   शिक्षा   व्यवस्था   का   निर्माण   किया   गया   था   वह   समकालीन   विश्व   की   शिक्षा   व्यवस्था   से   समुन्नत      उत्कृष्ट   थी   लेकिन   कालान्तर   में   भारतीय   शिक्षा   का   व्यवस्था   ह्रास   हुआ।   विदेशियों   ने   यहाँ   की   शिक्षा   व्यवस्था   को   उस   अनुपात   में   विकसित   नहीं   किया ,  जिस   अनुपात   में   होना   चाहिये   था।   अपने   संक्रमण   काल   में   भारतीय   शिक्षा   को   कई   चुनौतियों      समस्याओं   का   सामना   करना   पड़ा।   आज   भी   ये   चुनौतियाँ      समस्याएँ   हमारे   सामने   हैं   जिनसे   दो - दो   हाथ   करना   है।   1850  तक   भारत   में   गुरुकुल   की   प्रथा   चलती      रही   थी   परन्तु   मकोले   द्वारा   अंग्रेजी   शिक्षा   के   संक्रमण   के   कारण   भारत   की   प्राचीन   शिक्षा   व्यवस्था   का   अंत   हुआ
भारत   की   प्राचीन   शिक्षा   आध्यात्मिमकता   पर   आधारित   थी।   शिक्षा ,  मुक्ति   एवं   आत्मबोध   के   साधन   के   रूप   में   थी।   यह   व्यक्ति   के   लिये   नहीं   बल्कि   धर्म   के   लिये   थी।   भारत   की   शैक्षिक   एवं   सांस्कृतिक   परम्परा   विश्व   इतिहास   में   प्राचीनतम   है।
डॉ॰   अल्टेकर   के   अनुसार ,   वैदिक   युग   से   लेकर   अब   तक   भारतवासियों   के   लिये   शिक्षा   का   अभिप्राय   यह   रहा   है   कि   शिक्षा   प्रकाश   का   स्रोत   है   तथा   जीवन   के   विभिन्न   कार्यों   में   यह   हमारा   मार्ग   आलोकित   करती   है।

प्राचीन   काल   में   शिक्षा   को   अत्यधिक   महत्व   दिया   गया   था।   भारत    विश्वगुरु    कहलाता   था।   विभिन्न   विद्वानों   ने   शिक्षा   को   प्रकाशस्रोत ,  अन्तर्दृष्टि ,  अन्तर्ज्योति ,  ज्ञानचक्षु   और   तीसरा   नेत्र   आदि   उपमाओं   से   विभूषित   किया   है।   उस   युग   की   यह   मान्यता   थी   कि   जिस   प्रकार   अन्धकार   को   दूर   करने   का   साधन   प्रकाश   है ,  उसी   परकार   व्यक्ति   के   सब   संशयों   और   भ्रमों   को   दूर   करने   का   साधन   शिक्षा   है।   प्राचीन   काल   में   इस   बात   पर   बल   दिया   गया   कि   शिक्षा   व्यक्ति   को   जीवन   का   यथार्थ   दर्शन   कराती   है।   तथा   इस   योग्य   बनाती   है   कि   वह   भवसागर   की   बाधाओं   को   पार   करके   अन्त   में   मोक्ष   को   प्राप्त   कर   सके   जो   कि   मानव   जीवन   का   चरम   लक्ष्य   है।

मध्यकाल


भारत   में   मुस्लिम   राज्य   की   स्थापना   होते   ही   इस्लामी   शिक्षा   का   प्रसार   होने   लगा।   फारसी   जाननेवाले   ही   सरकारी   कार्य   के   योग्य   समझे   जाने   लगे।   हिंदू   अरबी   और   फारसी   पढ़ने   लगे।   बादशाहों   और   अन्य   शासकों   की   व्यक्तिगत   रुचि   के   अनुसार   इस्लामी   आधार   पर   शिक्षा   दी   जाने   लगी।   इस्लाम   के   संरक्षण   और   प्रचार   के   लिए   मस्जिदें   बनती   गई ,  साथ   ही   मकतबों ,  मदरसों   और   पुस्तकालयों   की   स्थापना   होने   लगी।   मकतब   प्रारंभिक   शिक्षा   के   केंद्र   होते   थे   और   मदरसे   उच्च   शिक्षा   के।   मकतबों   की   शिक्षा   धार्मिक   होती   थी।   विद्यार्थी   कुरान   के   कुछ   अंशों   का   कंठस्थ   करते   थे।   वे   पढ़ना ,  लिखना ,  गणित ,  अर्जीनवीसी   और   चिट्ठीपत्री   भी   सीखते   थे।   इनमें   हिंदू   बालक   भी   पढ़ते   थे।
मकतबों   में   शिक्षा   प्राप्त   कर   विद्यार्थी   मदरसों   में   प्रविष्ट   होते   थे।   यहाँ   प्रधानता   धार्मिक   शिक्षा   दी   जाती   थी।   साथ   साथ   इतिहास ,  साहित्य ,  व्याकरण ,  तर्कशास्त्र ,  गणित ,  कानून   इत्यादि   की   पढ़ाई   होती   थी।   सरकार   शिक्षकों   को   नियुक्त   करती   थी।   कहीं   कहीं   प्रभावशाली   व्यक्तियों   के   द्वारा   भी   उनकी   नियुक्ति   होती   थी।   अध्यापन   फारसी   के   माध्यम   से   होता   था।   अरबी   मुसलमानों   के   लिए   अनिवार्य   पाठ्य   विषय   था।   छात्रावास   का   प्रबंध   किसी   किसी   मदरसे   में   होता   था।   दरिद्र   विद्यार्थियों   को   छात्रवृत्ति   मिलती   थी।   अनाथालयों   का   संचालन   होता   था।   शिक्षा   निःशुल्क   थी।   हस्तलिखित   पुस्तकें   पढ़ी   और   पढ़ाई   जाती   थीं।

राजकुमारों   के   लिए   महलों   के   भीतर   शिक्षा   का   प्रबंध   था।   राज्यव्यवस्था ,  सैनिक   संगठन ,  युद्धसंचालन ,  साहित्य ,  इतिहास ,  व्याकरण ,  कानून   आदि   का   ज्ञान   गृहशिक्षक   से   प्राप्त   होता   था।   राजकुमारियाँ   भी   शिक्षा   पाती   थीं।   शिक्षकों   का   बड़ा   सम्मान   था।   वे   विद्वान्   और   सच्चरित्र   होते   थे।   छात्र   और   शिक्षकों   को   आपसी   संबंध   प्रेम   और   सम्मान   का   था।   सादगी ,  सदाचार ,  विद्याप्रेम   और   धर्माचरण   पर   जोर   दिया   जाता   था।   कंठस्थ   करने   की   परंपरा   थी।   प्रश्नोत्तर ,  व्याख्या   और   उदाहरणों   द्वारा   पाठ   पढ़ाए   जाते   थे।   कोई   परीक्षा   नहीं   थी।   अध्ययन   अध्यापन   में   प्राप्त   अवसरों   में   शिक्षक   छात्रों   की   योग्यता   और   विद्वत्ता   के   विषय   में   तथ्य   प्राप्त   करते   थे।   दंड   प्रयोग   किया   जाता   था।   जीविका   उपार्जन   के   लिए   भी   शिक्षा   दी   जाती   थी।   दिल्ली ,  आगरा ,  बीदर ,  जौनपुर ,  मालवा   मुस्लिम   शिक्षा   के   केंद्र   थे।   मुसलमान   शासकों   के   संरक्षण   के   अभाव   में   भी   संस्कृत   काव्य ,  नाटक ,  व्याकरण ,  दर्शन   ग्रंथों   की   रचना   और   उनका   पठन   पाठन   बराबर   होता   रहा।


मध्य   युग   में   भारतीय   शिक्षा   के   उद्देश्य

भारत   के   मध्य   युग   की   शिक्षा   का   अर्थ   इस्लामी   अथवा   मुस्लिम   शिक्षा   से   है   मुस्लिम   शिक्षा   के   उद्देश्य   निम्नलिखित   है 
 इस्लाम   का   प्रसार   -   इस्लामी   शिक्षा   का   पहला   उद्देश्य   मुस्लमान   धर्म   का   प्रसार   करना   था।   अतः   जगह - जगह   मकतब   और   मदरसे   खोले   गये   प्रत्येक   मस्जिद   के   साथ   एक   मकतब   खोला   जाता   था   जिसमें   मुस्लिम   बालकों   को   कुरान   पढाया   जाता   था   साथ   ही   मदरसों   में   इस्लाम   का   इतिहास ,  दर्शन ,  तथा   उच्च   प्रकार   की   धर्म   संबंधी   शिक्षा   प्रदान   की   जाती   थी।
 मुसलमानों   में   शिक्षा   का   प्रसार   मुस्लिम   शिक्षाशास्त्रियों   का   विश्वास   था   कि   शिक्षा   के   ही   द्वारा   मुसलमानों   को   धार्मिक   तथा   अधार्मिक   बातों   का   अन्तर   समझाया   जा   सकता   है।   अतः   मुसलमानों   को   शिक्षा   प्रदान   करना   इस्लामी   शिक्षा   का   दूसरा   उद्देश्य   था 
 इस्लामी   राज्यों   में   वृद्धिकरण   इस्लामी   शिक्षा   का   तीसरा   इस्लामी   राज्यों   में   वृद्धि   करना   था।   इस   उद्देश्य   को   प्राप्त   करने   के   लिए   मुसलमानों   को   लड़ने   की   कला   सिखाई   जाती   थी   जिससे   वे   इस्लामी   राज्यों   में   वृद्धि   कर   सकें 
 नैतिकता   का   विकास   इस्लामी   शिक्षा   का   चैथा   उद्देश्य   नैतिकता   का   विकास   करना   था   इस   उद्देश्य   को   प्राप्त   करने   के   लये   मुस्लिम   बालकों   को   नैतिक   पुस्तकों   का   अध्ययन   कराया   जाता   था 
 भौतिक   सुखों   को   प्राप्त   करना   इस्लामी   शिक्षा   का   पांचवां   उद्देश्य   भौतिक   सुखों   को   प्राप्त   करना   था।   इसके   लिए   बालकों   को   उपाधियाँ   तथा   मौलवियों   को   ऊँचे - ऊँचे   पड़   दिये   जाते   थे   जिससे   वे   भौतिक   सुखों   का   आनन्द   ले   सकें 
 शरियत   का   प्रसार   इस्लामी   शिक्षा   का   छठा   उदेहय   शरियत   के   कानूनों   को   लागू   करना   था।   अतः   शिक्षा   द्वारा   इस्लाम   के   कानून ,  राजनीतिक   सिधान्त   तथा   इस्लाम   की   सामाजिक   परम्पराओं   का   प्रसार   किया   गया   

 चरित्र   निर्माण   मोहम्मद   साहब   का   विश्वास   था   कि   केवल   चरित्रवान   व्यक्ति   ही   उन्नति   कर   सकता   है   अतः   इस्लामी   शिक्षा   का   सातवाँ   उद्देश्य   मुस्लमान   बालकों   के   चरित्र   का   निर्माण   करना   था।

संस्कृत   साहित्य

मुगल   काल   में   संस्कृत   का   विकास   बाधित   रहा।   अकबर   के   समय   में   लिखे   गये   महत्त्वपूर्ण   संस्कृत   ग्रंथ   थे -  महेश   ठाकुर   द्वारा   रचित    अकबरकालीन   इतिहास  ,  पद्म   सुन्दर   द्वारा   रचित    अकबरशाही   श्रृंगार - दर्पण ’,  जैन   आचार्य   सिद्ध   चन्द्र   उपाध्याय   द्वारा   रचित    भानुचन्द्र   चरित्र ’,  देव   विमल   का    हीरा   सुभाग्यम ’, ‘ कृपा   कोश  आदि।   अकबर   के   समय   में   ही    पारसी   प्रकाश  नामक   प्रथम   संस्कृत - फारसी   शब्द   कोष   की   रचना   की   गई।   शाहजहाँ   के   समय   में   कवीन्द्र   आचार्य   सरस्वती   एवं   जगन्नाथ   पंडित   को   दरबार   में   आश्रय   मिला   हुआ   था।   पंडित   जगन्नाथ   ने    रस - गंगाधर  एवं    गंगालहरी  की   रचना   की।   पंडित   जगन्नाथ   शाहजहाँ   के   दरबारी   कवि   थे।   जहाँगीर   ने    चित्र   मीमांसा   खंडन ’ ( अलंकार   शास्त्र   पर   ग्रंथ )  एवं    आसफ   विजय ’ ( नूरजहाँ   के   भाई   आसफ   खाँ   की   स्तुति )  के   रचयिता   जगन्नाथ   को    पंडिताराज  की   उपाधि   से   सम्मानित   किया   था।   वंशीधर   मिश्र   और   हरिनारायण   मिश्र   वाले   संस्कृत   ग्रंथ   हैं -  रघुनाथ   रचित    मुहूर्तमाला ’,  जो   कि   मुहूर्त   संबंधी   ग्रंथ   है   और   चतुर्भुज   का    रसकल्पद्रम  जो   औरंगजेब   के   चाचा   शाइस्ता   खाँ   को   समर्पित   है।

हिन्दी   साहित्य


बाबर ,  हुमायूँ   और   शेरशाह   के   समय   में   हिन्दी   को   राजकीय   संरक्षण   प्राप्त   नहीं   हुआ ,  किन्तु   व्यक्तिगत   प्रयासों   से    पद्मावत  जैसे   श्रेष्ठ   ग्रन्थ   की   रचना   हुई।   मुगल   सम्राट   अकबर   नेहिन्दी   साहित्य   को   संरक्षण   प्रदान   किया।   मुगल   दरबार   से   सम्बन्धित   हिन्दी   के   प्रसिद्ध   कवि   राजा   बीरबल ,  मानसिंह ,  भगवानदास ,  नरहरि ,  हरिनाथ   आदि   थे।   व्यक्त्गित   प्रयासों   से   हिन्दी   साहित्य   को   मजबूती   प्रदान   करने   वाले   कवियों   में   महत्त्वपूर्ण   थे -  नन्ददास ,  विट्ठलदास ,  परमानन्द   दास ,  कुम्भन   दास   आदि।   तुलसीदास   एवं   सूरदास   मुगल   काल   के   दो   ऐसे   विद्वान्   थे ,  जो   अपनी   कृतियों   से   हिन्दी   साहित्य   के   इतिहास   में   अमर   हो   गये।   अर्ब्दुरहमान   खानखाना   और   रसखान   को   भी   इनकी   हिन्दी   की   रचनाओं   के   कारण   याद   किया   जाता   है।   इन   सबके   महत्त्वपूर्ण   योगदान   से   ही    अकबर   के   काल   को   हिन्दी   साहित्य   का   स्वर्ण   काल  कहा   गया   है।   अकबर   ने   बीरबल   को    कविप्रिय  एवं   नरहरि   को    महापात्र  की   उपाधि   प्रदान   की।   जहाँगीर   का   भाई   दानियाल   हिन्दी   में   कविता   करता   था।   शाहजहाँ   के   समय   में   सुन्दर   कविराय   ने    सुन्दर   श्रृंगार ’, ‘ सेनापति   ने    कवित्त   रत्नाकर ’,  कवीन्द्र   आचार्य   ने    कवीन्द्र   कल्पतरु  की   रचना   की।   इस   समय   के   कुछ   अन्य   महान्   कवियों   का   सम्बन्ध   क्षेत्रीय   राजाओं   से   था ,  जैसे -  बिहारी   महाराजा   जयसिंह   से ,  केशवदास   ओरछा   से   सम्बन्धित   थे।   केशवदास   ने    कविप्रिया ’, ‘ रसिकप्रिया  एवं    अलंकार   मंजरी  जैसी   महत्त्वपूर्ण   रचनायें   की।   अकबर   के   दरबार   में   प्रसिद्ध   ग्रंथकर्ता   कश्मीर   के   मुहम्मद   हुसैन   को    जरी   कलम  की   उपाधि   दी   गई।   बंगाल   के   प्रसिद्ध   कवि   मुकुन्दराय   चक्रवर्ती   को   प्रोफेसर   कॉवेल   ने    बंगाल   का   क्रैब  कहा   है।

उर्दू   साहित्य

उर्दू   का   जन्म   दिल्ली   सल्तनत   काल   में   हुआ।   इस   भाषा   ने   उत्तर   मुगलकालीन   बादशाहों   के   समय   में   भाषा   के   रूप   में   महत्व   प्राप्त   किया।   प्रारम्भ   में   उर्दू   को    जबान -  - हिन्दवी  कहा   गया।   अमीर   खुसरो   प्रथम   विद्वान्   कवि   था ,  जिसने   उर्दू   भाषा   को   अपनी   कविता   का   माध्यम   बनाया।   मुगल   बादशाहों   में   मुहम्मद   शाह  ( 1719-1748    .)  प्रथम   बादशाह   था ,  जिसने   उर्दू   भाषा   के   विकास   के   लिए   दक्षिण   के   कवि   शम्सुद्दीन   वली   को   अपने   दरबार   में   बुलाकर   सम्मानित   किया।   वली   दकनी   को   उर्दू   पद्य   साहितय   का   जन्मदाता   कहा   जाता   है।   कालान्तर   में   उर्दू   को    रेख्ता  भी   कहा   गया।   रेख्ता   में   गेसूदराज   द्वारा   लिखित   पुस्तक    मिरातुल   आशरीन  सर्वाधिक   प्राचीन   है।

निष्कर्ष

मध्यकालीन   भारत   मे   काफी   हद   तक   इस्लामी   शिक्षा   पद्वति   विकसित   हो   चुकी   थी।   भारतीय   रूचि   के   विषयों   जैसे   प्राचीन   इतिहास   और   दर्शन ,  संस्कृत   भाषा   और   साहित्य ,  हिन्दू   धर्म   और   सामाजिक   संगठन   की   शिक्षा   के   लिए   सरकारी   और   गैर   सरकारी   मकतबों   और   मदरसों   में   शायद   ही   कोई   व्यवस्था   थी।   भारत   में   मुस्लिम   आक्रमणों   के   फलस्वरूप   समाज   में   अनेक   कुरीतियां   फैल   गई।   जैसे - कन्यावध ,  दहेजप्रथा ,  बाल - विवाह ,  पर्दा - प्रथा   आदि।   इन   सब   का   प्रत्यक्ष   परिणाम   एवं   प्रभाव   स्त्री   शिक्षा   पर   पड़ा।   इस   काल   में   लड़कियों   के   लिए   पृथक   पाठशालाओं   की   कोई   भी   व्यवस्था      थी।   प्रारम्भिक   शिक्षा   प्राप्त   करने   के   लिए   लड़कियां   कभी - कभी   लड़कों   के   साथ   बैठकर   ही   पढा   करती   थी।   शाही   घरानों   में   राजकुमारियों   के   लिए   कभी - कभी   पण्डित   नियुक्त   कर   दिये   जाते   थे   जो   कि   उन्हें   उच्च   शिक्षा   प्रदान   कर   दिया   करते   थे।   हिन्दू   परिवारों   में   ऐसी   बहुत   कम   स्त्रियां   थी   जिन्हें   उच्च   शिक्षा   प्रदान   की   गई   हो।   लड़कियों   की   शिक्षा   प्रायः   घर   में   ही   हुआ   करती   थी।   हिन्दुओं   और   मुसलमानों   दोनों   में   ही   लड़कियों   को   उच्च   शिक्षा   प्रदान   करने   की   रीति   एवं   परम्परा      थी।


नोट : आगे के यूनिट से जोड़े जाएंगे



 UNIT - 2 ब्रिटिश तथा स्वतंत्रता पश्चात शिक्षा ( BRITISH & AFTER INDEPENDENCE EDUCATION )




 • ब्रिटिश औपनिवेशिक काल के दौरान उभर कर आयी शिक्षा व्यवस्था : मिशनरी स्कूल , ब्रिटिश राज के अंतर्गत गठित औपचारिक शिक्षा की व्यवस्था ; भारतीयों द्वारा गठित शैक्षिक संस्थाएँ एवं आंदोलन ( जैसे कि यंग बंगाल आंदोलन , देवबंद , आर्यसमाज , अलीगढ़ , सत्यशोधक समाज , जामिया स्कूल , बुनियादी शिक्षा ) स्वतंत्रता पश्चात , भारत में शिक्षा का विकास प्राथमिक , माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा की समस्याएँ • • बिहार में शिक्षा का ऐतिहासिक विकास : सभी के लिए शिक्षा व्यवस्था , शिक्षक प्रशिक्षण संस्थाएँ

UNIT - 3 शिक्षा की समझ ( UNDERSTANDING EDUCATION ) शिक्षा : महत्त्व एवं प्रकृति ; शिक्षित व्यक्ति कौन है इसका विश्लेषणात्मक समझ










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