स्कीनर , कोमास्की , पियाजे , ब्रूनर तथा वाइगोत्सकी के विशेष सन्दर्भ में बच्चे भाषा को कैसे सीखते हैं ? ( HOW CHILDREN LEARN LANGUAGE WITH SPECIAL REFERENCE TO SKINNER , CHOMSKY , PIAGET , BRUNER & VYGOTSKY ? ) B.Ed.
” किसी जाति के भाषा विकास का इतिहास उसकी बुद्धि विकास का इतिहास है । दूसरे प्राणियों की अपेक्षा मनुष्य भाषा के कारण ही अधिक श्रेष्ठ है । भाषा का विकास और सभ्यता का विकास साथ – साथ चलता है । प्रारम्भ में शिशु मूर्त वस्तुओं का ही प्रयोग करता है बाद में वह भाषा का व्यवहार करने लगता है ।शिक्षा का एक प्रधान उद्देश्य बालक को भाषा का समुचित ज्ञान कराना है । किसी व्यक्ति को बौद्धिक योग्यता का सर्वश्रेष्ठ माप उसका शब्द भण्डार ही है । ” -डमविल ( Dumville )
” भाषा , ध्वनियों द्वारा मानव के भावों की अभिव्यक्ति है । ” स्वीट (Sweet)
भाषा सम्प्रेषण ( Communication ) का एक लोकप्रिय माध्यम है । भाषा के माध्यम से बालक अपने विचारों , इच्छाओं और भावनाओं को दूसरों को ककत कर सकता है तथा साथ – ही – साथ वह दूसरे व्यक्तियों के विचारों को समझ भी सकता है । बालकों में यदि भाषा का विकास न हो तो निश्चय ही उनकी मानसिक योग्यताओं का विकास जिस सामान्य ढंग से होता है , उस ढंग से न हो । गूंगे बच्चों में विचार करने की क्षमता उतनी नहीं होती है जितनी कि भाषा बोलने वाले बालकों में । दैनिक जीवन के अनुभवों में देखा जा सकता है कि भाषा के माध्यम से जिन विचारों को व्यक्त किया जाता है उनमें स्पष्टता सर्वाधिक होती है । विचारों को व्यक्त करने के अन्य माध्यम भाषा के सामने फीके हैं । बालक का सामाजिक विकास भी भाषा पर ही आधारित है । बालकों का प्रत्येक प्रकार का सीखना भाषा से किसी – न – किसी रूप से सम्बन्धित है । भाषा बालकों की ज्ञान – वृद्धि और अनेक विकासात्मक प्रक्रियाओं के लिए आवश्यक है । इसके द्वारा बच्चे अपनी इच्छाओं और आवश्यकताओं को व्यक्त करते हैं ।
बचपनावस्था ( Babyhood ) में प्रत्यक्षीकरण ( Perception ) तथा संज्ञान ( Cognition ) में सुधार के बाद बच्चे मानव जाति के सबसे विशिष्ट गुण ‘ भाषा ‘ की ओर अग्रसर होते हैं । औसत रूप से यह देखा गया है कि 12 माह की आयु में बालक सबसे पहला शब्द उच्चारण करता है । जैसे – जैसे बालक शब्दों को बोलना शुरू करता है वैसे – वैसे भाषा का विकास तीव्र गति से होना शुरू हो जाता है । एक अध्ययन ( Bloom , 1998 ) में देखा गया है कि 1 से 2 वर्ष की आयु के बच्चे दो शब्दों का इस्तेमाल करके बोलने लगते हैं । छ : वर्ष की आयु तक पहुँचते – पहुँचते बच्चों का शब्द – भण्डार ( Vocabulary ) 10 , 000 शब्दों का हो जाता है । इस आयु में बच्चे लम्बे – लम्बे वाक्य बोलने लगते हैं तथा भाषा के सम्प्रेषण में पर्याप्त कौशल प्राप्त कर लेते हैं । इस सम्बन्ध में कुछ अधिक कहने से पूर्व यह आवश्यक है कि भाषा के अर्थ को समझ लिया जाये ।
वाक्य – शक्ति और भाषा का अर्थ ( Meaning of Speech and Language ) बहुधा देखा गया है कि सामान्य बोलचाल की भाषा में वाक्य – शक्ति ( वाणी ) और भाषा ( Speech and Language ) शब्दों का प्रयोग एक – दूसरे के स्थान पर किया जाता है , परन्तु इन दोनों शब्दों में अन्तर है । हरलॉक ( 1990 ) के अनुसार , ” भाषा में सम्प्रेषण के ( अथवा विचारों के आदान – प्रदान के ) वे सभी साधन आते हैं , जिनमें विचारों और भावों को प्रतीकात्मक बना दिया जाता है जिससे कि अपने विचारों और भावों को दूसरे से अर्थपूर्ण ढंग से कहा जा सके । ” ” Language encompasses every means of communication in which thoughts and feel ings are symbolized so as to convey meaning to others .
” लिखना , पढ़ना – बोलना , मुखात्मक अभिव्यक्ति , हावभाव ( Gestures ) , संकेतों का प्रयोग तथा कलात्मक अभिव्यक्तियाँ ( Artistic Expressions ) , आदि भाषा में ही सम्मिलित हैं । वाक्य – शक्ति ( वाणी ) के अर्थ को स्पष्ट करते हुए हरलॉक ( 1990 ) ने लिखा है कि , “ वाणी भाषा का एक स्वरूप है जिसमें अर्थ को दूसरों को व्यक्त करने के लिए कुछ ध्वनियाँ ( Sound ) या शब्द ( Words ) उच्चारित किए जाते हैं । ” ” Speech is a form of language in which articulate sounds or words are used to convey meaning .
अतः कहा जा सकता है कि वाणी भाषा का एक विशिष्ट रूप है । वाणी – प्रत्यय की अपेक्षा भाषा – प्रत्यय अधिक व्यापक है । वाणी के विकास को यदि बालकों में देखा जाये तो वाणी प्रारम्भ में अस्पष्ट और अनियन्त्रित होती है , परन्तु विकास के साथ – साथ वह स्पष्ट होती जाती है । प्रत्येक भाषा से सीमित संख्या में ही वाणी ध्वनियाँ ( Speech Sounds ) होती हैं । वाणी ध्वनियों को अगर अलग – अलग बोला जाये तो उनका कोई अर्थ नहीं निकलता है । यदि इन वाणी ध्वनियों को विशेष क्रम में संयुक्त करके उच्चारण किया जाये , तो यही वाणी ध्वनियाँ अर्थपूर्ण हो जाती हैं । उदाहरण के लिए R , A , T अक्षरों की ध्वनियाँ यदि अलग – अलग निकाली जायें तो इनका कोई अर्थ नहीं होता है परन्तु जब इन्हें संयुक्त रूप से ( RAT ) उच्चारित किया जाता है तो यह अर्थपूर्ण शब्द ( Word ) बन जाता है । प्रत्येक भाषा में यदि शब्दों को विशेष क्रम में संयुक्त किया जाये तो वाक्य ( Sentence ) का निर्माण होता है ।
बालक द्वारा उत्पन्न प्रत्येक ध्वनि वाणी नहीं है । केवल उस ध्वनि या शब्द को वाणी कह सकते हैं जो के बालक द्वारा बोली गई है और जिसका बालक अर्थ जानता है , साथ – ही – साथ ध्वनि या शब्द जिस वस्तु लिए बोला गया है , उससे उसका सम्बन्धित होना भी आवश्यक है । वाणी की इस प्रथम कसौटी के अतिरिक्त एक कसौटी और भी है , वह यह कि बालक द्वारा बोले गए शब्द ऐसे हों कि समाज के अन्य सदस्य उन्हें समझ सकें । क्रमिक प्रक्रिया के रूप में वाणी का विकास चलता है । प्रारम्भ में बालक की वाणी में उपर्युक्त दोनों कसौटियाँ नहीं पाई जाती हैं , परन्तु धीरे – धीरे उसकी वाणी में पहली और दूसरी दोनों कसौटियाँ पाई जाने लगती हैं । प्रस्तुत अध्याय में भाषा और वाक्य शक्ति शब्दों का प्रयोग एक – दूसरे के स्थान पर किया गया है ।
वाणी का महत्त्व ( Importance of Speech ) वाणी का महत्त्व अधोलिखित प्रकार है
( 1 ) सामाजिक सम्बन्धों में वाणी का महत्त्व ( Importance of Speech in Social Relations ) – भाषा या वाणी का सबसे बड़ा महत्त्व यह है कि इस माध्यम द्वारा बालक अपनी बात दूसरों से कह सकता है तथा वह दूसरों की बात समझ भी सकता है । वाणी द्वारा ही बालक समाज के मूल्यों , नियमों और आदर्शों , आदि को सीखता है । वह वाणी द्वारा ही समाज में समायोजन करने में सफल होता है । उसका सामाजिक समायोजन तभी उत्तम होता है जबकि समाज में अन्य सदस्यों के साथ उसके सम्बन्ध मधुर हों । बालक अपनी वाणी द्वारा दूसरों से मधुर सम्बन्ध स्थापित कर सकता है । कुछ अध्ययनों ( R. M. Dreger , 1955 ; H. R. Marshall , 1961 ) में यह देखा गया है कि प्रत्येक आयु के वे बालक जो अपने विचार और इच्छाओं को शब्दों या क्रियाओं द्वारा व्यक्त कर सकते हैं , वे अपने समूह में उन बालकों की अपेक्षा अधिक लोकप्रिय होते हैं , जो चुप रहने वाले होते हैं या Reserved टाइप के होते हैं । इसी प्रकार यह भी देखा गया है कि चुप रहने वाले देच्चों की कभी – कभी उपेक्षा की जाती है ; भले ही उनमें उन बालकों की अपेक्षा अधिक गुण हों जो समूह में नेता बने हैं । समूह का जो व्यक्ति नेता बना हुआ है वह अपनी वाणी द्वारा दूसरों की क्रियाओं को प्रभावित करता रहता है ।
( 2 ) आत्म – मूल्यांकन में महत्त्व ( Importance in Self – Evaluation ) – बालक जब अपने परिवार में होता है या अपने खेल के समूह में होता है अथवा अन्य किसी समूह में होता है , उस समय दूसरे लोग उसके सम्बन्ध में क्या बोलते हैं और किस प्रकार की मुखात्मक और शारीरिक अभिव्यक्ति करते हैं – इस सबसे एक बालक सरलता से यह जान सकता है कि लोग उससे और उसकी वाणी से कितना प्रभावित हुए हैं । इन परिस्थितियों में वह अपना आत्म – मूल्यांकन दूसरों द्वारा बोले गए शब्दों और शब्द बोलते समय मुखात्मक अभिव्यक्ति के आधार पर करता है ।
( 3 ) सामाजिक मूल्यांकन में महत्त्व ( Importance in Social Evaluation ) – जिस प्रकार सामाजिक परिस्थितियों में बालक दूसरों की वाणी सुनकर अपना आत्म – मूल्यांकन करता है , ठीक उसी प्रकार सामाजिक परिस्थितियों में एक बालक क्या बोलता है या क्या उसकी वाणी सम्बन्धित अभिव्यक्ति है , इस आधार पर इस बालक का मूल्यांकन समाज के अन्य व्यक्ति करते हैं । समाज के लोग उसकी वाणी द्वारा ही उसकी व्यक्तिगत विशेषताओं , उसकी शिक्षा को , उसके स्तर को तथा उसकी यौन उपयुक्तता , आदि को पहचानते हैं । समाज के लोग बालक की वाणी के आधार पर ही यह पहचान लेते हैं कि बालक का चिन्तन किस प्रकार का है , वह अपने बारे में क्या सोचता है ।
शैक्षिक उपलब्धि में महत्त्व ( Importance in Academic Achievement ) – बालक क्या बोलता है और क्या लिखता है ? इसका प्रत्यक्ष सम्बन्ध उसकी शैक्षिक उपलब्धि से होता है । अध्ययनों में देखा गया है कि जिन बच्चों की शैक्षिक उपलब्धि सामान्य से कम होती है , बहुधा उनकी वाणी और उनका लेखन सामान्य से कम या हीन होता है । अत : यदि बालक की वाणी और लिखावट सामान्य से कम है , तो निश्चित रूप से उसे उसकी बौद्धिक क्षमताओं से भी कम अंक प्राप्त होंगे या उसकी शैक्षिक उपलब्धि कम रहेगी ।
गैरीसन ( K.C.Garrison , 1959 ) ने इस सम्बन्ध में लिखा है कि , ” एक बालक कितने शब्द जानता है यह इस बात का निर्धारण करता है कि वह बालक विद्यालय में , किस प्रकार की प्रगति करेगा या विद्यालय में सामान्य प्रगति से भी असफल रहेगा । ” ” The mumber of words a child knows determines in large measure his school progress , and failure to progress normally has far – reaching significance .
शब्द वह साधन हैं जिनके द्वारा बालक अपने संसार को समझ सकता है । यदि बालक को शब्दों का सीमित ज्ञान है तो वह वातावरण को ठीक से नहीं समझ सकता है । आकाशवाणी , टेलीविजन तथा अन्य मीडिया साधनों के युग में बालक के लिए आवश्यक है कि वह अधिक शब्द जाने और उनका प्रयोग करे ।
भाषा विकास के सिद्धान्त( Theories of Language Development )
प्रारम्भ से ही मनोवैज्ञानिकों की भाषा के विकास और भाषा के कार्यों के अध्ययन में रुचि रही है । इनमें से कुछ मनोवैज्ञानिकों ने अपने द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों के आधार पर यह व्याख्या करने का प्रयास किया है कि बच्चे बोलने की योग्यता किस प्रकार अर्जित करते हैं , परन्तु इस दिशा में जितने भी सिद्धान्त प्रतिपादित किये गये , इनमें से कोई भी सिद्धान्त सन्तोषजनक नहीं है ।
कुछ महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त निम्न प्रकार हैं
1.स्वर यन्त्र की परिपक्वता ( Maturation of Larynx ) मनोवैज्ञानिकों का मत है कि भाषा : विकास शरीर के किसी एक अंग की परिपक्वता पर निर्भर नहीं है बल्कि स्वर यन्त्र , जीभ , गला और फेफड़ा , आदि सभी की परिपक्वता पर भाषा का विकास निर्भर करता है । ये सभी अंग जब तक एक विशेष परिपक्वता स्तर पर नहीं पहुँचते हैं तब तक भाषा का सामान्य विकास सम्भव नहीं है । भाषा का विकास उपयुक्त अंगों के अतिरिक्त मस्तिष्क में वाणी केन्द्र ( Speech Centre ) , होंठ , दाँत , तालू और नाक के विकास पर भी निर्भर करता है । परन्तु ये सभी शारीरिक अंग या अवयव एक साथ परिपक्व नहीं हो पाते हैं । समुचित भाषा के लिए यह आवश्यक है कि सभी अंग या अवयव पूर्ण रूप से परिपक्व हों । सभी सांस्कृतिक एवं सामाजिक वातावरणों से सम्बन्धित बच्चों में भाषा से सम्बन्धित शारीरिक अवयवों की परिपक्वता की प्रक्रिया में सार्वभौमिकता पायी जाती है । जब एक बार बालक भाषा से सम्बन्धित परिपक्वता प्राप्त कर लेता है तो वह अपनी संस्कृति एवं वातावरण के अनुसार स्पष्ट भाषा का उच्चारण करने में सक्षम होता है । अंगों की परिपक्वता के अतिरिक्त वातावरण सम्बन्धी कारक भी भाषा के विकास को प्रभावित करते हैं । भाषा के विकास में वातावरण सम्बन्धी कारकों में अनुकरण के अवसर एक महत्त्वपूर्ण कारक हैं ।
2. Gerardt afechtur ( The Behaviourist Perspective ) अधिगम सिद्धान्तवादियों ने बालक में भाषा के विकास को उद्दीपक – अनुक्रिया ( S – R ) के बीच स्थापित साहचर्य के आधार पर समझाया है । इन सिद्धान्तवादियों ने पुरस्कार और पुनर्बलन जैसे नियमों के आधार पर भी भाषा के विकास को समझाया है । इस दिशा में स्किनर ( B.E.Skinner , 1957 ) का प्रयास अति सराहनीय है । स्किनर ने पुनर्बलन ( Reinforcement ) के आधार पर भाषा के विकास को समझाया । स्किनर का विचार है कि अन्य व्यवहार प्रकार्यों की भाँति भाषा का विकास भी ‘ आपरेण्ट अनुबन्धन ‘ ( Operant Condition ing ) पर निर्भर करता है । इस सिद्धान्त के अनुसार , बालक द्वारा भाषा का अर्जित करना ध्वनि और । वनि – संयोजन ( Sound Combination ) के चयनात्मक पुनर्बलन ( Selective Reinforcement ) पर निर्भर करता है । स्किनर का विचार है कि बच्चे स्वतः , अनायास या अनुकरण के आधार पर बोलते हैं । बालक के चारों ओर के वातावरण में उपस्थित उसके निकट सम्बन्धी व्यक्ति बालक द्वारा बोली गई कुछ ध्वनियों का पुनर्बलन ( पुरस्कृत ) करते हैं ; उदाहरण के लिए , बच्चा जब कुछ ध्वनियों को ‘ बाबा ‘ , ‘ पापा ‘ या ‘ दादा ‘ , आदि बोलना प्रारम्भ करता है तो बालक के परिवार के व्यक्ति बालक द्वारा बोली गई इन ध्वनियों को अपने अधिक ध्यान या प्रशंसा द्वारा पुरस्कृत या पुनर्बलन करते हैं । फलस्वरूप बालक इन ध्वनियों को जल्दी सीख लेता है ।
उहीपक – अनुक्रिया के बीच स्थापित साहचर्य के आधार पर भी बालक शब्दों का अधिगम करता है । उदाहरण के लिए , यदि बच्चे के सामने गेंद रखकर या दिखाकर बार – बार गेंद शब्द बोला जाये तो वह गेंद वस्तु ( उद्दीपक ) और उसके अर्थ दोनों से इतना परिचित हो सकता है कि जब बच्चे के सामने ‘ गैद ‘ शब्द बोला जायेगा तो उसके मस्तिष्क में गेंद की प्रतिमा अंकित हो जाएगी । बच्चा गेंद शब्द के अर्थ को समझ जायेगा । उद्दीपक ( गेंद वस्तु ) और अनुक्रिया ( गेंद शब्द ) के बीच स्थापित साहचर्य की यह प्रणात अनुबन्धन ( Conditioning ) कहलाती है । अनुबन्धन और स्किनर द्वारा वर्णित आपरेण्ट अनुबन्धन के विवरण को यदि देखा जाये तो कहा जा सकता है कि बालक का शब्दों को सीखना आपरेण्ट अनुबन्धन से अधिक सम्बन्धित है ।
3.कोमास्की का मनोभाषिक सिद्धान्त ( Psycholinguistic Theory of Chomsky )
मनोभाषिक सिद्धान्त का प्रतिपादन कोमास्की ( N. Chomsky , 1959 ) ने किया था । कुछ लेखकों के जानबूझ कर छात्रों को गुमराह करने के उद्देश्य से या अज्ञानतावश कोमास्की द्वारा इस सिद्धान्त के प्रतिपादन का वर्ष 1968 तथा 1980 बताया है , जो पूर्णत : गलत है । इस सिद्धान्त के अनुसार कोमास्की ( 1959 ) ने बालक में भाषा विकास के सम्बन्ध में लिखा है कि , ” मनोभाषिक सिद्धान्त के अनुसार भाषा प्राप्ति का कार्य या भाषा विकास वातावरण के प्रभावों ( जैसे – माता – पिता की वाणी तथा पुनर्बलन ) और भाषा अर्जित करने की जन्मजात प्रवृत्ति की अन्तःक्रिया द्वारा होता है । ” ” According to psycholinguistic theory language acquisition involves an interaction benveen environmental influences ( like parental speech and reinforcement ) and inborn ten dency to acquire language . ‘ -N.Chomsky.1959 ,
कोमास्की का यह भी मानना है कि LAD तंत्रिका तंत्र से इस प्रकार सम्बन्धित होता है कि बालक को व्याकरण के नियमों को समझने में आसानी होती है । अत : इस सिद्धान्त के अनुसार बच्चे शब्दों की एक निश्चित संख्या ( Linguistic data ) से अपनी जन्मजात प्रवृत्ति ( LAD ) की सहायता प्राप्त करते हुए कुछ व्याकरण सम्बन्धी नियमों का अनुसरण करके ( Processing ) अनेक वाक्यों अथवा शब्दों के अर्थ को समझ तथा उसका निर्माण ( output ) कर सकते हैं । कोमास्की का कहना है कि प्रत्येक बालक में जन्मजात प्रवृत्ति Built – in – System होता है जिसे भाषा अर्जन तन्त्र ( Language Acquisition Device – LAD ) कहते हैं । LAD Linguistic Data ( Processing ) → The ability to understand and ( Input ) produce sentences ( Output ) कोमास्की का यह भी मानना है कि शब्द समूहों ( Linguistic data ) को अलग – अलग क्रम में व्यवस्थित करने और वाक्य निर्माण में व्याकरण सम्बन्धी नियमों का पालन करने की योग्यता व कुशलता बालकों में छोटी आयु से ही विकसित होना प्रारम्भ हो जाता है । इस सिद्धान्त के अनुसार भाषा अथवा शब्दों के अर्थ का सीखना वातावरण के प्रभावों ( जैसे – माता – पिता , परिवारीजन या अन्य लोगों की वाणी तथा पुनर्बलन ) पर आधारित होता है ।
4. सामाजिक अधिगम सिद्धान्त ( Social Learning Theory ) इस सिद्धान्त के प्रतिपादकों में बन्दुरा ( A. Bandura , 1967 ) का नाम प्रमुख है । इस सिद्धान्त के स्कीनर , कोमास्को , पियाजे , चूनर नया भाषा को कैसे सीखते हैं । 113 समयकाकाकहना है कि.बालक भागाकेशबन्धजोकभीसीखता है.यह मोडलकव्यवहारके हो का नीम और अनुकरण पर आधारित होता है । इस प्रकार का सीखना पुनर्बलन ( पुरस्कार ) के साथ भी हो सकता है और पुनर्वसन को अनुपस्थिति में भी हो सकता है । इन सिद्धान्तवादियों का काना है कि बिना किणी माडल के बच्चे शब्दों और भाषा की संरचना को नहीं सीख सकते हैं । बालक जिस वातावरण में रहता है । सदी रहने वाले अन्य व्यक्ति को भाषा और शब्द बोलते हैं , वह बच्या सुनता रहता है । कई बार में शब्दों का कुन्त अनुकरण नहीं कर पाते हैं । फिर भी वे शब्दों और भाषा के बारे में कुछ सूचना अवश्य ग्रहण करते हैं । उपर्युक्र चित्र में वर्णित सिस्टम कोई शरीर का ग ( Organ ) नहीं है बल्कि एक माहूरा ( Analogy है । चार में अर्णित मॉडल के अनुसार मालक जो कुछ भी सुचता है , उस LAD हात समझता है तथा उसे चुनोत्तादित कर सकता है तथा नश शब्द भी बोल सकता है ।
5 भाषा का स्नायुविक आधार ( Neural Bases of Manpage ) भाषा का प्रारम्भिक विकास और अधिगम Netamuscular सिस्टम के परिधानों और परिपक्वता पर अपरित है । इस क्षेत्र में जो शोध कार्य हुए हैं , उनसे यह स्पष्ट हुआ है कि भाषा का अधिगम स्नायुधिक मनाने के प्रकार्यों पर निर्भर करता है । मस्तिष्क के दो भाग iemispheres ) होते हैं । भाशा का सम्बन्ध मस्तिष्क के बाएँ भाग से होता है । अध्ययनों में यह भी देखा गया है कि जिन बच्चों का माया हंगिस्फेयर जन्म के समय कुछ क्षतिग्रस्त हो जाता है , उन बच्चों में दानी हमिकेवर भाषा के विकास के लिए उसमदायी होता है । परन्तु दो – तीन साल के बच्चों का यदि भयो हेमिस्फेयर क्षतिग्रस्त हो जाता है तो निश्चय हो वह भाषा विकास में अन्य बच्चों की अपेक्षा पीछे रह जाते हैं । भाण का सम्बन्ध का और रिकोर क्षेत्रों से है । ये दोनों ही क्षेत्र मस्तिष्क के बारे मिरफेयर में पाये जाते हैं । इन क्षेत्रों के कार्यों और महत्व को समझाते हुए मूसेन और उनके साथियों ( IH . Mussen . J.J. Conger RL Kigan , 1974 ) ने लिखा है कि , ” मोका क्षेत्र ( मस्तिष्क के गाई भाग के अय क्षेत्र के आन्तरिक भाषा क्षेत्र ) के प्रतियरस होने से गत्यात्मक वाक्य शकिा में कठिनाई हो जाती है । इसी प्रकार बोका के बारा क्षेत्र के क्षतिग्रस्त होने से भाषा के विस्तार में कतिनाई पन हो जाती है । ” ” Domage to Broca’s Area , the www speech of the fronolohe of the leti howisplene , rawaliw indiyflentines in motor such thar to invocalisarian and awticularkon , Oracion or damage in the posterior par of the peach area of the hewhere called Mermicker leads to disturbance in the comprehension of speech
पियाजे एवं वाइगोत्सकी ( Piaget & Vygotsky )
पियाजे ( Piaget ) .
पियाजे एक स्विस मनोवैज्ञानिक थे । इनका पूरा नाम जान पियाजे ( Jean Piagety था । इन्होंने मानव के मानसिक विकास की व्याख्या जसके संज्ञानात्मक विकास के आधार पर की है । उन्होंने व्यक्ति के सजनात्मक विकास को सम्प्रत्यय निर्माग के रूपों में अभिव्यक्त किया है । संज्ञानात्मक विकास का काल पियाजे ने संज्ञानात्मक विकास को चार कालों में बाँरा है
1. संवेदी पेशीय अवस्था ( Sersary Molor Stage )
2. प्राक् संनियात्मक अवस्था ( Pre – coperational stage ) “
3. मूर्त – संक्रिया की अवस्था ( Stage of concrete operation )
4. औपचारिक संक्रिय अवस्था ( Stage of Formaloperation ) )
संज्ञानात्मक विकास की अवस्थाएँ ( Stage of Cognitiive Development )
(1) संवेदी पेशीय अवस्था या इन्द्रिय गतिक अवस्था ( Sensori Motor Stage ) :
यह संज्ञानात्मक विकास की प्रथम अवस्था होती है। यह अवस्था जन्म से लेकर 2 वर्ष की अवस्था तक चलती है । जन्म के समय बालक केवल सरल क्रियाएं ही करता है । बच्चा इस अवस्था में ज्ञानेन्दियो की सहायता से वस्तुओ, ध्वनियों , रसों व गंध आदि का अनुभव करता है । इस सरल क्रियाओ को ही पियाजे सहज स्कीमा कहते है । इन्ही अनुभूतियों की पुनरावृति के कारण बच्चा संज्ञानात्मक आत्म सात् न व समंजन की प्रक्रियाएं शुरू करता है । जब उसे परिवेश में उपस्थित उददीपकों को पाता चलता है , तो बच्चा अपनी इन्द्रियों द्वारा इनका प्राथमिक अनुभव करता है । पियाजे ने अपनी इस अवस्था को छः उप – अवस्थाओ में विभाजित करता है ।
(2) पूर्व – संक्रिय अवस्था ( Pre Operation Stage ):
पियाजे के संज्ञानात्मक विकास की द्वितीय अवस्था पूर्व – संक्रिय अवस्था है, जिसे वह बच्चे की 2 वर्ष से 7 वर्ष की अवस्था तक मानता है । इस अवस्था को वह 2 उप – अवस्थाओं में विभाजित करता है । इस अवस्था में बच्चे में निम्न प्रकार की विशेषताएं पाई जाती हैं :
(a) बच्चा आने आस – पास की वस्तुओं और प्राणियों व शब्दों में संबंध स्थापित करना सीख जाते हैं ।(b) बच्चे प्रायः खेल व अनुकरण द्वारा सीखते है ।(C) पियाजे कहते हैं कि इस अवस्था में 4 वर्ष तक के (e) बच्चे निर्जीव क्स्तुओं को सजीव वस्तुओँ के रूप में समझते हैं।(e) बच्चे आने विचार को सही मानते है ।बच्चे समझते हैँ कि सारी दुनिया उन्हीं के इर्द र्गिद है । इसे पियाजे के आत्मकेनिद्रकता ( Ego centerism ) का नाम दिया है ।(f) बच्चे भाषा सीखने लगते हैं ।(g) बच्चे चिन्तान करना भी शुरू कर देते हैं ।(h) छः वर्ष तक आते – आते बच्चा मूति – प्रत्ययों के साथ अमूर्त प्रत्ययों का भी निर्माण करने लगते हैं ।(i) वे रटना शुरू करते है । अर्थात् वे ग्टकर सीखते हैं न कि समझकार ।(j) बच्चा स्वार्थी नहीं होता है ( इस अवस्था में )(k) धीरे – धीरे वह प्रतीकों को ग्रहण करना सीखता है ।(I) इस अक्स्था में बालक कार्य और कारण के संबंध से अनजान होते हैं ।(m) मानासिक रूप से अभी अपरिपक्व होने के कारण वे समस्या – समाधन के दौरान समस्या के केवल एक ही पक्ष को जान पाते हैं ।
(3) मूर्तसंक्रिया अक्स्था ( Concerte Operation Stage )
इस अवस्था की विशेषताओं का वर्णन पियाजे के अनुसार निम्न प्रकार से किया गया है ।
(a) यह अवस्था 7 वर्ष से 11 वर्ष की अवस्था तक चलती है अथवा मानी जाती है ।(b)अधिक व्यवहारिक व यथार्थवादी होते हैं । ( इस अवस्था में बालक )(c) र्तकशक्ति की क्षमता का विकास होना प्रारभ हो जाता है ।(d) अमूति समस्याओं का समाधान वे अभी भी ढूंढ़ पाते हैँ ।(e) इस अवस्था में बच्चे क्स्तुओं को उनके गुणों के आधार पर पहचाना शुरू कर देते हैं ।(f) चिन्तन में क्रमबद्धता का अभाव अभी भी होता हैं ।(g) इस अवस्था में बालकों में कुछ क्षमताएं विकासित हो जाती हैं। जैसे – कंजर्वेशन अर्थात् जब कोई ज्ञान जो पदार्थ रूप मे बदल जाने के बाद भी मात्रा संख्या, भार और आयतन की द्वाष्टि से समान रह जाता है, उसे कंजर्वेशन कहते हैं ।(h) संख्या बोध अर्थात् गणित को जानना व वस्तुओं को निनना शुरू कर देते हैं ।(¡) इसके अलावा क्रमानुसार व्यवस्था , वर्गीकसण करना और पारस्परिक संबंधों आदि को जानने लगते हैं ।
(4) औपचारिक संक्रिया की आस्था ( Stage of Formal Operational ) :
पियाजे के अनुसार, संज्ञानात्मक विकास की चतुर्थ व आन्तिम अक्स्था की विशेषताएं निम्न प्रकार है :
(a) बच्चा विसंगतियों को समझने की क्षमता रखता है ।(b) बच्चे में वास्तविक अनुभवो को काल्पनिक रूप या परिस्थतियों में प्रक्षेपित करने की क्षमता आ जाती है ।(c) बच्चा घटनाओं की परिकल्पाएं बनाने लगता है और इन्हें सत्यापित करने का भी प्रयास करता है ।(d) बच्चा इस अवस्था में विचारोँ को संगठित करना और वगीकृत करना सीख जाता है ।(e) बच्चे प्रतीको का अर्थ भी समझना शुरू कर देते हैं ।(f) यह अवस्था 12 वर्ष से वयस्क होने तक चलती है ।(g) यह अवस्था संज्ञानात्मक विकास की आन्तमि अवस्था होती है ।(h) आयु बढ़ने के साथ – साथ बच्चों के अनुभव बढ़ने से (i) उनमें समस्या के समाधान की क्षमता भी विकसित होती हैँ ।(j) उनके चिन्तन में क्रमबद्धता आने लगती है ।इस अवस्था में बच्चे का मस्तिष्क परिपक्व होने लगता है ।
वाइगोस्तकी : संज्ञानात्मक विकास उपागम ( Lev Vyentsky’s Zone of Proximal Development )
लिव सिमनोविच वाइगोत्सकी ( Lev Vygotsky , 1896-1934 ) का सामाजिक दृष्टिकोण संज्ञानात्मक विकास का एक प्रगतिशील विश्लेषण प्रस्तुत करता है । वस्तुत : रूसी मनोवैज्ञानिक वाइगोत्सकी ने बालक के संज्ञानात्मक विकास में समाज एवं उसके सांस्कृतिक सम्बन्धों के बीच संवाद को एक महत्त्वपूर्ण आयाम घोषित किया । पियाजे की तरह वाइगोत्सकी ( 1896-1934 ) भी यह मानते थे कि बच्चे ज्ञान का निर्माण करते हैं । किन्तु इनके अनुसार संज्ञानात्मक विकास एकाकी नहीं हो सकता , यह भाषा विकास , सामाजिक विकास , यहाँ तक कि शारीरिक विकास के साथ – साथ सामाजिक – सांस्कृतिक सन्दर्भ में होता है । वाइगोत्सकी के अनुसार , बच्चे के संज्ञानात्मक विकास को समझने के लिए एक विकासात्मक उपागम की आवश्यकता है जो कि इसका शुरू से परीक्षण करे तथा विभिन्न रूपों में हुए परिवर्तन को ठीक से पहचान पाए । इस प्रकार एक विशिष्ट मानसिक कार्य ; जैसे – आत्म – भाषा ( inner speech ) को विकासात्मक प्रक्रियाओं के रूप में मूल्यांकित किया जाए न कि एकाकी रूप से । वाइगोत्सकी के अनुसार , यह आवश्यक है कि संज्ञानात्मक विकास को समझने के लिए उन औजारों का परीक्षण ( जो कि संज्ञानात्मक विकास में मध्यस्थता करते हैं तथा उसे रूप प्रदान करते हैं ) अति आवश्यक है । इसी के आधार पर वह यह भी मानते हैं कि भाषा संज्ञानात्मक विकास का महत्त्वपूर्ण औजार है । इनके अनुसार आरम्भिक बाल्यकाल में ही बच्चा अपने कार्यों के नियोजन एवं समस्या समाधान में भाषा का औजार की तरह उपयोग करने लग जाता है । इसके अतिरिक्त वाइगोत्सकी का यह भी मानना है कि संज्ञानात्मक कौशल आवश्यक रूप से सामाजिक एवं संस्कृति सम्बन्धों में बुने होते हैं । वाइगोत्सकी के अनुसार , जैविक कारक मानव विकास में बहुत ही कम किन्तु आधारभूत भूमिका निभाते हैं , जबकि सामाजिक कारक उच्चतर संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं ( जैसे – भाषा , स्मृति व अमूर्त चिन्तन )
में लगभग सम्पूर्ण व महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं । पियाजे के सिद्धान्त ( जिसमें जैविकता तथा विकास , अधिगम में अग्रणी भूमिका निभाते हैं ) के विपरीत वाइगोत्सकी के सिद्धान्तानुसार अधिगम व विकास सांस्कृतिक व सामाजिक वातावरण की मध्यस्थता के साथ चलते हैं । सम्भावित विकास का क्षेत्र ( जिसकी चर्चा हम आगे करेंगे ) इस प्रक्रिया को और स्पष्ट करता है । उनका कहना है कि बालक के विकास को सामाजिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों से अलग नहीं किया जा सकता , वह इन गतिविधियों में अन्तर्निहित होता है । वाइगोत्सकी के अनुसार , अधिगम पहले बच्चे तथा वयस्क ( या कोई भी अधिक ज्ञानवान व्यक्ति ) के बीच होता है तथा बाद में इनके अनुसार समृति ध्यान , तर्कशक्ति के विकास में , समाज की खोजों को सीखना ( जैसे – भाषा , गणितीय प्रविधियाँ तथा स्मृति रणनीतियाँ , इत्यादि ) शामिल होता है । मसलन किसी एक संस्कृति में कम्प्यूटर द्वारा गिनना अथवा किसी अन्य में अंगुलियों या मोतियों द्वारा गिनना । अत : इन तरीकों को ही बच्चा सीखता है । वाइगोत्सकी के सिद्धान्त के अनुसार ज्ञान बाह्य वातावरण में स्थित तथा सहयोगी होता है अर्थात् ज्ञान विभिन्न व्यक्तियों एवं वातावरण ( जैसे – वस्तुओं , औजारों , किताबें , मानवीय निर्मितियाँ , इत्यादि ) तथा समुदायों ( जिनमें व्यक्ति रहता है ) में वितरित होता है । यह सिद्धान्त सुझाता है कि दूसरों के साथ अन्त : क्रिया तथा सहयोगात्मक क्रियाओं द्वारा जानने की प्रक्रिया गुणात्मक रूप से श्रेष्ठ होती है । इन दावों के आधार पर वाइगोत्सकी अधिगम तथा विकास के बारे में विशिष्ट तथा प्रभावी विचार प्रकट करते हैं । अत : वे इस बात पर जोर देते हैं कि संज्ञानात्मक विकास की प्रकृति वस्तुतः सामाजिक है न कि संज्ञानात्मक , जैसा कि पियाजे का मानना है । इस प्रकार पियाजे का सिद्धान्त निर्मितिवाद है जबकि वाइगोत्सकी का सिद्धान्त सामाजिक निर्मितिवाद है । वाइगोत्सकी के इन शब्दों से यह और भी अधिक स्पष्ट होता है- ” हमारे स्वयं का विकास दूसरों के द्वारा होता है । ” अत : वाइगोत्सकी के अनुसार , सभी मानसिक या बौद्धिक क्रियाएँ पहले बाहरी समाज की दुनिया में घटित होती हैं तथा अन्त : क्रियाओं द्वारा बच्चे अपने समुदाय की संस्कृति ( सोचने और व्यवहार करने के तरीके ) को सीखते हैं और इसी के चलते वाइगोत्सकी ने सामाजिक वातावरण के विभिन्न पक्षों ; जैसे – परिवार , समुदाय , मित्र तथा विद्यालय की बच्चों के विकास में भूमिका पर बल दिया । Freetfaa fact CAT TET ( Zone of Proximal Development , ZPD ) वाइगोत्सकी द्वारा प्रयुक्त यह संप्रत्यय उस अन्तर को परिभाषित करता है जो कि बच्चे के द्वारा बिना किसी सहायता के किये गये निष्पादन तथा किसी वयस्क या अधिक कुशल साथी की मदद से किये गये निष्पादन में होता है । दूसरे शब्दों में , बच्चा जो कर रहा है तथा जो करने की क्षमता रखता है , के बीच के क्षेत्र को ZPD कहा जाता है । वाइगोत्सकी ने सामाजिक प्रभाव , मुख्यत : निर्देशन ( बच्चे के संज्ञानात्मक विकास में योगदान ) को दर्शाने हेतु ZPD के संप्रत्यय का प्रयोग किया । बच्चे का ZPD आँकने हेतु ( उदाहरण के लिए ) बुद्धि परीक्षण में 2 बच्चों की मानसिक आयु 8 वर्ष आँकी गई । इसके पश्चात् यह देखने का प्रयोग किया गया कि बच्चे किस स्तर तक अपने से उम्र में बड़े बच्चों के लिए तैयार की गई समस्याओं पर कार्य कर सकते हैं । इसके लिए बच्चों की करके दिखाना विधि , समस्या समाधान विधि , प्रश्न विधि तथा समाधान के शुरुआती चरण का प्रारम्भ करना , आदि के साथ मदद की गई । इस प्रयोग में देखा गया कि वयस्क की मदद एवं साथ से एक बच्चा 12 वर्षीय बच्चे के लिए बनाई गई समस्या भी हल कर पाया तथा दूसरा बच्चा 9 वर्षीय बच्चे के लिए बनाई गई समस्या को हल कर पाने में सफल रहा ।ढाँचा निर्माण ( Scaffolding ) . टाँचा निर्माण , विकास के सम्भावित क्षेत्रों से सम्बन्धित संप्रत्यय है । ढाँचा निर्माण एक तकनीक है जो सहायता के स्तर में परिवर्तन करती है । शिक्षण करते समय या सहयोगी अधिगम में शिक्षक या अधिक कौशल वाले सहयोगी को अधिगमकर्ता के समसामयिक निष्पादन के अनुसार अपने परामर्श को समायोजित करना पड़ता है । जैसे कि यदि कोई नयी तरह की समस्या है तो अधिक निर्देशन देने पड़ते हैं , परन्तु जैसे – जैसे छात्रों की क्षमता व कार्य – अभ्यास बढ़ता जाता है , निर्देशनों की संख्या कम होती जाती है । वाइगोत्सकी के अनुसार , संवाद , ढाँचा निर्माण का महत्त्वपूर्ण औजार है । बच्चों के पास अव्यवस्थित तथा असंगठित संप्रगत्यय होते हैं जबकि कुशल सहायक के पास क्रमबद्ध तार्किक एवं बुद्धि संगत विचार होते हैं । बच्चे तथा कुशल सहायक के बीच संवाद के परिणामस्वरूप बच्चे के विचार ज्यादा क्रमबद्ध संगठित , तर्कसंगत एवं औचित्यपूर्ण हो जाते हैं । भाषा और विचार ( Language and Ideas ) वाइगोत्सकी के अनुसार , बच्चे भाषा का प्रयोग न केवल सामाजिक सम्प्रेषण अपितु स्वनिर्देशित तरीके से कार्य करने के लिए , अपने व्यवहार हेतु योजना बनाने , निर्देश देने व मूल्यांकित करने में भी करते हैं । स्व – निर्देशन में भाषा के प्रयोग को आन्तरिक स्व गाषा या निजी भाषा कहा जाता है । पियाजे ने निजी भाषा को आत्म – केन्द्रित तथा अपरिपक्व माना है , परन्तु वाइगोत्सकी के अनुसार आरम्भिक बाल्यावस्था में यह बालक के विचारों का एक महत्त्वपूर्ण साधन है । वाइगोत्सकी के अधिगम की विशेषताएँ ( Characteristics of Learning theory of Vygotsky ) ये निम्न प्रकार हैं 1. अधिगम में प्रमुखतः सांस्कृतिक संगठन , सामाजिक संख्याएँ , विद्यालय तथा संस्कृति का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है । 2. मानव के व्यवहार परिवर्तन का प्रमुख आधार संस्कृति , सामाजिक तथा ऐतिहासिक परम्पराएँ होती हैं जो व्यक्ति को प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से अधिगम हेतु प्रेरित करती हैं । 3. अधिगम एक सार्वभौमिक क्रिया है जो निरन्तरता की स्थिति में पायी जाती है अतएव वह प्रक्रिया सतत रूप से चलती रहती है । 4. व्यक्ति अपने व्यावहारिक विकास के उपाय तथा साधनों में बदलाव करता हुआ विशिष्ट प्रकार के व्यावहारिक स्वरूप तथा विकास प्रक्रिया का निर्माण करता है 5. अन्त दृष्टि के द्वारा विद्यालय छात्रों को अधिगम प्रक्रिया का एक निर्देशित स्वरूप प्रदान करता है । 6. अधिगम प्रक्रिया का मूल्यांकन व्यक्तिगत विशेषताओं के विश्लेषण की अपेक्षा सामाजिक गत्यात्मकता के विश्लेषण पर आधारित होना चाहिए । 7. यह सिद्धान्त सांस्कृतिक , सामाजिक मनोवैज्ञानिक तथ्यों के समन्वय से अधिगम प्रक्रिया का सम्पन्न होना माना जाता है । 8. अधिगम प्रक्रिया को कुशलतापूर्वक सम्पन्न करने तथा अधिगम की गति में वृद्धि करने के लिए बालकों को क्रियाशीलता की स्थिति में रखना चाहिए । 9. समस्या समाधान की योग्यता ही अधिगम प्रक्रिया का एक महत्त्वपूर्ण भाग है , जिसे प्रत्येक स्थिति में अधिगम के लिए प्राप्त करना होता है ।सीखने की प्रक्रिया विकास पर आधारित होती है परन्तु विकास सौखने की प्रक्रिया पर आधारित नहीं होता है क्योंकि विकास सोखे गये क्षेत्र से अधिक क्षेत्र में भी हो सकता है । 11. अधिगम प्रक्रिया में ZPD का विशेष महत्त्व होता है । 12. जो हम जानते हैं तथा जो हम नहीं जानते हैं उनके मध्य को ही विकास का रिक्त स्थान माना जाता 13. सीखने की प्रक्रिया में अन्त : क्रिया ही एक प्रेरणास्रोत का कार्य करती है । 14. सीखने की प्रक्रिया में दूसरे व्यक्तियों का अनुकरण करना एवं छात्र द्वारा शिक्षक का अनुकरण | करना , आदि । 15. अधिगम प्रक्रिया में सांस्कृतिक संगठनों के उपाय तथा मनोवैज्ञानिक तथ्य उत्तरदायी होता है । ब्रूनर ( Bruner ) ब्रूनर न केवल मनोवैज्ञानिक थे बल्कि एक शिक्षाशास्त्री भी रहे हैं । उन्होंने रचनात्मकता तथा संज्ञानात्मकता के क्षेत्र में अपने सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है ।
ब्रूनर ( Bruner )
ब्रूनर न केवल मनोवैज्ञानिक थे बल्कि एक शिक्षाशास्त्री भी रहे हैं । उन्होंने रचनात्मकता तथा संज्ञानात्मकता के क्षेत्र में अपने सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है ।
ब्रूनर का रचनात्मकता का सिद्धान्त ( Bruner’s Theory of Creative Teaching )
रचनात्मकता शिक्षण की एक ऐसी रणनीति है जिसमें विद्यार्थी के पूर्व ज्ञान आस्थाओं और कौशल का इस्तेमाल किया जाता है । रचनात्मक रणनीति के माध्यम से विद्यार्थी अपने पूर्व ज्ञान और सूचना के आधार पर नई किस्म की समझ विकसित करता है । इस शैली पर काम करने वाला शिक्षक प्रश्न उठाता है और विद्यार्थियों के जवाब तलाशने की प्रक्रिया का निरीक्षण करता है , उन्हें निर्देशित करता है तथा सोचने – समझने के नये तरीकों का सूत्रपात करता है । कच्चे आँकड़ों , प्राथमिक स्रोतों और संवादात्मक सामग्री के साथ काम करते हुए रचनात्मक शैली का शिक्षक छात्रों को कहता है कि वे अपने जुटाये आँकड़ों पर काम करें और खुद की तलाश को निर्देशित करने का काम करें । धीरे – धीरे छात्र यह समझने लगता है कि शिक्षण दरअसल एक ज्ञानात्मक प्रक्रिया है । इस किस्म की शैली हर उम्र के छात्रों के लिए कारगर है , यह वयस्कों पर भी काम करती है ।
परिदृश्य ( Perception ) ब्रूनर के सैद्धान्तिक ढाँचे में एक प्रमुख विचार यह है कि शिक्षण एक ऐसी सक्रिय प्रक्रिया है जिसमें | सीखने वाला अपने पूर्व व वर्तमान ज्ञान के आधार पर नये विचार या अवधारणाओं को रचता है । सीखने वाला सूचाओं को चुनकर उनका रूपान्तरण करता है , प्रस्थापनाएँ बनाता है , निणर्य लेता है और ऐसा करते समय वह एक ज्ञानात्मक ढाँचे पर भरोसा करता है । ज्ञानात्मक संरचनाएँ ( योजना , मानसिक प्रारूप ) अनुभवों को संगठित कर सार्थक बनाती है और व्यक्ति को उपलब्ध सूचनाओं के पार जाने का मौका देती हैं । जहाँ तक निर्देशों का सवाल है , तो निर्देशक को छात्रों को सिद्धान्तों की खुद खोज करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए । निर्देशक और छात्र को सनिश संवाद की स्थिति में होना चाहिए । ( सुकरात का सिद्धान्त ) निर्देशक का काम शिक्षण सम्बन्धी सूचना को छात्र की समझदारी के मुताबिक रूपान्तरिक करना होता है । पाठ्यक्रम को कुण्डलाकार तरीके से विकसित किया जाना चाहिए ताकि पढ़ने वाला अपने पूर्व ज्ञान के आधार पर लगातार और ज्यादा सीखता रहे । ब्रूनर ( 1966 ) का कहना है कि निर्देशन के सिद्धान्त को चार प्रमुख पक्षों पर केन्द्रित होना चाहिए-
1.सीखने की ओर झुकाव । 2. किसी भी ज्ञान की इकाई को किस तरीके से पुनसंरचित किया जाए जिससे कि सीखने वाला उसे सबसे आसानी से आत्मसात् कर सके । 3. शिक्षण सामग्री को प्रस्तुत करने का सबसे प्रभावी क्रम । 4. पुरस्कार और दण्ड का स्वरूप ।
ज्ञान की पुनर्सरचना ऐसे तरीके से की जानी चाहिए जिससे नई प्रस्थापनाएँ आसान बन सके और सूचना को आसानी से परोसा जा सके । हाल ही में ब्रूनर ने ( 1986 , 1990 , 1996 ) अपने सैद्धान्तिक ढाँचों को विस्तार देते हुए शिक्षण के सामाजिक व सांस्कृतिक पहलुओं समेत कानूनी कार्रवाइयों को भी इसमें समाहित किया है ।
सम्भावना / प्रयोग ( Experiment )
‘ ब्रूनर का रचनात्मकता का सिद्धान्त , ज्ञान के अध्ययन पर आधारित शिक्षण दिशा – निर्देशों के लिए एक सामान्य ढाँचे का कार्य करता है । सिद्धान्त के अधिकांश प्रयास बाल विकास शोध ( खासकर पियाजे ) से जाकर जुड़ता है । ब्रूनर ( 1960 ) के सिद्धान्त में जिन विचारों को रेखांकित किया गया है , वे विज्ञान और गणित शिक्षण पर केन्द्रित एक सम्मेलन से निकले थे बूनर ने अपना सिद्धान्त छोटे बच्चों के लिए गणित और सामाजिक विज्ञान कार्यक्रमों के सन्दर्भ में प्रतिपादित किया था ।
तर्क प्रक्रिया के लिए एक ढाँचे के विकास को ब्रूनर , गुडनाउ और ऑस्टिन ( 1951 ) के काम में विस्तार से वर्णित किया गया है । बनर ( 1983 ) बच्चों में भाषा शिक्षण पर जोर देते हैं । यह ध्यान देने योग्य बात है कि रचनात्मकता का सिद्धान्त दर्शन और विज्ञान में एक व्यापक अवधारणात्मक संरचना है और ब्रूनर का सिद्धान्त इसके सिर्फ एक विशिष्ट परिप्रेक्ष्य को ही सामने लाता है । उदाहरण – यह उदाहरण ब्रूनर ( 1973 ) से लिया गया है ” अभाज्य अंकों के ज्ञान को एक बच्चा ज्यादा आसानी से आत्मसात् कर लेता है जब वह रचनात्मक तरीके से यह सीखता है कि सम्पूर्ण पंक्तियों के भरे होने पर कुछ फलियों को उसमें नहीं डाला जा सकता । ऐसी फलियों की संख्या को या तो एक फाइल या अपूर्ण पंक्तियों में डाला जा सकता है जहाँ हमेशा पूरी पंक्ति को भरने में एक अतिरिक्त या एक कम फली रह जाती है । तब जाकर बच्चा समझता है कि इन्हीं पंक्तियों को अभाज्य कहते हैं । यहाँ से बच्चे के लिए एक से अधिक टेबल पर जाना आसान हो जाता है , जहाँ वह अभाज्य संख्याओं में घटक निकालने , गुणनफल , आदि को साफ – साफ देख सकता है । “
सिद्धान्त ( Principles )
1. दिशा – निर्देश अनुभवों और उन सन्दर्भो से जुड़े होने चाहिए जिससे बच्चा सीखने को तत्पर हो सके । 2. दिशा – निर्देश संरचित होने चाहिए ताकि ये बच्चों को आसानी से समझ में आ सकें । ( कुण्डलाकार ढाँचा ) 3. दिशा – निर्देश ऐसे होने चाहिए जिनके आधार पर अनुमान लगाए जा सकें और रिक्त स्थानों को भरा जा सके ( यानी प्रदत्त सूचना का अतिक्रमण सम्भव हो सके ) ।
ब्रूनर का संज्ञानात्मक अधिगम सिद्धान्त ( Brunerian Cognitive Learning Theory )
ब्रूनर के संज्ञानात्मक अधिगम के सिद्धान्त के अनुसार पाठ योजना में सूचना प्रक्रिया एवं मॉडल का तथा समुचित वातावरण को उत्पन्न किया जाता है । अधिगम हेतु ब्रूनर द्वारा विकसित प्रतिमान मॉडल 1956 लेखा – जोखा होता है । इसमें अधिगम की समस्या का समाधान तथा तथ्यों एवं प्रत्ययों को समझने हेतु उद्दीपन में प्रस्तुत किया गया था । इसका प्रयोग पाठ योजना सम्प्रेषण प्रत्यय – निष्पत्ति प्रतिमान सूचना प्रकरण में प्रमुख साधन के रूप में किया जाता है । आगमन तर्क के विकास हेतु यह प्रतिमान विशेष उपयोगी है । ब्रूनर तथा अन्य मनोवैज्ञानिकों ने अपने अनुसाधनों द्वारा यह जानने का प्रयास किया कि मानव अपने प्रयासों की रचना कैसे करता है और उसके अनुसार पर्यावरण में वस्तुओं के परस्पर सम्बन्धों तथा सादृश्य को किस तरह देखता है ।
ब्रूनर ने सीखने के सिद्धान्त के प्रमुख रूप से चार प्रतिमानों के अवयवों का प्रयोग किया है
1. व्यक्तियों , वस्तुओं तथा घटनाओं की पहचान ( Recognition of Persons , things and events ) – इस प्रतिमान का पहला अवयव है , आधार सामग्री को प्रस्तुत कर प्रत्ययों की जानकारी कराने के उद्देश्य से रोचक क्रियाओं के द्वारा वस्तुओं , व्यक्तियों या प्रघटनाओं की पहचान करना । 2. उचित रचना कौशलों का विश्लेषण करना ( Analysis of Proper Creative Skills ) – पाठ योजना में प्रयुक्त इस प्रतिमान का दूसरा अवयव है आधार सामग्री का विशेष अध्ययन करने हेतु प्रयुक्त किये जाने योग्य रचना कौशलों का विश्लेषण करना । 3. प्रत्ययों का विश्लेषण करना ( Analysis of Concepts ) – तीसरा अवयव है , विवरण वार्ता तथा लिखित सामग्री में मिलने वाले प्रत्ययों का विश्लेषण करना । 4. अभ्यास ( Drilling ) – इसका चौथा अवयव अभ्यास हैं । अभ्यास में छात्रों को प्रत्यर्यों की रचना हेतु कहा जाता है । छात्रों को यह अवसर प्रदान किया जाता है कि वे इन प्रत्ययों को परिभाषित तथा परिष्कृत करें ।
ब्रूनर के अधिगम सिद्धान्त की उपयोगिता ( Utility of Learning theory of Bruner )
ये निम्न प्रकार हैं –
1. ब्रूनर ने सम्प्रत्ययों के सीखने को विशेष महत्त्व दिया है । कक्षा कक्ष में शिक्षक को एक कुशल नियन्त्रक की भूमिका निभानी पड़ती है । विषयवस्तु के चुनाव से लेकर उसके प्रस्तुतीकरण तथा विश्लेषण तक शिक्षक को क्रियाशील रहना छात्रों के प्रभावशाली अधिगम हेतु जरूरी है । 2. शिक्षक को आत्मसात्मीकरण हेतु अधिक – से – अधिक उदाहरण देने पड़ते हैं । उदाहरणों का विश्लेषण तथा अवबोध कराना भी जरूरी है । 3. कक्षा – शिक्षण में अनुक्रियात्मक तथा सामाजिक सन्दर्भ का अपना विशेष महत्त्व होता है । छात्र अपने प्रत्ययों तथा व्यूह रचना का विश्लेषण शुरू कर देते हैं । छात्र सबसे आसान तथा प्रभावशाली रचना कौशलों को प्रयुक्त करते हैं जिससे छात्रों को नवीन प्रत्ययों की जानकारी हो सके । 4. पाठ् योजना में ब्रूनर द्वारा निर्मित वे सिद्धान्त प्रतिमान के रूप में अधिग उपयोगी हैं । ब्रूनर महोदय ने अपने कार्यपरक उपागम का निर्माण उपर्युक्त मॉडल के प्रयोग के साथ निम्नांकित सिद्धान्तों को पाठ योजना का प्रमुख बिन्दु माना है ( i ) अभिप्रेरणा ( Motivation ) ( ii ) पुनर्बलन ( Reinforcement )
( iii ) संरचना ( Structure ) ( iv ) अनुक्रम ( Sequence ) ।
संज्ञानात्मक विकास को प्रभावित करने वाले कारक ये निम्न प्रकार हैं–
1. वंशानुक्रम – ब्रूनर के अनुसार बच्चे का संज्ञानात्मक विकास उसके वंशानुक्रम से प्रभावित होता 2. विद्यालय तथा शिक्षक – बालक के संज्ञानात्मक विकास को बालक का विद्यालय तथा शिक्षक भी प्रभावित करता है । 3. समाज – ब्रूनर का मत है कि समाज का वातावरण भी बालक के संज्ञानात्मक विकास पर प्रभाव डालता है । प्रभाव डालता है । 4. मित्र – समूह – ब्रूनर का मत है कि बालक का मित्र – समूह भी उसके संज्ञानात्मक विकास पर मत 5. शारीरिक स्वास्थ्य एवं बुद्धि लब्धि – बूनर का ग्रह है कि बालक के संज्ञानात्मक विकास पर शारीरिक स्वास्थ्य तथा बुद्धि लब्धि का भी प्रभाव पड़ता है । 6. परिवार – ब्रूनर के अनुसार परिवार में निम्न चीजें भी बालक के संज्ञानात्मक विकास पर प्रभाव डालती हैं ( क ) परिवार की आर्थिक स्थिति – परिवार उच्च , मध्य या निम्न आर्थि स्थिति का है । इसका प्रभाव पड़ता है । ( ii ) परिवार की सामाजिक स्थिति – समाज में परिवार की क्या स्थिति है , सामाजिक स्टेटस उसका कैसा है , इस बात का भी बालक के संज्ञानात्मक विकास पर प्रभाव पड़ता है । ( iii ) परिवार की शैक्षिक स्थिति – परिवार शिक्षित है या अशिक्षित है , उसका शिक्षक के प्रति क्या दृष्टिकोण है इस बात का भी बालक के संज्ञानात्मक विकास पर प्रभाव पड़ता है । ( iv ) परिवार के सदस्यों के मध्य सामंजस्य की गुणवत्ता स्तर – परिवार के सदस्यों के आपसी सम्बन्ध कैसे हैं तथा आपसी सामंजस्य की गुणवत्ता का स्तर कैसा है । इस बात का भी बालक की गुणवत्ता स्तर पर प्रभाव पड़ता है । ( v ) परिवार की सांस्कृतिक तथा धार्मिक स्थिति – बालक के संज्ञानात्मक विकास पर परिवार की सांस्कृतिक तथा धार्मिक स्थिति का भी प्रभाव पड़ता है ।
अभ्यास प्रश्न दीर्घ उत्तरीय प्रश्न ( Long Answer Type Questions )
1. पियाजे कौन थे ? उन्होंने संज्ञानात्मक विकास के काल को कितने भागों में बाँटा था उसका वर्णन कीजिए ।
2. पियाजे के नैतिक विकास के सिद्धान्त का विस्तार से वर्णन कीजिए ।
3. वाइगोत्सकी के संज्ञानात्मक विकास उपागम का विस्तार से वर्णन कीजिए ।
4. मनोवैज्ञानिक ब्रूनर के रचनात्मकता के सिद्धान्त का विस्तार से वर्णन कीजिए ।
5. ब्रूनर के संज्ञानात्मक अधिगम सिद्धान्त से आप क्या समझते हैं । इस सिद्धान्त की उपयोगिता बताइये ।
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