UNIT - 2 मानव विकास की समझ ( UNDERSTANDING HUMAN DEVELOPMENT )

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🔴 मानव विकास में प्रमुख अवधारणाएँ : वृद्धि , परिपक्वता एवं विकास की अवधारणा ; वृद्धि रेखा तथा मानव विकास के संदर्भ में इसकी उपयोगिता ;विकास के बुनियादी सिद्धांत




मानव   विकास में  प्रमुख  अवधारणाएँ :-

वृद्धि और विकास का अर्थ तथा परिभाषा 

वृद्धि का अर्थ

वृद्धि का अर्थ आमतौर पर मानव के शरीर के विभिन्न अंगों के विकास तथा उन अंगों की कार्य करने की क्षमता का विकास माना जाता है। व्यक्ति के इन शारीरिक अंगों के विकास के परिणामस्वरूप उसका व्यवहार किसी न किसी रूप से प्रभावित होता है। इस प्रभाव के परिणामस्वरूप ही उस व्यक्ति के अंगों में परिवर्तन होता है। इस तरह वृद्धि से अभिप्राय है शरीर, आकार और भार में वृद्धि। इस प्रकार की वृद्धि में व्यक्ति की माँसपेशियों की वृद्धि भी शामिल है।

वृद्धि की परिभाषा

हरबर्ट सोरेन्सन ने तो शारीरिक वृद्धि को ‘बड़ा और भारी होना बताया है, जो वृद्धि और परिवर्तनों की ओर संकेत करते हैं।

एच.वी. मैरीडिथ के अनुसार, “वृद्धि और विकास का पहला प्रमाण मानव के आकार में परिवर्तनों का आना है। दूसरा प्रमाण संख्या है। दो कोशिकाओं के मिलने से कई कोशिकाओं वाला मानव जन्म लेता है। तीसरा प्रमाण है— मानव की हड्डियों में परिवर्तन होना। चौथा प्रमाण है— हृदय, आंतड़ियों और अन्य अंगों के कोणों और स्थिति में परिवर्तन का होना। पाँचवां प्रमाण है- सापेक्षिक आकार में परिवर्तन, अर्थात् सिर टाँगों की अपेक्षा छोटा हो जाता है।” संक्षेप में वृद्धि और विकास के पाँच प्रमाण हुए- आकार, संख्या, प्रकार, स्थिति तथा सापेक्षिक आकार।

जैसा कि हमें मालूम है कि मानव की वृद्धि निषेचित अंड में विभाजन के परिणामस्वरूप होती है। विभाजित निषेचित अंड ही भ्रूण बनता है तथा उसकी कोशिकाओं में वृद्धि से ही मानव शरीर में वृद्धि होती है। वृद्धि तथा शारीरिक वृद्धि निरन्तर नहीं होती। इसकी गति एक जैसी नहीं होती। वृद्धि की गति में परिवर्तन आते रहते हैं। किसी विशेष समय तक वृद्धि होती रहती है तथा उसके पश्चात् यह रुक जाती है। वृद्धि एक विशेष पद्धति पर तथा आन्तरिक रूप से होती रहती है। शिशुकाल में वृद्धि की गति बहुत तीव्र होती है, लेकिन बाद में यह धीमी हो जाती है। वृद्धि वंशानुक्रम और वातावरण की अन्तःक्रिया से होती है।

फ्रैंक ने वृद्धि को इस प्रकार परिभाषित किया है— “शरीर के किसी विशेष पक्ष में जो परिवर्तन आता है, उसे वृद्धि कहते हैं।”

उपरोक्त विवरण से वृद्धि के अर्थ एवं प्रकृति को निम्नलिखित तथ्य स्पष्ट कर देते हैं

(i) वृद्धि से व्यक्ति बड़ा और भारी होता है।

(ii) वृद्धि को मात्रा के रूप में माना जा सकता है।

(iii) वृद्धि की सामान्य पद्धति होती है, न कि अलग-अलग व्यक्तियों में अलग-अलग।

(iv) वृद्धि निषेचित अंड में विभाजन के परिणामस्वरूप होती है।

(v) वृद्धि निरन्तर नहीं होती।

(vi) वृद्धि की गति एक समान नहीं रहती। इसमें (गति में) परिवर्तन आते रहते हैं।

(vii) वृद्धि एक विशेष समय तक होती रहती है। फिर उसके बाद रुक जाती है।

(viii) वृद्धि आन्तरिक रूप से होती है।

(ix) स्त्रियों में पुरुषों की अपेक्षा वृद्धि तीव्र होती है।

(x) वृद्धि वंशानुक्रम और वातावरण की अन्तःक्रिया से होती है।

(xi) शिशुकाल में वृद्धि तीव्र गति से होती है, लेकिन बाद में धीमी हो जाती है।

(xii) शारीरिक और मानसिक वृद्धि का आपस में गहरा सम्बन्ध होता है।

(xiii) जब कद में वृद्धि होती है, तो भार कम हो जाता है।

(xiv) स्वास्थ्य और भोजन शारीरिक और मानसिक वृद्धि को प्रभावित करते हैं।

(xv) शारीरिक वृद्धि को देखना मानसिक वृद्धि की अपेक्षा सरल होता है।



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विकास का अर्थ –

विकास शब्द उन्नति से सम्बन्धित परिवर्तनों की ओर संकेत करता है और परिपक्वता की ओर अग्रसर करता है। मानव के आकार और उसकी रचना में गुणात्मक और मात्रात्मक परिवर्तनों के कारण उसमें कार्य सम्बन्धी सुधार आ जाते हैं। अतः विकास परिपक्वता की ही एक प्रक्रिया है। अधिकतर शारीरिक विकास शारीरिक वृद्धि पर निर्भर करता है। वृद्धि और विकास के इस बुनियादी सम्बन्ध के कारण वृद्धि और विकास शब्दों को एक-दूसरे के लिए प्रयोग किया जाता है।

जर्सिल्ड, टेलफोर्ड और सॉरी के अनुसार, “विकास शब्द का अर्थ उन जटिल प्रक्रियाओं का समूह है जिनसे निषेचित अंड से एक परिपक्व व्यक्ति का उदय होता है।”

हरलॉक के अनुसार, “विकास परतों में वृद्धि तक ही सीमित नहीं है, बल्कि यह परिपक्वता के लक्ष्य की ओर परिवर्तनों की एक प्रगतिशील श्रृंखला है।”

हरलॉक के अनुसार, विकास के परिणामस्वरूप व्यक्ति में नई विशेषताओं और नई योग्यताओं का उदय होता है।

वृद्धि की भाँति विकास की भी अपनी विशेष प्रकृति होती है। विकास की भी अपनी एक निश्चित पद्धति होती हैं। विकास सदा सामान्य से विशिष्ट दिशा की ओर होता है। वृद्धि की तरह विकास रुकता नहीं। यह जन्म से लेकर मृत्यु तक निरन्तर होता ही रहता है।

वास्तव में ‘विकास’ शब्द का प्रयोग सभी प्रकार के परिवर्तनों के लिए प्रयुक्त होता है, जिससे व्यक्ति की कार्य क्षमता, कार्य-कुशलता और व्यवहार में प्रगति हो। इस दृष्टि से विकास का अर्थ वृद्धि की अपेक्षा व्यापक है। विकास के विस्तृत अर्थ में ही वृद्धि भी शामिल है। विकास गुणात्मक परिवर्तनों की ओर संकेत करता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि विकास व्यक्ति के सम्पूर्ण व्यक्तित्व में आने वाले विभिन्न परिवर्तनों का प्रतिनिधित्व करता है, चाहे वे परिवर्तन सामाजिक, शारीरिक, संवेगात्मक या बौद्धिक हों। सामान्यतः वृद्धि और विकास की प्रक्रियाएँ साथ-साथ ही चलती हैं।

इस प्रकार विकास की प्रकृति निम्न तथ्यों से स्पष्ट हो जाती है

(i) विकास की निश्चित पद्धति होती है।

(ii) विकास सामान्य से विशिष्ट दिशा की ओर होता है।

(iii) विकास रुकता नहीं, निरन्तर चलता रहता है।

(iv) विकास सभी प्रकार के परिवर्तनों का प्रतिनिधित्व करता है।

(v) विकास का अर्थ अधिक व्यापक है।

(vi) विकास और वृद्धि की प्रक्रियाएँ साथ-साथ चलती हैं।

(vii) विकास गुणात्मक परिवर्तनों का संकेतक है।

परिपक्वता:-

परिपक्वता का अर्थ शरीर के स्वाभाविक विकास से है। आयु और  बुद्धि के साथ-साथ बालक के शरीर के अंग-प्रत्यंग का विकास होता जाता है और केवल शारीरिक विकास ही नहीं होता बल्कि मानसिक विकास भी होता है इस स्वाभाविक विकास के परिणाम स्वरूप उसके व्यवहार में भी परिवर्तन होने लगता है। परिपक्वता के द्वारा बालक अपने को कुछ कार्य करने के लिए सक्षम पाता है। प्रारंभ में शिशु केवल लेटा रहता है। उम्र बढ़ने पर वही हाथ-पैर हिलाने, हंसने और चलने लग जाता है। किशोरावस्था समाप्त होते-होते बालक बालिकाओं के अंग विकसित हो जाते हैं। परिपक्वता के कारण ही पुरुषोचित तथा स्त्रीय गुणों का यह विकास सभी किशोर बालक-बालिकाओं में पाया जाता है। परिपक्वता वास्तव में नया ज्ञान और क्रिया को सीखने की तैयारी का सही क्रम है। परिपक्वता की परिभाषा अनेक मनोवैज्ञानिकों ने प्रस्तुत की है।
बालक के विकास में परिपक्वता का महत्वपूर्ण स्थान है। गर्भावस्था से की परिपक्वता का प्रारंभ परिलक्षित होने लगता है। शैशवावस्था और बाल्यावस्था में इसका महत्व अधिक होता है। जैसे-जैसे बालक की आयु बढ़ती जाती है, उसका महत्व कम होता जाता है। एक वर्ष की आयु से ही बालक का उठना-बैठना, चलना- फिरना, खेलना-बोलना, आदि परिपक्वता के कारण ही होता है। परिपक्वता ही बालक को वस्तुओं और व्यक्तियों को समझने और उसके साथ समुचित व्यवहार करने की योग्यता प्रदान करती है तथा समस्याओं के समाधान में भी सहायता करती है। संवेगों की दृष्टि से परिपक्वता का बहुत महत्व है। अतः अध्यापकों और अभिभावकों को परिपक्वता की प्रक्रिया का पूर्ण ज्ञान होना चाहिए तभी वह बालक के लिए उपयुक्त वातावरण की व्यवस्था कर सकते हैं।


परिपक्वता की परिभाषाएं 

गैसल (Gesell) – अपने सीमित जीवन चक्र में कार्यरत प्रत्येक  के समूचे व्यवहार को परिपक्वता कहते हैं।”

“Maturation is the net sum of the gene effects operating in a self limited life cycle.”

बारबरा जिओधेगम (Barbara Geoghagam)- “परिपक्वता का अर्थ किसी कार्य में विश्वास की संपूर्ण उपलब्धि है।”

“Maturation refers to the attainment of fullness of development of a function.”

एलक्जैण्डर (Alexander)- “परिपक्वता आंतरिक रुप से परिवर्तन की प्रक्रिया है। आंतरिक परिपक्वता प्राणी का विकास है, संरचना तथा कार्य में वृद्धि है।वह प्राणी में निहित शक्तियों के कारण होती है।”

“Maturation is essentially a process of modification from within an innate ripening or development of the capacities of the organism and a growth instructive and function that occurs by reason of forces inherent in the organism itself.”

जरसील्ड व अन्य (Jersild and Other)-“परिपक्वता एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा मानव की  अंर्त्ततम क्षमताएं, क्रियात्मक तत्परता की स्थिति प्राप्त कर लेती है।”

“Maturation is the process by which underlying potential capacities of the organism reach a stage of functional readiness.”

गेरी व किंग्सले Garry and Kingsley)-“परिपक्वता एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें शारीरिक संरचना की वृद्धि और विकास के परिणाम स्वरुप व्यवहार में परिवर्तन होता है।”

“Maturation is the process whereby behaviour is modifie as a result of growth and development of physical structure.”

बोरिंग,वैल्ड और लौंगफील्ड (Boring Weld and Longfield)-“परिपक्वता का सामान्य अर्थ बुद्धि और विकास है जो किसी बिना सीखे व्यवहार के अस्तित्व में आने या किसी विशिष्ट व्यवहार के अस्तित्व में आने से  पहले अत्यंत आवश्यक है।”

“Maturation means the growth and development that is necessary either before any unleashed behaviour can occur or before the learning of any particular behaviour can take place.”



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