मानवं तथा पशु की भाषा में अन्तर
समस्त प्राणी जगत का सीधा सम्बन्ध भाषा से है जिसके बिना समस्त प्राणी जगत सम्वाद विहीन है । भाषा की सामान्य परिभाषा के अनुसार अनुभूतियों की अभिव्यक्ति ही भाषा है । मनुष्य की सभ्यता के विकास का अहम पहलू भाषा है ।
मनुष्य अपनी शारीरिक संरचना के अनुरूप जिस आदिम भाषा का आरम्भ में प्रयोग करता था वह जीव विज्ञान के अध्ययन का विषय हो सकता है जैसा कि जीव विज्ञानी आज भी पशु और पक्षी की भाषा का अध्ययन उनकी शारीरिक संरचना के आधार पर करते हैं , परन्तु मनुष्य की भाषा का अध्ययन आज जीव विज्ञान का विषय न होकर भाषा विज्ञान का है ।
भाषा विज्ञान के अन्तर्गत भाषा की परिभाषा , " भाषा ध्वनि प्रतीकों की यद्रिक्षित प्रणाली है जिसके माध्यम से मनुष्य का समूह अथवा समाज आपस में विचारों का आदान - प्रदान करता है । इस परिप्रेक्ष्य में मनुष्य की भाषा की विशेषताएँ हैं-
1. मनुष्य की भाषा समाज का अंग है ।
2. मनुष्य की भाषा अर्जित सम्पत्ति है , जिसे सबको सीखना पड़ता।
3. मनुष्य की भाषा यद्रिक्षिक होती हैं ।
4. मनुष्य की भाषा ध्वनि प्रतीकों का समूह और समाज के अनुसार अलग - अलग व्यवस्था है ।
5. मनुष्य की भाषा सुव्यवस्थित प्रणाली है ।
इन विशेषताओं के आधार पर हम पशु तथा पक्षियों की भाषा तथा मनुष्य की भाषा में अन्तर आसानी से कर सकते हैं ।
मनुष्य की भाषा में व्यावहारिकता होती है जबकि पशु - पक्षियों की भाषा वैयक्तिक ही होती है । ये मनुष्य की तरह शब्दों का निर्माण नहीं कर सकते । पशुओं की भाषा सुनिश्चित प्रणाली का हिस्सा नहीं है । अतः उनका अध्ययन और उनकी भाषा का अर्जन करना कठिन है जबकि मनुष्य की भाषा निश्चित प्रणाली पर व्याकरणबद्ध होती है जिसे कोई भी मनुष्य आसानी और मेहनत से सीख सकता है । उदाहरण के तौर पर जापानी हिन्दी सीख सकता है , हिन्दी बोलने वाला जापानी सीख सकता है । लेकिन शेर , कुत्ता अथवा किसी अन्य चौपाये की भाषा नहीं सीख सकता । उसी तरह कोयल , कौआ की भाषा नहीं सीख सकती ।
मनुष्य की भाषा ध्वनि प्रतीकों का समूह और समाज के अनुसार अलग - अलग व्यवस्था है । जबकि इस रूप में पशुओं की भाषा में प्राकृतिक एकरूपता मिलती है । जैसे - कोयल की मिठास , शेर की दहाड़ , कुत्ते का भौंकना स्थान परिवर्तन के बावजूद लगभग एक समान होता है । स्थान उनकी प्रतिक्रिया एक समान रहती है । इस रूप में मनुष्य की भाषा ध्वनि प्रतीकों की निजी विशेषता और समाज के अनुसार अलग - अलग सांस्कृतिक व्यवस्था होती है ।
भाषा के विकास के कारण ही मनुष्य का विकास हुआ जबकि पशु - पक्षियों की भाषा का विकास न होने के कारण आज भी वह आदिम रूप में ही विद्यमान हैं । इनकी भाषा शारीरिक संरचना का हिस्सा है न कि सामूहिक प्रयास का ।
मानव भाषा, जीव जंतु और पेड़-पौधों की भाषा में अंतर hindi Notes
मानव की भाषा और पेड़-पौधों की भाषा में अंतर
मनुष्य की भाषा और पेड़-पौधों की भाषा में अंतर
जीव जंतु और पेड़-पौधों की भाषा में अंतर
जीव - जंतुओं की ही तरह पेड़ - पौधों में भी प्राणचेतना विद्यमान है । वे चलते - फिरते भले न हों , पर उनके अंदर भी भाव - संवेदनाएं हिलोरें मारती हैं । अपनी स्कूल बोध क्षमता के कारण मनुष्य भले ही उनकी मूक भाषा को न समझ सके , किंतु पौधे हमेशा अपनी भावनाओं का आदान - प्रदान करते हैं । वे मानवीय क्रियाकलापों यहाँ तक कि उनके विचारों एवं भावतरंगों से भी प्रभावित होते हैं । प्राचीनकाल में भारतवासी ऋषि महर्षिगण अपनी संवेदनशील एवं सूक्ष्मचेतना शक्ति द्वारा इस सत्य से अवगत थे । आज का वैज्ञानिक जगत् भी अपने प्रयोग - परीक्षणों द्वारा इस तथ्य को पुष्ट एवं प्रमाणित कर रहा है ।
समस्त वैज्ञानिक शोध - निष्कर्ष अविकल रूप से पौधों की संवेदनशीलता एवं मानव के साथ उनके अभिन्न सहचरी जीवन को प्रमाणित करते हैं । अपने भारत देश में प्राचीन महर्षिगणों ने भी इसी सत्य को तथ्य रूप में प्रतिपादित किया था । लोकमानस में भी उनके उपदेशों के अनुरूप वृक्षों की पूजा एवं सम्मान के भावन पनपे । प्राचीन शास्त्रकारों ने तो यहाँ तक लिखा है - पेड़ पौधे तो स्वयं ही इस अपनेपन के बदले में अपने फल - फूल पत्तियाँ मनुष्य को अर्पित करने में हर्ष अनुभव करते हैं । हाँ , इतना अवश्य है कि अपने अजस्र अनुदानों के बदले वे भी हमसे प्यार चाहते हैं ये भी सुख - दुख , कष्ट - पीड़ा को अनुभव करते हैं । अपनत्व व उपेक्षा , अपमान की भाषा को समझते हैं । इनकी मूक चीत्कार या आशीर्वाद से प्रभावित हुए बिना हम नहीं रह सकते । पर्यावरण का वर्तमान असंतुलन इनकी मूक चीत्कार ही है , जबकि आवश्यकता इनके आशीर्वाद की है । हम अपने उत्कर्ष के साथ ही इनके संरक्षण व विकास पर भी समुचित ध्यान दें , तभी हम पर्यावरण व अपने जीवन को शुद्धता , शाँति व सात्विकता से भरा - पूरा बनाने की कल्पना को साकार कर सकेंगे ।
अतः कह सकते हैं कि पेड़ पौधों की मुख्य भाषा होती है।
Epam Siwan
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