संरचनात्मक और योगात्मक मूल्यांकन

Formative and Summative Evaluation 

संरचनात्मक और योगात्मक मूल्यांकन

मूल्यांकन के दो प्रकार होते हैं जिन्हें एक दूसरे से अलग माना जाता है क्योंकि उनका उपयोग अलग-अलग तरीकों से और भिन्न प्रयोजनों के लिए किया जाता है। आप अपने स्वयं के शैक्षणिक अनुभव से योगात्मक मूल्यांकन से बहुत परिचित होंगेलेकिन हो सकता है संरचनात्मक मूल्यांकन में मूल्य और अवसर का पूरी तरह से अन्वेषण नहीं किया होगा – या हो सकता है आप उसे पहले से ही कर रहे हों लेकिन अपने कौशल के बारे में पूरी तरह से नहीं जानते होंगे।
  • संरचनात्मक मूल्यांकन को कई लोगों द्वारा सीखने के लिए आकलन भी कहा जाता है। इस प्रकार के मूल्यांकन का मुख्य प्रयोजन छात्रों को वह रचनात्मक प्रतिक्रिया प्राप्त करने में सक्षम बनाना है जो उन्हें बेहतर सीखने और प्रभावी प्रगति करने में उनकी मदद करेगी। ऐसी प्रतिक्रिया आम तौर पर (लेकिन हमेशा नहीं) शिक्षकों द्वारा दी जाती है।
  • योगात्मक मूल्यांकन को सीखने के  मूल्यांकन’ के नाम से भी जाना जाता है। इस प्रकार के मूल्यांकन का प्रयोजन शिक्षक को छात्रों की उपलब्धि और कार्य प्रदर्शन की पहचान करने में सक्षम करना हैजिसमें योगात्मक मूल्यांकन का उपयोग आम तौर पर एक छात्र की अन्य छात्रों के समक्ष तुलना करने के लिए किया जाता हैजबकि संरचनात्मक मूल्यांकन का उपयोग सीखने की प्रगति के लिए किया जाता है।
संरचनात्मक मूल्यांकन छात्रों के आगे चलते जाने और सीखने में प्रगति करने के लिए मार्ग बनाता है। यह निम्नलिखित की पहचान कर सकता है:
  • छात्र क्या कर सकता है और क्या नहीं?
  • छात्रों को क्या कठिन लगता है?
  • किसी भी अंतर और छात्र को हो सकने वाली गलतफहमियाँ।
इसमें शामिल होता है:
  • सीखने के स्पष्ट लक्ष्यों की चर्चा करते हुएछात्र के साथ संवाद
  • छात्र का अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सक्रिय होना
  • स्वतः- और समकक्षीय समीक्षा सहित प्रगति की निगरानी।
सामयिक और उपयोगी प्रतिक्रिया प्रक्रिया का हिस्सा है क्योंकि वह सुधरने में छात्रों की मदद करता है। यह भी महत्वपूर्ण है कि छात्र और शिक्षक दोनों अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने लिए दृढ़ रहें जब तक कि छात्र अपने लक्ष्य को प्राप्त न कर लेंजिसके लिए निश्चित तौर पर शिक्षक को छात्र की जरूरतों को पूरा करने के लिए अपने अध्यापन में समायोजन करने पड़ सकते हैं।
इसलिएसंरचनात्मक मूल्यांकन का योगात्मक मूल्यांकन के मुकाबले बहुत अलग प्रयोजन और दृष्टिकोण होता है। योगात्मक मूल्यांकन अधिक औपचारिक होता है। संरचनात्मक मूल्यांकन कक्षा के संदर्भ में संपन्न होता है और शिक्षक और छात्र के बीच संबंध की बुनियाद पर विकसित होता है। संरचनात्मक मूल्यांकन (सेंट्रल बोर्ड ऑफ सेकंडरी एजुकेशन, 2009) की मुख्य विशेषताएं ये हैं:
  • वह नैदानिक और सुधारात्मक है
  • वह प्रभावी प्रतिक्रिया के लिए प्रावधान करता है
  • वह छात्रों के स्वयं सीखने में उनकी सक्रिय भागीदारी के लिए मंच प्रदान करता है
  • वह शिक्षकों को मूल्यांकन के नतीजों को ध्यान में रखते हुए अध्यापन को समायोजित करने में सक्षम करता है
  • वह उस अगाध प्रभाव की पहचान करता है जो मूल्यांकन छात्रों की प्रेरणा और आत्म-सम्मानजिनके सीखने की प्रक्रिया पर महत्वपूर्ण प्रभाव होते हैंपर डालता है।
  • वह छात्रों की स्वयं का मूल्यांकन करने और सुधार करने के तरीके को समझने में सक्षम होने की जरूरत की पहचान करता है
  • वह जो कुछ पढ़ाया जाना है उसकी परिकल्पना के लिए छात्रों के पूर्व ज्ञान और अनुभव की नींव पर विकसित होता है
  • कैसे और क्या पढ़ाया जाना है यह तय करने के लिए सीखने की विभिन्न शैलियों को समाविष्ट करता है
  • छात्रों को वे मापदंड समझने को प्रोत्साहित करता है जिनका उपयोग उनके काम को परखने के लिए किया जाएगा
  • छात्रों को प्रतिक्रिया के बाद उनके काम को सुधारने का अवसर प्रदान करता है
  • छात्रों की उनके समकक्षों की सहायता करनेऔर उनके द्वारा सहायता किए जाने में मदद करता है।
संरचनात्मक मूल्यांकन शिक्षक को वहाँ से आगे बढ़ने का अवसर देता है जहाँ छात्र होता है और छात्र को यह समझने का मौका देता है कि उन्हें सफल होने के लिए क्या करना है। इसलिए संरचनात्मक मूल्यांकन विद्यार्थी को शामिल करता है और छात्र को उसके सीखने का स्वामित्व प्रदान करता है।
सतत और व्यापक मूल्यांकन (सीसीई) का वर्णन (सेंट्रल बोर्ड ऑफ सेकंडरी एजुकेशन, 2009) निम्न प्रकार से किया जाता है:
सीसीई का मुख्य जोर छात्रों के बौद्धिकभावात्मकशारीरिकसांस्कृतिक और सामाजिक विकास को सुनिश्चित करते हूए उनकी सतत प्रगति पर होता है और इसलिए वह विद्यार्थी की शैक्षिक योग्यताओं तक ही सीमित नहीं होगा। वह मूल्यांकन का उपयोग विद्यार्थियों […] को प्रतिक्रिया और अनुवर्ती काम की व्यवस्था करने के लिए जानकारी प्रदान करने को प्रेरित करने के साधन के रूप में करता है ताकि कक्षा में सीखने की प्रक्रिया को सुधारा जा सके और विद्यार्थी की प्रोफाइल की एक व्यापक तस्वीर प्रस्तुत की जा सके।
गतिविधि आपसे विद्यालय के परिवेश में संरचनात्मक और योगात्मक मूल्यांकन के बीच अंतरों के बारे में सोचने को कहती है। यह वह गतिविधि है जिसका उपयोग आप अपने शिक्षकों के साथ संरचनात्मक और योगात्मक मूल्यांकन के बारे में चर्चा शुरू करने के लिए कर सकते हैं।

गतिविधि संरचनात्मक और योगात्मक मूल्यांकन की पहचान करना

नीचे उन मूल्यांकन के अवसरों की सूची दी गई है जिनका उपयोग आपके विद्यालय में कक्षाओं में किया जा सकता है। अपनी सीखने की डायरी का उपयोग करके दो कॉलम बनाएंएक संरचनात्मक मूल्यांकन के लिए और एक योगात्मक मूल्यांकन के लिए। अब निम्नलिखित सूची में से आकलनों को दोनों में से एक कॉलम में रखें। आप देखेंगे कि कुछ मूल्यांकनसन्दर्भ पर निर्भर करते हुए किसी भी कॉलम में जा सकते हैं – उदाहरण के लिए कोई गीत गाना योगात्मक हो सकता है यदि वह संगीत की परीक्षा का भाग है या संरचनात्मक यदि वह विद्यालय में अभिनय की तैयारी के लिए है।
यह एक ऐसी गतिविधि है जिसे आप अकेले कर सकते हैं।या यदि आप इसे विस्तृत करना चाहते हैं तो एक सामूहिक गतिविधि के हिस्से के रूप में अन्य लोगोंको शामिल कर सकते हैं
  1. पेन और पेपर परीक्षा
  2. याददाश्त से दोहराना
  3. विज्ञान के किसी प्रयोग की परिकल्पना और निष्पादन करना
  4. खुली पुस्तक वाली परीक्षा
  5. शिक्षक द्वारा छात्र का प्रेक्षण
  6. व्यंजन विधि के अनुसार भोजन पकाना
  7. निबंध
  8. प्रश्नों के मौखिक उत्तर
  9. प्रदर्शन
  10. छात्र द्वारा तैयार किए गए गीत को गाना
  11. एथलेटिक्स की दौड़ में व्यक्तिगत कीर्तिमान स्थापित करना
  12. किसी नाटक



रचनात्मक आकलन क्या है | What is Formative Assessment in Hindi !!

रचनात्मक आकलन का कार्य शिक्षण प्रक्रिया की दशा का ज्ञान कराना होता है. ये आकलन शिक्षण प्रक्रिया के दौरान लगातार होता है. इसका प्रयोग अधिगम के लिए आकलन के रूप में किया जाता है. रचनात्मक आकलन का कार्य छात्रों का पृष्ठपोषण प्रदान करना है. इसके द्वारा विद्यार्थी को ये पता लगता है कि उसे कहाँ सुधार की आवश्यकता है.

योगात्मक आकलन क्या है | What is the Summative Assessment in Hindi !!

योगात्मक आकलन का कार्य शिक्षण प्रक्रिया कितनी सफल रही इसका ज्ञान कराना होता है. ये सदैव एक निश्चित अवधि के पश्चात होता है. योगात्मक आकलन “अधिगम के आकलन” के रूप में किया जाता है. इसका कार्य छात्र को ग्रेड व परिणाम प्रदान करना होता है. इसके द्वारा विद्यार्थी को यह पता लगता है कि उसमे कितना सुधार किया गया है.

रचनात्मक तथा योगात्मक आकलन में क्या अंतर है | Difference between Formative and Summative assessment in Hindi !!

# रचनात्मक आकलन का प्रयोग शिक्षण प्रक्रिया की दशा का ज्ञान करने के लिए होता है जबकि योगात्मक आकलन का प्रयोग शिक्षण प्रक्रिया कितनी सफल रही इसका ज्ञान करने के लिए होता है.

# रचनात्मक आकलन शिक्षण प्रक्रिया के दौरान लगातार होता है जबकि योगात्मक आकलन निश्चित अवधि के बाद होता है.

# रचनात्मक आकलन का प्रयोग “अधिगम के लिए आकलन” के रूप में किया जाता है जबकि योगात्मक आकलन का प्रयोग “अधिगम का आकलन” करने लिए किया जाता है.

# रचनात्मक आकलन का कार्य छात्रों का पृष्ठपोषण प्रदान करना है जबकि योगात्मक आकलन का कार्य छात्रों को ग्रेड और परिणाम प्रदान करने का होता है.

# रचनात्मक आकलन द्वारा विद्यार्थी को ये पता लगता है कि उसे कहाँ सुधार की आवश्यकता है जबकि योगात्मक आकलन द्वारा विद्यार्थी को ये पता लगता है कि उसने कितना सुधार किया है.


संख्या पद्धति (Number System)

| INTRODUCTION |

 प्राकृतिक संख्याएँ ( Natural Numbers ) - गिनती की सभी संख्याएँ प्राकृत संख्याएँ कहलाती है । यह 1 से प्रारम्भ होकर अनन्त तक जाती है , जैसे - 1 , 2 , 3 , . . . . . . .

 पूर्ण संख्याएँ ( Whole Numbers ) - प्राकृत संख्याओं के समूह में शून्य ( 0 ) को भी शामिल कर लेने से प्राप्त संख्याओं का समूह पूर्ण संख्याएँ कहलाती है , जैसे - 0 , 1 , 2 , 3 , . . . . . . . . . .

 पूर्णांक संख्याएँ ( Integers numbers ) - जब पूर्ण संख्याओं को घनात्मक और ऋणात्मक चिन्ह के साथ व्यक्त किया जाता है , तब वे संख्याएँ पूर्णांक संख्याएँ कहलाती है , जैसे . . . . . . . . . , - 3 , - 2 , - 1 , 0 , 1 , 2 , 3 , . . . .

यहाँ घनात्मक संख्याएँ घनात्मक पूर्णांक ( Positive Integers ) और ऋणात्मक संख्याएँ ऋणात्मक पूर्णांक ( Negative Integers ) कहलाती है । शून्य ( 0 ) उदासीन पूर्णांक ( Neutral Integer ) कहलाता है । स्पष्टतः सबसे पहला और सबसे अन्तिम पूर्णांक संख्याएँ प्राप्त नहीं की जा सकती ।



 सम संख्याएँ ( Even Numbers ) - वे प्राकृत संख्याएँ जो 2 से पूर्णतः विभाजित हो , सम संख्याएँ कहलाती है । इसका व्यापक रूप 2n होता है , जहाँn प्राकृत संख्याएँ हैं । जैसे - 2 , 4 , 6 , 8 , . .

विषम संख्याएँ ( Odd Numbers ) - सभी प्राकृत संख्याएँ जो 2 से पूर्णतः विभाजित नहीं हो , विषम संख्याएँ कहलाती है । इसका व्यापक रूप ( 2n - 1 ) होता है , जहाँ । प्राकृत संख्याएँ है । जैसे - 1 , 3 , 5 , 7 , . . . . . . .

रूढ़ या अभाज्य  संख्याएँ( Prime Numbers ) - 1 से बड़ी वे संख्याएँ जो 1 या अपने को छोड़कर किसी अन्य संख्या से पूर्णतः विभाजित न हो , रूढ़ या अभाज्य संख्याएँ कहलाती हैं । जैसे - 2 , 3 , 5 , 7 , 11 , 13 इत्यादि । अत : 2 एक मात्र सम अभाज्य संख्या हैं ।

यौगिक या भाज्य संख्याएँ ( Composite Numbers ) - एक से । बड़ी वे सभी संख्याएँ जो 1 या अपने को छोड़कर किसी अन्य संख्या से भी अवश्य विभाजित हो , यौगिक या भाज्य संख्याएँ कहलाती हैं । दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि जिन संख्याओं के दो से अधिक factors हों , वे यौगिक संख्याएँ कहलाती हैं । जैसे - 4 , 6 , 8 , 9 , 10 , 12 , 14 , 15 इत्यादि ।

सहभाज्य संख्याएँ ( Co - Prime Numbers ) - दो या दो से अधिक वे संख्याएँ जिसमें 1 के अतिरिक्त अन्य उभयनिष्ठ गुणनखण्ड न हो , अर्थात् जिसके महत्तम समावर्त्तक ( H . C . F ) 1 हो ; असहभाज्य संख्याएँ कहलाती हैं । जैसे - ( 5 . 7 ) ; ( 7 , 8 , 13 ) ; ( 21 , 23 , 29 ) इत्यादि ।

 परिमेय संख्याएँ ( Rational Numbers ) - वे संख्याएँ जो m/n के रूप में हो , जहाँ m और n पूर्णांक संख्याएँ हैं और n ≠ 0 परिमेय संख्याएँ कहलाती है । जैसे - 3 /13,13/5,0,5,-2/7 इत्यादि । परिमेय संख्याओं का दशमलव रूप सांत ( terminating ) या आवर्त ( recurring ) होता है ।


अपरिमेय संख्याएँ ( Irrational Numbers ) - वे सभी संख्या जिसे रूप में प्रकट नहीं किया जा सकता , अपरिमेय संख्याएँ कहलाती हैं । ऐसी संख्याएँ प्रायः पूर्ण वर्ग नहीं होती और उसे " √ " के अन्दर रखा जाता है । जैसे - ✓5 , ✓10 , 2 ✓6 इत्यादि ।
 अपरिमेय संख्याओं का दशमलव रूप असांत ( Non - terminating ) और अनावर्त ( Non - recurring ) होता है ।

 वास्तविक संख्याएँ ( Real Numbers ) - परिमेय और अपरिमेय संख्याओं को सम्मिलित रूप से वास्तविक संख्याएँ कहते हैं । जैसे - ( √5,3/2,√10 , इत्यादि ।

 अवास्तविक या काल्पनिक संख्याएँ ( Imaginary Numbers ) - वे संख्याएँ जो वास्तविक नहीं हैं अर्थात जिसकी मात्र कल्पना की जा सकती है , अवास्तविक या काल्पनिक संख्याएँ कहलाती हैं । जैसे -  √-4, √- 9 , ✓- 15 , ✓- 25 , ✓- 29 इत्यादि । किसी भी ऋणात्मक संख्याओं का वर्गमूल ज्ञात नहीं किया जा सकता ।

 जोड़ का प्रतीप अवयव/योगात्मक प्रतिलोम ( Inverse Element of Addition ) किसी संख्या के जोड़ का प्रतीप अवयव वह संख्या होती है जिसे उस संख्या में जोड़ने से योगफल शून्य ( 0 ) प्राप्त होता है । अतः किसी संख्या का प्रतीप अवयव - a होता है । क्योंकि a + ( - a ) = a - a = 0 अत : 4 के जोड़ का प्रतीप अवयव - 4 है । के जोड़ का प्रतीप अवयव है । 2 6 के जोड़ का प्रतीप अवयव - 6 है इत्यादि ।

 गुणा का प्रतीप अवयव/गुणात्मक प्रतिलोम ( Inverse Element of Multi plication ) - किसी संख्या के गुणा का प्रतीप अवयव वह संख्या होती है , जिसे उस संख्या में गुणा करने से गुणनफल 1 प्राप्त होता है । किसी संख्या a के गुणा का प्रतीप अवयव - होगा , क्योंकि

a × 1/a = 1

 6 के गुणा का प्रतीप अवयव  1/6 है ।

 -7 के गुणा का प्रतीप अवयव -/7 है।

 1/2 के गुणा का प्रतीप अवयव 2 है ।

सतत तथा व्यापक मूल्यांकन ( CONTINOUS AND COMPRESSIVE EVALUTION)


सतत तथा व्यापक मूल्यांकन (Continuous and comprehensive evaluation)
 भारत के स्कूलों में मूल्यांकन के लिये लागू की गयी एक नीति है जिसे 2009 में आरम्भ किया गया था।

सतत तथा व्यापक मूल्यांकन का अर्थ है छात्रों के विद्यालय आधारित मूल्यांकन की प्रणाली जिसमें छात्र के विकास के सभी पक्ष शामिल हैं।

यह निर्धारण के विकास की प्रक्रिया है जिसमें दोहरे उद्देश्यों पर बल दिया जाता है। ये उद्देश्य व्यापक आधारित अधिगम और दूसरी ओर व्यवहारगत परिणामों के मूल्यांकन तथा निर्धारण की सततता में हैं।

इस योजना में शब्द ‘‘सतत’’ का अर्थ छात्रों की ‘‘वृद्धि और विकास’’ के अभिज्ञात पक्षों का मूल्यांकन करने पर बल देना है, जो एक घटना के बजाय एक सतत प्रक्रिया है, जो संपूर्ण अध्यापन-अधिगम प्रक्रिया में निर्मित हैं और शैक्षिक सत्र के पूरे विस्तार में फैली हुई है। इसका अर्थ है निर्धारण की नियमितता, यूनिट परीक्षा की आवृत्ति, अधिगम के अंतरालों का निदान, सुधारात्मक उपायों का उपयोग, पुनः परीक्षा और स्वयं मूल्यांकन।

दूसरे शब्द ‘‘व्यापक’’ का अर्थ है कि इस योजना में छात्रों की वृद्धि और विकास के शैक्षिक तथा सह-शैक्षिक दोनों ही पक्षों को शामिल करने का प्रयास किया जाता है। चूंकि क्षमताएं, मनोवृत्तियां और अभिरूचियां अपने आप को लिखित शब्दों के अलावा अन्य रूपों में प्रकट करती हैं अतः यह शब्द विभिन्न साधनों और तकनीकों के अनुप्रयोग के लिए उपयोग किया जाता 

सतत और व्यापक मूल्यांकन में छात्र के विकास के सभी पहलुओं को शामिल किया गया है एवं ये  छात्र की स्कूल आधारित मूल्यांकन  प्रणाली को दर्शाता है जो  छात्र के विकास की प्रक्रिया है | इसके  उद्देश्यों  मूल्यांकन में निरंतरता और व्यापक आधार पर शिक्षा और अन्य  व्यवहार परिणामों का आकलन कर रहे हैं।
यह नियमितता, इकाई परीक्षण, सीखने के अंतराल , सुधारात्मक उपायों के उपयोग शिक्षकों और छात्रों के लिए उनके आत्म मूल्यांकन  की प्रतिक्रिया  है।
शब्द 'निरंतर' छात्रों की पहचान बिभिन पहलुओं का मूल्यांकन करता है
दूसरा शब्द 'व्यापक' शैक्षिक योजना और छात्रों के विकास , विकास के सह-शैक्षिक पहलुओं दोनों को कवर करने करने का  प्रयास करता है

पृष्ठभूमि   एवं  अवधारणा-----

शिक्षा का अधिकार कानून 2009 के अनुसार 6 से 14 वर्ष के सभी बच्चों का अधिकार है गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्राप्त करना। कानून के सेशन 29 में स्पष्ट कहा गया है कि कक्षा 1 से 8 तक की कक्षाओं के लिए पाठ्यक्रम बनाते समय यह ध्यान रखा जाए कि पाठ्यक्रम बच्चों के सर्वांगीण विकास करने वाला हो। स्कूल और कक्षाओं में पढ़ने-पढ़ाने के तरीके बच्चों की अंतर्निहित क्षमताओं को उभारे और उनमें अपना ज्ञान निर्माण स्वयं करने की क्षमता विकसित हो। बच्चों ने जो सीखा है उसका मूल्यांकन उनके पढ़ने के दौरान लगातार होता रहे और उन्हें परीक्षा का भय नहीं लगे। परीक्षाएं बच्चों का मूल्यांकन भी बताने वाली हो साथ ही उससे शिक्षक को अपनी शिक्षण योजना में बदलाव करने का आधार एवं मौका भी मिले।
इस प्रकार सतत् एवं व्यापक मूल्यांकन की प्रक्रिया वास्तव में व्यापक गुणवतासुधार प्रक्रिया ही है। इसे सीखने-सिखाने की विधा एवं विद्यार्थी के स्कूल-आधारित मूल्यांकन व्यवस्था के रूप में ही समझा जाये जिसमें विद्यार्थी के सीखने के सभी पक्षों पर ध्यान दिया जाता है।
सतत एवं व्यापक मूल्यांकन में सततता जहां एक ओर कक्षा प्रक्रिया के रूप मे होगी वहीं सावधिक मूल्यांकन के रूप में भी होगी। व्यापकता उन मुद्दों को प्रमुख रूप से रेखांकित करेगी जो बच्चों के विभिन्न कौशल, भावात्मक और क्रियात्मक पक्ष को उजागर करेगी।

लागू करने के चरण –

1- प्रथम चरण 2010-11 :
 राज्य में सतत एवं व्यापक मूल्यांकन को अधिनियम के लागू होने के साथ ही पायलेट प्रोजेक्ट के रूप में मई 2010 से अलवर एवं जयपुर के 60 विद्यालयों में सर्वप्रथम कक्षा 1-5 तक एनसीईआरटी की पाठ्य पुस्तकों के साथ शुरू किया गया।

2- दितीय चरण 2012-13 :
 अकादमिक सत्र 2012-13 से सतत एवं व्यापक मूल्यांकन राज्य में 178 ब्लॉक के 3059 राजकीय प्राथमिक विद्यालयों एवं पायलेट प्रोजेक्ट के विद्यालयों में कक्ष 6 से 8 तक शुरू किया गया।

3- तृतीय चरण 2013-14 :
इस शैक्षिक सत्र में सम्पूर्ण ब्लॉक को कवर करते हुए लगभग 9 ब्लॉक के 2500 विद्यालयों की प्राथमिक कक्षाओं में सीसीई के विस्तार पर कार्य किया गया। इस प्रकार इस समय लगभग 5811 विद्यालयों में सीसीई का संचालन किया जा रहा है।

आकलन/मूल्यांकन उपकरण--

1.  सतत अवलोकन अभिलेखन
2.   चैकलिस्ट
3.  पोर्टफोलियो
4.   कक्षा कार्य
5.   गृह कार्य
6.   अन्य शिक्षिकाओं अभिभावकों एवं साथियों द्वारा आकलन
7.    प्रोजेक्ट कार्य आदि

सतत् और व्यापक मूल्यांकन की विशेषताएं :---
1.   सतत् और व्यापक मूल्यांकन विद्यार्थियों के विद्यालय आधारित मूल्यांकन पद्धति को इंगित करता है जिसमे विधार्थियों के समस्त पक्ष सम्मलित होते हैं |
2.   सतत् और व्यापक मूल्यांकन निरंतर और आवधिक मूल्यांकन का ध्यान रखता है |
3.  निरंतर का अर्थ है अध्यापन से पूर्व आकलन और अध्यापन की अवधि में मूल्यांकन |
4.  सतत् और व्यापक मूल्यांकन का व्यापक भाग बालक के व्यक्तित्व के चतुर्मुखी विकास का ध्यान रखना हैं  | इसमें शैक्षिक और सह्पाठ्यचारी पक्षों को विकास सम्मलित होता हैं |
5.  शैक्षिक पक्ष में पाठ्य क्षेत्र या विषय विशेष के क्षेत्र सम्मलित होते हैं, जबकि सहपाठ्यचारी पक्ष में सह-पाठ्य  और व्यक्तित्व विशेषताएं, रुचियाँ, मनोवृतियाँऔर मूल्य सम्मलित होते हैं |

गुण :--
1.          अधिक मान्य (More valid) : यह बाहरी परीक्षायों के मुकाबले अधिक वैध है क्योंकि इसमें हर महीने पाठ्यक्रम विश्लेषण के सभी विषयों को शामिल किया गया हैं |
2.          नियमित और समयबद्ध (Regular punctual) : छात्र अधिक नियमित और समयबद्ध हो जायेंगे | वे सभी सम्बंधित मामलों की पूरी संतुष्टि के लिए अपने ग्रेह कार्य और कक्षा कार्य करने की कोशिश करेंगे |
3.          अनुशासन (discipline) : अनुशासन की समस्या कम हो जाएगी|
4.          अधिक विश्वसनीय (More reliable): यह बाहरी परीक्षाओं की तुलना में अधिक विश्वसनीय है क्योंकि इसमें पाठ्यक्रम के सभी विषयों को शामिल किया गया हैं |
5.          प्रेरक मूल्य (Motivational value) : यह विद्यार्थियों को नियमित रूप से और अच्छी तरह से काम करने लिए प्रेरणा देता है | वे वर्ष के माध्यम से काम करते है और समय बर्बाद नहीं करते है |
6.          नैदानिक मूल्य (diagnostic value) : यह सिखने में विद्य्र्थिओन की कठिनाइयों का निदान करने में सक्षम बनाता है | यह एक व्यक्ति की आवश्यकतायों , हितों, क्षमताओं और योग्यताओं को खोजने के अवसर प्रदान करता हैं और उसे विकास के लिए रास्ता दिखता हैं |
7.          कोई अनुचित तनाव नहीं (no undue strain): छात्रों को अनुचित तनाव से आराम है , छात्रों को नैतिक मानकों को लहर की अनुमति कभी नहीं होती हैं |
8.          छात्रवृति का आधार (basis of scholarship) : यह छात्रवृति देने और शुल्क रियायतों को देने के लिए आधार के रूप में कार्य करता हैं |
9.          सकारात्मक परिणाम (positive results) : इसका उद्देश्य यह पता करना है कि बच्चा क्या जनता है, क्या वेह कर सकता है और क्या पता है की वह क्या नहीं जानता , और उसको क्या बुधि मिली हैं आदि |

सतत् और व्यापक मूल्यांकन के दोष :---

1.  समय लगता है (time consuming) : सतत् और व्यापक मूल्यांकन समय लेने वाली हैं |
2.  शिक्षकों को बहरी काम का बोझ (heavy work load of teachers) : अल्पावधि मूल्यांकन में शिक्षकों के काम का बोझ बढ़ जाता है इसके आलावा, यह शिक्षकों के भाग में प्रशिक्षण, दक्षता और कुशलता की मांग करता हैं |

3.  बाहरी परीक्षा के बिना अपूर्ण (incomplete without external examination) : बाह्य परीक्षा की अनुपस्थिति में, मूल्यांकन के प्रत्येक योजना में वर्ष के अंत में एक सार्वजानिक परीक्षा बहुत आवश्यक हैं |
4.  संख्या और तीव्रता में वृद्धि (increase in number and intensity) : रिश्वतखोरी जैसी बुरी चीजें संख्या और तीव्रता में बढ़ सकती हैं |
5.  काम के शिकारी (shirkers of works) : अध्यापन के पेशे में काम करने वालों को जीवन की कुछ मज़बूरी के कारण काम नहीं कर सकते हैं और उनके हाथों से मानदंड निचे जा सकते हैं |

विद्यालयों में सतत् और व्यापक मूल्यांकन का प्रभाव :---
पिछले साल, सीबीएसई ने निरंतर और व्यापक मूल्यांकन के साथ शेक्षिक सुधारों का एक नया सेट पेश किया, जिसमे शिक्षा प्रणाली का एक आव्र्हाल था |पुए देश में दस्तावेज प्रसारित किये जा रे है , और cbse द्वारा प्रधानाचार्यों और शिक्षकों के लिए गहन प्रशिक्षण एक उल्लेखनीय प्रयास रहा हैं |
सीसीई को लागू करने के पीछे ढाचें और विचारधारा की समझ की कमी हैं चलिए सीसीई के कुछ पहलुओं की जांच करते है :
1.   मूल्यांकनो को शिखा के सभी तीन प्रमुख लक्ष्यों क प्राप्त करने चाहिए – मानसिक, संज्ञानात्मक और भावात्मक |
2.  यह क्लास परीक्षणों के जरिये साप्ताहिक कक्षाएं छोटे बिट्स और परिक्षण छात्रों में नहीं दर्शाती हैं क्योंकि यह फिर से पेपर और पेंसिल मूल्यांकन हैं |
3.  यह केवल औपचारिक मूल्यांकन पर जोर नहीं देता हैं, बल्कि अनोपचारिक रूप में सेटिंग्स जैसे कि ब्रेक-time, गलियारे में, पला फील्ड आदि में आकलन या अवलोकन किया जाता हैं |

शिक्षकों द्वारा सामना की गयी परेशानियां :--

हमारे पीएसई 2 के दोरान जीबीएसएस हौज़ रानी हमे विभिन्न शिक्षकों के साथ बातचीत करने और उनके द्वारा सीसीई के दृष्टिकोणों को पूछना था | हमने पाँच शिक्षकों से बातचीत की और सीसीई के बारे में में उनके विचार जानने के लिए एक प्रश्नावली के माध्यम से उनसे कुछ सवाल पूछे| हमे पाया सवाल बहुत चोकने वाले थे | वे सभी सीसीई और इसके से बहुत तनावग्रस्त और तंग थे | उन्होंने कहा की सरकार ने विद्यार्थियों का आकलन करने का एक बहुत ही अच्छा तरीका चुना हैं लेकिन इसका कार्यान्वन उचित नहीं हैं | सीसीई औपचारिक्तायों और कागज के काम के कारण यह महसूस करता है की हम क्लर्क है, शिक्षक नहीं है हम इन कार्यों को करने के लिए बाध्य है , जो छात्र कक्षा के समय का खर्च करते है हम उन्हें हम ठीक से और नियमित रूप से नहीं पढ़ा पा रहे हैं | हम पुरे दिन विद्यालय के कामो में ही लगे रहते है , कभी शिक्षक डायरी तयार करने में कभी रजिस्टर्स का काम पूरा करने में , जितना समय हमे बच्चों को पढ़ाने को देना चाहिए उतना समय हम बच्चों को नहीं दे पाते है , जिसके कारण बच्चों की पढाई अच्छे  से नहीं हो पाती हैं |

सुझाव :--
सीसीई विद्यार्थियों के आकलन का एक अच्छा तरीका है लेकिन इसका क्रियान्वन आचे से नहीं हो पा रहा हैं और इसके लिए सरकार को सख्त निरिक्षण करना चाहिए | लेलिन सीसीई का मुख्य उद्देश्य यह है कि जो छात्र शेक्षिक व्यवस्था में प्रभावी रूप से भाग लेने में असमर्थ है, उनके ऊपर दवाव कम करना | हाँलाकि , प्रणाली को वास्तविक शिक्षा क अलावा परियोजनायों और गतिविधियों पर अधिक ध्यान देने के लिए भी आलोचना की गयी हैं | आलोचकों का यह भी कहना है कि छात्रों का वोर्क्लोअद वास्तव में निचे नहीं गया हैं बल्कि परीक्षायों में कमी आई हैं | छात्रों का गतिविधियों में भाग लेना आवश्यक खाई बेशक पाठ्यक्रम को कवर नहीं किया गया हो | अत: सीसीई के कार्यान्वन के साथ – साथ विद्यालयों को उनके शिक्षण समय और सीसीई काम के समय आवंटित करने के लिए एक उचित कार्यक्रम प्रदान किया जाना चाहिए | कुछ स्तर पर शिक्षकों को आराम देने के लिए सीसीई से बेकार और समय बरबाद करने की ओपचारिकता को हटा दिया जाना चाहिए |
सीसीई फलवादी बनाने के लिए सख्त निरिक्षण किया जाना चाहिए | कुछ माता –पिता और छात्रों ने भी अपनी मानसिकता को बदलने में मदद कर सकता है | जागरूकता उनकी मानसिकता को बदलने में मदद कर सकता है |शिक्षकों को इनके लाभों को ध्यान में रखते हुए सीसीई को स्वेच्छा से लेना चाहिए | उन्हें इसे बोझ और बेकार वोर्क्लोअद के रूप में नहीं लेना चाहिए |

सतत और व्यापक मूल्यांकन में अन्तर

सतत मूल्यांकन का अर्थ

सतत मूल्यांकन एक ऐसा मूल्यांकन होता है।जिसमें शिक्षार्थियों को अध्ययन एवं अध्यापन करने के साथ-साथ, उनके अनुभव और व्यवहार में होने वाले परिवर्तनों का लगातार मूल्यांकन किया जाता है।सतत मूल्यांकन में प्रत्येक इकाई के अध्ययन की समाप्ति के पश्चात ,विभिन्न उपकरणों के माध्यम से छात्रों का मूल्यांकन किया जाता है।इसे यह पता चलता है कि छात्रों को पढ़ाया गया पाठ कितना समझाया है, या कितना नहीं।

सतत मूल्यांकन का महत्व

कक्षा की उन्नति का प्रमुख साधन वार्षिक परीक्षा व उसके परिणाम होते हैं।इस प्रथा में सभी भलीभांति परिचित हैं।संपूर्ण स्कूल संकल्पना एक कार्यक्रम में अंतर्निहित सतत मूल्यांकन इस समस्या का प्रमुख समाधान है।सतत मूल्यांकन के माध्यम से बालक की योग्यता तथा योग्यता के बारे में नियमित रूप से उपयोगी तत्व का संकलन संभव हो सकेगा।
एक प्राथमिक शिक्षक अपने ज्ञान कार्यकुशलता की सहायता से मूल्यांकन का प्रयोग विद्यार्थी की ज्ञान की कठिनाइयों और उसके कारणों का निदान करने के लिए कर सकता है।वह उचित उपचारात्मक साधन अपना कर उसका गतिरोध एवं क्षति को कम से कम कर सकता है।तथा इस तरह से उसे अधिकतम ज्ञान प्राप्त करने में सहायता कर सकता है।

सतत मूल्यांकन की विधियां

वर्तमान समय में देखा जाए तो वार्षिक परीक्षा का अर्धवार्षिक परीक्षा का समय अंतराल का भी अधिक होता है।जिससे कि बालकों में होने वाली कठिनाइयों को हम नहीं जान पाते हैं। अतः बालकों की प्रगति को निरंतर मूल्यांकन करने के लिए सतत मूल्यांकन अति आवश्यक विधि है।सतत मूल्यांकन के लिए अनेक प्रकार की विधियों का प्रयोग किया जा सकता है। उदाहरण –
  • सत्र परीक्षा
  • इकाईपरीक्षा
  • मासिक परीक्षाएं
  • सेमेस्टर पद्धति

सतत मूल्यांकन के सोपान

सतत मूल्यांकन के सोपान निम्नलिखित हैं।
  1. उद्देश्य की व्याख्या
  2. परिस्थिति का ज्ञान
  3. प्रवृत्ति का प्रयोग
  4. मूल्यांकन की प्रवृत्तियों का चयन
  5. निष्कर्ष निकालना
  6. भविष्यवाणी
  7. प्रदत्त का विश्लेषण
  8. प्राप्त साक्ष्यों का विवेचन

सतत मूल्यांकन के क्षेत्र

सतत मूल्यांकन के क्षेत्र निम्नलिखित हैं।
  1. छात्र की अभिरुचि
  2. छात्र की सृजनात्मकता
  3. ज्ञान
  4. परिवारिक रुचियां
  5. बोध
  6. वैयक्तिक रुचियां
  7. शारीरिक स्थिति तथा स्वास्थ्य
  8. अनुप्रयोग
  9. विद्यार्थी की शैक्षिक उपलब्धि
  10. विद्यार्थी की त्रुटियां

व्यापक मूल्यांकन का अर्थ

शिक्षा जीवन पर शिक्षा एक जीवन पर्यंत चलने वाली प्रक्रिया है।जो मानव जीवन के सभी बच्चों को प्रभावित करती हैं।ज्ञान के साथ-साथ हमारे जीवन में मूल्यांकन में किसी न किसी रूप में जीवन पर्यंत चलता रहता है।बालक के अधिगम को किसी ना किसी रूप से प्रभावित करने वाले स्थूल सूक्ष्म ,प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष आदि अनेक प्रकार के पक्ष होते हैं।जिनका मूल्यांकन करना व्यापक मूल्यांकन कहलाता है।

व्यापक मूल्यांकन के विभिन्न पक्ष

व्यापक मूल्यांकन के विभिन्न निम्नलिखित हैं।
संज्ञानात्मक पक्ष – संज्ञानात्मक पक्ष के अंतर्गत बालक के अंदर निहित ज्ञान ,स्मरण ,पुनः स्मरण आदि चीजें सम्मिलित होती हैं।जिनका मूल्यांकन किया जाता है।
भावनात्मक पक्ष – इसकेे अंतर्गत बालक के भाव पक्ष, दया करुणा सत्य निष्ठा आदि का मूल्यांकन किया जाता है।
कौशलात्मक पक्ष – इसमें निहित कार्यकुशलता कार्य करने की क्षमता आदि का मूल्यांकन किया जाता है।


गणित का हमारे जीवन से घनिष्ठ रूप से संबंधित है ।व्याख्या करें।



  गणित का सम्बन्ध हमारे जीवन से बहुत घनिष्ठ है ।

 आजकल की सभ्यता का आधार गणित ही है ।

 गणित को व्यापार का प्राण और विज्ञान का जन्मदाता समझा जाता है ।

 इन्जीनियरिंग का पूरा कार्य गणित पर ही आधारित रहता है ।

 मातृ - भाषा के अतिरिक्त ऐसा कोई भी विषय नहीं है जो दैनिक जीवन से इतना अधिक सम्बन्धित हो ।

 आधुनिक सभ्यता एप्लाइड गणित के आधार पर ही खड़ी हुई है ।

 गणित एक उपकरण है , जिसका प्रयोग विज्ञान करता है । मनुष्य जिस वातावरण में रहता है , उसमें रुचि लेने की क्षमता प्रदान करने के लिए तथा उन प्रयत्नों का मूल्यांकन करने के लिए जो दूसरे लोग प्रयोग करते हैं , गणित का कुछ ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक हो जाता है ।

 एक विशेषज्ञ को अपने क्षेत्र में गणित का सरलतापूर्वक प्रयोग करने के लिए उसका पर्याप्त ज्ञान अवश्य प्राप्त करना चाहिए ।

• ऐसे व्यवसायों की संख्या जिनमें गणित के ज्ञान की आवश्यकता होती है , बहुत अधिक है तथा निरन्तर बढ़ती ही जा रही है । _

 _ गणित का प्रकृति से भी गहरा सम्बन्ध है ।

 प्राकृतिक क्रियाओं में विविधता में परिवर्तन मुख्य है ।

 चलन - कलन में परिवर्तन का ही अध्ययन किया जाता है , अतः इसे प्रकृति का गणित कहा जा सकता है ।

 प्राकृतिक विज्ञान जैसे - ज्योतिर्विज्ञान तथा भौतिक विज्ञान अधिकांशत : गणित के समान ही हैं ।

 ऐसा माना जाता है कि बल और क्रियाओं के बीच में गणितीय सम्बन्ध रहता है ।

 इन सम्बन्धों की खोज तथा नियमीकरण से ही किसी विषय का निश्चित ज्ञान हो पाता है ।

 गणित के ज्ञान के बिना प्रकृति का अध्ययन नहीं हो सकता ।

 माध्यमिक  विद्यालयों के विद्यार्थी चाहे पूर्ण रूप से इस तथ्य की अनुभूति न कर सकें , परन्तु वह प्रकृति में गणितीय रचना की झलक अवश्य देख सकते हैं ।

गणित में विद्यार्थी को इस बात की आवश्यकता होती है कि वह स्थिति को ठीक रूप से देखें ।

 प्रायः अनेक अनावश्यक विचरणों में से तथ्यों की खोज करनी पड़ती है ।

 एक विद्यार्थी को स्पष्ट और शीघ्रता से यह जानना होता है कि क्या दिया है और क्या ज्ञात करना है ।

 गणित में प्रयुक्त होने वाली प्रक्रिया अनुमानात्मक है । अन्ततः हमारे सभी विचार इसी प्रकार के हैं ।

 यदि हम किसी व्यवसाय अथवा व्यापार को चुनते हैं तो हमें एक निश्चित मार्ग अपनाना पड़ता है ।

 यदि हम अपने धन को एक विशेष ढंग से खर्च करते हैं , किसी राजनैतिक दल को वोट देते हैं , किसी समिति का कार्य सम्भालते हैं ।

 जब कभी भी हमें कार्य करने के विभिन्न तरीकों में से एक का निश्चय करना पड़ता है तो अनुमानात्मक वृत्ति ही हमारे सामने रह जाती है ।

 इस महत्वपूर्ण आदत का सामान्य प्रशिक्षण एवं अभ्यास कराने के लिए गणित शिक्षा एक शक्तिशाली शस्त्र बन सकता है ।

 इसमें तथ्यात्मक सूचनाएँ कम से कम होती हैं तथा ध्यान को आवश्यक तथा पर्याप्त शब्दों की खोज में तथा निष्कर्ष निकालने पर ही केन्द्रित कर दिया जाता है ।

 ऐसे शब्दों के द्वारा , जिनकी संक्षिप्त ढंग से परिभाषा की गयी हो एवं चिह्नों के प्रयोग से , किसी भी तर्क का सार बड़ी स्पष्टता से प्रकट हो जाता है ।

वाइगोस्तकी के विशेष संदर्भ में, बच्चे भाषा कैसे सीखते हैं?


वाइगोस्तकी:संज्ञानात्मक विकास उपागम (Lev Vygotsky's Zone of Proximal Development )


 लिव सिमनोविच वाइगोत्सकी ( Lev Vygotsky , 1896 - 1934 ) का सामाजिक दृष्टिकोण संज्ञानात्मक विकास का एक प्रगतिशील विश्लेषण प्रस्तुत करता है ।

 वस्तुत : रूसी मनोवैज्ञानिक वाइगोत्सकी ने बालक संज्ञानात्मक विकास में समाज एवं उसके सांस्कृतिक सम्बन्धों के बीच संवाद को एक महत्त्वपूर्ण आयाम घोषित किया ।

 पियाजे की तरह वाइगोत्सकी ( 1896 - 1934 ) भी यह मानते थे कि बच्चे ज्ञान का निर्माण करते हैं । किन्तु इनके अनुसार संज्ञानात्मक विकास एकाकी नहीं हो सकता , यह भाषा विकास , सामाजिक विकास , यहाँ तक कि शारीरिक विकास के साथ - साथ सामाजिक - सांस्कृतिक सन्दर्भ में होता है ।

 वाइगोत्सकी के अनुसार , बच्चे के संज्ञानात्मक विकास को समझने के लिए एक विकासात्मक उपागम की आवश्यकता है जो कि इसका शुरू से परीक्षण करे तथा विभिन्न रूपों में हुए परिवर्तन को ठीक से पहचान पाए । इस प्रकार एक विशिष्ट मानसिक कार्य ; जैसे - आत्म - भाषा ( inner speech ) को विकासात्मक प्रक्रियाओं के रूप में मूल्यांकित किया जाए न कि एकाकी रूप से ।

 _ _ _ वाइगोत्सकी के अनुसार , यह आवश्यक है कि संज्ञानात्मक विकास को समझने के लिए उन औजारों का परीक्षण ( जो कि संज्ञानात्मक विकास में मध्यस्थता करते हैं तथा उसे रूप प्रदान करते हैं ) अति आवश्यक है । इसी के आधार पर वह यह भी मानते हैं कि भाषा संज्ञानात्मक विकास का महत्त्वपूर्ण औजार है ।

 इनके अनुसार आरम्भिक बाल्यकाल में ही बच्चा अपने कार्यों के नियोजन एवं समस्या समाधान में भाषा का औजार की तरह उपयोग करने लग जाता है ।

 इसके अतिरिक्त वाइगोत्सकी का यह भी मानना है कि संज्ञानात्मक कौशल आवश्यक रूप से सामाजिक एवं संस्कृति सम्बन्धों में बुने होते हैं ।
 वाइगोत्सकी , के अनुसार , जैविक कारक मानव विकास में बहुत ही कम किन्तु आधारभूत भूमिका निभाते हैं , जबकि सामाजिक कारक उच्चतर संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं ( जैसे - भाषा , स्मृति व अमूर्त चिन्तन )में लगभग सम्पूर्ण व महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं ।

 पियाजे के सिद्धान्त ( जिसमें जैविकता तथा विकास अधिगम में अग्रणी भूमिका निभाते हैं ) के विपरीत वाइगोत्सकी के सिद्धान्तानुसार अधिगम व विकास सांस्कृतिक व सामाजिक वातावरण की मध्यस्थता के साथ चलते हैं ।

 सम्भावित विकास का क्षेत्र ( जिसकी चर्चा हम आगे करेंगे ) इस प्रक्रिया को और स्पष्ट करता है । उनका कहना है कि बालक के विकास को सामाजिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों से अलग नहीं किया जा सकता , वह इन गतिविधियों में अन्तर्निहित होता है ।

 वाइगोत्सकी के अनुसार , अधिगम पहले बच्चे तथा वयस्क ( या कोई भी अधिक ज्ञानवान व्यक्ति ) के बीच होता है तथा बाद में इनके अनुसार समृति ध्यान , तर्कशक्ति के विकास में , समाज की खोजों को सीखना ( जैसे - भाषा , गणितीय प्रविधियाँ तथा स्मृति रणनीतियाँ , इत्यादि ) शामिल होता है । मसलन किसी एक संस्कृति में कम्प्यूटर द्वारा गिनना अथवा किसी अन्य में अंगुलियों या मोतियों द्वारा गिनना । अत : इन तरीको को ही बच्चा सीखता है ।

_ _ _ वाइगोत्सकी के सिद्धान्त के अनुसार ज्ञान बाह्य वातावरण में स्थित तथा सहयोगी होता है अर्थात् ज्ञान विभिन्न व्यक्तियों एवं वातावरण ( जैसे - वस्तुओं , औजारों , किताबें , मानवीय निर्मितियाँ , इत्यादि ) तथा समुदायों ( जिनमें व्यक्ति रहता है ) में वितरित होता है ।

 यह सिद्धान्त सुझाता है कि दूसरों के साथ अन्त : क्रिया तथा सहयोगात्मक क्रियाओं द्वारा जानने की प्रक्रिया गुणात्मक रूप से श्रेष्ठ होती है ।

 इन दावों के आधार पर वाइगोत्सकी अधिगम तथा विकास के बारे में विशिष्ट तथा प्रभावी विचार प्रकट करते हैं ।

 अत : वे इस बात पर जोर देते हैं कि संज्ञानात्मक विकास की प्रकृति वस्तुतः सामाजिक है न कि संज्ञानात्मक , जैसा कि पियाजे का मानना है । इस प्रकार पियाजे का सिद्धान्त निर्मितिवाद है जबकि वाइगोत्सकी का सिद्धान्त सामाजिक निर्मितिवाद है ।

 वाइगोत्सकी के इन शब्दों से यह और भी अधिक स्पष्ट होता है - " हमारे स्वयं का विकास दूसरों के द्वारा होता है । " 

अत : वाइगोत्सकी के अनुसार , सभी मानसिक या बौद्धिक क्रियाएँ पहले बाहरी समाज की दुनिया में घटित होती हैं तथा अन्त : क्रियाओं द्वारा बच्चे अपने समुदाय की संस्कृति ( सोचने और व्यवहार करने के तरीके ) को सीखते हैं और इसी के चलते वाइगोत्सकी ने सामाजिक वातावरण के विभिन्न पक्षों ; जैसे - परिवार , समुदाय , मित्र तथा विद्यालय की बच्चों के विकास में भूमिका पर बल दिया ।

 सम्भावित विकास का क्षेत्र ( Zone of Proximal Development , ZPD ) :


वाइगोत्सकी द्वारा प्रयुक्त यह संप्रत्यय उस अन्तर को परिभाषित करता है जो कि बच्चे के द्वारा बिना किसी सहायता के किये गये निष्पादन तथा किसी वयस्क या अधिक कुशल साथी की मदद से किये गये निष्पादन में होता है । दूसरे शब्दों में , बच्चा जो कर रहा है तथा जो करने की क्षमता रखता है , के बीच के क्षेत्र को ZPD कहा जाता है । 


वाइगोत्सकी ने   सामाजिक प्रभाव , मुख्यतः निर्देशन ( बच्चे के संज्ञानात्मक विकास में योगदान ) को दर्शाने हेतु ZPD के संप्रत्यय का प्रयोग किया । _ _ _ बच्चे का ZPD आँकने हेतु ( उदाहरण के लिए ) बुद्धि परीक्षण में 2 बच्चों की मानसिक आयु 8 वर्ष आँकी गई ।

 इसके पश्चात् यह देखने का प्रयोग किया गया कि बच्चे किस स्तर तक अपने से उम्र में बड़े बच्चों के लिए तैयार की गई समस्याओं पर कार्य कर सकते हैं ।

 इसके लिए बच्चों की करके दिखाना विधि , समस्या समाधान विधि , प्रश्न विधि तथा समाधान के शुरुआती चरण का प्रारम्भ करना , आदि के साथ मदद की गई ।

 इस प्रयोग में देखा गया कि वयस्क की मदद एवं साथ से एक बच्चा 12 वर्षीय बच्चे के लिए बनाई गई समस्या भी हल कर पाया तथा दूसरा बच्चा 9 वर्षीय बच्चे के लिए बनाई गई समस्या को हल कर पाने में सफल रहा ।


_ _ _ वाइगोत्सकी के अधिगम की विशेषताएँ ( Characteristics of Learning theory of Vygotsky ):-ये निम्न प्रकार हैं --

1 . . अधिगम में प्रमुखतः सांस्कृतिक संगठन , सामाजिक संख्याएँ , विद्यालय तथा संस्कृति का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है ।

 2 . मानव के व्यवहार परिवर्तन का प्रमुख आधार संस्कृति , सामाजिक तथा ऐतिहासिक परम्पराएँ होती हैं जो व्यक्ति को प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से अधिगम हेतु प्रेरित करती हैं ।

 3 . अधिगम एक सार्वभौमिक क्रिया है जो निरन्तरता की स्थिति में पायी जाती है अतएव वह प्रक्रिया सतत रूप से चलती रहती है ।

 4 . व्यक्ति अपने व्यावहारिक विकास के उपाय तथा साधनों में बदलाव करता हुआ विशिष्ट प्रकार के व्यावहारिक स्वरूप तथा विकास प्रक्रिया का निर्माण करता है ।

 5 . अन्त दृष्टि के द्वारा विद्यालय छात्रों को अधिगम प्रक्रिया का एक निर्देशित स्वरूप प्रदान करता है ।

 6 : अधिगम प्रक्रिया का मूल्यांकन व्यक्तिगत विशेषताओं के विश्लेषण की अपेक्षा सामाजिक गत्यात्मकता के विश्लेषण पर आधारित होना चाहिए ।

 7 . यह सिद्धान्त सांस्कृतिक , सामाजिक मनोवैज्ञानिक तथ्यों के समन्वय से अधिगम प्रक्रिया का सम्पन्न होना माना जाता है ।

 8 . अधिगम प्रक्रिया को कुशलतापूर्वक सम्पन्न करने तथा अधिगम की गति में वृद्धि करने के लिए बालकों को क्रियाशीलता की स्थिति में रखना चाहिए ।

 9 . समस्या समाधान की योग्यता ही अधिगम प्रक्रिया का एक महत्त्वपूर्ण भाग है , जिसे प्रत्येक स्थिति में अधिगम के लिए प्राप्त करना होता है । 


10 . सीखने की प्रक्रिया विकास पर आधारित होती है परन्तु विकास सीखने की प्रक्रिया पर आधारित . नहीं होता है क्योंकि विकास सीखे गये क्षेत्र से अधिक क्षेत्र में भी हो सकता है ।

 11 . अधिगम प्रक्रिया में ZPD का विशेष महत्त्व होता है । 

12 . जो हम जानते हैं तथा जो हम नहीं जानते हैं उनके मध्य को ही विकास का रिक्त स्थान माना जाता है।

 13 . सीखने की प्रक्रिया में अन्त : क्रिया ही एक प्रेरणास्रोत का कार्य करती है ।

 14 . सीखने की प्रक्रिया में दूसरे व्यक्तियों का अनुकरण करना एवं छात्र द्वारा शिक्षक का अनुकरण करना , आदि । 

 15 . अधिगम प्रक्रिया में सांस्कृतिक संगठनों के उपाय तथा मनोवैज्ञानिक तथ्य उत्तरदायी होता है ।



C-4: language across the Curriculum,B.Ed. Questions Paper 2018




गणित शिक्षण की चुनौतियाँ



  • गणित के प्रति माहौल: 
  • समाज और शिक्षक दोनों ही वर्ग उन्हीं बच्चों को बुद्धिमान के खिताब से नवाजते हैं, जो संख्याओं, संक्रियाओं और सूत्र याद कर उसमें मान रखकर सवाल को तीव्र गति से हल करने में महारत हासिल करना भर सीख जाते हैं। जो बच्‍चे इन दक्षताओं को हासिल नही कर पाते हैं उन पर मन्द बुद्धि,  कुछ नहीं कर पाने के लेबल लगाना भी शुरू किया जाता है जिसके चलते तथाकथित कमजोर गणित वाले बच्‍चे अपने साथियों, परिवारजनों व शिक्षकों के बीच खिल्ली के पात्र बनते दिखलाई पड़ते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि कुछ तो हिम्मत कर दसवीं कक्षा तक जैसे-तैसे पास कर लेते हैं कि उसके बाद गणित का पीछा छूट जाएगा। और कुछ जो दसवीं तक गणित नहीं कर पाते हैं वे विद्यालय छोड़कर कोई कामकाज में संलग्न होना ज्यादा मुनासिब समझने लगते हैं। छात्राओं से कहा जाने लगता है कि यह विषय लड़कियों के बस का नहीं है।
  • हमारा गणित से रिश्‍ता  

  • गणित विषय की दैनिक जीवन में उपयोगिता वाले पहलू को देखा जाए तो ऐसा कोई कार्य नजर ही नहीं आता, जहाँ बिना गणित के कुछ सम्भव हो पा रहा हो। मजदूर, किसान, दुकानदार, नौकरी करने वाला और चाहे कोई भी महिला-पुरूष, बच्चे जिसने शिक्षा प्राप्त की हो या नहीं की हो, सभी अपनी जिन्दगी में गणित का बखूबी से उपयोग करते दिखलाई पड़ते हैं। एक किसान को अपने खेत में हुई फसल की मात्रा का पूर्व निर्धारण करना हो, खेत में बीजारोपण के समय लगने वाले बीज की मात्रा का पता लगाना हो, फसल काटने के दौरान समय मजदूरी का निर्धारण करना हो या उतनी फसल के लिए आवश्‍यक बोरियों की संख्या का पता लगाना हो वह सटीकता के साथ लगा लेता है। घर पर किसी भी दैनिक क्रियाकलाप को ले लें, चाहे वह नहाने धोने का कार्य हो, बच्चों का खेलना हो, रसोई का कार्य करना हो या बाजार में   खरीददारी हो सभी कार्यो में गणितीय कौशलों (अन्दाजा, अनुमान, समस्या समाधान के विभिन्न मॉडल सोचना, सादृष्यीकरण, गणितीय सम्प्रेषण, निरूपण, सामान्यीकरण आदि ) का उपयोग किया जाता है। जिसने गणित की औपचारिक शिक्षा नहीं ली हो वो मौखिक और जिसने औपचारिक शिक्षा ली है वो मौखिक और लिखित दोनों ही रूपों में इस्तेमाल कर पाते हैं।
  • शिक्षा द्वारा हम ऐसे नागरिकों को तैयार करने की पैरवी करते हैं जहाँ व्यक्ति दूसरों की बातों को बिना सोचे-समझे स्वीकार न करे, बल्कि उस बात पर तथ्यों के साथ सोच विचार /तर्क करते हुए स्वयं से फैसला ले कि क्या सही है? और क्या गलत है?
  • गणित हमें तर्क करना, समस्या समाधान करने, बेहतर विकल्प तलाशने, सामान्यीकरण करने में मददगार होता है। ऐसी सोच को विकसित करने में गणित हमें ऐसे कौशलों, तौर-तरीकों को सिखाता है। गणित की ऐसी खूबी से ही स्कूली गणित का महत्व अनिवार्य विषय के तौर पर मजबूत होता है।
  • गणित विषय के इस सामाजिक और दैनिक जीवन में उपयोगिता के पहलू को ध्यान में रखते यह सोचना जरूरी हो जाता है कि क्या सच में गणित बहुत ही कठिन विषय है या इसे प्रस्तुत ही इस प्रकार से किया गया है कि इसे सभी नहीं कर सकते हैं।
  • हर बच्चा अपने आप में खास व्यक्तित्व रखता है जिसमें खास रुचियाँ, काबिलीयत होती है जिन्हें बढ़ावा देना लाजमी है। इसीलिए गणित में रुचि रखने वालों के लिए यह दायरा खुला रहना चाहिए जिससे वह गणित में योगदान दे सकें, गणित में जी सकें, आनन्द ले सकें और सामान्य रुचि वाले विद्यार्थी अपने जीवन को बेहतर बनाने के साथ-साथ अन्य विषयों को सीखने में मदद के तौर पर उपयोग कर सकें।

  • गणित प्रकृति के पहलू

  • गणित विषय की प्रकृति में अवधारणाओं की अमूर्तता, सर्पिलाकर क्रमबद्धता, सार्वभौमिकता व गणित विषय के ज्ञान निर्माण में निगमनात्मक तर्क शामिल हैं। गणितीय ज्ञान का निर्माण स्वयंसिद्ध मान्यताओं, परिभाषाओं, नियमों और पहले से सिद्ध की गई बातों की सहायता से तर्क करते हुए ही किया जाता है। उदाहरण के तौर पर त्रिभुज के तीनों कोणों का योग 180 डिग्री होता है इसे किसी प्रयोगशाला में   प्रयोग करके नहीं बताया जा सकता है। यह ज्ञान संसार के सभी स्थानों पर एक-सा रहेगा वातावरण का कोई प्रभाव दिखलाई नहीं पड़ता है। गणित अवधारणा के इस भौतिक जगत में कोई ठोस उदाहरण नहीं दिखलाई पड़ता है।
  • उदाहरण के तौर पर त्रिभुज की ही बात की जाए तो त्रिभुज समतल पर तीन सरल भुजाओं से बन्द आकृति है। क्या ऐसा कोई उदाहरण हो सकता है या नहीं? ठोस उहाहरण के लिए समतल बनाना होगा जो रेखाओं की समानान्तर गति से बनेगा जिसमें दो विमा का होना आवश्‍यक है, रेखा(केवल लम्बाई) का निर्माण बिन्दुओं की गति से बनेगा, बिन्दु ऐसा होना चाहिए जिसकी कोई लम्बाई, चौड़ाई और मोटाई नहीं हो। अगर बात करें कि बिना विमा के बिन्दु से लम्बाई वाली रेखा का निर्माण कैसे होगा? और लम्बाई वाली रेखा से चौड़ाई का निर्माण कैसे होगा? यह सब भौतिक जगत में तो सम्भव नहीं है केवल और केवल काल्पनिक और तार्किक रूप में ही सम्भव हो पाएगा। क्रमबद्धता गणितीय अवधारणों की खासियत के तौर दिखलाई देती है इसे भी समझने के लिए हम देख सकते हैं कि बिना बिन्दु के रेखा की बात की नहीं की जा सकती है, बिना रेखा के तल की बात नहीं की जा सकती है बिना तल के त्रिभुज की बात नहीं की जा सकती है और बिना त्रिभुजों के बहुभुजों को नहीं समझा जा सकता है।
  • सीखने-सिखाने के तौर-तरीके
  • सीखने को लेकर विभिन्न सिद्धान्‍तों में से आज के समय में रचनावादी नजरिये को प्रमुखता दी जाती है। राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 ने भी विद्यालयो में    ‘  स्वयं करके सीखने’  को लेकर ही पाठ्यपुस्तकों का निर्माण किया गया है। सीखने में केवल सीखने के तौर-तरीका ही मायने नहीं रखते, बल्कि उसके साथ में और भी पहलुओं पर ध्यान दिया जाना आवश्‍यक है।

  • प्राथमिक (6 से 11 आयु), उच्च प्राथमिक(12 से 14), माध्यमिक (15से 16) और उच्च माध्यमिक (17 से 18) स्तर पर बच्चों की शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक अवस्था का सीखने के तौर-तरीकों में खासा ध्यान रखना पड़ता है। खासतौर पर प्राथमिक कक्षाओं के बच्चे बड़ों के प्यार, सहानुभूति और सहारे की अपेक्षा रखते हैं। वहीं उच्च प्राथमिक स्तर के बच्चे चुनौतियों को स्वीकार करने, पैटर्नों/समस्या समाधान के हल को तलाशने, नेतृत्व क्षमता को लेकर आगे बढ़ने, दूसरों की मदद करने के लिए आगे आने लगते हैं। उच्च प्राथमिक स्तर पर बच्चों की रुचियाँ उभरकर आने लगती हैं वो बताने लगते हैं कि क्या अच्छा लगता है और क्या बुरा, किसमें मजा आ रहा है और किसमें नहीं।

  • स्वयं करके सीखने में प्राथमिक स्तर के बच्चों को थोड़ी-थोड़ी देर में शिक्षक की मदद की जरूरत होती है। अकसर बच्चे मदद सीधे तौर पर नहीं माँगते हैं बल्कि शिक्षक को ही सचेत रहना पड़ता है कि बच्चों को अब कहाँ मदद करनी है। वहीं उच्च प्राथमिक स्तर पर बच्चे स्वयं से झूझना शुरू करते हैं और जहाँ मदद की जरूरत होती है वहाँ मदद माँगने भी लगते हैं।

  • विषय की प्रकृति, सीखने के सिद्धान्‍त, बच्चों के मनोविज्ञान व विषयवस्‍तु को ध्यान में रखते हुए भी शिक्षण शास्त्र का निर्धारण शिक्षक को करना होता है।

  • शिक्षक को शिक्षण के दौरान मानक विधियों की बजाय जोर इस बात पर देना चाहिए कि बच्चों द्वारा किसी भी प्रकार से किए गए गणित को स्वीकारे, प्रोत्साहन दे और गणित में रुचि पैदा करने में मददगार की भूमिका में रहे। उदाहरण के तौर पर संक्रिया के सवाल को विद्यार्थी अक्सर शिक्षक द्वारा बताए रास्ते को पकड़ते हैं और नई स्थिति आने पर वैसा ही पुनः करने की कोशिश करते हैं। जैसे संक्रिया बिना हासिल/उधार के सवालों को समझ लेने के बाद नई स्थितियों में दुबारा से वैसा ही करने का प्रयास करते हैं।

  • प्राथमिक और उच्च प्राथमिक कक्षाओं में गणित शिक्षण
  • खासकर प्राथमिक और उच्च प्राथमिक स्तर पर गणित जैसे विषय में शिक्षक के लिए अन्य विषयों से ज्यादा चुनौती भरा कार्य इसलिए हो जाता है कि विषय की प्रकृति (अमूर्तता, सर्पिलाकर क्रमबद्धता, सार्वभौमिकता व गणित विषय के ज्ञान निर्माण में निगमनात्मक तर्क) और बालमनोविज्ञान, सीखने के सिद्धान्‍त के बीच तालमेल बैठाना पड़ता है।
  • प्राथमिक कक्षा

  • प्राथमिक कक्षाओं में अमूर्तता से बाहर निकलकर दैनिक जीवन के उदाहरणों के साथ गणित शिक्षण को शुरू किया जाना चाहिए।

  • दैनिक जीवन की घटनाओं में पैटर्न, संख्या ज्ञान, संक्रियाँ, आँकड़ों के प्रबंधन और स्थानिकता की समझ को लेकर शिक्षण गतिविधियों का चयन किया जाना चाहिए जिसमें बच्चा गणित करने के साथ-साथ गणित को जीवन के साथ जोड़कर देख सके।

  • ऐसा नहीं होना चाहिए कि कक्षा-कक्ष में किया गया गणित कोई और है और दैनिक जीवन में किया जाने वाला गणित कोई और। इन दोनों के बीच अन्तर नहीं होना चाहिए। गतिविधियों के चयन में गीत,कविता, कहानी, खेल का समावेश किया जाना ही होगा।

  • उच्च प्राथमिक स्तर

  • उच्च प्राथमिक स्तर पर कक्षा-कक्ष में दैनिक जीवन के अनुभवों को शामिल करते हुए गणित शिक्षण के उन कौशलों (अन्दाजा, अनुमान, समस्या समाधान के विभिन्न मॉडल सोचना, सादृष्यीकरण, गणितीय सम्प्रेषण, निरूपण सामान्यीकरण आदि) को विकसित करने पर जोर होना चाहिए जो गणित को उपयोगिता के साथ जोड़ने और गणित में रुचि बढ़ाने में मदद करें।

  • खासतौर से यह देखा समझा गया कि उच्च प्राथमिक स्तर के गणित में   आगमन तर्क के द्वारा किसी निष्कर्ष तक पहुँचे। उदाहरण के तौर पर संख्याओं में पैटर्न ढूँढ़ते हुए सामान्यीकरण कर सूत्रों का निमार्ण करें, अंकगणित का सामान्यीकरण करते हुए बीजगणित की ओर बढ़ें, स्थानिकता के दैनिक अनुभवों का उपयोग करते हुए यूक्लिड ज्यामिति की ओर बढ़ें, आँकड़ों के रखरखाव से आगे बढ़ते हुए आँकड़ों का विश्‍लेषण करने की ओर बढ़ें।

  • उच्च प्राथमिक स्तर के बच्चे खासतौर से समाधान की विभिन्न युक्तियों को लेकर नए-नए तरीके खोजने लगते हैं इसलिए शिक्षक को शिक्षण के दौरान ऐसे स्कोप हमेशा बनाए रखने चाहिए जिसमें विद्यार्थी अपने तरीकों को खुलकर बता सकें, उन पर बात कर सकें, तरीकों की खामियों को पहचान सकें और अन्त में मानक विधियों की ओर बढ़ने लगें।   

  • प्राथमिक और उच्च प्राथमिक स्तर पर गणित का शिक्षण करवाने वाले शिक्षक के साथ विभिन्‍न पहलुओं पर कार्य किया जाना चाहिए।
  • गणित के प्रति सामाजिक नजरिये में बदलाव
  • शिक्षक को यह समझना चाहिए सभी बच्चे गणित कर सकते हैं, सभी गणित सीख सकते हैं। गणित पर लड़कों का ही हक होता है ऐसा नहीं है लड़कियाँ भी उतना ही गणित सीख सकती हैं जितना लड़के सीख सकते हैं। गणित विषय के इस सामाजिक पहलू पर बात की जानी चाहिए। इस पर किए गए शोध कार्यों से अवगत कराया जाना चाहिए। महिलाओं द्वारा गणित में किए गए योगदान, बाजार, घर पर महिलाओं द्वारा की जाने वाली गणित की गतिविधियों पर बातचीत होनी ही चाहिए। इस पहलू पर बात करने के उपरान्त ही शिक्षक कक्षा-कक्ष में उन उदाहरणों को शामिल कर पाएगा जिसमें लड़कियों, महिलाओं के नाम होंगे, सभी तरह के कार्यो को कर सकने में महिलाओं, बच्चियों के नाम शामिल हो पाएँगे।
  • गणित विषय की प्रकृति और शिक्षण के उद्देश्‍य की समझ
  • शिक्षक के साथ इस बिन्दु पर विस्तार से विमर्श करते रहना आवश्‍यक है कि गणित विषय में ज्ञान निर्माण के तौर-तरीके बाकी विषयों से भिन्न हैं। गणित स्वयं सिद्ध मान्यताओं, परिभाषाओं, नियमों और पूर्व में सिद्ध की जा चुकी बातों के सहारे निगमनात्मक तर्क करते हुए ही आगे बढ़ता जाता है। प्राथमिक उच्च प्राथमिक कक्षाओं के अन्दर जो इस प्रकार का ज्ञान निर्माण नहीं करवाया जा सकता है लेकिन आगे की कक्षाओ में जाने से पूर्व बच्चों को वे सभी आधार उपलब्ध कराएँ जिनसे भविष्य में बच्चे गणित के वास्तविक ज्ञान निर्माण की ओर बढ़ सकें।
  • आरम्भिक कक्षाओ में गणित को संख्याओं, संक्रियाओं व तीव्र गणनाओं तक सीमित न मानते हुए गणित शिक्षण के उन उद्देश्‍यों की ओर ज्यादा ध्यान देने की आवश्‍यकता पर बल देना चाहिए। एन.सी.एफ. 2005 के अनुसार उच्चतर उद्देश्‍य को प्राप्त करने हेतु गणित विषयवस्तुओं के सहारे आगे बढ़ना चाहिए। शिक्षक को यह समझ आना चाहिए कि पाठ्यपुस्तक एक रास्ता सुझाती है, पाठ्यपुस्तक सब कुछ नहीं हो सकती है। गणित शिक्षक के उद्देश्‍यों पर समझ होने के बाद शिक्षक स्वयं के स्तर पर ही ऐसी गतिविधियों का चयन कर सकता है जो उच्चतर उद्देश्‍य को प्राप्त कर सकने में मददगार हो।
  • गणित विषयवस्तु की गहरी समझ
  • आरम्भिक कक्षाओं के अध्यापकों को यह नहीं मानकर चलना चाहिए कि हम तो प्राथमिक, उच्च प्राथमिक तक की कक्षाओं को पढ़ाते हैं तो उतनी ही समझ रखनी चाहिए। हमने ऊपर बात की थी कि गणितीय अवधारणाओं में खास प्रकार की सर्पिलाकर क्रमबद्धता होती है कक्षा 1 की अवधारणा कक्षा 10 तक या और भी आगे  किस प्रकार से आगे बढ़ती रहती है।
  • उदाहरण के तौर पर-

  • प्राकृत संख्याओं से आगे का जुड़ाव पूर्ण संख्या के साथ किस प्रकार से है उसकी जरूरत क्यों पड़ी है? पूर्ण संख्या ही इसका अगला स्तर क्यों है?

  • पूर्ण संख्या के समूह में क्या-क्या नहीं कर पा रहे थे? और हमें नए सेट पूर्णाकों की क्यों आवश्‍यकता लगने लगी इस पर विचार होना आवश्‍यक है।

  • पूर्णाकों के सेट से भी आगे बढ़ते हुए हम किस प्रकार से परिमेय /अपरिमेय संख्या के सेट को बना पाए।

  • इन सबको मिलाकर हमने वास्तविक संख्या समूह बना लिया, उसके बाद भी कुछ और ऐसी स्थितियाँ उत्पन्न हो गईं जो इन सेट में नहीं आ पा रही हैं उन्हे काल्पनिक संख्याओं का दर्जा दिया गया।

  • इस प्रकार से अगर शिक्षक के पास अवधारणाओं की क्रमबद्धता की समझ हो तो कक्षा-कक्ष में बच्चों के साथ उनके स्तर के अनुसार कार्य सम्पन्न करा पाएगा। बच्चे कहाँ पर अटक रहे हैं उनको पहचान पाएगा और उचित समाधान भी निकाल पाएगा।
  • शिक्षण की नवाचारात्मक शिक्षण विधियों से अपडेट करना
  • किसी दूरदराज गाँव में शिक्षण करवा रहे शिक्षक के पास अगर गणित परिप्रेक्ष्य  और विषयवस्तु पर गहराई के साथ कार्यशालाओं में कार्य करने के बाद में स्कूल स्तर पर उन गतिविधियों का पूल/गतिविधि, बैंक/शिक्षण अधिगम सामग्री का सेट होना चाहिए, जिसे वह कक्षा-कक्ष में समझ के साथ उपयोग कर सके। वह अन्य साथियों से बात कर सके, शिक्षण के दौरान के अनुभव साझा कर सके ऐसे फोरम स्‍थानीय स्‍तर पर बनाए जाने चाहिए। समय-समय पर विषय आधारित लेख,पत्र-पत्रिकाएँ उपलब्ध करवाई जाती रहनी चाहिए।o

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