राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा (एन.सी.एफ.) के अनुसार:
“आदिकाल से प्रकृति के विस्मय से अभिभूत मनुष्य की महत्वपूर्ण प्रतिक्रिया रही है - अपने भौतिक और जैविक पर्यावरण का ध्यान से निरीक्षण करना, उनमें अर्थपूर्ण संयोजनों (पैटर्न्स) और सम्बन्धों को खोजना, प्रकृति से काम लेने के लिए औजार बनाना, और संसार को समझने के लिए अवधारणाएँ गढ़ना। इन्हीं मानवीय प्रयासों की परिणति आधुनिक विज्ञान में हुई है।”
विज्ञान शिक्षण का उदारवादी दृष्टिकोण इस विश्वास पर आधारित है कि विज्ञान की शिक्षा के साथ-साथ विज्ञान के बारे में भी जानना ज़रूरी है। विज्ञान के शिक्षकों को उस विषय के इतिहास और प्रकृति का भी कुछ ज्ञान होना चाहिए जो वे पढ़ा रहे हैं। विज्ञान को इतिहास और दर्शन के बोध से सम्पन्न दृष्टि से पढ़ाया जाना विद्यार्थियों में प्रकृति की समझ को जन्म देता है। उन्हें प्रकृति और विज्ञान के सौन्दर्य का रस लेना सिखाता है। उनमें वैज्ञानिक जानकारी और क्रियाकलाप से उजागर होने वाले नीतिगत मुद्दों के प्रति चेतना जगाता है।
एन.सी.एफ. ने भारत में मौजूदा विज्ञान-शिक्षण के जटिल परिदृश्य में स्पष्ट दिखाई देने वाले तीन महत्वपूर्ण मुद्दों को चिह्नित किया है:
- संविधान में घोषित समता और समानता का लक्ष्य हासिल करने के लिए विज्ञान शिक्षण को अभी लम्बी दूरी तय करना है।
- विज्ञान शिक्षण, अच्छी से अच्छी स्थितियों में भी, एक प्रकार की कुशलता तो विकसित करता है, परन्तु अनुसंधान करने और नया रचने की वृत्तियों को प्रोत्साहित नहीं करता।
- विज्ञान शिक्षण की अधिकांश - या शायद सभी - समस्याओं की जड़ उस पर हावी परीक्षा प्रणाली है।
एन.सी.एफ. के अनुसार, विज्ञान शिक्षण से सीखने वाला इस काबिल बनना चाहिए कि:
- जैसे-जैसे संसार को पहचानने की उसकी क्षमता बढ़े, वैसे-वैसे वह उससे जुड़े वैज्ञानिक तथ्यों और सिद्धान्तों को भी जाने और उनके विभिन्न उपयोगों से भी परिचित हो।
- वह ऐसा कौशल हासिल कर सके और उन विधियों तथा प्रक्रियाओं को समझ सके, जिनके उपयोग से वैज्ञानिक ज्ञान का जन्म होता है और उसकी सत्यता की पुष्टि भी होती है।
- उसमें विज्ञान की ऐतिहासिक और विकासपरक दृष्टि का विकास हो, और वह विज्ञान को एक सामाजिक अभिक्रम की तरह देख सके।
- वह पूरे परिवेश (प्राकृतिक पर्यावरण, कृत्रिम रचनाओं और लोग) से जुड़ाव महसूस कर सके। इस परिवेश की समझ केवल स्थानीय न होकर वैश्विक हो। ताकि वह विज्ञान, तकनीक और समाज के संगम से उपजने वाले मुद्दों का महत्व समझ सके।
- वह संसार के कर्मक्षेत्र में उतर सकने के लिए ज़रूरी सैद्धान्तिक ज्ञान और व्यावहारिक तकनीकी कौशल हासिल कर ले।
- उसकी सहज जिज्ञासा, सौन्दर्यबोध और रचनात्मकता को पोषण मिले।
- वह ईमानदारी, निष्ठा, सहभागिता तथा जीवन और पर्यावरण की फिक्र जैसे मूल्यों को आत्मसात कर सके।
- उसमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित हो, अर्थात् उसकी दृष्टि तटस्थ और तथ्यात्मक हो, उसकी सोच स्वतंत्र हो। वह स्वयं भय और पूर्वाग्रहों से मुक्त हो।
एन.सी.एफ.-2005 में दिए गए वर्णन के अनुसार, वैज्ञानिक पद्धति आपस में सम्बन्धित कई गतिविधियों को मिलाकर बनती है। जैसे कि: निरीक्षण, देखे गए तथ्यों में समानताओं और समरूपी संरचनाओं की खोज करना, अवधारणाएँ बनाना, स्थितियों के गुणात्मक और गणितीय प्रारूप गढ़ना, तार्किक ढंग से उनके निष्कर्ष निकालना, और प्रेक्षणों तथा नियंत्रित प्रयोगों के द्वारा सिद्धान्तों के सच-झूठ होने की पुष्टि करना, और इस तरह अन्त में प्राकृतिक संसार पर लागू होने वाले सिद्धान्तों , धारणाओं तथा नियमों पर पहुँचना। विज्ञान के नियम अचल शाश्वत सत्यों की तरह नहीं देखे जाने चाहिए। यहाँ तक कि, सर्वाधिक स्थापित और सार्वभौमिक वैज्ञानिक नियम भी तात्कालिक ही माने जाने चाहिए जो नए प्रेक्षणों, प्रयोगों और विश्लेषणों की रोशनी में संशोधित किए जा सकते हैं।
एन.सी.एफ. में पाठ्यक्रम को सीखने के विभिन्न चरणों के अनुरूप बनाया गया है। प्राथमिक स्तर पर जोर इस बात पर दिया गया है कि संसार (प्राकृतिक परिवेश,कृत्रिम रचनाएँ और लोग) के प्रति बच्चे के कौतूहल को बढ़ावा मिले। संसार को पहचानने की उसकी बुनियादी क्षमताओं - जैसे निरीक्षण करना, वर्गीकरण करना और निष्कर्ष निकालना आदि के साथ-साथ उसमें अपने हाथ जैसे अंगों से काम लेने के कौशल का भी विकास हो। बच्चों के लिए विज्ञान की “भाषा” सीखना भी महत्वपूर्ण है। एन.सी.एफ. का सुझाव है कि विज्ञान और सामाजिक विज्ञान को मिला कर अधिक व्यापक ‘पर्यावरण-अध्ययन’ विकसित करने का प्रयास जारी रहना चाहिए। इसका एक अन्य महत्वपूर्ण हिस्सा स्वास्थ्य भी हो।
उच्च प्राथमिक कक्षाओं के स्तर पर, बच्चे को इस प्रयास में संलग्न किया जाना चाहिए कि वह अपने परिचित अनुभवों के माध्यम से विज्ञान के सिद्धान्तों को समझे। साथ ही खुद अपने हाथों से छोटी-छोटी तकनीकी इकाइयों और मॉड्यूलों की रचना करे। उदाहरण के लिए वजन उठाने के लिए पवनचक्की के एक कारगर मॉडल की कल्पना करके, उसका निर्माण करना। दूसरी ओर उसके पर्यावरण और स्वास्थ्य-सम्बन्धी ज्ञान का विस्तार भी जारी रहे। जिसमें गतिविधियों और सर्वेक्षणों के माध्यम से प्रजनन और यौन-स्वास्थ्य सम्बन्धी शिक्षा शामिल हो। विज्ञान की अवधारणाओं तक मुख्य रूप से गतिविधियों और प्रयोगों के मार्ग से पहुँचना चाहिए। इस स्तर की विज्ञान सामग्री और विषय को माध्यमिक विज्ञान के हल्के रूप की तरह नहीं देखा जाना चाहिए। सामूहिक गतिविधि, साथियों और शिक्षकों से चर्चा, सर्वेक्षण, आँकड़ों को व्यवस्थित ढंग से एकत्रित करना और उन्हें प्रदर्शनियों आदि के माध्यम से स्कूलों और मौहल्लों में दिखाना - ये सभी शिक्षण प्रक्रिया के महत्वपूर्ण अंग होना चाहिए।
सवाल पूछना
स्कूल जाने वाला हर बच्चा यह बात सीखता है कि “हवा हर जगह है”। हो सकता है कि विद्यार्थी यह जानते हों कि पृथ्वी के वायुमण्डल में कई गैसें होती हैं, या कि चाँद पर हवा नहीं है। इससे हम खुश हो सकते हैं कि उन्हें विज्ञान का कुछ ज्ञान है। पर जरा कक्षा 4 में हुए इस वार्तालाप पर भी गौर करें:
शिक्षिका: क्या इस ग्लास में हवा है?
विद्यार्थी (एक साथ): हाँ।
शिक्षिका इस सामान्य वक्तव्य, कि “हवा हर जगह है”, से संतुष्ट नहीं थी। उसने विद्यार्थियों से इस विचार का उपयोग एक सरल परिस्थिति को समझने के लिए करने को कहा। शिक्षिका ने अप्रत्याशित रूप से पाया कि उन्होंने कुछ “वैकल्पिक अवधारणाएँ” गढ़ ली थीं।
शिक्षिका: अब मैं गिलास को उल्टा कर देती हूँ। क्या अभी भी इसमें हवा है?
उत्तर में कुछ बच्चों ने “हाँ” कहा, कुछ ने “नहीं” कहा, और कुछ ऐसे भी थे जो तय नहीं कर सके।
एक विद्यार्थी: हवा तो गिलास से बाहर निकल गई!
दूसरा विद्यार्थी: गिलास में कोई हवा नहीं थी।
दरअसल कक्षा 2 में शिक्षिका ने एक जलती हुई मोमबत्ती के ऊपर एक खाली गिलास उलटाकर रखा था और मोमबत्ती बुझ गई थी। विद्यार्थी इस गतिविधि के साझेदार बने थे और उसकी स्मृति दो साल बाद भी उनके मन में सजीव थी। परन्तु उनमें से कुछ ऐसे थे जिन्होंने इससे गलत निष्कर्ष निकाल लिया था।
कुछ समझाने के बाद, शिक्षिका ने विद्यार्थियों से आगे प्रश्न किए: क्या इस बन्द अलमारी में हवा है? क्या मिट्टी में हवा है? पानी में? हमारे शरीर में? हमारी हड्डियों के भीतर? इनमें से हर प्रश्न के उत्तर में नए विचार आए और कुछ भ्रांतियों को दूर करने का अवसर मिला। इस पाठ में कक्षा को यह सन्देश भी मिला: वक्तव्यों को बिना विचारे मत स्वीकार करो। प्रश्न पूछो। हो सकता है तुम्हें सभी उत्तर न मिलें, पर तुम कुछ नया सीखोगे।(एन.सी.एफ. 2005 से)
माध्यमिक स्तर पर विद्यार्थियों को विज्ञान एक मिले-जुले अध्ययन क्षेत्र के रूप में सिखाया जाना चाहिए। यहाँ भी वे अपने हाथों से ऐसे उपकरण और तकनीकी सरंचनाएँ (मॉड्यूल्स) बनाते हुए सीखें जो उच्च प्राथमिक स्तर से अधिक विकसित हों। इसके अलावा प्रजनन और यौन-स्वास्थ्य सहित, पर्यावरण और स्वास्थ्य सम्बन्धी मुद्दों से जुड़ी गतिविधियाँ और इन मुद्दों का विश्लेषण भी उसकी शिक्षा का अंग होना चाहिए। यह भी महत्वपूर्ण है कि वह व्यवस्थित प्रयोगों के माध्यम से सैद्धान्तिक अवधारणाओं को जान सकें और उनका सत्यापन कर सकें। साथ ही विज्ञान और तकनीक पर आधारित स्थानीय महत्व की छोटी-छोटी परियोजनाओं पर काम कर सकें।
विद्यार्थी कितना जीव विज्ञान जानते हैं?
“ये विद्यार्थी विज्ञान नहीं समझते। वे अच्छी शिक्षा से वंचित पृष्ठभूमि से आए हैं।” ग्रामीण या जनजातीय पृष्ठभूमियों से आए बच्चों के बारे में हम अक्सर लोगों को ऐसी राय व्यक्त करते हुए सुनते हैं। पर जरा विचार करें कि ये बच्चे अपने रोज़मर्रा के अनुभवों से कितना जानते हैं।
जनाबाई, सहयाद्रि की पहाड़ियों में स्थित एक छोटे-से गाँव में रहती है। वह धान और तुअर की मौसमी खेती करने के कार्य में अपने माता-पिता की मदद करती है। कभी-कभी वह बकरियों को चराने ले जा रहे अपने भाई के साथ जाती है। वह अपनी छोटी बहन के लालन-पालन में भी मदद करती है।
आजकल वह रोज आठ किलोमीटर पैदल चल कर सबसे पास वाले माध्यमिक स्कूल में पढ़ने जाती है। जनाबाई अपने पर्यावरण से घनिष्ठ सम्बन्ध बनाए रखती है। भोजन, दवा, ईंधन, रंग और आवास बनाने की सामग्री के स्रोतों के रूप में उसने भिन्न-भिन्न पौधों का उपयोग किया है। उसने विभिन्न पौधों के अंशों को कई घरेलू उद्देश्यों के लिए, जैसे कि धार्मिक अनुष्ठानों में या त्यौहार मनाने में, इस्तेमाल होते देखा है। वह पेड़ों के बारीक भेदों को पहचानती है, और ऋतुओं के अनुसार उनकी पत्तियों और फूलों के स्वरूप, आकार, उनकी सघनता या विरलता, उनकी गंध और स्पर्श में होने वाले परिवर्तनों को देखती रहती है। वह अपने आसपास के लगभग सौ भिन्न-भिन्न प्रकार के पौधों को पहचान सकती है, जो जीवविज्ञान के उसके शिक्षक की क्षमता से कई गुना है - वही शिक्षक जो मानते हैं कि जनाबाई कमज़ोर छात्रा है।
क्या हम जनाबाई के समृद्ध ज्ञान को जीवविज्ञान की शास्त्रीय अवधारणाओं में बदलने में उसकी मदद कर सकते हैं? क्या हम उसे भरोसा दिला सकते हैं कि स्कूल का जीवविज्ञान, कठिन भाषा के लम्बे-लम्बे पाठों में छिपे हुए किसी अमूर्त संसार के बारे में नहीं है। बल्कि यह उस खेत के बारे में है जहाँ वह काम करती है, उन परिचित पशुओं के बारे में है जिनकी वह देखभाल करती है, उस जंगल के बारे में है जिससे होकर वह रोज गुजरती है। केवल तभी वह सचमुच में विज्ञान सीखेगी। (एन.सी.एफ.2005)
एन.सी.एफ. की सिफारिश है कि पाठ्यक्रम के बोझ को सुसंगत बनाया जाना चाहिए और विषय के ढेर सारे पहलुओं को सतही ढंग से पढ़ा देने की प्रवृत्ति से बचना चाहिए। एन.सी.एफ. की दृष्टि से शिक्षकों के सशक्तीकरण और परीक्षा- व्यवस्था में सुधारों के द्वारा ही विज्ञान के पढ़ाने और पढ़ने में बुनियादी बदलाव लाया जा सकता है। इस सन्दर्भ में, यह दस्तावेज, अभी प्रचलित नाना प्रकार की प्रवेश परीक्षाओं के स्थान पर, एक राष्ट्रीय परीक्षा सेवा की बात करता है।
एन.सी.एफ. की एक अत्यन्त रोचक सिफारिश है कि विज्ञान सम्बन्धी गतिविधियों का बाल विज्ञान सम्मेलन की तर्ज पर विस्तार किया जाना चाहिए। राष्ट्रीय स्तर पर बड़े विज्ञान तथा तकनीकी मेलों का आयोजन किया जाना चाहिए। इनमें कस्बे, जिले और राज्य स्तर पर आयोजित ऐसे छोटे मेलों से भेजी गई प्रविष्टियाँ शामिल हों।
एन.सी.एफ. इस तथ्य से परिचित है कि सभी बच्चे बड़े होकर वैज्ञानिक या तकनीकी विशेषज्ञ नहीं बनते। परन्तु वर्तमान समाज के सामाजिक, राजनैतिक और नीतिगत मुद्दों को बेहतर ढंग से समझने के लिए सभी का ‘वैज्ञानिक दृष्टि से साक्षर’ होना आवश्यक है। यह दस्तावेज विद्यार्थियों में विज्ञान, तकनीक और समाज के परस्पर सम्बन्ध की समझ विकसित करने के महत्व को भी स्वीकार करता है, ताकि वे एक ओर पर्यावरण और स्वास्थ्य जैसे मुद्दों के प्रति संवेदनशील बनें, और दूसरी ओर संसार के कर्मक्षेत्र में प्रवेश करने के लिए उपयुक्त व्यावहारिक ज्ञान तथा कौशल हासिल कर सकें।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें