पियाजे एक स्विस मनोवैज्ञानिक थे। इनका पूरा नाम जीन पियाजे था। इन्होंने मानव के मानसिक विकास की व्याख्या उसके संज्ञानात्मक विकास के आधार पर की है। उन्होंने व्यक्ति के संज्ञानात्मक विकास को संप्रत्यय निर्माण के रूप में अभिव्यक्त किया है।
संज्ञानात्मक विकास का काल :
पियाजे का संज्ञानात्मक विकास को चार कालों में बांटा है-
1. संवेदी पेशीय अवस्था/संवेदी क्रियात्मक काल (Sensory Motor Stage)
2. पूर्व संक्रिया काल / प्राक प्रचलनात्मक अवस्था ( pre-coperational stage)
3. मूर्त संक्रिया काल/मूर्त प्रचलनात्मक काल (stage of concrete operation)
4. औपचारिक संक्रिया अवस्था (Stage of formal Operation)
1. संवेदी पेशीय अवस्था:-
यादें के अनुसार जन्म से 2 वर्ष तक के बालक अपनी इंद्रियों के माध्यम से प्राथमिक अनुभव प्राप्त करते हैं।पियाजे ने इस काम को संवेदी पेशीय अवस्था के नाम से पुकारा है।पियाजे के अनुसार जन्म से 2 वर्ष तक बालक का संज्ञानात्मक विकास अवस्थाओं में होता है जो निम्नलिखित है-
a. सहज क्रियाओं की अवस्था
b.प्रमुख वृंतीय अनुक्रियाओं की अवस्था
c.गौण वृंतिय अनुक्रियाओं की अवस्था
d. स्कीमा के समन्वय की अवस्था
e. तृतीय वृतीय अनुक्रियाओं की अवस्था
f. मानसिक संयोग द्वारा नए साधनों की खोज की अवस्था
2. पूर्व संक्रिया काल:
या अवस्था संज्ञानात्मक विकास की दृष्टि से 2 साल से 7 साल की अवस्था मानी गई है इस अवस्था को पिया जाने दो उप अवस्था में बांटा है-
a. पूर्व संप्रत्यात्मक अवधि
b. अंतर्दर्शी अवस्था
मूर्त संक्रीया अवस्था
यह अवस्था 7 से 11 वर्ष तक मानी जाती है। इस अवस्था में बच्चे अधिक यथार्थवादी तथा व्यावहारिक होते हैं।इस अवस्था में बच्चों में तर्क शक्ति एवं समस्या समाधान की क्षमता का विकास होने लगता है। इस अवस्था में बच्चा अमूर्त समस्याओं के बारे में नहीं सोच पाते हैं। इस अवस्था में बच्चे वस्तु के गुणों के आधार पर उन्हें क्रमबद्ध करने लगते हैं। परंतु बच्चों के चिंतन में कर्म माता का अभाव पाया जाता है।
4. औपचारिक संक्रिया अवस्था-
औपचारिक संक्रिया अवस्था 12 वर्ष की आयु में प्रारम्भ होती है तथा यह वयस्क अवस्था तक चलती है। इस अवस्था में बच्चे के चिंतन का विकास होना प्रारम्भ हो जाता है तथा उसमें क्रमबद्धता आने लगती है और जैसे-जैसे उनकी आयु बढ़ती जाती है उनके अनुभव में भी वृद्धि होती जाती है।
बच्चों में संज्ञान-
संज्ञानात्मक विकास का अर्थ है-संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं के अंतर्गत बच्चे का चिंतन, बुद्धि तथा भाषा में परिवर्तन आता है। इन तीनों परिवर्तनों में संवेदन, प्रत्यक्षीकरण, प्रतिमा-धारणा, समस्या समाधान, चिंतन प्रक्रिया, तर्कशक्ति जैसे महत्वपूर्ण प्रक्रिया में शामिल होती हैं।
संज्ञानात्मक विकास प्रक्रियाएँ ही विकासमान बालक को कविताएं याद करने, गणित की समस्या को हल करने के तरीके के बारे में सोचने व निर्णय लेने, कोई अच्छी व रचनात्मक रणनीति बनाने व क्रमागत अर्थ पूर्ण वाक्य बनाने जैसे कार्यों हेतु योग्य बनाती है।
पियाजे का संज्ञानात्मक विकास सिद्धांत:
पियाजे के अनुसार बच्चा अपने वातावरण के साथ अंतः क्रिया के परिणाम स्वरुप ही सीखता है। संज्ञानात्मक विकास से तात्पर्य चिंतन में गुणात्मक परिवर्तन से है तथा यह परिवर्तन पहले से उपस्थित संज्ञानात्मक रचनाओं में अनुकूलन द्वारा होता है।
जैसे जैसा बच्चा बड़ा होता है और विकसित होता है उसके अनुभव तथा ज्ञान की सीमा विस्तृत होती जाती है उसकी अन्योन्य क्रिया बढ़ती जाती है तथा उसे प्रभावित करने वाले व्यक्तियों की संख्या भी बढ़ती जाती है।
अपने माता-पिता, मित्र, भाई-बहन, शिक्षक और अन्य महत्वपूर्ण व्यक्तियों से उसके पारस्परिक संबंध और उसके प्रति अपनी संवेदना ओं के द्वारा ही बच्चा प्रमुख रूप से निर्देशित होता है।
बच्चों की संवेदना महत्वपूर्ण होती है, यह उसके पारस्परिक संबंधों की दिशा तथा उत्कृष्टता का निर्धारण कर उसके स्वभाव को निश्चित रूपरेखा प्रदान करती है।
एक बच्चा जो अपनी मां से स्नेह करता है, उसे खुश करने के लिए वह सब कुछ करता है, जो वह कर सकता है, इसके विपरीत यदि वह किसी व्यक्ति से घृणा करता है तो उसका व्यवहार बहुत नकारात्मक तथा घृणा से भरा हुआ होगा।
संवेग की प्रकृति सकारात्मक तथा नकारात्मक दोनों ही प्रकार की होती हैं। वे संवेग जो प्रेम, प्रशंसा, दया तथा खुशी जैसे सकारात्मक परिणाम के रूप में व्यवहार में नजर आते हैं, उन्हें सकारात्मक संवेग कहते हैं।
दूसरी तरफ जो अवांछित, अप्रीतिकर और हानिकारक व्यवहार जैसे ईर्ष्या, क्रोध, घृणा इत्यादि के रूप में दृष्टि में होते हैं उन्हें नकारात्मक संवेग कहते हैं।
पियाजे के विकास के सिद्धांत की अवस्थाएं:
1. नैतिकता बंधन युक्त चरण
2. नैतिकता का स्वायत्त चरण
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