बाल्यावस्था : ऐतिहासिक और समवयस्क दृष्टिकोण , बालक की अवस्था और मानसिक दृष्टिकोण [ CHILDHOOD : HISTORICAL AND CONTEMPORARY PERSPECTIVES , THEORITICAL PERSPECTIVES ON CHILDHOOD STAGES )

 बाल्यावस्था ( Childhood )

अध्याय -1 बाल्यावस्था : ऐतिहासिक और समवयस्क दृष्टिकोण , बालक की अवस्था और मानसिक दृष्टिकोण [ CHILDHOOD : HISTORICAL AND CONTEMPORARY PERSPECTIVES , THEORITICAL PERSPECTIVES ON CHILDHOOD STAGES )


बाल्यावस्था : जीवन का अनोखा काल ( CHILDHOODIAUNIQUE PERIOD OF LIFE )

  •  बाल्यावस्था , वास्तव में मानव जीवन का वह स्वर्णिम समय है जिसमें उसका सर्वांगीण विकास होता है । फ्रायड यद्यपि यह मानते हैं कि बालक का विकास पांच वर्ष की आयु कम हो जाता है , लेकिन बाल्यावस्था में विकास की यह सम्पूर्णता गति प्राप्त करती है और एक परिपका व्यक्ति के निर्माण की और आल होती है ।
  •  शैशवावस्था के बाद बाल्यावस्था का आरम्भ होता है । यह अवस्था बालक के व्यक्ति के निर्माणको होती है । बालक में इस अवस्था में विभिन्न आदतों , व्यवहार , सथि एवं इच्छाओं के प्रतिरूपों का निर्माण होता है ।
  • ब्लेयर , जोन्या एवं सिम्पसन के अनुसार ... " क्षिक दृष्टिकोण से जीवन - चक में बाल्यावस्था से अधिक कोई महत्त्वपूर्ण अवस्था नहीं है । जो शिक्षक इस अवस्था के बालकों को शिक्षा देते हैं , उन्हें बालकों का , उनकी आधारभूत आवश्यकताओं का , उनकी समस्याओं एवं उनकी परिस्थितियों की पूर्ण जानकारी होनी चाहिए जो उनके व्यवहार को रूपानारित और परिवर्तित करती है ।
  •  " " No period during the life cycle is more important than childhood from an educational point of view . Teachers who work at this level should understand children . their fundamental needs , their problems and the forces which modify and produce behaviour change -Blair . Jones and Simpson.
  • कोल व ब्रूस ने बाल्यावस्था को जोबन का अनोखा कल ' बताते हुए लिखा है- " वास्तव में माता पिता के लिए बाल विकास की इस अवस्था को समझना कठिन है ।
  •  " " This is , indeed , a difficult period of child development for parents to understand . " Cole and Bruce tp.209 )
  • इस अवरया को समझना कठिन क्यों है ? कुष्पस्वामी ( Kuppsswamy ) के अनुसार , इस अवस्था में बालकों में अनोखे परिवर्तन होते हैं , उदाहरणार्थ , 6 वर्ष की आयु में बालक का स्वभाव बहुत सा होता है और वह लगभग सभी बातों का जर'न ' या ' नहीं ' में देता है । 7 वर्ष की अवस्था में यह उदासीन होता है । और अकेला रहना पसन्द करता है । 8 वर्ष की आयु में उसमें अन्य बालकों से सामाजिक सम्बन्य स्थापित करने की भावना प्रबल होती है । 9 से 12 वर्ष तक की आयु में विद्यालय में उसके लिए कोई सकर्षण नहीं रह जाता है । वह कोई नियमित कार्य न करके , कोई महान् और रोमांचकारी कार्य करना चाहता है ।
  •  सामान्यत : 6 वर्ष से 12 वर्ष की आयु के बीच की अवधि को बाल्यावस्था कहा जाता है क्योंकि इस अवधि में पालक प्राथमिक विद्यालय की शिक्षा प्रारम्भ करता है इसलिए शिक्षाशास्त्री इसे प्रारम्भिक विद्यालय आयु ( Elementary schosi age ) भी कहते हैं । इस अवधि में पालक में स्फूर्ति अधिक होने के कारण कुछ लोग इसे स्फूर्ति अवस्था ( Smart Age ) भी कहते हैं । कुछ लोग इसे गन्दी अवस्था ( Dirty Ape ) भी कहते है क्योंकि इस अवस्था में बालक खेल - कूद , भाग - दौड़ , उस - कूद में लगे रहते हैं जिससे वे प्रायः गन्दे और लापरबार रहते हैं ।
 बाल्यावस्था / बचपन की मुख्य विशेषताएं  ( CHIEF CHARACTERISTICS OF CHILDHOOD )

बाल्यावस्था को 6-12 वर्षायु तक माना जाता है । हरलॉक ने भी इसे 6 वर्ष से लेकर 12 वर्ष के बीच का समय माना है । इस अवस्था में ये विशेषतायें विकसित होती हैं-
1. शारीरिक व मानसिक स्थिरता ( Physical and Mental Stability ) -6 या 7 वर्ष की आयु के बाद बालक में शारीरिक और मानसिक स्थिरता आ जाती है । यह स्थिरता उसकी शारीरिक व मानसिक ' शक्तियों को दृढ़ता प्रदान करती है । फलस्वरूप , उसका मस्तिष्क परिपक्व - सा और वह स्वयं वयस्क - सा जान पड़ता है । इसलिए राँस ( Ross , Cp . 144 ) ने बाल्यावस्था को मिथ्या - परिपक्वता ( Pseudo - maturity ) का काल बताते हुए लिखा है- " शारीरिक और मानसिक स्थिरता बाल्यावस्था की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता है । " बाल्यावस्था के विकास का महत्त्व अत्यधिक है । इस अवस्था में विकास का अध्ययन अनेक महत्त्वपूर्ण तथ्यों को प्रकट करता है । कैरल के अनुसार- " बालक के शारीरिक विकास और उसके सामान्य व्यवहार का सह - सम्बन्ध इतना महत्त्वपूर्ण होता है कि यदि हम समझना चाहें कि भिन्न - भिन्न बालकों में क्या - क्या समानतायें हैं , क्या - क्या भिन्नतायें हैं , आयु - वृद्धि के साथ व्यक्ति में क्या - क्या परिवर्तन होते हैं तो हमें बालक के शारीरिक विकास का अध्ययन करना होगा । " " The relationship between physical growth and behaviour is so important than an understanding of how the human child grows and develops is essential to an understanding of similarities and differences between different individuals and the changes that take place in the same individual with increasing age . -Carrel : A Man Unknown
2. मानसिक योग्यताओं में वृद्धि ( Increase in Mental Abilities ) - बाल्यावस्था में बालक की मानसिक योग्यताओं में निरन्तर वृद्धि होती है । उसकी संवेदना और प्रत्यक्षीकरण की शक्तियों में वृद्धि होती है । वह विभिन्न बातों के बारे में तर्क और विचार करने लगता है । वह साधारण बातों पर अधिक देर तक अपने ध्यान को केन्द्रित कर सकता है । उसमें अपने पूर्व - अनुभवों को स्मरण रखने की योग्यता उत्पन्न हो जाती है ।
 3. जिज्ञासा की प्रबलता ( Forceful Curiosity } - बालक की जिज्ञासा विशेष रूप से प्रबल होती है । वह जिन वस्तुओं के सम्पर्क में आता है उनके बारे में प्रश्न पूछकर हर तरह की जानकारी प्राप्त करना चाहता है । उसके ये प्रश्न शैशवावस्था के साधारण प्रश्नों से भिन्न होते हैं । अब वह शिशु के समान यह नहीं पूछता है- " वह क्या है ? " इसके विपरीत , वह पूछता है- " यह ऐसा क्यों है ? " और " यह ऐसे कैसे हुआ ** है ? "
 4. वास्तविक जगत से सम्बन्ध ( Relationship with Real World ) - दरा अवस्था में बालक शैशवावस्था के काल्पनिक जगत का परित्याग करके वास्तविक जगत में प्रवेश करता है । वह उसकी प्रत्येक बस्तु से आकर्षित होकर उसका ज्ञान प्राप्त करना चाहता है । स्ट्रॅग ( Strang ) के शब्दों में " बालक अपने को अति विशाल संसार में पाता है और उसके बारे में जल्दी - से - जल्दी जानकारी प्राप्त करना चाहता है। "
5. रचनात्मक कार्यों में आनन्द ( Pleasure in Creative Activities ) बालक को रचनात्मक कार्यों में विशेष आनन्द आता है । वह साधारणत : घर से बाहर किसी प्रकार का कार्य करना चाहता है । जैसे — बगीचे में काम करना या औजारों से लकड़ी की वस्तुएँ बनाना । उसके विपरीत बालिका घर में ही कोई - न - कोई कार्य करना चाहती है , जैसे - सींना , पिरोना , या कढ़ाई करना आदि ।
 6. सामाजिक गुणों का विकास ( Development of Social Qualities ) —बालक , विद्यालय के छात्रों और अपने समूह के सदस्यों के साथ पर्याप्त समय व्यतीत करता है । अत : उसमें अनेक सामाजिक गुणों का विकास होता है ; जैसे - सहयोग , सद्भावना , सहनशीलता , आज्ञाकारिता आदि ।
7. नैतिक गुणों का विकास ( Development of Moral Traits ) - इस अवस्था के प्रारम्भ में ही बालक में नैतिक गुणों का विकास होने लगता है । स्टैंग ( Strang ) के मतानुसार- " छः , सात और आठ वर्ष के बालकों में अच्छे - बुरे के ज्ञान का एवं न्यायपूर्ण व्यवहार , ईमानदारी और सामाजिक मूल्यों की भावना का विकास होने लगता है । "

8. बहिर्मुखो व्यक्तित्व का विकास ( Development of Extrovert Personality ) शैशवावस्था में बालक का व्यक्तित्व अन्तर्मुखी ( Introverty होता है , क्योंकि वह एकान्तप्रिय और केवल अपने में रुचि लेने बाला होता है । इसके विपरीत बाल्यावस्था में उसका व्यक्तित्व महिमुखी ( Extrovert ) हो जाता है । क्योंकि बाह्य जगत में उसकी रुचि उत्पन्न हो जाती है , अत : वह अन्य व्यक्तियों , वस्तुओं और कार्यों का अधिक - से अधिक परिचय प्राप्त करना चाहता है ।
9. संवेगों का दमन व प्रदर्शन ( Suppression and Exposition of Eimotions ) बालक अपने संवेगों पर अधिकार रखना एवं अच्छी व बुरी भावनाओं में अन्तर करना जान जाता है । वह उन भावनाओं का दमन करता है जिनको उसके माता - पिता व बड़े लोग पसन्द नहीं करते हैं ; जैसे — काम सम्बन्धी भावनाएँ ।
10. संग्रह करने की प्रवृत्ति ( Tendency to Acquisitiveness ) - बाल्यावस्था में बालकों और बालिकाओं में संग्रह करने की प्रवृत्ति बहुत ज्यादा पाई जाती है । बालक विशेष रूप से काँच की गोलियों , टिकटों , मशीनों के भागों और पत्थर के टुकड़ों का संचय करते हैं । बालिकाओं में चित्रों , खिलौनों , गुड़ियों और कपड़ों के टुकड़ों का संग्रह करने की प्रवृत्ति पाई जाती है ।
 11. निरुद्देश्य भ्रमण की प्रवृत्ति ( Tendency of Roaming about without Aim ) - बालक में बिना किसी उद्देश्य के इधर - उधर घूमने की प्रवृत्ति बहुत अधिक होती है । मनोवैज्ञानिक बर्ट ( Burt ) ने अपने अध्ययनों के आधार पर बताया है कि लगभग 9 वर्ष के बालकों में आवारा घूमने , जिना छुट्टो लिए विद्यालय से भागने और आलस्यपूर्ण जीवन व्यतीत करने की आदतें सामान्य रूप से पाई जाती हैं ।
12. काम - प्रवृत्ति की न्यूनता ( Lesser Sex Tendency ) - बालक में काम - प्रवृत्ति की न्यूनता होती है । वह अपना अधिकांश समय मिलने - जुलने , खेलने - कूदने , पढ़ने - लिखने में व्यतीत करता है । अत : वह बहुत ही कम अवसरों पर अपनी काम - प्रवृत्ति का प्रदर्शन कर पाता है ।
13. सामूहिक प्रवृत्ति की प्रबलता ( Intensity of Gregariousness ) - बालक में सामूहिक प्रवृत्ति बहुत प्रबल होती है । वह अपना अधिक - से - अधिक समय दूसरे बालकों के साथ व्यतीत करने का प्रयास करता है । रॉस ( Ross ) के अनुसार , " बालक प्रायः अनिवार्य रूप से किसी - न - किसी समूह का सदस्य हो जाता है जो अच्छे खेल खेलने और ऐसे कार्य करने के लिए नियमित रूप से एकत्र होते हैं , जिनके बारे में बड़ी आयु के लोगों को कुछ भी नहीं बताया जाता है । "
 14. सामूहिक खेलों में रुचि ( Interest in Group Games ) - बालक को सामूहिक खेलों में अत्यधिक रुचि होती है । वह 6 या 7 वर्ष की आयु में छोटे समूहों में काफी समय तक खेलता है । खेल के समय बालिकाओं को अपेक्षा बालकों में झगड़े अधिक होते हैं । ।। या 12 वर्ष की आयु में बालक दलीय खेलों में भाग लेने लगता है । स्ट्रैग ( Strang ) का विचार है- " ऐसा शायद ही कोई खेल हो जिसे दस वर्ष के बालक नखेलते हों । "

15. रुचियों में परिवर्तन ( Change in Interest ) - बालक को रुचियों में निरन्तर परिवर्तन होता रहता है । ये स्थायी रूप धारण न करके वातावरण में परिवर्तन के साथ परिवर्तित होती रहती हैं । कोल एवं यस ( Cole and Bruce ) ने लिखा है ... " 6 से 12 वर्ष की अवधि की एक अपूर्व विशेषता है मानसिक रुचियों में स्पष्ट परिवर्तन । "

बाल्यावस्था में शिक्षा का स्वरूप ( NATURE OF EDUCATION IN CHILDHOOD )

इस अवस्था में बालक विद्यालय में जाने लगता है और उसे नवीन अनुभव प्राप्त होते हैं । औपचारिक तथा अनौपचारिक शैक्षिक प्रक्रिया के मध्य उसका विकास होता है ।

बाल्यावस्था शैक्षिक दृष्टि से बालक के निर्माण की अवस्था है । इस अवस्था में बालक अपना समूह अलग बनाने लगते हैं । इसे चुस्ती की आयु भी कहा गया है । इस अवस्था में शिक्षा का स्वरूप इस प्रकार होता है-
            ब्लेयर , जोन्स व सिम्पसन ने लिखा है- " बाल्यावस्था वह समय है , जब व्यक्ति के आधारभूत दृष्टिकोणों , मूल्यों और आदर्शों का बहुत सीमा तक निर्माण होता है । " " Childhood is the time when the individual's basic outlooks , values and ideals are to a great extent shaped ] -Blair , Jones and Simpson ( p . 62 )

जिस निर्माण को ओर पूर्व पृष्ठांकित संकेत किया गया है , उसका उत्तरदायित्व बालक के शिक्षक , माता पिता और समाज पर है । अत : उसकी शिक्षा का स्वरूप निश्चित करते समय , उन्हें निम्नांकित बातों को ध्यान रखना चाहिए  -

1. भाषा के ज्ञान पर बल ( Emphasis on the Knowledge of Language ) - स्टैंग ( Strang ) के अनुसार --- " इस अवस्था में बालकों की भाषा में बहुत रुचि होती है । " अत : इस बात पर बल दिया जाना आवश्यक है कि बालक भाषा का अधिक - से - अधिक ज्ञान प्राप्त करे ।

2. उपयुक्त विषयों का चुनाव ( Selection of Subjects ) - बालक के लिए कुछ ऐसे विषयों का अध्ययन आवश्यक है , जो उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकें और उसके लिए लाभप्रद भी हों । इस विचार से निम्नलिखित विषयों का चुनाव किया जाना चाहिए - भाषा , अंकगणित , विज्ञान , सामाजिक अध्ययन , ड्राइंग , चित्रकला , सुलेख , पत्र - लेखन और निबन्ध - रचना ।

 3. रोचक विषय - सामग्री ( Interesting Contents ) - बालकों को रुचियों में विभिन्नता और परिवर्तनशीलता होती है । अत : उसकी पुस्तकों को विषय सामग्री में रोचकता और विभिन्नता होनी चाहिए । इस दृष्टिकोण से विषय सामग्री का सम्बन्ध निम्नलिखित से होना चाहिए - पशु , हास्य , विनोद , नाटक , वार्तालाप , वीर पुरुष , साहसी कार्य और आश्चर्यजनक बातें ।

 4. पाठ्य - विषय व शिक्षण विधि में परिवर्तन ( Change in Curriculum and Method of Teaching ) इस अवस्था में बालक की रुचियों में निरन्तर परिवर्तन होता रहता है । अतः पाठ्य - विषय और शिक्षण विधि में उसकी रुथियों के अनुसार परिवर्तन किया जाना आवश्यक है । ऐसा न करने से उसमें शिक्षण के प्रति कोई आकर्षण नहीं रह जाता है । फलस्वरूप , उसको मानसिक प्रगति रुक जाती है ।

 5. जिज्ञासा की सन्तुष्टि ( Satisfaction of Curiosity ) - बालक में जिज्ञासा की प्रवृत्ति होती है । अत : उसे दी जाने वाली शिक्षा का स्वरूप ऐसा होना चाहिए , जिससे उसकी इस प्रवृत्ति की तुष्टि हो ।

6. सामूहिक प्रवृत्ति की तुष्टि ( Satisfaction of Gregariousness ) - बालक में समूह में रहने की प्रचल प्रवृत्ति होती है । वह अन्य बालकों से मिलना - जुलना और उनके साथ कार्य करना या खेलना चाहता है । उसे इन सब बातों का अवसर देने के लिए विद्यालय में सामूहिक कार्यों और सामूहिक खेलों का उचित आयोजन किया जाना चाहिए । कोलेसनिक ( Kolesnik ) के अनुसार " सामूहिक खेल और शारीरिक व्यायाम प्राथमिक विद्यालय के पाठ्यक्रम के अभिन्न अंग होने चाहिए । "

7. रचनात्मक कार्यों की व्यवस्था ( Arrangement of Creative Work ) - बालक की रचनात्मक कार्यों में विशेष रुचि होती है । अत : विद्यालय में विभिन्न प्रकार के रचनात्मक कार्यों की व्यवस्था की जानी चाहिए ।

8 . पाठ्यक्रम - सहगामी क्रियाओं की व्यवस्था ( Co - curricular Activities ) बालक की विभिन्न मानसिक रुचियों को सन्तुष्ट करके उसकी सुप्त शक्तियों का अधिकतम विकास किया जा सकता है । इस कार्य में सफलता प्राप्त करने के लिए विद्यालय में अधिक से अधिक पाठ्यक्रम- सहगामी क्रियाओं का संचालन किया जाना चाहिए ।

9. पर्यटन व स्काउटिंग की व्यवस्था ( Excursion and Scouting ) - लगभग 9 वर्ष की आयु में बालक में निरुद्देश्य इधर - उधर घूमने की प्रवृत्ति होती है । उसकी इस प्रवृत्ति को सन्तुष्ट करने के लिए पर्यटन और स्काउटिंग को उसको शिक्षा का अभिन्न अंग बनाया जाना चाहिए ।

 10. संचय - प्रवृत्ति को प्रोत्साहन ( Acquisitiveness ) बालक में संचय करने की प्रवृत्ति होती है । उसे जो भी वस्तु अच्छी लगती है वह उसका संचय कर लेता है । उसके माता - पिता व शिक्षक का कर्तव्य है कि वे उसे शिक्षाप्रद वस्तुओं का संचय करने के लिए प्रोत्साहित करें ।

11. संवेगों के प्रदर्शन का अवसर ( Exposition of Emotions ) – कोल एवं बूस ( Cale and Bruce ) ने बाल्यावस्था को संवेगात्मक विकास का अनोखा काल ( A unique stage in emotional development ) माना है । यह विकास तभी सम्भव है जब बालक के संवेगों का दमन न किया जाए क्योंकि
ऐसा करने से उसमें भावना - प्रन्थियों का निर्माण हो जाता है । अतः स्टैग ( Strang ) ( p . 413 ) के अनुसार " चालकों को सामाजिक स्वीकृति प्राप्त अपने संवेगों का दमन करने के बजाय तृप्त करने में सहायता दी जानी चाहिए क्योंकि संवेगात्मक भावना और प्रदर्शन उनके सम्पूर्ण जीवन का आधार होता है । "

12. सामाजिक गुणों का विकास ( Development or social Qualitics ) - किर्कपैट्रिक ( Kirkpatrick ) ने बाल्यावस्था को ' प्रतिद्वन्द्वात्मक समाजीकरण ' ( Competitive Socializntions ) का काल माना है । अतः विद्यालय में ऐसी क्रियाओं का अनिवार्य रूप से संगठन किया जाना चाहिए , जिनमें भाग लेकर विकास हो । बालक में अनुशासन , आत्म - नियन्त्रण , सहानुभूति , प्रतिस्पर्धा , सहयोग आदि सामाजिक गुणों का अधिकतम

13. नैतिक शिक्षा ( Moral Education ) – पियाजे ( Piages ) ने अपने अध्ययनों के आधार पर बताया है कि लगभग 8 वर्ष का बालक अपने नैतिक मूल्यों का निर्माण और समाज के नैतिक नियमों में विश्वास करने लगता है । उसे इन मूल्यों का उचित निर्माण और इन नियमों में दृढ़ विश्वास रखने के लिए नियमित रूप से नैतिक शिक्षा दी जानी चाहिए । कोलसेनिक ( Colesnik ) ( p.90 ) का मत है- " बालक को आनन्द प्रदान करने वाली सरल कहानियों द्वारा नैतिक शिक्षा दी जानी चाहिए । '

14. क्रिया व खेल द्वारा शिक्षा ( Education through Activity and Play ) - सभी शिक्षाशास्त्री बालक की स्वाभाविक क्रियाशीलता और खेल - प्रवृत्ति में विश्वास करते हैं । अत : उसकी शिक्षा का स्वरूप इस प्रकार का होना चाहिए जिससे वह स्वयं क्रिया ( Self - uctivity ) और खेल द्वारा ज्ञान का अर्जन करे ।

 15. प्रेम व सहानुभूति पर आधारित शिक्षा ( Education Based on Love and Sympathy ) बालक कठोर अनुशासन पसन्द नहीं करता है । यह शारीरिक दण्ड , बल - प्रयोग और डाँट - इपट से घृणा करता है । वह उपदेश नहीं सुनना चाहता है । वह धमकियों की चिन्ता नहीं करता है । अत : उसकी शिक्षा इनमें से किसी पर आधारित नहीं होकर प्रेम व सहानुभूति पर आधारित होनी चाहिए ।


अभ्यास प्रश्न दीर्घ उत्तरीय प्रश्न ( Long Answer Type Questions ) 1. " बाल्यकाल जीवन का अनोखा काल है । " इस कथन का स्पष्टीकरण कीजिए और इस काल को प्रमुख विशेषताओं का वर्णन कीजिए । 2. " शैक्षिक दृष्टिकोण से बाल्यावस्था से अधिक महत्त्वपूर्ण और कोई अवस्था नहीं है । " इस कथन को विवेचना कीजिए और बताइए कि इस अवस्था के लिए शिक्षा का क्या स्वरूप होना चाहिए । 3. बाल्यावस्था को विकास को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अवस्था क्यों कहा जाता है ? 4. बाल्यावस्था में शैक्षिक विकास के समय किन बातों का ध्यान रखना चाहिए ? लघु उत्तरीय प्रश्न ( Short Answer Type Questions ) 1. बाल्यावस्था किसे कहते हैं ? 2. बाल्यावस्था को पाँच विशेषताएँ लिखिए । 3. बाल्यावस्था में शिक्षा का स्वरूप क्या होना चाहिए ? बहुविकल्पीय प्रश्न ( Multiple Choice Questions ) 1. सही / गलत पर निशान लगाओ बाल्यावस्था में भाषा ज्ञान पर बल दिया जाता है । ( सहो / गलत ) ( 1 ) ( ii ) बाल्यावस्था में रचनात्मक कार्य पर बल नहीं देना चाहिए । ( सही / गलत ) ( iii ) बाल्यावस्था में विशेष विषयों की शिक्षा दी जानी चाहिए । ( महो / गलत ) ( iv ) बाल्यावस्था में बालक की जिज्ञासा शान्त करनी नहीं चाहिए । ( सहो / गतत )

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