मूर्त से अमूर्त की ओर कविता 


मूर्त से

अमूर्त की ओर

न जाने कब

शुरू हो गयी यात्रा


पथ चलते

कोई कहाँ जान पाता है कि

वह कहाँ पहुँचेगा

कब पहुँचेगा

और कैसे पहुँचेगा

या कभी कहीं पहुँच भी पायेगा

या बस यूँही चलता चलेगा


चलते - चलते

कहीं पहुँचने का आभास तो

तब होता है जब कोई बाँह थाम ले

अनायास और पूछे कि

अरे मुझ तक कैसे आ पहुँचे





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