मानव विकास की अवधारणा (मानव विकास की अवधारणा)
मानव विकास शारीरिक, व्यवहारिक, संज्ञानात्मक और भावनात्मक विकास और परिवर्तन की एक आजीवन प्रक्रिया है।
शैशवस्था से बचपन तक, बचपन से किशोरावस्था तक, और किशोरावस्था से वयस्कता तक जीवन के विजेताओं में भारी परिवर्तन होते हैं।
इस प्रक्रिया के दौरान, प्रत्येक व्यक्ति दृष्टिकोण और मूल्यों को विकसित करता है जो विकल्प, रिश्तों और समझ को निर्देशित करता है।
बृद्धि और विकास का आकलन बच्चे के स्वास्थ्य और पोषण की स्थिति का पता लगाने में बहुत मददगार है।
लगातार सामान्य वृद्धि और विकास एक बच्चे के स्वास्थ्य और पोषण की अच्छी स्थिति का संकेत देते हैं।
असामान्य वृद्धि या विकास संबंधी बीमारी का एक लक्षण है। इसलिए, विकास की माप शारीरिक परीक्षा का एक अनिवार्य घटक है।
बृद्धि और विकास के प्रत्येक चिल्ड पाथ या पैटर्न का निर्धारणात्मक और पर्यावरणीय कारकों द्वारा किया जाता है।
आनुवांशिक कारक विकास और विकास की क्षमता और सीमाएं निर्धारित करते हैं। यदि अनुकूल हो, तो पर्यावरणीय कारक, जैसे पर्याप्त पोषण, वृद्धि और विकास की आनुवंशिक क्षमता की प्राप्ति को सुविधाजनक बनाते हैं। प्रतिकूल कारक अकेले या संयोजन में, धीमी गति से या विकास और विकास को रोकते हैं।
कुछ प्रतिकूल कारक पोषण, संक्रमण, जन्मजात विकृतियों, हार्मोनल गड़बड़ी, विकलांगता, भावनात्मक समर्थन में कमी, खेल की कमी और भाषा प्रशिक्षण की कमी हैं।
विकास की अवधारणा और इसके अधिगम से संबंधित-विकास की अवधारणा
वृद्धि - शरीर के विभिन्न भागों के आकार मे परिवर्तन होने को वृद्धि कहाँ जाती है। जैसे शरीर की लंबाई का चलती चौड़ाई और वज्जन का हिलना आदि है।
ये सभी परिवर्तन का होना (या सम्बन्ध) वहाँ की जलवायु परिवेश, वातावरण, भोजन पर र्निभार है, अर्थात कहा जा चुका है, कि व्यकित के शरीर का बढ़ाने और परिवर्तन होने का र्सव प्रमुख करना, मलमा वातावरण से अन्त: क्रिया कहाँ होना चाहिए हो सकता है।
सोरेनसन (सॉरेन्सन) के शब्दो में कहा जा सकता है “अभिवृद्धि से आशय शरीर और शारीरिक अंगो मे भार और आकार की दृष्टि से वृद्धि होना है, ऐसी वृद्धि जिसको जा सकती है।
विकास - विकास से सम्बन्ध परिवर्तन का होना, विकास मे व्यक्ति मे मानसिक, सामाजिक, संवेगात्मक और शारीरिक दृष्टि से होने वाले परिवर्तनो को समिमतित किया जाता है, और व्यावहारिक रूप के लिए जो कार्य कुशलता, कार्य क्षमता, व्यक्तिगत स्वभाव मे सुधार या सुधार का। समलित होना है।
विकास का अर्थ गुणात्मक परिवर्तनो से किया जाता है।
विकास की अवधारणा
- विकास की प्रक्रिया एक अविरल, क्रमिक और सतत् प्रक्रिया होती है।
- विकास की प्रक्रिया में लड़के का शारीरिक, क्रियात्मक, संज्ञानात्मक, भाषागत, संवेगात्मक और सामाजिक विकास होता है।
- विकास की प्रक्रिया के अंतर्गत रुचियों, आदतों, दृष्टिकोणों, जीवन-मूल्यों, स्वभाव, व्यक्तित्व, व्यवहार इत्यादि को भी शामिल किया गया है।
- बाल-विकास का तात्पर्य होता है लड़के के विकास की प्रक्रिया। लड़के के विकास की प्रक्रिया उसके जन्म से पूर्व गर्भ में ही प्रारम्भ हो जाती है। विकास की इस प्रक्रिया में वह गर्भावस्था, शैशवावस्था, बाल्यावस्था, किशोरावस्था, प्रौढ़ावस्था इत्यादि कई अवस्थाओं से गुजरते हुए परिपक्वता की स्थिति प्राप्त करती है।
- बाल विकास के अध्ययन में पूर्वानुमान: निम्नलिखित बातों को शामिल किया जाता है।
- जन्म लेने से पूर्व और जन्म लेने के बाद परिपक्व होने तक लड़के में किस प्रकार के परिवर्तन होते हैं
- बालक में होने वाले होने के का विशेष युग के साथ क्या सम्बन्ध होता है
- आयु के साथ होने वाले होने के साथ स्वरूप क्या होता है
- बालकों में होने वाले उपरोक्त से के लिए कौन-से कारक जिम्मेदार होते हैं
- क्या लड़के में समय-समय पर होने वाले उपरोक्त परिवर्तन उसके व्यवहार को किस प्रकार से प्रभावित करते हैं
- क्या पिछले शेष के आधार पर लड़के में भविष्य में होने वाले गुणात्मक और परिधियात्मक होने की भविष्यवाणी की जा सकती है
- क्या सभी बालकों में वृद्धि और विकास सम्बन्धी होने का स्वरूप एक जैसा होता है या अलग-अलग विभिन्नता के अनुरूप ये अन्तर होता है
- बालकों में पाए जाने वाले व्यक्तिगत विभिन्नताओं के लिए किस प्रकार के आनुवंशिक और परिवेशजन्य प्रभाव उत्तरदायी होते हैं
- गाय में, गर्भ में आने के बाद निरन्तर प्रगति होती रहती है। यह प्रगति का विभिन्न आयु और अवस्था विशेष में क्या स्वरूप होता है
- लड़के की रुचियों, आदतों, दृष्टिकोणों, जीवन-मूल्यों, स्वभाव और उच्च व्यक्तित्व और व्यवहार-गुणों में जन्म के समय से ही जो निरन्तर परिवर्तन आते रहते हैं उनका विभिन्न आयु वर्ग और अवस्था विशेष में क्या स्वरूप होता है और इस परिवर्तन की प्रक्रिया की। प्रकृति क्या होती है
विकास के समंबन्ध मे प्रमुख शिक्षाशास्त्रीओ का काथन:
हरताल के अनुसार - हरलाँक कहते है विकास का अर्थ बढ़ने से नहीं है इसका तात्पर्य बलिक पैटर्नक्वावस्था की और परिवर्तनो का विकासात्मक क्रम है।
विकास के होने से बलका या व्यक्ति मे विष्ट योग्यताएँ और विष्ट को देखने को मिलती है जो जो प्रतिक्विटी से प्राप्त को प्रताप करने की ओर होता है।
स्किनर के अनुसार - रिकनर का कहना है विकास जीवन और उसके वातावरण की अंतर: क्रिया का प्रतिफल है।
ड्रेयर के अनुसार - विकास, प्राणी मे प्रगतिशील परिवर्तन है, जो कि किसी निशिचत लक्ष्य की की ओर लगतार निर्देशित होता है। ”
मुनरों के अनुसार - विकास परिवर्तन श्रृंखला की वह अवस्था है, जिसमें बालक भ्रानवस्था से पादवस्था तक गुजरता है।
गेसेल के अनुसार - गेसेल का कहना है कि विकास को देखा जाँचा, लिंग जा सकता है, तीन प्रमुख दिशाओ के अनर्तागत, यह सम्भावना है जो है - शरीक विशलेषण, शरीक ज्ञान और व्यवहारात्मक।
उन्हें किया जा सकता है। ये सभी में व्यवाहरिक संकेत ही सबसे अधिक विकासात्मक स्तर और विकासात्मक शक्तियो को प्रकट करता है।
मानव विकास कि अस्थाएँ- उन्हें सात कालो के नाम से जाता है, जो है:
- गर्भधारण से लेकर जन्म तक।
- शैशवस्था जन्म से 5 वर्ष तक।
- बाल्यावस्था 5 से 12 वर्ष तक।
- किशोरावस्था 12 वर्ष से 18 वर्ष तक।
- युवावस्था 18 वर्ष से 25 वर्ष तक।
- प्रौढ़ावत 25 वर्ष से 55 वर्ष तक।
- वृद्धावस्था 55 वर्ष से मृत्यु तक।
मानव विकास की माप:
मानव विकास जीवन- पर्यन्त चलाने वाली प्रक्रिया है। यधापि शारीरिक विकास ( Physical Development ) एक सीमा के बद रूक जाती है। पर मनोशरिक क्रियाओ में विकास निरन्तर चलता रहता है, जो कि है – चारित्रिक विकास , मानसिक विकास( Cognitive Development ) , भाषायी विकास ( Language Development ) सवेगात्मक विकास ( Emotional Development ) और सामाजिक विकास ( Social Development ) समालित है। इन सभी गतिविधिओ का विकास विभिन्न आयु स्तरों मे भिन्न- भिन्न प्रकार से होता रहता है।
शारीरिक विकास एवं अधिगम (Physical Development and Learning )
शारीरिक विकास से सम्बन्ध बालक के आन्तरिक और बाह्य अवयवो का विकास होना I जैसे : बाह्य विकास मे ऊंचाई का बढ़ना, वज्न मे वृद्धि होना आदि सामालित है। (जिसे देखा जा सकता है। ) और आन्तरिक विकास में शारीर के भीतर जो विकास होता है उसे सामालित है। उसे देखा नही जा सकता पर विकास निर्णतर चलता रहता है।
मानासिक विकास एवं अधिगम – ( Cognitive or Mental Development and Learning ) –
संज्ञानात्मक या मानसिक विकास से तात्पर्य है – कल्पना करना , निरीक्षण करना, स्मरण करना, विचार करना, निर्णय लेना , समस्या – समाधान करना , इत्यादि विभिन्न योग्यता संज्ञानात्मक विकास से ही विकसित होते है।
अर्थात कहा जा सकता है-
बालक के उन सभी मानासिक योग्यताओं एवं क्षमताओ में वृद्धि और विकास ही समालित है जिस करण से वह अपने आस – पास के बदलते वातावरण से समयोजन कर पाता है और आपने देनिक जीवन के समस्यओ को सुलझाने मे अपने मानसिक शक्तियो का र्पुण उपयोग आसानी से कर पाता है।
सांवेगिक विकास एवं अधिगम ( Emotional Development and Learning )
संवेग से अर्थ – ऐसी अवस्था जो बालक के व्यवहार को प्रभावित करती है जैसे : क्रोध, घृणा, भय , स्नेह, आशचर्य आदि है।
मनोगत्यात्मक विकास एव अधिगम ( Motor Development and Learning )
मनोगत्यात्मक विकास से अर्थ एसा कार्य जिस मे व्यक्ति की क्रियात्मक क्षमतओ या योग्यताओं का विकास होता है, और किसी र्काय को पूर्ण करने में जो माँसपेशियो एवं तत्रिकाओ की गतिविधियों के संयोजन की आवश्यकता होती है। जैसे- चलना , बैठना आदि है।
अधिगम Learning : अधिगम से अर्थ सीखना
बालक के विकास की विभिन्न अवस्थाएँ एवं उनका अधिगम से सम्बन्ध ( various stage of child Development and its Relationship with Learning )
शैशवाषस्था एव इसके दौरान अधिगम (Infancy and Learning in the Stage)
जन्म से 6 वर्ष तक की अवस्था को शैशवावस्था कहा जाता हैं। इसमें जन्म से 3 वर्ष तक बच्चों का शारीरिक एवं मानसिक विकास तेजी से होता है।
समाजीकरण भी बच्चो का इसी काल मे प्रारम्भ हो जाता तथा अनुकरण करना दोहराना जैसी प्रवृति विकसित हो जाती है ।
शिक्षा की दृष्टि से भी सर्वाधिक महत्वपूर्ण मना जाता है।
बाल्यावस्था एव इसके दौरान अधिगम ( Childhood and Learning in this Stage )
6 वर्ष से 12 वर्ष तक की अवस्था को बाल्यावस्था कहा जाता है।
बाल्यावस्था के प्रथम चरण 6 से 9 वर्ष में बालकों की लम्बाई एवं भार दोनों बढ़ते है।
इस काल में बच्चों मे चिन्तन एवं तर्क शकितयो का विकास हो जाता है।
इस काल के बाद से बच्चे पढ़ाई में रूचि लेने लगते हैं।
शैशवस्था में बच्चे जहाँ बहुत तीव्र गति से सीखते है, वहीं बाल्यावस्था मे सीखने की गति मन्द हो जाती है।
मनौवैज्ञानिको की दृष्टि से इस अवस्था में बच्चों की शिक्षा के लिए विभिन्न विधियों का प्रयोग करना चाहिए ।
किशोरावस्था एवं इसके दौरान अधिगम Adolescence and Learning in this Stage –
12 वर्ष से 18 वर्ष तक की अवस्था को किशोरावस्था कहा जाता है।
यह वह समय होता है जिसमें व्यक्ति बाल्यावस्या से परिपक्वता की ओर उन्मुख होते है।
इस अवस्था मे किशोरो की लम्बाई एवं भार दोनो में वृद्धि होती है, साथ ही माँसपेशियो में भी वृद्धि होती है।
12 से 14 वर्ष की आयु के बीच लड़को की अपेक्षा लड़कियो की लम्बाई एवं माँसपेशियो में तेजी से वृद्धि होती है एवं 14 से 18 वर्ष की आयु के बीच लड़कियों की अपेक्षा लड़को की लम्बाई एवं माँसयेशियाँ तेजी से बढ़ती है।
इस काल मे प्रजनन अंग विकसित होने लगते हैं एव उनकी काम की मूल प्रवृति जाग्रत होती है।
इस अवस्था में किशोर- किशोरियों की बुद्धि का पूर्ण विकास हो जाता है, उनके ध्यान केन्दित करने की क्षमता बढ़ जाती है , स्मरण शक्ति बढ़ जाती है एवं उनमें स्थायित्व आने लगता है।
यौन समस्या इस अवस्था की सबसे बड़ी समस्या होती है।
विकास के सिद्धांत Principles of Development
विकास की प्रक्रिया एक जटिल व निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया होती है I यह जन्म से मृत्यु तक चलती रहती हैं। यह विकास की प्रकिया अनियमित रूप से नही बल्कि धीरे धीरे क्रमबद्ध वह निशिचत समय पर होती है । धीरे धीरे उसका लम्बाई भार क्रियात्मक क्रियाएं प्रत्यक्षीकरण सामजिक समायोजन आदि का विकास होता है । अध्यापको को उस आयु के सामान्य बालको के शारीरिक , मानसिक , सामाजिक व संवोगत्मक परिपक्वता स्तर का ज्ञान होना चाहिए जिससे वे बालकों को सही दिशा प्रदान कर सकें ।
वैसे तो विकास के सिद्धांतो के विषय मे विद्वानो के अपने – अपने विचार है लेकिन कुछ ऐसे सर्वमान्य सिद्धांत है जो सभी क्षेत्रो पर लागू होते है। और सभी वचारक उनका समर्थन करते है जो निम्न प्रकार से है ।
निरन्तरता का सिद्धांत ( Principles of continuity ) विकास की प्रक्रिया कभी नही रुकने वाली प्रक्रिया है अर्थात यह जन्म से लेकर मृत्यु तक चलती रहती है बाल्कि वैज्ञानिक तरीके से देखे तो विकास की प्रक्रिया माँ के गर्भ में ही शुरू हो जाती है । बालक का जन्म दो कोषो (Cells) अर्थात शुष्क ( sperm ) ओर अड़ ( ovum ) के निषेचन के परिणामस्वरूप होता है। और कई पारिवर्तनों का अनुभव करते हुए यह निषेचित अड़ मानव बनकर विकास के कई पक्षो की ओर बढ़ती है । इस प्रकार विकास की प्रक्रिया धीरे- धीरे चली रहती है ।
एकरुपता का सिद्धांत ( Principles of uniform pattern ) विकास की प्रक्रिया में एकरूपता दिखाई देती है चाहे व्यक्तिगत विभिन्नतण कितनी भी हो लेकिन यह एकरूपता विकास के क्रम के सदर्भ मे होती है । उदाहरण – बालकों मे भाषा का विकास एक निशिचत क्रम से होगा चाहे वे बच्चे किसी भी देश के हो। बच्चो का शारीरिक विकास भी एक निशिचत क्रम में ही होगा अर्थात वह सिर से प्रारम्भ होता हैं इस प्रकार हम देखते है कि बच्चो के विकास की गति में तो अन्तर हो सकता है लेकिन विकास के क्रम मे एकरूपता पायी जाती है जैसे हम देखते है कि बच्चो के दूध के दाँत पहले टूटते है।
बाहरी नियंन्त्रण के आन्तरिक नियंन्त्रण का सिद्धांत ( Principles of outer control to inner ) : छोटे बच्चे मूल्यो व सिद्धांतो के लिए दूसरो पर निर्भर करते है जैसे -जैसे वे स्वंय बड़े होने लगते है तो उनके स्वंय के सिद्धांत मूल्य, प्रणाली, स्वंय की आत्मा व स्वय का आंतरिक नियन्त्रण विकसित होने लगता है I
मूर्त से अमूर्त का सिद्धांत ( Principles of correct to abstract ) : मानसिक विकास की शुरुआत भौतिक रूप से उपीस्थत वस्तुओ के बारे में चिंतन करके होता है। जो वस्तुओ को देखने के सिद्धांत का अनुसरण करता है जो अमूर्त रूप मे होती है और बालक इसके प्रभाव व कारण को समझने का प्रयास करता है ।
एकीकरण का सिद्धांत (Principles of integration) : इस सिद्धांत के अनुसार बालक पहले सम्पूर्ण अंग को और उसके बाद उसके विशिष्ट भागो को चलाना व प्रयोग करना सीखता है और बाद में उन भागे का एकीकरण करना सीखता है । जैसे पहले बच्चा पूरे हाथ को और बाद में उसकी उगंलियो को हिलाने का प्रयास करता है ।
सामान्य से विशिष्ट के विकास का सिद्धांत (Principles of development from specific ) : इस सिद्धांत के अनुसार बालक पहले सामान्य बतो की और बाद में उन सभी सामान्य बातों को मिलाकर एक विशिष्ट सिद्धांत बनाना सीखता है । जैसे बच्चा पहले व्यकित का नाम , स्थान और वस्तु का नाम जानता है और बाद में जनता है कि किसी व्यक्ति वस्तु या स्थान के नाम संज्ञा कहते हैं इस प्रकार बालक का विकास सामान्य से विशिष्ट की ओर होता है ।
विकास की भविष्यावाणी का सिद्धांत ( Principle of predictability of development ) : अब तक के सिद्धांत से यह भी स्पष्ट हो चुका है कि विकास की भविष्यवाणी अब की जा सकती है । जैसे यह पता लगाया जा सकता है कि बच्चे की रूचि क्या है? बालक को सम्मान की आवश्यकता है या नहीं ? उसकी अभिरूचियाँ और वृद्धि आदि ।
विकास की दिशा का सिद्धांत (Principle of Individual difference) : जैसाकि पहले बताया जा चुका है कि बच्चे के विकास की शुरुआत सिर से होती है । और उसकी टाँगे सबसे बाद में तैयार होती है । विकास की दिशा के सिद्धांत को भ्रण ( Embryo) के सिद्धांत के आधार पर तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है।
A —-> सिर से पाँव की ओर । B ——> रीढ़ की हड्डी से बाहर की ओर । C ——> स्वरूप के बाद क्रियाए
(9) वैयक्तिक भिन्नताओं का सिद्धांत ( Principle of Individual difference ) शिक्षा मनोविज्ञान में देखा जाता है कि मनोवैज्ञानिक वैयक्तिक भिन्नताओं के सिद्धांत को महत्वपूर्ण मानते है । चूकि जैसाकि हम जानते है कि विकास की प्रक्रिया को विभिन्न आयु वर्गो में बाँटा गया है । और सभी वर्गो की विशेषताएं अलग अलग होती है और इन आयु वर्गो के व्यवहारों में अन्तर पाया जाता है । जुडॅवा बच्चों मैं भी वैयकितक भिन्नता पायी जाती है । किसी व्यक्ति में कुध विशेषताएं या व्यवहार शीघ्र विकसित होती है तो कुध व्यकितयों में ये विशेषताएं और व्यवहार देरी से विकसित होती है । अर्थात सभी बालको में वृद्धि और विकास के संदर्भ में समानता नहीं पायी जाती है ।
(10) वातावरण और वंशानुक्रम के परिणाम सिद्धांत ( Principle of product of Heredity and environment) : वंशानुक्रम को बच्चे के व्यक्तित्व को नींव माना जाता है । और वंशानुक्रम व वतावरण के प्रभाव को विकास के सिद्धांत से अलग अलग नहीं किया जा सकता है । बच्चे की वृद्धि और विकास वंशानुक्रम व वातावरण दोनो को संयुक्त परिणाम होता है ऐसा कई अध्ययनों से पाता चलता है।
(11) सम्पूर्ण विकास का सिद्धांत (Principle of total development ) : शिक्षा मनोविज्ञान में बालक के सर्वोगींण विकास पर बल दिया जाता है जिसमें बालक का शारीरिक मानसिक सामाजिक संवेगात्मक व मनोगत्यामक विकास सभी पक्ष समिमलित कर लिए जाते है । इन द्वाष्टिकोणा से देखा जाए तो अध्यापक को बालक के सभी पक्षो के विकास की ओर ध्यान देना चाहिए ।
(12) परिपक्वता व अधिगम का सिद्धांत ( Principle of maturation and lossing ) : वृद्धि और विकास की प्रक्रिया वास्तव में परिपक्वता और अधिगम का विकास ही होता है । परिपक्वता से वृद्धि व विकास दोनो प्रभावित होते है । बालक किसी भी कार्य को करने में परिपक्वता ग्रहण कर लेता है और यही परिपक्वता अन्य कर्यो को करने में बालक की मदद करती है । उदाहरणार्थ यदि कोई बालक किसी कार्य को करने के लिए अभिप्रेरित है और वह भौतिक रूप से तैयार नहीं है तो वह बालक उस कार्य को करने मे असमर्थ ही होगा और उस बालक से अधिक आशाएं रखनी भी नहीं चाहिए !
बाल विकास से सम्बंधित एक अन्य महत्वपूर्ण सिद्धांत : One Important Principle Related with child development : पुर्नबलन सिद्धांत ( Reinforcement Theory ) इस सिद्धांत के अनुसार बच्चा जैसे – जैसे अपना विकास करता है , वह अधिगम करता है इस सिद्धांत मे पियाजे का सिद्धांत भी जुड़ा हुआ है कि जैसे – जैसे बालक की वृद्धि विकसित होती हैं वैसे – वैसे उसके अधिगम का दायरा भी बढ़ता है बाल्यावस्था के अनुभवो को आने वाली अवस्था में पुर्नबलन सिद्धांत को देने वाले विचारक डोलार्ड और मिलर (Dollar and Neal miller ) का मानना है कि नवजात शिशु को स्तनपान के व्यवहार से अर्जित भोजन की आवश्यकताओ को हमेश पूरा नहीं कर पाता । उसे अपनी भूख की आवश्यकता को पूरा करने के लिए कुध अधिक स्तनपान के कठिन व्यवहागे को सीखना होता है । इस सम्पूर्ण प्रक्रिया मे चार महत्वपूर्ण अवयव होते है ।
अन्तर्नोद (अभिप्रेरणा) (2) संकेत ( उद्दीपक) (3) प्रत्युत्तर ( स्वंय का व्यवहार ) तथा (4) पुर्ननलन (पुरस्कार)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें