भाषा को अस्मिता,सत्ता और जेंडर से जोड़कर देखना , relating language with identity,power and gender


भाषा और अस्मिता:-


अस्मिता का अर्थ है- पहचान तथा भाषाई अस्मिता से तात्पर्य है- भाषा बोलने वालों की अपनी पहचान। ‘अस्मिता’ शब्द के संदर्भ में डॉ. नामवर सिंह ने कहा है कि- “हिंदी में ‘अस्मिता’ शब्द पहले नहीं था। 1947 से पहले की किताबों में मुझे तो नहीं मिला और संस्कृत में भी अस्मिता का यह अर्थ नहीं है।’अहंकार’ के अर्थ में आता है, जिसे दोष माना जाता है। हिंदी में ‘आईडेंटिटी’ का अनुवाद ‘अस्मिता’ किया गया और हिंदी में जहाँ तक मेरी जानकारी है, पहली बार अज्ञेय ने ‘आईडेंटिटी’ के लिए अनुवाद ‘अस्मिता’ शब्द का प्रयोग हिंदी में कियाहै।”1

संसार में प्रत्येक व्यक्ति की अपनी निजी विशेषताएँ होती है। भाषा उनमें से एक है। यह प्रमाणित हो चुका है कि प्रत्येक व्यक्ति की भाषा दूसरे से अलग होती है। एक ही भाषा का प्रयोग करने वाले लोगों में उच्चारण, शब्द चयन एवं शैली के स्तर पर भेद पाए जाते हैं। हिंदी में कविता के संदर्भ में जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानन्दन पंत, महादेवी वर्मा, सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’, तथा ‘अज्ञेय’ आदि की भाषा एक-दूसरे से भिन्न दिखाई पड़ती है। इसी प्रकार किसी वर्ग विशेष, समाज विशेष एवं राष्ट्र विशेष के लोगों की भाषा भी दूसरे से भिन्न होती है। अतः कह सकते हैं कि किसी वर्ग, समाज एवं राष्ट्र आदि की अस्मिता उसकी भाषा में भी प्रतिबिंबित होती है। अस्मिता को प्रकट करने वाली भाषा को हम मनोवैज्ञानिक, भौगोलिक, सामाजिक, राष्ट्रीय तथा जातीय आदि कई आधार पर देख सकते हैं।


मनोवैज्ञानिक अस्मिता का संबंध भाषा से होता है। भाषा के द्वारा व्यक्ति की मनःस्थिति का पता लगाया जा सकता है। व्यक्ति के विचारों को जानने का प्रमुख साधन भाषा ही होता है। किसी बालक, युवक तथा बुजुर्ग की भाषा में अंतर होता है। भाषा के द्वारा उनकी सोच एवं अनुभव आदि का परिचय हमें सहज रूप में मिल जाता है। भाषा के द्वारा हम यह भी जान सकते हैं कि कोई व्यक्ति अंतर्मुखी है अथवा बहिर्मुखी है। अंतर्मुखी व्यक्ति अक्सर मित्भाषी तथा बहिर्मुखी व्यक्ति वाचाल होते हैं।

भौगोलिक अस्मिता का परिचय भी भाषा के माध्यम से मिलता है। विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों की भाषा में अंतर देखा जा सकता है। इन क्षेत्रों में प्रयुक्त शब्दावली भी अलग-अलग होती है। कृषि प्रधान देश अथवा क्षेत्र में कृषि से संबंधित शब्दों की अधिकता होती है। यदि किसी भौगोलिक क्षेत्र में कोई वस्तु अधिक पाई जाती है, तो वहाँ उस वस्तु के सूक्ष्म से सूक्ष्म भेद के लिए भी अलग-अलग शब्द होते हैं। हिंदी में पानी के ठोस रूप के लिए केवल ‘बर्फ’ शब्द का प्रयोग होता है, वहीं अंग्रेजी में ‘आइस’(ice) तथा ‘स्नो’(snow) दो शब्दों का प्रयोग होता है। एस्कीमों के यहाँ बर्फ के विभिन्न प्रकार एवं स्थितियों को बताने वाले कई शब्दों का प्रचलन है। एस्किमों बर्फ पर रहते हैं। बर्फ के विभिन्न छवियों से परिचित होना उनके लिए ज़रूरी भी है। पीटर ट्रुटगिल के अनुसार – “यह एस्किमों के लिए आवश्यक है कि उनमें विभिन्न प्रकार के बर्फ के बीच निपुणतापूर्वक अंतर करने की योग्यता हो।”2

किसी व्यक्ति से बातचीत कर के भी हमें उसके भौगोलिक क्षेत्र अर्थात् निवास स्थान का पता चल जाता है। हिंदी भाषा में ही कई बोलियाँ आती है। जब कोई व्यक्ति मानक हिंदी में बात करता है, तो उसमें उसके क्षेत्र की बोली का थोड़ा प्रभाव आ ही जाता है। उत्तर प्रदेश के गाजीपुर तथा आगरा क्षेत्र (जिला) में रहने वाले दो लोगों की हिंदी के बीच फर्क होता है। यह फर्क उनकी बातचीत में देखा जा सकता है। पीटर ट्रुटगिल ने यह स्थापना दी है कि-” हमारे उच्चारण एवं बातचीत के द्वारा यह सामान्य रूप से पता चल जाता है कि हम किस देश से आए हैं।”3

धर्म एवं जाति के आधार पर बनी अस्मिता भी महत्वपूर्ण होती है तथा इसका भाषा से गहरा जुड़ाव होता है। भारत में रहने वाले हिंदू-मुस्लिम एवं ईसाइयों की भाषा का अध्ययन करने पर हम देख सकते हैं कि हिंदी बोलते हुए हिंदुओं का झुकाव संस्कृत के प्रति, मुसलमानों का अरबी-फारसी के प्रति तथा ईसाइयों का अंग्रेज़ी के प्रति होता है। र्ध्म एवं जातिगत पहचान बनाए रखने के लिए ही कनाडा में रहने वाला हिंदू परिवार विवाह के समय संस्कृत में मंत्रों का उच्चारण करवाता है। इसके बावजूद भी भाषा का र्ध्म से संबंध इतना सीधा और सरल नहीं है। भाषा को किसी धर्म विशेष से जोड़कर हमेशा नहीं देखा जा सकता। बंग्लादेश में इस्लाम को मानने वाले बहुसंख्यक लोगों ने अरबी-फारसी अथवा उर्दू के स्थान पर बँगला भाषा को स्वीकार कर भाषा और धर्म के गहरे संबंध के मिथ को भी एक प्रकार से तोड़ा है। आज दुनिया में कई ऐसे इस्लामिक देश हैं जो भाषा की दृष्टि से अलग-अलग हैं,जैसे पाकिस्तान, अफगानिस्तान, इराक, तुर्की आदि।

सामाजिक अस्मिता का भाषा से गहरा संबंध होता है। दो अलग-अलग समाज के मध्य हम भाषा के आधर पर भी अंतर देख सकते हैं। यहाँ तक की एक भाषा समाज में भी विभिन्न वर्गों की अस्मिता भाषा के द्वारा व्यक्त हो जाती है। विभिन्न वर्ग अपनी विशिष्ट भाषिक क्षमता, शब्दावली एवं भाषा-शैली के माध्यम से स्वयं की अस्मिता को उजागर कर देते हैं। उदाहरणस्वरूप समाज में निम्न एवं उच्च वर्ग की भाषा, शिक्षित एवं अशिक्षित वर्ग की भाषा, शहरी एंव ग्रामीण वर्ग की भाषा,अधिकारी एंव अधीनस्थ वर्ग की भाषा आदि को हम देख सकते हैं। यहाँ तक की स्त्री और पुरुष वर्ग की भाषा का भी इस दृष्टि से अध्ययन किया जा सकता है।प्रसिद्ध भाषाविद् लेकऑफ (lackoff) का यह मानना है कि स्त्रियों का शब्द चयन भी पुरुषों से भिन्न होता है। उनके अनुसार “आकर्षक,मोहक,दैवीय, प्यारा,मधुर जैसे विशेषण साधारणतः केवल स्त्रियों द्वारा प्रयोग में लाई जाती है।”4 इसके अतिरिक्त पुरुषों की तुलना में स्त्रियों की भाषा अधिक विनम्र एवं मानक होती है तथा वे वर्जित एवं अश्लील शब्दों का भी कम प्रयोग करती हैं।


भारत के संदर्भ में सामाजिक अस्मिता का भाषा से गहरे संबंध का पता इसी बात से लगाया जा सकता है कि यहाँ राज्यों का गठन भाषा को आधार बनाकर किया गया है। रामविलास शर्मा तथा रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव जैसे भाषाविद् एवं आलोचक भाषा के आधार पर ही उत्तर भारत की जनता को एक सूत्र में बाँधने की वकालत करते हुए हिंदी जाति तथा हिंदी भाषाई समाज की बात करते हैं। भाषा को अस्मिता का सवाल बनाकर ही 1960 ई. में महाराष्ट्र को दो उपखण्डों – महाराष्ट्र तथा गुजरात में विभक्त किया गया था। पंजाब से हरियाणा को अलग करने के पीछे भी भाषा एक प्रमुख कारण थी। आज पश्चिम बंगाल से गोरखालैंड को अलग करने के लिए जो आंदोलन चलाए जा रहे हैं, उसमें भाषा को एक प्रमुख हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है। राज्यों के टूटने से समाज एवं राष्ट्र का भला होता है अथवा नहीं, यह एक अलग बहस का मुद्दा है, किंतु इस बात से हम इनकार नहीं कर सकते हैं कि राज्य के बँटवारे में भाषा एक प्रमुख कारक तत्त्व होता है। अतः देश में राज्यों के पुनर्गठन के पीछे भौगोलिक, राजनीतिक तथा आर्थिक कारणों से परे भाषा को आधार बनाकर निर्णय लेना वस्तुतः भाषा से जुड़ी अस्मिता के महत्व को ही दर्शाता है। इससे यह तथ्य भी सामने आता है कि किसी समाज विशेष के सदस्यों को जोड़कर रखने में भी भाषा की प्रमुख भूमिका होती है। ठीक इसी प्रकार एक समुदाय का दूसरे समुदाय से अलगाव का प्रमुख कारण भी भाषा ही होती है।


भाषाई अस्मिता के आधर पर हम राजभाषा एवं राष्ट्रभाषा में भी अंतर देख सकते हैं। राजभाषा वस्तुतः प्रशासनिक प्रयोजन एवं आर्थिक विकास के लिए एक प्रकार से जनता पर थोपी गई भाषा होती है, वहीं राष्ट्रभाषा का संबंध् सामाजिक अस्मिता की भाषा से है। यह किसी देश की अपनी भाषा होती है। लोगों का अपने राष्ट्रभाषा के प्रति भावात्मक रूप से जुड़ाव होता है। यह देश की एकता को एक मजबूत आधर प्रदान करता है। किसी भी देश के लोगों की पहचान उस देश की राष्ट्रभाषा से होती है, न कि राजभाषा से। भारत में हिंदी एवं अंग्रेजी भाषा को इस संदर्भ में देखा जा सकता है।


भारत में विभिन्न राज्यों का गठन भाषा के आधार पर हुआ है। इसके बावजूद भी यहाँ भाषाओं के आधर पर बनी अस्मिता विभिन्न सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक प्रयोजनों के कारण सोपानिक ढंग से स्तरीकृत है। अतः एक राज्य का व्यक्ति केवल एक भाषा का ही प्रयोग नहीं करता। स्थानीय, क्षेत्रीय, राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय संदर्भ में वह बोली, भाषा तथा अंतर्राष्ट्रीय भाषा का प्रयोग करता है। रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव के अनुसार- “अगर भाषाएँ, सामाजिक अस्मिता के निर्माण के साधन और उसके बनने के सूचक के रूप में काम करती हैं, तो हमारी भाषा संबंधी सामाजिक अस्मिता भी स्तरीकृत होगी। इस संदर्भ में हम यह कह सकते हैं कि हिंदी भाषी एक स्तर पर अपनी बोलियों से जुड़ा है और दूसरे स्तर पर अपनी भाषा हिंदी से भी।”5इसी प्रकार अहिंदी भाषी एक स्तर पर अपनी जनपदीय भाषा से और अखिल भारतीय संदर्भ में हिंदी और अंग्रेजी से जुड़ा है। एक बँगाली व्यक्ति स्थानीय स्तर पर बँगला का, राष्ट्रीय स्तर पर संपर्क के लिए हिंदी का तथा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अंग्रेजी का प्रयोग करता है। अतः संभव है कि यहाँ दो स्तरों पर टकराव की स्थिति पैदा हो जाए। दक्षिण भारत के लोगों द्वारा राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी को स्वीकार न करने के पीछे का कारण दो स्तरों के बीच भाषा का तनाव ही है।


जातीय पुनर्गठन की प्रक्रिया सामाजिक होती है। जहाँ कोई बोली सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक कारणों से अधिक महत्त्व प्राप्त कर लेती है तथा आगे चलकर सामाजिक अस्मिता का आधर बन जाती है। आज भाषा के रूप में खड़ी बोली हिंदी विभिन्न बोलियों के मध्य संपर्क भाषा का काम कर रही है तथा अन्य जनपदीय भाषाएँ ब्रज, अवधी, भोजपुरी और मगही आदि उसकी बोलियाँ कहलाती है। अन्यथा हम जानते है की भोजपुरी और मगही अर्धमागधी अपभ्रंश से उत्पन्न है। ग्रियर्सन इसे हिंदी की बोली मानते ही नहीं है। रूपात्मक (व्याकरणिक) दृष्टि से भोजपुरी हिंदी से अलग ठहरती है। वास्तव में भोजपुरी को हिंदी की बोली स्वीकारने के पीछे समान सामाजिक चेतना और संस्कृति के आधार पर बनी जातीय अस्मिता है। इसी प्रकार हिंदी एवं उर्दू का जो सवाल है, वह वास्तव में दो भाषाओं की संरचनागत भेद या समानता का सवाल नहीं है। वह भाषाई अस्मिता का सवाल है। एक समुदाय विशेष उर्दू भाषा में अपनी पहचान पाता है। यह भाषा उसे अपने होने का एहसास दिलाती है।


अतः किसी व्यक्ति, वर्ग, समाज और राष्ट्र की अस्मिता उसकी भाषा से भी व्यक्त होती है। भाषाई अस्मिता किसी देश की एकता में अपनी प्रमुख भूमिका निभाती है। राष्ट्र की सर्वाधिक सशक्त पहचान उसकी भाषा होती है। भाषा से जुड़ी सांस्कृतिक परंपरा किसी भी राष्ट्र की ताकत होती है, जो राष्ट्र निर्माण के कार्य में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।


उपर्युक्त विवेचन के आधर पर कहा जा सकता है कि भाषा अस्मिता से अभिन्न रूप से जुड़ी होती है। भाषा का इस दृष्टि से अध्ययन एक ओर जहाँ भाषा का समाज से संबंध एंव भाषा के व्यावहारिक महत्व को रेखांकित करता है, वही दूसरी ओर भाषा को देखने-समझने का एक नया आयाम भी प्रस्तुत करता है।


भाषा और सत्ता ( Language and Power ):-

 भाषा और सत्ता एक - दूसरे से घनिष्ठत रूप से सम्बन्धित हैं । जिस भाषा को बोलने वाले , समझने वाले अधिक लोग होते हैं , राजनीतिक सत्ता में उसे अधिक महत्त्व दिया जाता है और उनके हाथों में अधिक शक्ति आ जाती है क्योंकि सत्ता और शक्ति आपस में सम्बन्धित होते हैं । बहुसंख्यक भाषा - भाषी अपनी भाषा को महत्त्व प्रदान करने के लिए संघर्ष करते हैं तथा सत्तापक्ष में भाषायी शक्ति के आधार पर अपनी पहचान बना लेते हैं । अधिकांशत : जिनके पास जन शक्ति होती है , राजनीतिक गलियारों में उन्हें विशेष महत्त्व दिया जाता है । सत्ता सदैव संस्थागत होती है । वह वैधानिक रूप से महत्त्वपूर्ण समझी जाती है , भाषा के आधार पर एक भाषाभाषी शक्ति के रूप में सत्ता को प्रभावित कर लेते हैं । सत्ता प्रभाव और शक्ति का ही एक रूप होती है । अत : भाषा और शक्ति परस्पर एक - दूसरे को प्रभावित करते हैं ।

भाषा का जेण्डर और अस्मिता से सम्बन्ध 


शिक्षा जगत में भाषा की अपनी एक अहम भूमिका है, जिसे कोई भी नकार नहीं सकता। शिक्षा के माध्यम के रूप में जहाँ यह विविध ज्ञान रूपों के संप्रेषण का आधार बनती है, वहीं विषय विशेष के तौर पर भी पढ़ी और पढ़ाई जाती है। अपनी इस प्रत्यक्ष द्वैध भूमिका से इतर भाषा संस्कृति में निहित मूल्यों, आदर्शों, वर्चस्व प्रतिरूपों से जुड़ी होने के कारण न केवल इनको संचारित करती है, अपितु स्वयं इनसे बनती और इन्हें बनाती भी है। भाषा अपनी इस विस्तृत भूमिका के प्रमुख पक्ष के तौर पर लिंग-संस्कृति को भी प्रकट करती है। वह समाज के लिंग आधारित विभाजनों, शक्ति संबंधों और आपसी जुड़ाव के आधारों का संरक्षण, संवर्द्धन, पुनर्बलन और सुधार का कार्य निरंतर करती रहती है। भाषा संप्रेषण-निर्देशन के माध्यम की तरह ही महत्वपूर्ण रूप से जेंडर-अस्मिता निर्माण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।



Concept of socialization, सामाजिकरण की अवधारणा

समजीकारण 

मानव शिशु दुनिया में तब आता है जब जैविक जीव सहज आवश्यकताओं द्वारा शासित होता है। उसे धीरे-धीरे एक सामाजिक प्राणी में ढाला जाता है और वह अभिनय और महसूस करने के सामाजिक तरीके सीखता है। ढालने की इस प्रक्रिया के बिना, समाज खुद को जारी नहीं रख सकता था, न ही संस्कृति मौजूद थी, न ही व्यक्ति बन सकता था। समाजीकरण हमारे लिए पूरी तरह से मानव के रूप में कार्य करना संभव बनाता है। समाजीकरण के बिना, हम अपना समाज और संस्कृति नहीं बना सकते थे। ढालने की इस प्रक्रिया को 'समाजीकरण' कहा जाता है। प्रत्येक व्यक्ति खुद को उस स्थिति और परिवेश में समायोजित करने की कोशिश करता है जो मुख्य रूप से उस समाज द्वारा निर्धारित की जाती है जिसके वह सदस्य हैं। समायोजन की इस प्रक्रिया को समाजीकरण कहा जा सकता है।


समाजीकरण की अवधारणा


  • मानव शिशु बिना किसी संस्कृति के पैदा होते हैं। उन्हें अपने माता-पिता, शिक्षकों और अन्य लोगों द्वारा सांस्कृतिक और सामाजिक रूप से अनुकूल जानवरों में बदलना चाहिए।
  • संस्कृति प्राप्त करने की सामान्य प्रक्रिया को समाजीकरण कहा जाता है।
  •  समाजीकरण व्यक्ति को सामाजिक दुनिया में शामिल करने की प्रक्रिया के रूप में जाना जाता है।
  •  समाजीकरण शब्द का तात्पर्य अंतःक्रिया की प्रक्रिया से है, जिसके माध्यम से बढ़ता हुआ व्यक्ति उस सामाजिक समूह की आदतों, दृष्टिकोणों, मूल्यों और विश्वासों को सीखता है जिसमें वह पैदा हुआ है।
  • समाजीकरण वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा मानव शिशु अपने समाज के कामकाजी सदस्य के रूप में प्रदर्शन करने के लिए आवश्यक कौशल हासिल करना शुरू करते हैं, और सबसे प्रभावशाली सीखने की प्रक्रिया का अनुभव कर सकते हैं।
  •  कई अन्य जीवित प्रजातियों के विपरीत, जिनका व्यवहार जैविक रूप से निर्धारित है, मनुष्यों को अपनी संस्कृति को जानने और जीवित रहने के लिए सामाजिक अनुभवों की आवश्यकता होती है।
  • कई वैज्ञानिकों का कहना है कि समाजीकरण अनिवार्य रूप से जीवन भर सीखने की पूरी प्रक्रिया का प्रतिनिधित्व करता है और बच्चों के साथ-साथ वयस्कों के व्यवहार, विश्वास और कार्यों पर एक केंद्रीय प्रभाव है।
  • समाजीकरण, समाजशास्त्रियों, सामाजिक मनोवैज्ञानिकों, मानवविज्ञानी, राजनीतिक वैज्ञानिकों और शिक्षाविदों द्वारा इस्तेमाल किया जाने वाला एक शब्द है, जो मानदंडों, रीति-रिवाजों और विचारधाराओं की आजीवन प्रक्रिया को संदर्भित करने के लिए संदर्भित करता है, एक व्यक्ति को कौशल और आदतों के साथ प्रदान करने के लिए आवश्यक है जो स्वयं के भीतर भाग लेने के लिए आवश्यक हैं।
  •  समाज। समाजीकरण इस प्रकार "वह साधन है जिसके द्वारा सामाजिक और सांस्कृतिक निरंतरता प्राप्त होती है"।
  • समाजीकरण एक प्रक्रिया है जिसकी सहायता से एक जीवित जीव को एक सामाजिक प्राणी में बदल दिया जाता है।
  •  यह एक प्रक्रिया है जिसके माध्यम से युवा पीढ़ी वयस्क भूमिका सीखती है जिसे बाद में निभाना पड़ता है।
  •  यह एक व्यक्ति के जीवन में एक सतत प्रक्रिया है और यह पीढ़ी से पीढ़ी तक जारी है।
  • समाजीकरण लोगों को उनके मानदंडों और अपेक्षाओं को सिखाकर एक सामाजिक समूह में भाग लेने के लिए तैयार करता है।
  •  समाजीकरण के तीन प्राथमिक लक्ष्य हैं: आवेग नियंत्रण सिखाना और विवेक विकसित करना, लोगों को कुछ सामाजिक भूमिकाएं निभाने के लिए तैयार करना और अर्थ और मूल्य के साझा स्रोतों की खेती करना।
  • समाजीकरण सांस्कृतिक रूप से विशिष्ट है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि कुछ संस्कृतियाँ दूसरों की तुलना में बेहतर या बदतर हैं। किसी की संस्कृति को सीखने की प्रक्रिया और उसके भीतर कैसे रहना है।
  • समाजीकरण, इस प्रकार, सांस्कृतिक सीखने की एक प्रक्रिया है जिसके तहत एक नया व्यक्ति एक सामाजिक प्रणाली में नियमित रूप से खेलने के लिए आवश्यक कौशल और शिक्षा प्राप्त करता है। प्रक्रिया सभी समाजों में अनिवार्य रूप से समान है, हालांकि संस्थागत व्यवस्था भिन्न होती है। यह प्रक्रिया जीवन भर जारी रहती है क्योंकि प्रत्येक नई स्थिति उत्पन्न होती है। समाजीकरण व्यक्तियों को समूह जीवन के विशेष रूपों में फिट करने की प्रक्रिया है, जो मानव जीवों को सामाजिक रूप से रेत में परिवर्तित कर सांस्कृतिक परंपराओं को परिवर्तित कर रहा है।
  • "समाजीकरण" को उस प्रक्रिया के रूप में परिभाषित किया जाता है जिसके द्वारा हम अपनी सामाजिक पहचान प्राप्त करते हैं और सामाजिक दुनिया के मूल्यों, मानदंडों, स्थितियों और भूमिकाओं को आंतरिक करते हैं। शेफ़र: "समाजीकरण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा लोगों को एक विशेष संस्कृति के सदस्यों के रूप में व्यक्तियों के दृष्टिकोण, मूल्यों और कार्यों को सीखा जाता है"
  • समाजीकरण, मैकाइवर के अनुसार, "वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा सामाजिक प्राणी एक दूसरे के साथ व्यापक और गहन संबंध स्थापित करते हैं, जिसमें वे स्वयं के साथ और दूसरों के व्यक्तित्व के साथ और अधिक बाध्य हो जाते हैं और निकट के जटिल ढांचे का निर्माण करते हैं। और व्यापक संघ। ”
  • किमबॉल यंग लिखते हैं, “समाजीकरण का अर्थ होगा व्यक्ति को सामाजिक और सांस्कृतिक दुनिया में शामिल करने की प्रक्रिया; उसे समाज और उसके विभिन्न समूहों में एक विशेष सदस्य बनाने और उस समाज के मानदंडों और मूल्यों को स्वीकार करने के लिए उसे शामिल करना ...। समाजीकरण निश्चित रूप से सीखने का विषय है न कि जैविक विरासत का।
  • यह समाजीकरण की प्रक्रिया के माध्यम से है कि नए पैदा हुए व्यक्ति को एक सामाजिक अस्तित्व में ढाला जाता है और पुरुष समाज के भीतर अपनी पूर्ति पाते हैं। मनुष्य वह बन जाता है जो वह समाजीकरण द्वारा होता है। बोगार्डस समाजीकरण को "एक साथ काम करने की प्रक्रिया, विकासशील समूह की जिम्मेदारी के रूप में परिभाषित करता है, जो दूसरों की कल्याणकारी आवश्यकताओं द्वारा निर्देशित होता है।"
  • ओगबर्न के अनुसार, "समाजीकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति समूह के मानदंडों के अनुरूप सीखता है।" रॉस ने समाजीकरण को "सहयोगियों के रूप में महसूस कर रहे विकास और क्षमता में वृद्धि और एक साथ कार्य करने की इच्छा" के रूप में परिभाषित किया। समाजीकरण की प्रक्रिया के माध्यम से व्यक्ति एक सामाजिक व्यक्ति बन जाता है और व्यक्तित्व प्राप्त करता है।
  • ग्रीन परिभाषित समाजीकरण "प्रक्रिया के रूप में जिसके द्वारा बच्चा आत्म-हुड और व्यक्तित्व के साथ एक सांस्कृतिक सामग्री प्राप्त करता है"।
  • Arnett, उल्लिखित है कि वह समाजीकरण के तीन लक्ष्य मानते हैं:
1. आवेग नियंत्रण और एक विवेक का विकास

2. भूमिका तैयार करना और प्रदर्शन, जिसमें व्यावसायिक भूमिकाएं, लिंग भूमिकाएं, और विवाह और पितृत्व जैसे संस्थानों में भूमिकाएं शामिल हैं

3. अर्थ के स्रोतों की खेती, या जो महत्वपूर्ण है, मूल्यवान है, और जिसके लिए जीना है
  • संक्षेप में, समाजीकरण वह प्रक्रिया है जो मनुष्य को सामाजिक जीवन में कार्य करने के लिए तैयार करती है। यहां यह फिर से दोहराया जाना चाहिए कि समाजीकरण सांस्कृतिक रूप से सापेक्ष है - विभिन्न संस्कृतियों में लोग और विभिन्न नस्लीय, वर्गीकृत, लिंग, यौन और धार्मिक सामाजिक स्थानों पर कब्जा करने वाले लोगों का सामाजिक रूप से अलग-अलग रूप है। यह अंतर स्वाभाविक रूप से एक मूल्यांकन निर्णय को बाध्य नहीं करता है और नहीं करना चाहिए। समाजीकरण, क्योंकि यह संस्कृति को अपनाना है, हर संस्कृति में और अलग-अलग उपसंस्कृतियों में अलग होना है। समाजीकरण, प्रक्रिया या परिणाम दोनों के रूप में, किसी विशेष संस्कृति या उपसंस्कृति में बेहतर या बदतर नहीं है।


समाजीकरण की विशेषताएं / विशेषताएं


निम्नलिखित कुछ महत्वपूर्ण विशेषताएं हैं / समाजीकरण की विशेषता -


औपचारिक रूप से और अनौपचारिक रूप से समाजीकरण होता है:


औपचारिक समाजीकरण स्कूलों और कॉलेजों में प्रत्यक्ष शिक्षा और शिक्षा के माध्यम से होता है। परिवार, हालांकि, प्राथमिक और शिक्षा का सबसे प्रभावशाली स्रोत है। बच्चे परिवार में अपनी भाषा, रीति-रिवाज, मानदंड और मूल्य सीखते हैं।


सामूहीकरण प्रक्रिया के बजाय समाजीकरण एक निरंतर और क्रमिक है:


समाजीकरण एक जीवन भर चलने वाली प्रक्रिया है। जब बच्चा बालिग हो जाता है तो वह नहीं रहता है। प्रकृति में हम पाते हैं कि प्रत्येक प्रजाति या जीव समाजीकरण के एक पैटर्न का अनुसरण करते हैं। यही हाल इंसानों का भी है। समाजीकरण क्रमबद्ध तरीके से होता है और एक निश्चित अनुक्रम का अनुसरण करता है, जो सामान्य तौर पर अधिकांश बच्चों के लिए समान होता है। विकास की दर और गति अलग-अलग मामलों में भिन्न हो सकती है।


समाजीकरण जीव और उसके पर्यावरण की बातचीत का एक उत्पाद है।


। लेकिन यह इंगित करना संभव नहीं है कि किसी व्यक्ति के समाजीकरण में आनुवंशिकता और पर्यावरण किस अनुपात में योगदान करते हैं। दोनों बहुत अवधारणाओं से हाथ से काम करते हैं। पर्यावरण शुरू से ही नए जीव पर निर्भर करता है। इसके बीच, पोषण, जलवायु, घर में स्थितियां, सामाजिक संगठन का प्रकार, जिसमें व्यक्तिगत चाल और जीना, उन्हें और अन्य भूमिकाएं निभानी पड़ती हैं जैसे पर्यावरणीय कारक।


समाजीकरण एक सतत प्रक्रिया है -


समाजीकरण कभी भी रुकता नहीं है। यह गर्भाधान के क्षण से जारी रहता है जब तक कि व्यक्ति परिपक्वता तक नहीं पहुंच जाता। यह धीमी या तीव्र दर से होता है लेकिन छलांग और सीमा के बजाय एक नियमित गति से।


बीमारी, भुखमरी या कुपोषण या अन्य पर्यावरणीय कारकों या बच्चे के जीवन में कुछ असामान्य स्थितियों के कारण वृद्धि की निरंतरता में एक विराम हो सकता है।


समाजीकरण की एजेंसियों के बीच अधिक मानवता होने पर समाजीकरण तेजी से होता है:


यदि समाजीकरण की एजेंसियां ​​अपने विचारों और कौशलों में अधिक एकमत हैं तो समाजीकरण तेजी से होता है। जब घर में प्रसारित विचारों, उदाहरणों और कौशलों के बीच संघर्ष होता है और स्कूल या सहकर्मी द्वारा प्रेषित किया जाता है, तो व्यक्ति का समाजीकरण धीमा और अप्रभावी हो जाता है।


समाजीकरण सामान्य से विशिष्ट प्रतिक्रियाओं तक बढ़ता है-


यह देखा गया है कि सामान्य गतिविधि हमेशा विशिष्ट गतिविधि से पहले होती है। शिशु की शुरुआती प्रतिक्रियाएं प्रकृति में बहुत सामान्य हैं जिन्हें धीरे-धीरे विशिष्ट लोगों के साथ बदल दिया जाता है। नए जन्मे लोगों की शुरुआती भावनात्मक प्रतिक्रियाएं आम तौर पर उत्तेजित उत्तेजना होती हैं और यह धीरे-धीरे गुस्से, खुशी, भय आदि के विशिष्ट भावनात्मक पैटर्न को जन्म देती है। शिशुओं को अपनी बाहों को सामान्य रूप से लहराना पड़ता है, इससे पहले कि वे इस तरह की विशिष्ट प्रतिक्रियाओं में सक्षम हों उनके सामने एक वस्तु रखी गई।


समाजीकरण में परिवर्तन शामिल है-


इंसान कभी स्थिर नहीं होता। गर्भाधान के क्षण से लेकर मृत्यु के समय तक, व्यक्ति परिवर्तन के दौर से गुजर रहा है। प्रकृति सबसे स्पष्ट रूप से आनुवंशिक प्रोग्रामिंग के माध्यम से समाजीकरण को आकार देती है जो बाद के पूरे दृश्यों को निर्धारित कर सकती है। यह क्रमबद्ध सुसंगत परिवर्तनों के एक समाजीकरण प्रगतिशील श्रृंखला को संदर्भित करता है।


समाजीकरण अक्सर अनुमानित है-


मनोवैज्ञानिकों ने देखा है कि प्रत्येक चरण में कुछ समाजीकरण सामान्य लक्षण और विशेषताएं हैं। हमने देखा है कि प्रत्येक बच्चे के समाजीकरण की दर काफी स्थिर है। इसका परिणाम यह होता है कि कम उम्र में यह अनुमान लगाना संभव होता है कि बच्चे के गिरने की कितनी सीमा है।


समाजीकरण अद्वितीय है-


प्रत्येक बच्चा एक विशिष्ट व्यक्ति है। किसी भी दो बच्चों से एक समान तरीके से व्यवहार या विकास की उम्मीद नहीं की जा सकती है, हालांकि वे एक ही उम्र के हैं। उदाहरण के लिए, एक ही कक्षा में, एक बच्चा जो वंचित वातावरण से आता है, उससे उसी क्षमता के बच्चे के रूप में पढ़ाई करने की उम्मीद नहीं की जा सकती है, जिनके माता-पिता शिक्षा पर उच्च मूल्य रखते हैं और बच्चे को पढ़ाई के लिए प्रोत्साहित करते हैं।


समाजीकरण एक व्यक्तिगत प्रक्रिया है:


ये व्यक्तिगत मतभेद उत्पन्न होते हैं क्योंकि प्रत्येक बच्चे को वंशानुगत बंदोबस्ती और पर्यावरणीय कारकों के एक अद्वितीय संयोजन द्वारा नियंत्रित किया जाता है। इसलिए सभी बच्चे समान समाजीकरण की उम्र में एक ही बिंदु पर नहीं पहुंचते हैं।


समाजीकरण समाज से समाज में विभिन्न तरीकों का अभ्यास करता है।


समाजीकरण प्रथाएं समान समाज के लोगों के बीच आमतौर पर समान थीं। यह आश्चर्य की बात नहीं है क्योंकि एक ही संस्कृति और समुदाय के लोग मूल मूल्यों और धारणाओं को साझा करने की संभावना रखते हैं। 1950 के दशक के प्रारंभ में, जॉन और बीट्राइस व्हिटिंग ने छह अलग-अलग समाजों में प्रारंभिक समाजीकरण प्रथाओं का व्यापक अध्ययन किया। वे केन्या के गुसी, भारत के राजपूत, जापान में ओकिनावा के द्वीप पर ताइरा का गाँव, फिलीपींस का तरांग, मध्य मैक्सिको का मिक्सटेक इंडिया और न्यू इंग्लैंड का एक समुदाय था जिसे छद्म नाम ऑर्चडाउन दिया गया था। इन सभी समाजों ने इस तथ्य को साझा किया कि वे सांस्कृतिक रूप से अपेक्षाकृत सजातीय थे


ब्रॉन्फेंब्रेनर के पारिस्थितिकी पर्यावरण सिद्धांत की विवेचना करें discuss the bronfenbrenner brainers Ecology theory ?


पारिस्थितिकी सिद्धांत को मानव पारिस्थितिकी सिद्धांत के नाम से भी जाना जाता है। इस सिद्धांत के माध्यम से मनोवैज्ञानिक समुदाय और समाज से व्यक्ति के संदर्भों के संबंध का अध्ययन करते हैं। यह सिद्धांत ब्रॉन्फेंब्रेनर द्वारा प्रतिपादित किया गया था। इस सिद्धांत के अनुसार पांच पर्यावरण ने प्रणालियां जिनके द्वारा व्यक्ति अंतर क्रिया करता है।

पांच प्रणालियां: - नीचे दिए गए चित्र के माध्यम से ब्रॉन्फेंब्रेनर द्वारा वर्णित पांचों पर्यावरणीय प्रणालियों को प्रस्तुत किया जा रहा है ।

                             


1. माइक्रो प्रणाली: - इस प्रणाली के अंतर्गत समूह और संस्थाएं हैं जो बालक के विकास पर त्वरित तथा सीधा प्रभाव डालते हैं जैसे परिवार विद्यालय धार्मिक संस्थाएं परोस तथा साथी।


2. मेसो प्रणाली: - माइक्रो प्रणालियों के मध्य अंतर संबंध। परिवार और अध्यापकों के बीच अंतर क्रिया पुलिस तो बच्चे के साथी और परिवार के बीच संबंध।


3. एक्सो प्रणाली: - इस प्रणाली में व्यक्ति का सामाजिक प्रतिमान से संबंध होता है जिसमें व्यक्ति की कोई सक्रिय भूमिका नहीं होती जैसे किसी बच्चे या माता-पिता का घर में वैसा ही व्यवहार होने लगता है जैसा उन लोगों ने दूसरे माता-पिता या बच्चे को करते देखा है। इससे विविध प्रकार के परिवर्तन दृष्टिगोचर हो सकते हैं जैसे माता-पिता पर बच्चों पर अधिक निगाह रखने लगे माता-पिता दूसरे बच्चों के माता-पिता से झगड़ा करने लगे अपने बच्चों से व्यवहार का तरीका बदल जाए।


4. मैक्रो प्रणाली:- यह प्रणाली उस संस्कृति को प्रदर्शित करती है जिसमें व्यक्ति रहता है विकासशील और औद्योगिक देश सामाजिक आर्थिक स्तर निर्धनता और प्रज्ञान इयत्ता संस्कृति में निहित होते हैं। बालक उसके माता-पिता उसका विद्यालय उसके माता-पिता का कार्यस्थल व्यापक सांस्कृतिक संदर्भ का हिस्सा है। किसी सांस्कृतिक समूह के समान पहचान परंपराएं और मुरलीधारण करते हैं पुलिस टो आने वाली प्रत्येक नई पीढ़ी माइक्रो प्रणाली को समय के साथ परिवर्तित कर सकती है एक विशिष्ट माइक्रो प्रणाली को जन्म दे सकती है।


5. क्रोनों प्रणाली:- इस प्रणाली में सामाजिक ऐतिहासिक परिस्थितियों में बदलाव होता है जैसे वर्तमान में महिलाओं में अपने कैरियर के प्रति जागरूकता आई है महिलाएं घर से बाहर निकल कर आर्थिक जगत में पैर रख रही है। व्यक्ति की अपनी जैविक विशेषताएं माइक्रो प्रणाली का हिस्सा हो सकती है इसीलिए इस सिद्धांत को कभी-कभी जैव पारिस्थितिकी प्रणाली सिद्धांत भी कहते हैं

समाजीकरण के प्रकार-


समूह समाजीकरण:


समूह समाजीकरण यह मानता है कि एक व्यक्ति के सहकर्मी समूह, माता-पिता के आंकड़ों के बजाय, वयस्कता में उसके व्यक्तित्व और व्यवहार को प्रभावित करते हैं। किशोरों को माता-पिता की तुलना में साथियों के साथ अधिक समय बिताना पड़ता है। इसलिए, माता-पिता के आंकड़ों की तुलना में सहकर्मी समूहों के व्यक्तित्व विकास के साथ मजबूत संबंध हैं। हाई स्कूल में प्रवेश करना कई किशोरों के जीवनकाल में एक महत्वपूर्ण क्षण होता है, जिसमें उनके माता-पिता की संयम से शाखाएं शामिल होती हैं। नई जीवन चुनौतियों से निपटने के दौरान, किशोर अपने माता-पिता के बजाय अपने साथी समूहों के भीतर इन मुद्दों पर चर्चा करने में आराम करते हैं।


लिंग समाजीकरण:


हेंसलिन का तर्क है कि "समाजीकरण का एक महत्वपूर्ण हिस्सा सांस्कृतिक रूप से परिभाषित लिंग भूमिकाओं का सीखना है।" लिंग समाजीकरण व्यवहार और दृष्टिकोण के शिक्षण को संदर्भित करता है जो किसी दिए गए लिंग के लिए उपयुक्त माना जाता है। लड़के लड़के बनना सीखते हैं और लड़कियाँ लड़कियाँ बनना सीखती हैं। यह "सीखना" समाजीकरण के कई अलग-अलग एजेंटों के माध्यम से होता है।


लिंग समाजीकरण में माता-पिता बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। समाजशास्त्रियों ने चार तरीकों की पहचान की है जिसमें माता-पिता अपने बच्चों में लिंग की भूमिका को सामाजिक रूप देते हैं: खिलौनों और गतिविधियों के माध्यम से लिंग संबंधी विशेषताओं को आकार देना, बच्चे के लिंग के आधार पर बच्चों के साथ उनकी बातचीत में अंतर करना और लिंग आदर्शों और अपेक्षाओं का संचार करना।


प्रत्याशात्मक समाजीकरण और पुनः समाजीकरण:


प्रत्याशात्मक समाजीकरण समाजीकरण की प्रक्रियाओं को संदर्भित करता है जिसमें एक व्यक्ति भविष्य के पदों, व्यवसायों और सामाजिक रिश्तों के लिए "पूर्वाभ्यास" करता है। पुन: समाजीकरण पूर्व व्यवहार पैटर्न और सजगता को छोड़ने की प्रक्रिया को संदर्भित करता है, नए लोगों को किसी के जीवन में संक्रमण के हिस्से के रूप में स्वीकार करता है। यह पूरे मानव जीवन चक्र में होता है। पुन: समाजीकरण एक गहन अनुभव हो सकता है, जिसमें व्यक्ति को अपने अतीत के साथ एक तीव्र ब्रेक का अनुभव होता है, साथ ही साथ मौलिक रूप से विभिन्न मानदंडों और मूल्यों को सीखने और जानने की आवश्यकता होती है।


नस्लीय समाजीकरण और सांस्कृतिक समाजीकरण:


नस्लीय समाजीकरण को "विकास संबंधी प्रक्रियाओं के रूप में परिभाषित किया गया है, जिसके द्वारा बच्चे एक जातीय समूह के व्यवहार, धारणा, मूल्य और दृष्टिकोण प्राप्त करते हैं, और समूह के सदस्यों के रूप में खुद को और दूसरों को देखने के लिए आते हैं"। सांस्कृतिक समाजीकरण उन पैतृक प्रथाओं को संदर्भित करता है जो बच्चों को उनके नस्लीय इतिहास या विरासत के बारे में सिखाते हैं और कभी-कभी उन्हें गर्व विकास के रूप में संदर्भित किया जाता है।


नियोजित समाजीकरण और प्राकृतिक समाजीकरण:


योजनाबद्ध समाजीकरण तब होता है जब अन्य लोग बचपन से दूसरों को सिखाने या प्रशिक्षित करने के लिए डिज़ाइन किए गए कार्य करते हैं। प्राकृतिक समाजीकरण तब होता है जब शिशु और युवा अपने आस-पास के सामाजिक जगत का पता लगाते हैं, खेलते हैं और खोजते हैं।


सकारात्मक समाजीकरण और नकारात्मक समाजीकरण:


सकारात्मक समाजीकरण सामाजिक सीखने का प्रकार है जो सुखद और रोमांचक अनुभवों पर आधारित है। हम उन लोगों को पसंद करते हैं जो हमारी सामाजिक सीखने की प्रक्रियाओं को सकारात्मक प्रेरणा, प्रेमपूर्ण देखभाल और पुरस्कृत अवसरों से भरते हैं। नकारात्मक समाजीकरण तब होता है जब अन्य लोग "हमें सबक सिखाने" की कोशिश करने के लिए सजा, कठोर आलोचना या क्रोध का उपयोग करते हैं; और अक्सर हम नकारात्मक समाजीकरण और इसे हम पर थोपने वाले लोगों को नापसंद करते हैं।


व्यापक और संकीर्ण समाजीकरण :


अरनेट ने एक दिलचस्प प्रस्ताव रखा, हालांकि शायद ही कभी समाजीकरण के प्रकारों में भेद का इस्तेमाल किया गया हो। Arnett व्यापक और संकीर्ण समाजीकरण के बीच अंतर करता है। व्यापक समाजीकरण का उद्देश्य स्वतंत्रता, व्यक्तिवाद और आत्म-अभिव्यक्ति को बढ़ावा देना है; इसे व्यापक रूप से डब किया गया है क्योंकि इस प्रकार के समाजीकरण के परिणामस्वरूप व्यापक श्रेणी के परिणाम प्राप्त होते हैं। संकीर्ण समाजीकरण का उद्देश्य आज्ञाकारिता और अनुरूपता को बढ़ावा देना है; इसे संकीर्ण माना जाता है क्योंकि परिणामों की एक संकीर्ण सीमा होती है।


प्राथमिक और माध्यमिक समाजीकरण :


प्राथमिक समाजीकरण जीवन में जल्दी होता है, एक बच्चे और किशोर के रूप में। एक बच्चे के लिए प्राथमिक समाजीकरण बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि यह भविष्य के सभी समाजीकरण के लिए जमीनी कार्य निर्धारित करता है। प्राथमिक समाजीकरण तब होता है जब एक व्यक्ति किसी विशेष संस्कृति के सदस्यों के रूप में उपयुक्त व्यवहार, मूल्यों और कार्यों को सीखता है। यह मुख्य रूप से तात्कालिक परिवार और दोस्तों से प्रभावित है। द्वितीयक समाजीकरण का तात्पर्य उस समाजीकरण से है जो एक बच्चे के जीवन में होता है, दोनों एक बच्चे के रूप में और एक ऐसे नए समूह का सामना करते हैं जिन्हें अतिरिक्त समाजीकरण की आवश्यकता होती है। माध्यमिक समाजीकरण सीखने की प्रक्रिया को संदर्भित करता है जो बड़े समाज के भीतर एक छोटे समूह के सदस्य के रूप में उपयुक्त व्यवहार है। मूल रूप से, यह समाज के एजेंटों के सामाजिककरण द्वारा प्रबलित व्यवहार पैटर्न है। माध्यमिक समाजीकरण घर के बाहर होता है। यह वह जगह है जहाँ बच्चे और वयस्क सीखते हैं कि कैसे उन परिस्थितियों में कार्य करना है जो उन स्थितियों के लिए उपयुक्त हैं जिनमें [22] स्कूलों को घर से बहुत अलग व्यवहार की आवश्यकता होती है, और बच्चों को नए नियमों के अनुसार कार्य करना चाहिए। नए शिक्षकों को एक तरह से कार्य करना होता है जो विद्यार्थियों से अलग होता है और अपने आस-पास के लोगों से नए नियमों को सीखता है। माध्यमिक समाजीकरण आमतौर पर किशोरों और वयस्कों के साथ जुड़ा हुआ है, और प्राथमिक समाजीकरण में होने वाली तुलना में छोटे बदलाव शामिल हैं


समाजीकरण की एजेंसियां:


समाजीकरण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा संस्कृति युवा पीढ़ी को प्रेषित होती है और पुरुष सामाजिक समूहों के नियमों और प्रथाओं को सीखते हैं जिनसे वे संबंधित हैं। प्रत्येक समाज एक संस्थागत ढांचे का निर्माण करता है जिसके भीतर बच्चे का समाजीकरण होता है। संस्कृति संचार के माध्यम से प्रेषित होती है, वे एक दूसरे के साथ होती हैं और संचार इस प्रकार संस्कृति संचरण की प्रक्रिया का सार बन जाता है। एक समाज में बच्चे के सामाजिककरण के लिए कई एजेंसियां ​​मौजूद हैं।


समाजीकरण की सुविधा के लिए विभिन्न एजेंसियां ​​महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। हालांकि इन एजेंसियों का परस्पर संबंध है।


परिवार:


परिवार को सही मायनों में सामाजिक कुरीतियों का पालना कहा जाता है। एक मिनी समाज होने वाला परिवार व्यक्ति और समाज के बीच एक संचरण बेल्ट के रूप में कार्य करता है। परिवार समाजीकरण प्रक्रिया में एक उत्कृष्ट भूमिका निभाता है। परिवार समाजीकरण का सबसे महत्वपूर्ण एजेंट है क्योंकि यह बच्चे के जीवन का केंद्र है, क्योंकि शिशु पूरी तरह से दूसरों पर निर्भर होते हैं। सभी समाजीकरण जानबूझकर नहीं है, यह आसपास पर निर्भर करता है। व्यक्तित्व के निर्माण में परिवार सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। परिवार का अपने सदस्यों पर अनौपचारिक नियंत्रण है। यह युवा पीढ़ी को इस तरह प्रशिक्षित करता है कि वह वयस्क भूमिकाएं उचित तरीके से ले सके। जैसा कि परिवार प्राथमिक और अंतरंग समूह है, यह अपने सदस्यों की ओर से अवांछनीय व्यवहार की जांच करने के लिए सामाजिक नियंत्रण के अनौपचारिक तरीकों का उपयोग करता है। ।


व्यक्तिगत जीवन चक्र और पारिवारिक जीवन चक्र के बीच परस्पर क्रिया के कारण समाजीकरण की प्रक्रिया एक प्रक्रिया बनी हुई है।


रॉबर्ट के अनुसार। के। मर्टन, "यह परिवार है जो आने वाली पीढ़ी के लिए सांस्कृतिक मानकों के प्रसार के लिए एक प्रमुख ट्रांसमिशन बेल्ट है"। यह परिवार "सामाजिक निरंतरता के प्राकृतिक और सुविधाजनक चैनल" के रूप में कार्य करता है। सबसे गहरा प्रभाव लिंग समाजीकरण है; हालांकि, परिवार को बच्चों को सांस्कृतिक मूल्यों और खुद के बारे में और दूसरों के दृष्टिकोण को सिखाने का काम भी करना चाहिए। बच्चे उस वातावरण से लगातार सीखते हैं जो वयस्क बनाते हैं। बच्चे भी बहुत कम उम्र में कक्षा के बारे में जागरूक हो जाते हैं और प्रत्येक कक्षा के अनुसार अलग-अलग मूल्य प्रदान करते हैं।


ग्रामीण समाजों में, बच्चों का परिवार के साथ अधिकांश सामाजिक संपर्क होता है। आज, हालांकि, बच्चे के जीवन में परिवार का महत्व बदल रहा है। हालाँकि आज बड़े होने वाले अधिकांश बच्चे अपने परिवार के सदस्यों के अलावा अन्य लोगों के साथ बहुत समय बिताएंगे, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि समाजीकरण में परिवारों की भागीदारी समाप्त हो गई है। फिर भी परिवार मूल्यों पर गुजरने का एक प्रमुख साधन है, व्यवहार और व्यवहार।


द डे-केयर:


आज, हालांकि, बच्चे के जीवन में परिवार का महत्व बदल रहा है। परिवार अब जरूरी नहीं कि दो माता-पिता और दो या अधिक आश्रित बच्चों के साथ रूढ़िवादी परमाणु परिवार के अनुरूप हो। कम परिवारों में एक कामकाजी पिता, पूर्णकालिक गृहिणी माँ और कम से कम एक बच्चा शामिल है। अधिक से अधिक एकल-अभिभावक परिवार हैं, जहाँ 6 वर्ष से कम आयु के बच्चों वाली माताएँ काम कर रही हैं। अधिकांश और अधिक बच्चे अपने माता-पिता के अलावा दूसरों से अपनी प्रारंभिक और प्राथमिक देखभाल प्राप्त कर रहे हैं। इन बच्चों के लिए, डे केयर समाजीकरण का एक महत्वपूर्ण एजेंट है। दिन की देखभाल एक पड़ोसी के घर पर अनौपचारिक व्यवस्था है, स्कूलों, चर्चों, दान, निगमों और कभी-कभी नियोक्ताओं द्वारा संचालित बड़ी नर्सरी।


सामाजिक वर्ग


कोहन ने बताया कि माता-पिता अपने सामाजिक वर्ग के सापेक्ष अपने बच्चों की परवरिश कैसे करते हैं, इस बात का पता लगाया। कोन ने पाया कि निम्न वर्ग के माता-पिता अपने बच्चों में अनुरूपता पर जोर देने की अधिक संभावना रखते थे जबकि मध्यम वर्ग के माता-पिता रचनात्मकता और आत्मनिर्भरता पर जोर देते थे। एलिस एट। अल। प्रस्तावित और पाया गया कि माता-पिता बच्चों में आत्मनिर्भरता के लिए उस हद तक अनुरूपता रखते हैं, जो अनुरूपता ने आत्मनिर्भरता को अपने स्वयं के प्रयासों में सफलता के लिए एक मानदंड के रूप में लिया। दूसरे शब्दों में, एलिस एट। अल। सत्यापित किया गया है कि निम्न श्रेणी के माता-पिता अपने बच्चों में अनुरूपता पर जोर देते हैं क्योंकि वे अपने दिन-प्रतिदिन के कार्यों में अनुरूपता का अनुभव करते हैं


साथियों के समूह:


एक सहकर्मी समूह एक सामाजिक समूह है जिसके सदस्यों के हित, सामाजिक पद और उम्र आम है। यह वह जगह है जहां बच्चे पर्यवेक्षण से बच सकते हैं और अपने दम पर संबंध बनाना सीख सकते हैं। एक सहकर्मी समूह में मित्र और सहयोगी शामिल होते हैं जो समान आयु और सामाजिक स्थिति के बारे में होते हैं। पीयर ग्रुप का मतलब एक ऐसा समूह है, जिसमें सदस्य कुछ सामान्य विशेषताओं जैसे कि उम्र या सेक्स आदि को साझा करते हैं। यह बच्चे के समकालीनों, स्कूल में उसके सहयोगियों, खेल के मैदान और सड़क पर बनता है। बढ़ता बच्चा अपने सहकर्मी समूह से कुछ बहुत महत्वपूर्ण सबक सीखता है। चूँकि सहकर्मी समूह के सदस्य समाजीकरण के एक ही चरण में हैं, वे स्वतंत्र रूप से और सहजता से एक दूसरे के साथ बातचीत करते हैं।


सहकर्मी समूहों के सदस्यों को संस्कृति के बारे में जानकारी के अन्य स्रोत हैं और इस प्रकार संस्कृति का अधिग्रहण होता है। वे दुनिया को समान आंखों से देखते हैं और समान व्यक्तिपरक दृष्टिकोण साझा करते हैं। अपने सहकर्मी समूह द्वारा स्वीकार किए जाने के लिए, बच्चे को विशिष्ट दृष्टिकोण, पसंद और नापसंद का प्रदर्शन करना चाहिए।


जैसे-जैसे बच्चे बड़े होते हैं, स्कूल जाना उन्हें उनकी उम्र के अन्य बच्चों के साथ नियमित संपर्क में लाता है। पहली या दूसरी कक्षा की शुरुआत में, बच्चे सामाजिक समूह बनाते हैं। इन शुरुआती सहकर्मी समूहों में, बच्चे खिलौने और अन्य दुर्लभ संसाधनों (जैसे शिक्षक का ध्यान) साझा करना सीखते हैं। माता-पिता और स्कूलों द्वारा जोर देने वाले व्यवहार को सहकर्मी सुदृढ़ कर सकते हैं। युवा चिंताएं लोकप्रिय संगीत और फिल्मों, खेल, सेक्स या अवैध गतिविधियों पर केंद्रित हो सकती हैं। संघर्ष तब उत्पन्न होता है जब सहकर्मी समूह के मानक बच्चे के परिवार के मानकों से भिन्न होते हैं। दूसरी ओर, माता-पिता और शिक्षक चाहते हैं कि बच्चे स्कूल की पढ़ाई करें, घर में मदद करें और "परेशानी से बाहर रहें।"


सहकर्मी समूह का प्रभाव आमतौर पर किशोरावस्था के दौरान होता है, हालांकि सहकर्मी समूह आम तौर पर केवल परिवार के विपरीत अल्पकालिक हितों को प्रभावित करते हैं, जिसका दीर्घकालिक प्रभाव होता है। हमारे समाज में, किशोरावस्था अपने साथियों से बहुत प्रभावित होती है जब यह पोशाक, संगीतमय सनक, धोखा, और नशीली दवाओं के प्रयोग। अपने भविष्य के जीवन की योजना बनाने में, हालांकि, वे अपने माता-पिता द्वारा अपने साथियों की तुलना में अधिक प्रभावित होते हैं। लड़कों की तुलना में लड़कियां अपने भविष्य के जीवन की योजनाओं में कुछ हद तक प्रभावित होती हैं। साथियों समूह सामाजिक पुरस्कार प्रदान कर सकते हैं-प्रशंसा, प्रतिष्ठा, और उन चीजों के लिए व्यक्तियों पर ध्यान दें, जो वयस्कों द्वारा अस्वीकृत किए जाते हैं।


भाषा: हिन्दी:


किसी भी समय भाषा और स्थिति के आधार पर, लोग अलग तरह से सामाजिककरण करेंगे। लोग उस विशिष्ट भाषा और संस्कृति के आधार पर अलग-अलग सामाजिककरण करना सीखते हैं जिसमें वे रहते हैं। इसका एक विशिष्ट उदाहरण कोड स्विचिंग है। यह वह जगह है जहां आप्रवासी बच्चे अपने जीवन में उपयोग की जाने वाली भाषाओं के अनुसार व्यवहार करना सीखते हैं: घर पर और सहकर्मी समूहों में (मुख्य रूप से शैक्षिक सेटिंग्स में) अलग-अलग भाषाएं।


राजनीतिक समानताएं / राष्ट्रवाद:


हर समाज प्रभावित करने की कोशिश करता है कि युवा कैसे बड़े होते हैं। इस प्रभाव का अधिकांश अभिभावकों, स्कूलों और साथियों के माध्यम से व्यक्त किया जाता है, लेकिन यह एक पल के लिए विचार करने योग्य है कि कैसे बच्चे राजनीतिक और आर्थिक विचारों के संपर्क में आते हैं, जिन्हें किसी विशेष देश के नागरिकों के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है।


बच्चे प्राथमिक विद्यालय के वर्षों के दौरान तेजी से राजनीतिक जानकारी और दृष्टिकोण सीखते हैं। पहली चीज़ जो वे सीखते हैं वह यह है कि वे किसी प्रकार की राजनीतिक इकाई से संबंधित हैं। यहां तक ​​कि बहुत छोटे बच्चे अपने देश के संबंध में "हम" की भावना विकसित करते हैं और "वे" के संदर्भ में अन्य देशों को देखना सीखते हैं। बच्चे यह भी मानते हैं कि उनका अपना देश और भाषा दूसरों से बेहतर है। यह बंधन राष्ट्र के राजनीतिक जीवन से संबंधित सबसे महत्वपूर्ण समाजीकरण सुविधा हो सकती है। परिवार इस बुनियादी वफादारी को देश के लिए प्रदान करने में मदद करता है, लेकिन स्कूल उन राजनीतिक अवधारणाओं को भी आकार देता है जो बच्चों की लगाव की शुरुआती भावनाओं का विस्तार और विकास करते हैं। राजनीतिक झुकाव प्रारंभिक विकास करते हैं और प्राथमिक विद्यालय के अंत तक लगभग वयस्क स्तर तक पहुंचते हैं, लेकिन अभी भी कुछ महत्वपूर्ण परिवर्तन हैं जो जीवन चक्र के दौरान अन्य बिंदुओं पर होते हैं। हाई स्कूल के छात्र राजनीतिक दलों के बीच मतभेदों के बारे में अधिक जागरूक हो जाते हैं और राजनीतिक रूप से अधिक सक्रिय हो जाते हैं।


धर्म:


समाज में धर्म एक महत्वपूर्ण कारक रहा है। प्रारंभिक समाज में धर्म ने एकता का बंधन प्रदान किया। यद्यपि आधुनिक समाज में धर्म का महत्व कम हो गया है, फिर भी यह हमारी मान्यताओं और जीवन के तरीकों को ढालना जारी रखता है। प्रत्येक परिवार में कुछ या अन्य धार्मिक प्रथाओं को एक या दूसरे अवसर पर मनाया जाता है। बच्चा अपने माता-पिता को मंदिर में जाकर धार्मिक अनुष्ठान करता हुआ देखता है। वह धार्मिक उपदेशों को सुनता है जो उनके जीवन के पाठ्यक्रम को निर्धारित कर सकता है और उनके विचारों को आकार दे सकता है।


समाजीकरण में धर्म बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। समाजीकरण के एजेंट धार्मिक परंपराओं के प्रभाव में भिन्न होते हैं। कुछ लोगों का मानना ​​है कि धर्म एक जातीय या सांस्कृतिक श्रेणी की तरह है, जिससे व्यक्तियों के लिए धार्मिक जुड़ाव से टूटने की संभावना कम होती है और इस सेटिंग में अधिक सामाजिकता होती है। माता-पिता की धार्मिक भागीदारी धार्मिक समाजीकरण का सबसे प्रभावशाली हिस्सा है - धार्मिक साथियों या धार्मिक मान्यताओं की तुलना में अधिक।


शिक्षण संस्थानों:


इसलिए हर सभ्य समाज ने शिक्षा (स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों) की औपचारिक एजेंसियों का एक समूह विकसित किया है, जिनका समाजीकरण की प्रक्रिया पर काफी असर पड़ता है। यह शैक्षिक संस्थानों में है कि संस्कृति औपचारिक रूप से प्रसारित और अधिग्रहित है।


शिक्षण संस्थान न केवल बढ़ते बच्चे को भाषा और अन्य विषयों को सीखने में मदद करते हैं बल्कि समय, अनुशासन, टीम के काम, सहयोग और प्रतिस्पर्धा की अवधारणा को भी प्रेरित करते हैं। इनाम और सजा के माध्यम से वांछित व्यवहार पैटर्न को मजबूत किया जाता है।


शैक्षिक संस्थान एक बहुत ही महत्वपूर्ण समाजवादी और वह साधन है जिसके द्वारा व्यक्ति सामाजिक मानदंडों और मूल्यों (उपलब्धि के मूल्यों, नागरिक आदर्शों, एकजुटता और समूह निष्ठा आदि) को प्राप्त करता है, जो कि परिवार और अन्य समूहों में सीखने के लिए उपलब्ध हैं।


शैक्षिक संस्थान बच्चों को पुरस्कार के लिए काम करने के महत्व पर प्रभावित करने की कोशिश करते हैं, और वे नीरसता, समय की पाबंदी, आदेश और अधिकार के लिए सम्मान सिखाने की कोशिश करते हैं। शिक्षकों को यह मूल्यांकन करने के लिए कहा जाता है कि बच्चे किसी विशेष कार्य को कितना अच्छा करते हैं या उनके पास कितना कौशल है। इस प्रकार, स्कूल में, वयस्कों के साथ बच्चों के रिश्ते दूसरों के द्वारा निर्धारित कार्यों और कौशल के प्रदर्शन के लिए पोषण और व्यवहार संबंधी चिंताओं से आगे बढ़ते हैं।


संचार मीडिया:


मास मीडिया एक विशाल दर्शकों को निर्देशित अवैयक्तिक संचार प्रदान करने का साधन है। मीडिया शब्द लैटिन अर्थ से आता है, "मध्य", यह सुझाव देता है कि मीडिया का कार्य लोगों को जोड़ना है।


मास मीडिया में संचार के कई रूप शामिल हैं - जैसे कि किताबें, पत्रिकाएं, रेडियो, टेलीविजन, और फिल्में - जो प्रेषकों और रिसीवर के बीच व्यक्तिगत संपर्क के बिना बड़ी संख्या में लोगों तक पहुंचती हैं। चूंकि मास मीडिया का हमारे दृष्टिकोण और व्यवहार पर बहुत प्रभाव पड़ता है, विशेष रूप से आक्रामकता के संबंध में, यह समाजीकरण की प्रक्रिया में एक महत्वपूर्ण योगदानकर्ता है।


संचार का जनसंचार माध्यम, विशेष रूप से टेलीविजन, समाजीकरण की प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। संचार का जनसंचार मीडिया सूचनाओं और संदेशों को प्रसारित करता है जो किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व को काफी हद तक प्रभावित करते हैं। पिछले कुछ दशकों में, बच्चों को विशेष रूप से एक स्रोत: टेलीविजन द्वारा नाटकीय रूप से समाजीकरण किया गया है। अध्ययन में पाया गया है कि बच्चे स्कूल में जितना समय बिताते हैं, उससे ज्यादा टीवी देखने में बिताते हैं।


रिपोर्टें भिन्न हो सकती हैं, लेकिन पांचवीं से आठवीं कक्षा के बच्चे रोजाना औसतन 4 से 6 घंटे देखते हैं। टेलीविजन के प्रभावों पर अधिकांश शोध टीवी देखने के संज्ञानात्मक और व्यवहारिक परिणामों पर हुए हैं। सबसे अधिक बार अध्ययन किया गया विषय असामाजिक व्यवहार, विशेष रूप से हिंसा पर टेलीविजन का प्रभाव है। वर्तमान शोध इस दृष्टिकोण का समर्थन करता है कि टेलीविजन पर हिंसा देखने से यह संभावना बढ़ जाती है कि एक बच्चा आक्रामक होगा। सार्वजनिक रूप से उपलब्ध अध्ययन स्पष्ट रूप से टेलीविजन विज्ञापन के संपर्क में व्यवहार में परिवर्तन (जैसे कि भोजन की आदतें या नशीली दवाओं के उपयोग) से संबंधित हैं।


शोध यह भी बताते हैं कि छोटे बच्चे टेलीविजन से काफी राजनीतिक और सामाजिक जानकारी प्राप्त करते हैं।


विन्न (1977) का सुझाव है कि टेलीविजन देखने का अनुभव सीमित है। जब लोग टेलीविजन देखते हैं, चाहे कोई भी कार्यक्रम हो, वे बस देखने वाले होते हैं और उन्हें कोई अन्य अनुभव नहीं होता है। विन्न के अनुसार, और कई सहमत हैं, बच्चों को पारिवारिक संबंधों, आत्म-निर्देशन की क्षमता, और संचार (पढ़ने, लिखने और बोलने) के बुनियादी कौशल विकसित करने की आवश्यकता है; अपनी स्वयं की शक्तियों और सीमाओं की खोज करना, और सामाजिक सहभागिता को बनाए रखने वाले नियमों को सीखना। टेलीविजन बच्चों को निष्क्रिय स्थिति में डालकर इन सभी लक्ष्यों के खिलाफ काम करता है जहां वे बोलते नहीं हैं, बातचीत करते हैं, प्रयोग करते हैं, अन्वेषण करते हैं, या कुछ और सक्रिय करते हैं क्योंकि वे देख रहे हैंएक मशीन पर एक छोटी सी चलती तस्वीर। यह शोध समाजीकरण के माध्यम के रूप में टेलीविजन के बढ़ते महत्व को दर्शाता है, हालांकि स्पष्ट रूप से यह कई महत्वपूर्ण प्रभावों में से एक है।


इसके अलावा, संचार मीडिया मौजूदा मानदंडों और मूल्यों का समर्थन करने या उनका विरोध करने या बदलने के लिए व्यक्तियों को प्रोत्साहित करने में एक महत्वपूर्ण प्रभाव है। वे सामाजिक शक्ति के साधन हैं। वे हमें अपने संदेशों से प्रभावित करते हैं। शब्द हमेशा किसी और इन लोगों द्वारा लिखे जाते हैं - लेखक और संपादक और विज्ञापनदाता - शिक्षक, साथियों और माता-पिता के साथ समाजीकरण की प्रक्रिया में शामिल होते हैं।


कानूनी प्रणाली:


राज्य एक सत्तावादी एजेंसी है। यह लोगों के लिए कानून बनाता है और उनके द्वारा अपेक्षित आचरण के तरीकों की पैरवी करता है। इन कानूनों को मानना ​​लोगों की मजबूरी है। यदि वे राज्य के कानूनों के अनुसार अपने व्यवहार को समायोजित करने में विफल रहते हैं, तो उन्हें ऐसी विफलता के लिए दंडित किया जा सकता है। इस प्रकार राज्य हमारे व्यवहार को भी ढालता है।


बच्चों पर माता-पिता और साथियों दोनों से दबाव डाला जाता है कि वे समूह / समुदाय के कुछ कानूनों या मानदंडों का पालन करें और पालन करें। कानूनी प्रणालियों के प्रति माता-पिता का दृष्टिकोण बच्चों के विचारों को प्रभावित करता है जो कानूनी रूप से स्वीकार्य है ।

Contemporary india and education Short notes in hindi all topics B.Ed. C-2 समकालीन भारत और शिक्षा









शिक्षा क्या है?
शिक्षा ग्रहण करना
शब्द "शिक्षा" लैटिन शब्द "एडुकेटम" से लिया गया है जिसका अर्थ है शिक्षण या प्रशिक्षण का कार्य ।
शिक्षा मनुष्य में अच्छे गुणों का पोषण करना चाहती है और प्रत्येक व्यक्ति में सर्वश्रेष्ठ को निकालती है। एक व्यक्ति को शिक्षित करके हम उसे कुछ वांछनीय ज्ञान, समझ, कौशल, रुचि, दृष्टिकोण और महत्वपूर्ण सोच देने का प्रयास करते हैं।
समाज में एक व्यक्ति के रूप में, हमें जीवन में विभिन्न मुद्दों के बारे में गंभीर रूप से सोचना होगा और पूर्वाग्रह और पूर्वाग्रहों, अंधविश्वासों और अंध विश्वासों से मुक्त होने के बारे में निर्णय लेना होगा। इस प्रकार, हम के माध्यम से सिर, हाथ, और दिल के इन सभी गुणों जानने के लिए educations की प्रक्रिया एन।

शिक्षा का अधिकार
"शिक्षा एक ऐसी चीज है जो मनुष्य को आत्मनिर्भर और निस्वार्थ बनाती है" - ऋग्वेद
"शिक्षा के द्वारा, मेरा मतलब है कि बाल और मानव-शरीर, मन और आत्मा में सर्वश्रेष्ठ में से एक चौतरफा ड्राइंग" - गांधीजी
"हमारी सभी समस्याओं के समाधान के लिए सबसे चौड़ी सड़क शिक्षा है।" - टैगोर
"शिक्षा एक ध्वनि शरीर में एक ध्वनि दिमाग का निर्माण है। यह मनुष्य के संकाय, विशेष रूप से उसके दिमाग को विकसित करता है ताकि वह सर्वोच्च सत्य, अच्छाई, और सुंदरता का चिंतन का आनंद लेने में सक्षम हो सके जिसमें सही खुशी अनिवार्य रूप से शामिल हो" - अरस्तू
शिक्षा का प्रकार
औपचारिक शिक्षा
अनौपचारिक शिक्षा
अनौपचारिक शिक्षा
औपचारिक शिक्षा
यह आमतौर पर हमारे स्कूलों और विश्वविद्यालयों द्वारा अपनाई जाने वाली शिक्षा प्रक्रिया से मेल खाती है ।
औपचारिक शिक्षा एक व्यवस्थित, संगठित शिक्षा मॉडल से मेल खाती है , कानूनों और मानदंडों के दिए गए सेट के अनुसार संरचित और प्रशासित है, बल्कि उद्देश्यों, सामग्री और कार्यप्रणाली के रूप में एक कठोर पाठ्यक्रम पेश करती है।
यह एक सतत शिक्षा प्रक्रिया की विशेषता है, जिसमें आवश्यक रूप से शिक्षक, छात्र और संस्थान शामिल हैं।
अनौपचारिक शिक्षा
गैर-औपचारिक शिक्षा विशेषताओं को पाया जाता है जब गोद लेने की रणनीति की आवश्यकता नहीं होती है
छात्र उपस्थिति,
शिक्षक और छात्र के बीच संपर्क घटाना और
ज्यादातर गतिविधियां संस्था के बाहर होती हैं - उदाहरण के लिए, घर में पढ़ने और कागजी कार्रवाई।
शिक्षाप्रद प्रक्रियाएं लचीली पाठ्यक्रम और कार्यप्रणाली के साथ संपन्न होती हैं, जो छात्रों की आवश्यकताओं और हितों को अपनाने में सक्षम होती हैं
अनौपचारिक शिक्षा
औपचारिक शिक्षा से अनौपचारिक शिक्षा काफी विविध है और विशेष रूप से, गैर-औपचारिक शिक्षा से, हालांकि कुछ मामलों में यह दोनों के बीच घनिष्ठ संबंध बनाए रखने में सक्षम है ।
यह शिक्षा के एक संगठित और व्यवस्थित दृष्टिकोण के अनुरूप नहीं है;
अनौपचारिक शिक्षा में अनिवार्य रूप से पारंपरिक पाठ्यक्रम द्वारा शामिल किए गए उद्देश्य और विषय शामिल नहीं हैं।
यह छात्रों के लिए उतना ही उद्देश्य है जितना बड़े पैमाने पर जनता में और कोई दायित्व नहीं जो भी उनके स्वभाव को लागू करता है।
अनौपचारिक शिक्षा जरूरी डिग्री या डिप्लोमा प्रदान करने का संबंध नहीं है ; यह औपचारिक और गैर-औपचारिक शिक्षा दोनों का पूरक है।
उदाहरण के लिए अनौपचारिक शिक्षा में निम्नलिखित गतिविधियाँ शामिल हैं:
संग्रहालयों या वैज्ञानिक और अन्य मेलों और प्रदर्शनों आदि के लिए दौरा ।
रेडियो प्रसारण सुनना या शैक्षिक या वैज्ञानिक विषयों पर टीवी कार्यक्रम देखना
पत्रिकाओं और पत्रिकाओं में विज्ञान, शिक्षा, प्रौद्योगिकी आदि पर ग्रंथों को पढ़ना
वैज्ञानिक प्रतियोगिताओं में भाग लेना
व्याख्यान और सम्मेलन में भाग लेना
भारत में शिक्षा के विभिन्न स्तर
भारत में शिक्षा स्कूली शिक्षा की एक समान संरचना का अनुसरण करती है।
प्री-प्राइमरी स्टेज
प्राथमिक चरण
मध्य चरण
माध्यमिक चरण
वरिष्ठ माध्यमिक चरण
स्नातक स्तर की पढ़ाई
स्नातकोत्तर चरण
शिक्षा के विभिन्न स्तर
स्कूल शिक्षा: प्राथमिक, माध्यमिक और उच्चतर माध्यमिक शिक्षा
उच्चतर माध्यमिक शिक्षा : स्नातक / स्नातक स्तर की शिक्षा
स्नातकोत्तर / मास्टर शिक्षा का स्तर
डॉक्टरल की पढ़ाई / पी.एच.डी. स्तर की शिक्षा
व्यावसायिक शिक्षा और प्रशिक्षण
प्रमाणपत्र और डिप्लोमा कार्यक्रम
दूरस्थ शिक्षा
भारत में प्रौढ़ शिक्षा
भारत में वयस्क शिक्षा स्कूली शिक्षा और साक्षरता विभाग के दायरे में आती है । प्रौढ़ शिक्षा निदेशालय राष्ट्रीय साक्षरता मिशन प्राधिकरण (NLMA) को आवश्यक तकनीकी और संसाधन सहायता प्रदान करता है।

भारत में दूरस्थ शिक्षा
संस्थानों द्वारा प्रदान की जाने वाली दूरस्थ शिक्षा को भारत की दूरस्थ शिक्षा परिषद द्वारा नियंत्रित किया जाता है । दूरस्थ शिक्षा उन लोगों के लिए सहायक है जो नियमित स्कूल या कॉलेज में शामिल नहीं हो सकते हैं।
स्कूल स्तर पर, राष्ट्रीय मुक्त विद्यालयी शिक्षा दूरस्थ शिक्षा के माध्यम से शिक्षा प्रदान करती है।
जबकि, कॉलेज या विश्वविद्यालय स्तर पर, मुक्त विश्वविद्यालय दूरस्थ शिक्षा प्रदान करते हैं।
भारत में होमस्कूलिंग
होमस्कूलिंग भारत में व्यापक नहीं है और न ही इसे व्यापक रूप से स्वीकार किया जाता है। यह वैकल्पिक शिक्षा का प्रकार है। इसे विकलांग माना जाता है या जो विभिन्न कारकों के कारण नियमित स्कूल नहीं जा पाते हैं।

भारत में शिक्षा प्रणाली
भारत में शिक्षा सार्वजनिक क्षेत्र के साथ-साथ निजी क्षेत्र द्वारा भी प्रदान की जाती है, नियंत्रण और वित्त पोषण t hree के स्तर से आता है:
1. केंद्रीय
2. राज्य
2. स्थानीय
भारतीय संविधान के विभिन्न लेखों के तहत, 6 और 14 वर्ष की आयु के बच्चों को एक मौलिक अधिकार के रूप में मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा प्रदान की जाती है।
राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (NCERT) भारत में स्कूली शिक्षा के लिए पाठ्यक्रम से संबंधित मामलों के लिए सर्वोच्च निकाय है।
अधिकांश राज्य सरकारों में एक "माध्यमिक शिक्षा बोर्ड" है।
केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (CBSE) 10 वीं और 12 वीं कक्षा की परीक्षाएं आयोजित करता है।
महिलाओं की शिक्षा
पुरुषों की तुलना में महिलाओं की साक्षरता दर बहुत कम है।
स्कूलों में बहुत कम लड़कियों को दाखिला दिया जाता है, और उनमें से बहुत से बच्चे बाहर निकल जाते हैं।
भारतीय परिवार की पितृसत्तात्मक सेटिंग में, लड़कों की तुलना में लड़कियों की स्थिति कम है और विशेषाधिकार कम हैं।
रूढ़िवादी सांस्कृतिक दृष्टिकोण कुछ लड़कियों को स्कूल जाने से रोकते हैं।
समकालीन भारतीय समाज में शिक्षा का उद्देश्य
कोठारी आयोग के अनुसार, "शिक्षा के महत्वपूर्ण सामाजिक उद्देश्यों में से एक अवसर को बराबर करना है, जिससे पिछड़े या अल्प विकसित वर्ग और व्यक्ति शिक्षा को अपने सामाजिक और आर्थिक स्थिति में सुधार के लिए एक उपकरण के रूप में उपयोग कर सकें"।
इस उद्देश्य के लिए, आयोग ने शिक्षा के निम्नलिखित उद्देश्यों का सुझाव दिया है:
उत्पादकता में वृद्धि
सामाजिक और राष्ट्रीय एकीकरण
आधुनिकीकरण की प्रक्रिया में तेजी
सामाजिक, नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों का विकास करना
भारतीय समाज में विविधता
भारत में विविधता के स्रोतों को विभिन्न तरीकों से खोजा जा सकता है। सबसे स्पष्ट हैं
जातीय मूल
धर्मों
जाति
जनजाति
बोली
सामाजिक रीति - रिवाज
सांस्कृतिक और उप-सांस्कृतिक मान्यताएं
राजनीतिक दर्शन और विचारधारा
भौगोलिक विविधता
गुणवत्ता और विपणन
कुछ समूहों के लोगों की असमानता और हाशिए की उपस्थिति निम्न कारण हैं:
जाति, वर्ग, लिंग, क्षेत्र (ग्रामीण-शहरी असमानता) के संदर्भ में भारतीय समाज का स्तरीकरण और
भारतीय समाज में सीमांत समूहों की आवश्यकताओं को संबोधित करने में शिक्षा की भूमिका : एससी / एसटी / ओबीसी / ईबीसी / एनटी, महिला, ग्रामीण और दूरस्थ क्षेत्र।
सामाजिक संतुष्टि
सामाजिक स्तरीकरण एक समूह के भीतर सामाजिक स्तर या वर्गों में व्यवस्थित होने की स्थिति है । दूसरे शब्दों में, यह एक ऐसी प्रणाली है जिसके द्वारा समाज लोगों को विभाजित करता है और उन्हें श्रेणियों में बांटता है।
गिस्बर्ट के अनुसार: "सामाजिक स्तरीकरण श्रेष्ठता और अधीनता के संबंधों द्वारा एक दूसरे से जुड़े श्रेणियों के स्थायी समूहों में समाज का विभाजन है।"
भारतीय समाज में स्तरीकरण
भारतीय समाज में स्तरीकरण शिलालेख पर आधारित है । इसका मतलब है कि यह एक प्रकार की संस्कृति है जिसमें उपलब्धि के आधार पर नहीं। यह लिंग, आर्थिक स्थिति और जाति व्यवस्था के आधार पर असमानता को शामिल कर सकता है।
इस प्रकार, यहाँ भारतीय समाज में, लोगों को स्तरीकरण प्रणाली में उनकी निर्धारित स्थिति के आधार पर रखा गया है और विचारधारा जाति की नियमों का पालन किए बिना उसकी विश्वसनीयता पर सवाल उठा रही है।

सामाजिक संरचना का प्रारूप और आधार
सामाजिक स्तरीकरण वह शब्द है जिसका उपयोग समाज के उस स्तर या परतों में विभाजन को संदर्भित करने के लिए किया जाता है जो असमान समूहों का एक पदानुक्रम बनाता है, जो धन, शक्ति और स्थिति के आधार पर एक से दूसरे स्थान पर होते हैं।

भारतीय समाज में सीमांत समूह
जनस्वास्थ्य का विश्वकोश हाशिए पर रहने वाले समूहों को परिभाषित करता है क्योंकि हाशिए पर रखा जाना हाशिये पर है, और इस तरह केंद्र में मिले विशेषाधिकार और शक्ति को बाहर रखा गया है।
संस्कृति और शिक्षा
संस्कृति के एक हिस्से के रूप में शिक्षा में संस्कृति के संरक्षण और संशोधन या नवीनीकरण के दोहरे कार्य हैं।
संस्कृति को बनाए रखने के लिए एक व्यवस्थित प्रयास के रूप में शिक्षा की कल्पना की गई है।
"इसकी तकनीकी समझ में शिक्षा वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा समाज, स्कूलों, कॉलेजों, विश्वविद्यालयों और अन्य संस्थानों के माध्यम से, जानबूझकर अपनी सांस्कृतिक विरासत, इसके संचित ज्ञान, मूल्यों और कौशल को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचाता है।"

कल्चर की खान और व्यवस्था
एचटी मजूमदार के अनुसार, "संस्कृति मानव उपलब्धियों, सामग्री के साथ-साथ गैर-सामग्री, संचरण में सक्षम, सामाजिक रूप से, अर्थात, परंपरा और संचार द्वारा, खड़ी और क्षैतिज रूप से कुल योग राशि है"।
हम संस्कृति को मानव उपलब्धियों के योग-कुल या मनुष्य की कुल विरासत के रूप में परिभाषित कर सकते हैं जो संचार और परंपरा द्वारा पुरुषों को प्रेषित किया जा सकता है । यह एक निश्चित भौगोलिक क्षेत्र में लोगों के जीवन का एक तरीका है।

संस्कृति का इतिहास
संस्कृति सीखी जाती है
संस्कृति लोगों के एक समूह द्वारा साझा की जाती है
संस्कृति संचयी है
संस्कृति बदल जाती है
संस्कृति गतिशील है
संस्कृति वैचारिक है
संस्कृति विविध है
संस्कृति हमें अनुमेय व्यवहार पैटर्न की एक सीमा प्रदान करती है
संस्कृति में शिक्षा का क्षेत्र
संस्कृति शिक्षा को उसी तरह प्रभावित करती है जैसे शिक्षा किसी देश की संस्कृति को प्रभावित करती है।
आने वाली पीढ़ी के लाभ के लिए किसी भी समाज की संस्कृति को संरक्षित किया जाना चाहिए।
इसे पीढ़ी-दर-पीढ़ी ठीक से प्रसारित किया जाना चाहिए।
यदि संस्कृति का संरक्षण और संवर्धन नहीं किया जाता है और फिर संचारित किया जाता है, तो सभी मानव ज्ञान और अनुभव क्रमिक पीढ़ियों के लिए खो जाएंगे।
इसके अलावा, संस्कृति को कुछ पुराने तत्वों को छोड़ने और समाज की बदलती जरूरतों और मांगों के अनुसार कुछ नए तत्वों को शामिल करके विकसित किया जाना चाहिए।
सामाजिक परिवर्तन
सामाजिक परिवर्तन से तात्पर्य उन संशोधनों से है जो लोगों के जीवन पद्धति में होती हैं।
शब्द 'परिवर्तन' कुछ समय के दौरान देखी गई किसी भी चीज में अंतर को दर्शाता है। इसलिए, सामाजिक परिवर्तन का मतलब किसी भी समय में किसी भी सामाजिक घटना में अवलोकन योग्य अंतर होगा।
"सामाजिक परिवर्तन से, मैं सामाजिक संरचना में बदलाव को समझता हूं, उदाहरण के लिए, समाज का आकार, रचना या उसके भागों का संतुलन या उसके संगठन का प्रकार" - मॉरिस गिंसबर्ग
सामाजिक परिवर्तन के लक्षण
सामाजिक परिवर्तन सामाजिक है
सामाजिक परिवर्तन सार्वभौमिक है
सामाजिक परिवर्तन एक आवश्यक कानून के रूप में होता है
सामाजिक परिवर्तन निरंतर है
सामाजिक परिवर्तन नो-वैल्यू जजमेंट को शामिल करता है
सोशल चेंज टाइम फैक्टर्स द्वारा बाध्य है
सामाजिक परिवर्तन की दर और गति असमान है
सामाजिक परिवर्तन की निश्चित भविष्यवाणी असंभव है
सामाजिक परिवर्तन चेन-रिएक्शन अनुक्रम दिखाता है
मल्टी-फैक्टर की संख्या के कारण सामाजिक परिवर्तन होता है
सामाजिक परिवर्तन मुख्य रूप से संशोधन या प्रतिस्थापन के हैं
सामाजिक परिवर्तन छोटे पैमाने पर या बड़े पैमाने पर हो सकता है
अल्पकालिक और दीर्घकालिक परिवर्तन
सामाजिक परिवर्तन शांतिपूर्ण या हिंसात्मक हो सकता है
सामाजिक परिवर्तन योजनाबद्ध या अनियोजित हो सकता है
सामाजिक परिवर्तन का सांस्कृतिक क्षेत्र
प्रौद्योगिकीय परिवर्तन के स्रोत:
तकनीकी परिवर्तन के मुख्य रूप से दो महत्वपूर्ण स्रोत हैं। वे:
आविष्कार
खोज
आविष्कार और खोज वर्तमान युग की महत्वपूर्ण विशेषताएं हैं। इन दोनों के अलावा, तीन तकनीकी कारक हैं जो मुख्य रूप से सामाजिक परिवर्तन के लिए जिम्मेदार हैं।
वे:
तकनीकी नवाचार
उत्पादन तकनीक में बदलाव
परिवहन और संचार में परिवर्तन
शैक्षिक योग्यता की योग्यता - अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग, महिलाओं का सम्मान, और अल्पसंख्यक
शैक्षिक अवसरों के समीकरण को अनिवार्य रूप से सामाजिक व्यवस्था में समानता की धारणा से जोड़ा जाता है।
एक सामाजिक प्रणाली में, यदि सभी व्यक्तियों को समान माना जाता है, तो उन्हें उन्नति के समान अवसर मिलते हैं।
चूँकि शिक्षा उर्ध्व गतिशीलता का एक सबसे महत्वपूर्ण साधन है, यह शिक्षा के संपर्क के माध्यम से उच्च स्थिति, स्थिति और परिलब्धियों को प्राप्त करने की आकांक्षा है।
शिक्षा में अवसर की समानता पर जोर देने की आवश्यकता कई कारणों से उत्पन्न होती है। इन कारणों में से कुछ हैं:
इसकी आवश्यकता है क्योंकि यह लोकतंत्र में सभी लोगों को शिक्षा के माध्यम से है; लोकतांत्रिक संस्थानों की सफलता सुनिश्चित है।
शैक्षिक अवसरों की समानता एक राष्ट्र के तेजी से विकास को सुनिश्चित करेगी ।
समाज की जनशक्ति की जरूरतों और कुशल कर्मियों की उपलब्धता के बीच एक निकट संबंध विकसित होगा।
बड़ी संख्या में विशिष्ट नौकरियों के लिए विशिष्ट प्रतिभा वाले लोग उपलब्ध होंगे और समाज लाभान्वित होगा।
भारतीय स्थिति में, सेक्स के कारण शैक्षिक असमानता भी बहुत अधिक दिखाई देती है। शिक्षा के सभी चरणों में लड़कियों की शिक्षा को लड़कों के समान प्रोत्साहन नहीं दिया जाता है।
सामाजिक रीति-रिवाज और वर्जनाएँ लड़कियों की शिक्षा की प्रगति में बाधा हैं। उन्हें परिवार में एक नीचा स्थान दिया जाता है और उनकी शिक्षा की उपेक्षा की जाती है।

विकलांग बच्चों के लिए एकीकृत शिक्षा (IEDC)
विकलांग बच्चों (IEDC) के लिए एकीकृत शिक्षा की यह योजना सभी बच्चों को सामान्य स्कूल प्रणाली के तहत विकलांग बच्चों को शैक्षिक अवसर प्रदान करने के उद्देश्य से शुरू की गई थी।
अंतिम उद्देश्य सामान्य शिक्षा प्रणाली में विकलांग बच्चों को एकीकृत करना और असमानताओं को समाप्त करना और शैक्षिक अवसरों की बराबरी करना है ताकि वे समाज के समान रूप से योगदान करने वाले सदस्य बन सकें।

निरक्षरता
साक्षरता की मूल परिभाषा में पढ़ने और लिखने की क्षमता है।
भारत में निरक्षरता एक ऐसी समस्या है जिससे जटिल आयाम जुड़े हुए हैं। भारत में निरक्षरता कमोबेश देश में मौजूद विभिन्न प्रकार की विषमताओं से संबंधित है।
वहां
लिंग असंतुलन
आय में असंतुलन
राज्य का असंतुलन
जाति का असंतुलन
तकनीकी बाधाएं
राष्ट्रीय वयस्क शिक्षा कार्यक्रम (NAEP)
राष्ट्रीय वयस्क शिक्षा कार्यक्रम (NAEP) 2 अक्टूबर 1978 को शुरू किया गया था। इस कार्यक्रम का उद्देश्य 15-35 वर्ष की आयु के वयस्कों में निरक्षरता का उन्मूलन करना है।
निम्नलिखित NAEP के उद्देश्य हैं
साक्षरता को बढ़ावा
जागरूकता का निर्माण
कार्यात्मक क्षमताओं को बढ़ाना
समयांतराल
प्रशिक्षण
एजेंसियां
साक्षरता और अनुवर्ती गतिविधियाँ
संगठन और प्रशासन
ग्रामीण कार्यात्मक साक्षरता कार्यक्रम (RFLP)
RFL कार्यक्रम वयस्क शिक्षा कार्यक्रम का एक उप-कार्यक्रम है जो केंद्र सरकार द्वारा पूरी तरह से वित्त पोषित है और राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों द्वारा कार्यान्वित किया जाता है।

राष्ट्रीय साक्षरता मिशन (एनएलएम)
शिक्षा पर राष्ट्रीय नीति के निर्देशों और कार्य कार्यक्रम में परिकल्पित कार्यान्वयन रणनीतियों के अनुसार, सरकार ने एक व्यापक कार्यक्रम तैयार किया और प्रस्ताव में साक्षरता अभियान की स्थापना के माध्यम से साक्षरता लक्ष्यों को प्राप्त करने के उद्देश्य से राष्ट्रीय साक्षरता मिशन (एनएलएम) का गठन किया। (टीएलसी) पूरे देश में चरणबद्ध तरीके से।
एनएलएम को मई 1988 में 1995 तक 15-35 आयु वर्ग के 80 मिलियन निरक्षर व्यक्तियों को 'कार्यात्मक साक्षरता' प्रदान करने के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए शुरू किया गया था।

बाल श्रम
हर कोई इस बात से सहमत है कि बाल श्रम एक प्लेग है, लेकिन ज्यादातर परिवारों को पता है कि उनके पास ज्यादा विकल्प नहीं हैं: काम करने के लिए बच्चे को नहीं रखना मतलब सभी के लिए टेबल पर पर्याप्त भोजन नहीं होगा।
कायदे से, भारत 14 साल से कम उम्र के हर बच्चे को जबरन श्रम के खतरे से बचाता है।

बेरोजगारी
बेरोजगारी एक ऐसी स्थिति है जब कार्यबल को सक्षम और तैयार काम करने के लिए काम नहीं मिलता है।

बेरोजगारी का प्रभाव
वित्तीय प्रभाव के अलावा , बेरोजगारी के कई सामाजिक प्रभाव हैं जैसे चोरी, हिंसा, ड्रग लेना, अपराध, स्वास्थ्य के साथ-साथ यह मनोवैज्ञानिक मुद्दों की ओर जाता है ।
इसके बाद गरीबी आती है जो सीधे तौर पर बेरोजगारी और असमानता से जुड़ी है।
दीर्घकालिक बेरोजगारी वास्तव में परिवार और समाज को बर्बाद कर सकती है।
समितियों और समितियों का विशिष्ट विवरण
लॉर्ड मैकाले का मिनट
एक माध्यम के रूप में अंग्रेजी का परिचय: ईसाई मिशनरियों ने शिक्षा की तारीख प्रणाली को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया और अंग्रेजी माध्यम से ईसाई धर्म और पश्चिमी साहित्य के शिक्षण की वकालत की।
अंग्रेजी भाषा और पश्चिमी साहित्य के पक्ष में पैमाना मुख्य आर्थिक कारक था - भारतीय शिक्षा की एक ऐसी प्रणाली चाहते थे जो उन्हें अपनी आजीविका कमाने में मदद कर सके। प्रगतिशील भारतीय तत्व भी पश्चिमी शिक्षा और अंग्रेजी शिक्षा के प्रसार के पक्षधर थे।
राजा राम मोहन राय ने बंगाल में अधिक प्राच्य महाविद्यालय स्थापित करने के लिए मद्रास, कलकत्ता और बनारस संस्कृत महाविद्यालयों को मजबूत करने के सरकारी प्रस्तावों का विरोध किया।
सरकार अंग्रेजी के साथ-साथ प्राच्य भाषा के अध्ययन को प्रोत्साहित करने के लिए सहमत हुई।
1813 में चार्टर एक्ट के अनुसार , ब्रिटिश संसद ने भारतीयों को शिक्षित करने के लिए एक लाख रुपये का वार्षिक व्यय प्रदान किया।
पैसा साल के अंत तक खर्च नहीं किया जा सका।
च इस पैसे का उपयोग की ailure ओरियन्टलिस्ट और Anglicists के बीच विवाद का एक कारण था।
जबकि प्राच्यविदों ने यह चाहा था कि धन भारतीय भाषाओं के अध्ययन और फ़ारसी और संस्कृत के अध्ययन पर खर्च किया जाना चाहिए, अंगरक्षकों ने जोर दिया कि इसे अंग्रेजी भाषा और सीखने पर खर्च किया जाना चाहिए।
जब विलियम बेंटिक भारत के गवर्नर-जनरल के रूप में आया, तो विवाद सुलझ गया।
वुड्स डिस्पैच ऑन एजुकेशन, 1854
The वुड्स एजुकेशन डिस्पैच ’एक महत्वपूर्ण शैक्षिक दस्तावेज सर चार्ल्स वुड के बाद 19 जुलाई 1854 को जारी किया गया था , जो कि ईस्ट इंडियन कंपनी के बोर्ड ऑफ कंट्रोल के अध्यक्ष थे और भारत में अंग्रेजी शिक्षा के na मैग्ना कार्टा’ के रूप में वर्णित थे।
डिस्पैच में भारत में शिक्षा के प्रसार के लिए पहली व्यापक योजना थी और प्राथमिक, हाई स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय से शैक्षिक पदानुक्रम को व्यवस्थित किया।
प्रमुख सिफारिश
शिक्षा का माध्यम वैकल्पिक दोनों स्थानीय भाषा और अंग्रेजी था।
पहले स्कूल स्तर पर प्रोत्साहित किया गया, बाद में विश्वविद्यालय में।
मैदान में निजी पहल और उद्यम को प्रोत्साहित करने के लिए सहायता अनुदान की एक प्रणाली रखी गई थी।
यह आशा की गई थी कि अंततः राज्य शिक्षा सहायता के लिए, जहाँ आवश्यक हो, सहायता में राज्य अनुदान द्वारा समर्थित हो जाएगी।
इस तथ्य से योजना के धर्मनिरपेक्ष चरित्र पर प्रकाश डाला गया कि वित्तीय सहायता संस्थानों या धार्मिक व्यक्तियों की परवाह किए बिना दी जानी थी। वास्तव में, यह शर्त रखी गई थी कि सरकारी संस्थानों में शिक्षा प्रदान की जानी चाहिए।
बाइबल में निर्देश इसके लिए दिए गए जैसे कि इसके लिए स्वेच्छा से दिए गए और वह भी स्कूल के घंटों के बाद।
तनाव पर रखी गई थी व्यावसायिक शिक्षा, महिलाओं की शिक्षा, और यह भी शिक्षक प्रशिक्षण।
सभी स्कूलों के मेधावी छात्रों को छात्रवृत्ति प्रदान की जानी चाहिए, चाहे वे निजी हों या सरकारी।
इनकी योजना निम्न विद्यालयों को उच्चतर और बाद के कॉलेजों के साथ जोड़ने की योजना थी।
अपने कार्यक्रम के कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने के लिए निरीक्षण के उद्देश्य से परीक्षा और पर्यवेक्षी निकायों की स्थापना की जानी थी।
प्रत्येक प्रेसीडेंसी शहर में एक विश्वविद्यालय है, जो लंदन विश्वविद्यालय के पैटर्न के आधार पर परीक्षा आयोजित करने और डिग्री प्रदान करने के लिए है।
सारा शिक्षण कॉलेजों में होना था।
नई शिक्षा नीति ने बड़े पैमाने पर समुदाय द्वारा भागीदारी की आवश्यकता को रेखांकित किया और जोर दिया कि कोई भी अचानक परिणाम की उम्मीद नहीं की जा सकती है, कम से कम अकेले सरकार पर निर्भरता से।
प्रेषण भारत में शिक्षा के प्रसार के संबंध में भविष्य के सभी कानूनों का आधार बनाना था। लकड़ी के प्रेषण में लगभग सभी प्रस्तावों को लागू किया गया था। सार्वजनिक निर्देश विभाग का आयोजन 1855 में किया गया था और इसने पहले सार्वजनिक अनुदेश और शिक्षा परिषद की समिति का स्थान लिया।
भारतीय शिक्षा आयोग 1882
1854 में वुड डिस्पैच के बाद से इन क्षेत्रों में शिक्षा की प्रगति की समीक्षा करने के लिए लॉर्ड रिपन ने 1882 में श्री डब्ल्यूडब्ल्यू हंटर के तहत एक शिक्षा आयोग की नियुक्ति की। आयोग ने 1883 में अपनी रिपोर्ट सौंपी।
इसकी कुछ प्राथमिक सिफारिशें इस प्रकार थीं:
प्राथमिक शिक्षा को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। सरकार को प्राथमिक शिक्षा का प्रबंधन जिला और नगरपालिका बोर्डों को सौंपना चाहिए जिन्हें इसके खर्च का एक तिहाई सरकार द्वारा सहायता के रूप में प्रदान किया जाना था।
दो प्रकार के उच्च विद्यालयों की स्थापना की जानी चाहिए, एक व्यावसायिक शिक्षा के लिए तैयारी करने वाले और दूसरा साहित्यिक शिक्षा प्रदान करने के लिए विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा तक।
सरकार को यथासंभव स्कूल और कॉलेज की शिक्षा से खुद को वापस लेना चाहिए और सहायता में उदार अनुदान की प्रणाली द्वारा इन क्षेत्रों में निजी उद्यम को प्रोत्साहित करने के लिए हर संभव प्रयास करना चाहिए।
महिला शिक्षा पर जोर दिया जाना चाहिए जो राष्ट्रपति नगर के बाहर सबसे अपर्याप्त थी।
आयोग की अधिकांश सिफारिशें सरकार द्वारा स्वीकार की गईं और उसके बाद चिह्नित गति के साथ विकसित हुई शिक्षा। लेकिन सरकार से ज्यादा भारतीय परोपकारी और धार्मिक संगठनों ने इसके विकास में भाग लिया।
यह न केवल पश्चिमी शिक्षा के विकास में बल्कि प्राच्य अध्ययन में भी परिणाम हुआ। कुछ शिक्षण सह परीक्षण करने वाले विश्वविद्यालय अर्थात 1882 में पंजाब विश्वविद्यालय और 1887 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय की स्थापना भी बाद के वर्षों में हुई।
लेकिन महिला शिक्षा, प्राथमिक शिक्षा अभी भी उपेक्षित रही।

पोस्ट-इनडिपेंडेंट इंडिया में शिक्षा - समितियों और संस्थाओं के हस्ताक्षर
विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग 1948
1948 में विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग के रूप में नियुक्त होने वाला पहला आयोग, डॉ। एस। राधाकृष्णन की अध्यक्षता में , भारतीय विश्वविद्यालय शिक्षा पर रिपोर्ट करने और सुधार और विस्तार का सुझाव देने के लिए जो देश की वर्तमान और भविष्य की आवश्यकताओं के अनुरूप होना वांछनीय होगा।

शिक्षा आयोग (डीएस कोठारी) 1964-66
मुदलियार आयोग की नियुक्ति के बाद, शिक्षा के सभी पहलुओं और क्षेत्रों से निपटने के लिए और देश के लिए एक राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली के विकास पर सरकार को सलाह देने के लिए, शिक्षा आयोग की नियुक्ति डीएस कोठारी की अध्यक्षता में की गई थी ।
इस आयोग की रिपोर्ट के आधार पर, शिक्षा पर राष्ट्रीय नीति 1968 तैयार की गई थी।
इस आयोग ने आधुनिक काल में और विशेष रूप से स्वतंत्रता के बाद से भारत में शिक्षा के विकास की समीक्षा की और इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि भारतीय शिक्षा को संवैधानिक लक्ष्यों का एहसास करने और विभिन्न समस्याओं का सामना करने के लिए देश में विभिन्न समस्याओं का सामना करने के लिए एक कठोर पुनर्निर्माण की आवश्यकता है। सेक्टर।
इस व्यापक पुनर्निर्माण, आयोग ने कहा, तीन मुख्य पहलू हैं
ए) आंतरिक परिवर्तन
बी) गुणात्मक सुधार
सी) शैक्षिक सुविधाओं का विस्तार
आयोग ने इस परिवर्तन को लाने के लिए निम्नलिखित कार्यक्रमों पर जोर दिया है:
विज्ञान की शिक्षा
कार्य अनुभव
व्यावसायिक शिक्षा
व्यावसायिक शिक्षा
द कॉमन स्कूल
सामाजिक और राष्ट्रीय सेवा
भाषा नीति
राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देना
लोच और गतिशीलता
गुणात्मक सुधार
सुविधाओं का उपयोग
शैक्षिक संरचना और शिक्षकों के चरणों और शिक्षा का पुनर्गठन
चयनात्मक विकास
शैक्षिक सुविधाओं का विस्तार
वयस्क साक्षरता
माध्यमिक और उच्च शिक्षा
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 और पीओए 1992
1986 की शिक्षा की राष्ट्रीय नीति और कार्यक्रम, 1992 की राष्ट्रीय नीति का मुख्य उद्देश्य शिक्षा की एक राष्ट्रीय प्रणाली स्थापित करना था, जिसका तात्पर्य यह है कि सभी छात्र जाति के बावजूद; एक पंथ, लिंग, और धर्म की तुलना तुलनीय गुणवत्ता की शिक्षा तक है।

भारतीय शिक्षा प्रणाली आज
भारत में शिक्षा आज की तरह कुछ भी नहीं है जैसा कि प्री-इंडिपेंडेंस और पोस्ट-इंडिपेंडेंस एरा में था। भारत में शिक्षा प्रणाली आज अपने वर्तमान स्वरूप में आने से पहले बहुत सारे बदलावों से गुजरी।
भारत में वर्तमान शिक्षा प्रणाली पहले के समय की तुलना में विभिन्न उद्देश्यों और लक्ष्यों द्वारा निर्देशित है। भारत में शिक्षा की वर्तमान प्रणाली, हालांकि, नीतियों के बारे में है।

एलयूमेंटरी एजुकेशन का यूनीवर्सलसेशन
सर्व शिक्षा अभियान (SSA)
सर्व शिक्षा अभियान (एसएसए), नवंबर 2000 में एक छतरी कार्यक्रम के रूप में शुरू किया गया था, अन्य प्राथमिक और प्राथमिक शिक्षा परियोजनाओं के समर्थन और निर्माण के लिए लागू किया गया।
कार्यक्रम का उद्देश्य 2007 तक 6-14 वर्ष और 2010 तक आठ वर्ष की स्कूली शिक्षा में सभी बच्चों के लिए पांच साल की प्राथमिक शिक्षा सुनिश्चित करना है।

आरटीई 2009
शिक्षा का अधिकार (अनुच्छेद 21-ए) - संविधान (86 वां संशोधन) अधिनियम, 2002 भारत के संविधान में अनुच्छेद 21-ए को 6 से 14 वर्ष की आयु के सभी बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करता है। मौलिक अधिकार इस तरह से राज्य के रूप में, कानून द्वारा, निर्धारित कर सकता है।

राष्ट्रीय मध्यम शिक्षा अभियान (RMSA)
यह योजना मार्च 2009 में माध्यमिक शिक्षा की पहुंच बढ़ाने और इसकी गुणवत्ता में सुधार लाने के उद्देश्य से शुरू की गई थी। योजना का कार्यान्वयन 2009-2010 से शुरू हुआ।

दूरस्थ शिक्षा
दूरस्थ शिक्षा पाठ्यक्रम मूल रूप से पत्राचार पाठ्यक्रम हैं जो व्यक्ति नियमित कक्षाओं में उपस्थित नहीं होकर अपनी पढ़ाई प्राप्त कर सकते हैं।
दूरस्थ शिक्षा की शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्रों को पाठ्यक्रम सामग्री, परीक्षा के तरीके और पाठ्यक्रम की अवधि या डिग्री के बारे में चिंता करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि यह बहुत ही समान है जो नियमित छात्रों को दिया जाता है।
दूरस्थ शिक्षा उन छात्रों के लिए बेहद फायदेमंद है जो अपनी उच्च पढ़ाई करना चाहते हैं, लेकिन उन्हें ऐसा करने के लिए पर्याप्त समय नहीं मिलता है।
ये प्रबंधन कार्यक्रम उन लोगों द्वारा उठाए जा सकते हैं, जो दूरदराज के स्थानों, श्रमिकों, गृहिणियों और यहां तक ​​कि काम करने वाले पेशेवरों के लिए भी रहते हैं, जो एक या किसी अन्य कारण से नियमित कार्यक्रम नहीं कर पाते हैं।
शिक्षा में शिक्षा, शिक्षा और निजीकरण
रसोई गैस क्या है?
भारत की अर्थव्यवस्था 1990 के दशक की शुरुआत में महत्वपूर्ण नीतिगत बदलाव से गुजरी थी। आर्थिक सुधारों के इस नए मॉडल को आमतौर पर एलपीजी या उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण मॉडल के रूप में जाना जाता है ।

उदारीकरण
उदारीकरण से तात्पर्य आर्थिक नीतियों के क्षेत्रों में सरकारी प्रतिबंधों में छूट से है । इस प्रकार, जब सरकार व्यापार का उदारीकरण करती है तो इसका मतलब है कि उसने देशों के बीच वस्तुओं और सेवाओं के प्रवाह पर शुल्क, सब्सिडी और अन्य प्रतिबंध हटा दिए हैं।

भूमंडलीकरण
आर्थिक वैश्वीकरण माल, सेवा, प्रौद्योगिकी और पूंजी के सीमा पार आंदोलन में तेजी से वृद्धि के माध्यम से दुनिया भर में राष्ट्रीय अर्थव्यवस्थाओं की बढ़ती आर्थिक निर्भरता है।
यह एक ऐसी प्रक्रिया है जो देशों को उनके इन्सुलेशन से बाहर निकालती है और उन्हें दुनिया के बाकी हिस्सों में एक नए विश्व आर्थिक क्रम की ओर ले जाती है।

निजीकरण
यह जनता से निजी स्वामित्व या नियंत्रण और निजी क्षेत्र में प्रवेश के लिए बंद क्षेत्रों को खोलने के लिए संपत्ति या सेवा कार्यों के हस्तांतरण को संदर्भित करता है।
बारबरा ली और जॉन नेलिस ने इस तरीके से अवधारणा को परिभाषित किया: "निजीकरण सार्वजनिक क्षेत्र की निजी क्षेत्र की भूमिका का हस्तांतरण है"।
शिक्षा में निजीकरण
भारत में औपचारिक शिक्षा का निजीकरण कोई नई बात नहीं है; यह तथाकथित पब्लिक स्कूलों (जैसे दून स्कूल, मेयो कॉलेज) और ईसाई मिशनरी स्कूलों और कॉलेजों के रूप में स्वतंत्रता से पहले भी मौजूद था ।
वे सरकार के बहुत हस्तक्षेप के बिना अपने प्रबंधन बोर्ड द्वारा चलाए जाते थे।
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संप्रेषण की परिभाषाएं(Communication Definition and Types In Hindi)

  संप्रेषण की परिभाषाएं(Communication Definition and Types In Hindi) संप्रेषण का अर्थ ‘एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति को सूचनाओं एवं संदेशो...