शैशवावस्था (INFANCY) (0-6 वर्ष तक)

 

शैशवावस्था (INFANCY) (0-6 वर्ष तक)


जन्म से 6 वर्ष की अवस्था शिशु अवस्था कहलाती है। यह वालक का भावी जीवन की आधारशिला का काल होता है इस अवस्था में उचित निर्देशन व निरीक्षण से भावी जीवन का उचित व उत्तम विकास किया जा सकता है। 20वीं शताब्दी में शिशु पर सर्वाधिक अनुसंधान होने से क्रो एवं क्रो ने 20वीं शताब्दी को 'शिशु/बालक की शताब्दी' कहा है।


शैशवावस्था की विशेषताएं -


1. स्वार्थी व स्वकेन्द्रित


2. खिलौनों की अवस्था


3. आत्म-प्रेम की भावना


4. मूल प्रवृत्यात्मक व्यवहार


5. कल्पना जगत में विचरण


6. अतार्किक चिन्तन की अवस्था


7. संस्कारों के विकास की आयु


8. जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण काल


9. नैतिकता का अभाव


10. सीखने का आदर्शकाल


11. भावी जीवन की आधारशिला


12. अनुकरण द्वारा सीखने की अवस्था


13. क्षणिक संवेग की अवस्था


14. सीखने का स्वर्ण काल


15.. सामाजिक भावना का अभाव


16. उत्तम शिक्षण विधियाँ (किण्डरगार्टन, खेल व मॉण्टेसरी विधि)


17. शारीरिक (वालकों का सर्वाधिक शारीरिक विकास इसी अवस्था में) व


मानसिक विकास की गति सर्वाधिक


18. जन्म के समय शिशु में कोई संवेग नहीं होता है। वह केवल उत्तेजना


का अनुभव करता है।


19. सिगमण्ड फ्रायड के अनुसार शैशवावस्था में काम प्रवृत्ति होती है।


20. जन्म के 30 घण्टे तक शिशु की नेत्र इन्द्रियाँ कार्य नहीं करती हैं।


21. प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक वैलेंटाइन ने इस अवस्था को सीखने का आदर्श काल कहा है, तो प्रसिद्ध दार्शनिक रूसो का मानना है कि बालक के


हाथ-पैर व नेत्र उसके प्रारम्भिक शिक्षक होते हैं।


22. शैशवावस्था में बालक में सभी संवेग विकसित हो चुके होते हैं, लेकिन इस अवस्था के बालक में भय संवेग सर्वाधिक सक्रिय रहता है।


परिभाषाएँ


फ्रायड के अनुसार, "मनुष्य को जो कुछ बनना है वो 4-5 वर्षों में बन जाता है।"


वेलेण्टाइन के अनुसार, "शैशवावस्था सीखने का आदर्श काल है।"


गुडएनफ के अनुसार, "व्यक्ति का जितना भी मानसिक विकास होता है, उसका आधा तीन वर्ष की आयु तक हो जाता है।"


न्यूमैन के अनुसार, "5 वर्ष की अवस्था मस्तिष्क के लिए बहुत ग्रहणशील होती है।"


जॉन लॉक के अनुसार, "बालक का मस्तिष्क कोरी स्लेट है। यह उस पर अपने अनुभव लिखता है।"


ब्रिजेस के अनुसार, "2 वर्ष तक की उम्र तक बालक में लगभग सभी संवेगों का विकास हो जाता है।"


ध्यातव्य रहे- माता के गर्भ से बाहर आने पर शिशु बाहरी वातावरण के अनुकूल न होने से बीमार हो सकता है इसलिए इसे अधिगम कठिनाई काल कहा जाता है। इसे बाहरी वातावरण हवा, धूप, धूल-मिट्टी आदि की आदत नहीं होती। बालक का जन्म के समय का वजन लगभग 7 दिन तक घटता रहता है, जब वह वातावरण के अनुकूल हो जाता है, तत्पश्चात् उसका वजन पुनः बढ़ने लग जाता है।



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