Child Development Pedagogy (CDP)
विकास की अवधारणा तथा अधिगम के साथ उसका संबंध
(Concept of development and its relation with learning)
गर्भधारण के बाद गर्भस्थ शिशु में विवृद्धि (Growth) तथा विकास प्रारम्भ होता है।
प्राणी में वृद्धि और विकास के चलते रहने से प्राणी में सक्रियता और उसका जीवन चलता रहता है।
वृद्धि और विकास दो अलग-अलग प्रत्यय हैं।
इनके सम्बन्ध में कुछ अधिक कहने से पहले इनके अर्थ को अलग-अलग समझना आवश्यक है।
विकास का अर्थ
(MEANING OF DEVELOPMENT)
विकास के सम्बन्ध में कहा जा सकता है कि मानव में होने वाले क्रमिक परिवर्तनों के फलस्वरूप होने वाली प्रगति ही विकास है।
बालक या व्यक्ति परिपक्वता और अधिगम के आधार पर पूर्व में अधिगमित गुणों अथवा योग्यताओं को परिमार्जित करता है तथा अपने भीतर नये गुणों और योग्यताओं का विकास करता है।
हरलॉक (2004) ने विकास को परिभाषित करते हुए लिखा है कि "विकास का अर्थ गुणात्मक परिवर्तनों से है। विकास की परिभाषा क्रमिक सम्बद्धतापूर्ण परिवर्तनों की प्रगतिपूर्ण श्रृंखला के रूप में दी जा सकती है। प्रगतिपूर्ण का अर्थ है कि परिवर्तन दिशात्मक (Directional) होते हैं तथा यह पृष्ठोन्मुख की अपेक्षा अग्रोन्मुख होते हैं।"
"Development refers to qualitative changes. It may be defined as a progressive series of orderly, where it changes. 'Progressive' signifies that the changes are directional, that they lead forward rather than backward." -E. B. Hurlock, 2004
लाबार्बा (1981) के अनुसार, "विकास का अर्थ परिपक्वात्मक परिवर्तन या परिवर्तनों से है जो जीवधारी के जीवन में समय के साथ घटित होते हैं।"
"Development refers to maturational change or changes that occur in organism over the course of time.
-Labarba, 1981.
" एण्डरसन (1996) के अनुसार, "विकास का अर्थ मात्र किसी व्यक्ति की ऊँचाई या योग्यता में कुछ वृद्धि से नहीं है। इसके स्थान पर विकास अनेक संरचनाओं और प्रकार्यों के समन्वय की एक जटिल प्रक्रिया है।"
"Development is not merely adding inches to one's height or ability. Insted of development is a complex process of integrating many structures and functions."
- Anderson, 1996
उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि "विकास का आशय किसी जीवधारी में प्रगतिपूर्ण परिपक्वात्मक क्रमिक परिवर्तनों की शृंखला से है जो अनेक संरचनाओं और प्रकार्यों के समन्वय के फलस्वरूप बनती है।"
- डी. एन. श्रीवास्तव, 2009
विकास की परिभाषाओं का सारांश प्रस्तुत करते हुए लिखा गया है कि एक ओर विकास को वृद्धि के रूप में समझा जाता है और इसका वर्णन मात्रात्मक वृद्धि के रूप में किया जाता है। दूसरी ओर विवृद्धि का वर्णन गुणात्मक परिवर्तनों के रूप में किया जाता है, वे गुणात्मक परिवर्तन जो उच्च मानसिक रूपों में विभिन्न अवस्थाओं में होते हैं।
"On the one hand, development is regarded as growth and described as a quantitative increase (Carmichael 1986; Undentach 1959), on the other, it is understood as a qualitative change taking place in phases or stages (Korh, 1944; Buhler, 1935) leading spirally to higher mental forms (Gesell, 1954) or comprising the super- imposition of higher on lower layers."
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि विकास एक प्रगतिशील (Progressive) प्रक्रिया है। विकास के फलस्वरूप बालक में होने वाले क्रमिक परिवर्तन बालक को वातावरण के साथ समायोजन करना सिखा देते हैं। गोर्डन (1950) का मानना है कि विकास की प्रक्रिया में बालक को सुखद और दुःखद दोनों प्रकार की अनुभूतियों का अनुभव होता है। सुखद परिवर्तनों से अनुकूल तथा दुःखद परिवर्तनों से प्रतिकूल प्रकार की अभिवृत्तियों का बालक में निर्माण होता है।
एक नवजात शिशु बैठना-उठना और चलना आदि नहीं जानता है, परन्तु जैसे-जैसे उसका विकास होने लगता है, वह ये सभी क्रियाएँ करना सीख लेता है। अतः कहा जा सकता है. कि बालकों में इन क्रियाओं में प्रगतिपूर्ण परिवर्तन (Progressive Changes) हुए हैं। बालक में विकास सम्बन्धी सभी प्रगतिपूर्ण परिवर्तन एक-दूसरे से सम्बन्धित और क्रमबद्ध होते हैं। अनेक मनोवैज्ञानिकों (Salkind, 1987; Rayher, 1986) का विचार है कि विकास के दौरान बालक में हुए प्रगतिपूर्ण परिवर्तनों से उसके व्यवहार में सूक्ष्मता आती चली जाती है।
विकास के सिद्धान्त (Principles of Growth)
प्रत्येक शिक्षार्थी का विकास निश्चित नियमों के आधार पर होता है। इन नियमों के आधार पर ही उसकी शारीरिक एवं मानसिक क्रियाएँ विकसित होती हैं। विकास के प्रमुख नियम निम्नलिखित प्रकार से हैं-
1. निश्चित प्रारूप - किसी बालक का विकास 'मस्तकाधोमुखी दिशा' एवं 'निकट दूर दिशा' में होता है।
• मस्तकाधोमुखी विकास क्रम- इसमें बालक का विकास उसके सिर से लेकर पैर की ओर होता है।
• निकट दूर विकास क्रम- इसमें बालक का विकास, केन्द्रीय भागों से शुरू होकर दूर के भागों में होता है। जैसे कि पेट एवं धड़ में विकास की क्रियाशीलता पहले आती है।
2. सामान्य से विशेष की ओर विकास- बालक, विकास के क्रम में पहले सामान्य क्रियाएँ करता है तथा बाद में विशेष क्रियाएँ करता है। विकास का यह नियम शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक, सामाजिक विकास पर लागू होता है।
3. स्थिर व्यक्तिगत विभेद- किसी बालक में शारीरिक क्रियाएँ जल्द होती हैं तो वह जल्द बोलने लगता है। वहीं किसी अन्य बालक में शारीरिक क्रियाएँ देर से शुरू होती हैं तो वह देर से बोलता है। इस प्रकार से किन्हीं दो बालकों के बीच विकास क्रम में विभेद हो सकता है जो सदैव स्थिर होता है।
4. अवस्था अनुसार विकास- बालक का विकास उसकी अवस्था अनुसार होता है; जैसे-एक वर्ष का बालक बोलने लगता है परन्तु यह बोलने की प्रक्रिया उसके जन्म से ही शुरू हो जाती है। माता-पिता अपने बालक के साथ जन्म से ही कुछ-कुछ बोलने लगते हैं और वह सुनकर शब्दों को सीखना शुरू कर देता है।
5. विकास परिपक्वता एवं शिक्षण का परिणाम-परिपक्वता का अर्थ बालक में आनुवंशिक रूप से शारीरिक गुणों का विकास है। बालक का अंग स्वतः शारीरिक क्रियाओं द्वारा परिपक्व हो जाता है। इसी प्रकार से शिक्षण द्वारा सीखने का परिपक्व आधार बनता है; जैसे वस्तुओं को हाथों से पकड़ना आदि।
वृद्धि का अर्थ (Meaning of Growth):-
कुछ मनोवैज्ञानिक विकास और विवृद्धि शब्दों का प्रयोग एक ही अर्थ में करते हैं, परन्तु वास्तव में ये भिन्न हैं। विकास के अर्थ को ऊपर समझाया जा चुका है। यहाँ वृद्धि के अर्थ को समझाया जायेगा। विकास की अपेक्षा विवृद्धि एक संकुचित प्रत्यय है।
हरलॉक (1990) ने इसे परिभाषित करते हुए लिखा है कि Growth refers to quantitative changes-increase in size and structure I गभर्भाधारण के बाद ही गर्भस्थ शिशु में वृद्धि होने लगती है।
यह वृद्धि गर्भस्थ शिशु के आकार और संरचना में होती है। यह विवृद्धि परिपक्वावस्था तक चलती रहती है।
विवृद्धि बालक के शरीर और संरचना में ही नहीं होती है बल्कि यह उसके आन्तरिक अंगों और मस्तिष्क में भी होती है।
मस्तिष्क में जैसे-जैसे वृद्धि होती जाती है, बालक में सीखने, स्मरण तथा तर्क आदि की अधिक क्षमता आती जाती है।
उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि हरलॉक (1990) ने विवृद्धि को मात्रात्मक परिवर्तन तथा विकास को गुणात्मक परिवर्तन माना है परन्तु कारमाइकेल (1986) आदि मनोवैज्ञानिकों ने विकास को भी मात्रात्मक परिवर्तनों के रूप में स्वीकार किया है। अतः विकास और विवृद्धि दोनों को एक-दूसरे से पृथक् समझना कठिन है।
वृद्धि और विकास में अन्तर (Difference between Growth and Development) - पाठकों की सुविधा के लिए दोनों में कुछ मौलिक अन्तर यहाँ दिये हुए हैं-
(1) विकास का प्रारम्भ विवृद्धि से पहले होता है।
(2) विवृद्धि केवल परिपक्वावस्था तक होती है परन्तु विकास तो जीवन- पर्यन्त चलता रहता है।
(3) विवृद्धि से संरचना, (Structure) में परिवर्तनों का बोध होता है तथा विकास से प्रकार्यों (Functioning) में परिवर्तनों को बोध होता है।
(4) विवृद्धि में परिवर्तन केवल रचनात्मक होते हैं; दूसरी ओर विकास में परिवर्तन रचनात्मक भी हो सकते हैं तथा विनाशात्मक भी।
(5) जीवन की प्रत्येक अवस्था में विकास तभी सम्भव है जब हम चुनौतियों का सामना (encounter the challenges) करके उन्हें सफलतापूर्वक हल कर लेते हैं। इन परिवर्तनों में लाभ या हानि दोनों होते हैं लेकिन हानियों का ऋणात्मक प्रभाव ही हो यह आवश्यक नहीं है, बल्कि ये हानियाँ हमारे भविष्य के विकास के लिए उत्प्रेरक (catalysts) का कार्य करती हैं। हम इन हानियों से सीख कर भविष्य में गलती की सम्भावना को कम करते हैं और अपने विकास को प्रोत्साहित करते हैं। जबकि विवृद्धि में इस प्रकार की चुनौतियों का अभाव होता है।
विकास की विशेषताएँ (Characteristics of Development)
विकास की अनेक विशेषताएँ हैं। कुछ प्रमुख विशेषताएँ निम्न प्रकार से हैं-
(1) विकास प्रगतिपूर्ण श्रृंखला के रूप में घटित होता है।
(2) विकास में क्रमिक परिवर्तन पाये जाते हैं। परिवर्तनों में निरन्तरता पायी जाती है। यह परिवर्तन अविराम गति से चलते हैं। विकास किसी भी विकास-
अवस्था में सामान्य नहीं होता है।
(3) क्रमिक परिवर्तन एक-दूसरे के साथ किसी न किसी रूप से सम्बन्धित रहते हैं। यह परिवर्तन एक-दूसरे से अलग न होकर जुड़े हुए होते हैं।
(4) कुछ मनोवैज्ञानिकों (Carmichael, 1986; Hurlock 1990) के अनुसार, यह परिवर्तन मात्रात्मक (Quantitative) होते हैं तथा अन्य प्राचीन मनोवैज्ञानिकों के अनुसार यह गुणात्मक (Qualitative) होते हैं।
(5) विकास-परिवर्तनों की गति भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में भिन्न-भिन्न होती है। विकास की गति गर्भकालीन अवस्था में सर्वाधिक और परिपक्वावस्था के बाद मन्द हो जाती है।
(6) विकास के फलस्वरूप व्यक्ति में अनेक नई विशेषताएँ और क्षमताएँ उत्पन्न होती हैं।
विकास के आयाम (Dimensions of Development)
• मानव विकास एक अनवरत चलने वाली प्रक्रिया है। जहाँ शारीरिक विकास, बालक की आयु के साथ रुक जाता है वहीं मनोशारीरिक क्रियाओं में विकास की क्रिया चलती ही रहती है।
• बालक की मनोशारीरिक क्रियाओं में भाषायी, संवेगात्मक, सामाजिक तथा चारित्रिक विकास सन्निहित होते हैं। यह विभिन्न आयु स्तरों पर बदलता रहता है।
• बालक की आयु स्तरों को विकास के आयाम अथवा अवस्थाएँ कहते हैं।
• विकास के आयाम या अवस्था को लेकर अलग-अलग मनोवैज्ञानिकों की अवधारणा में अन्तर है। रॉस के अनुसार विकास की चार अवस्था क्रमशः शैशवावस्था, पूर्व-बाल्यावस्था, उत्तर-बाल्यावस्था तथा किशोरावस्था हैं।
• हरलॉक ने बाल विकास को 11 भागों में विभाजित किया है। ये क्रमशः गर्भावस्था, शैशवावस्था, बचपनावस्था, पूर्व-बाल्यावस्था, उत्तर-बाल्यावस्था, वयःसन्धि, पूर्व-किशोरावस्था, उत्तर-किशोरावस्था, प्रौढ़ावस्था, मध्यावस्था तथा वृद्धावस्था हैं।
सामान्य वर्गीकरण
1. गर्भावस्था (गर्भ धारण से-जन्म तक)
2. शैशवावस्था (0-6 वर्ष)
→ 3. बाल्यावस्था (7-12 वर्ष)
4. किशोरावस्था (13-18 वर्ष)
5. प्रौढ़ावस्था (18-19 वर्ष के बाद)
1. गर्भावस्था ('गर्भधारण से जन्म तक)
गर्भावस्था को तीन चरणों में बाँटा गया है-
I. बीजावस्था/भूणिक/डिम्बावस्था - यह अवस्था 0 से 2 सप्ताह तक रहती है। इस अवस्था में बालक की आकृति एक बीज के समान और अण्डानुमा आकृति की होती है। इसे युक्ता (Zygote) कहते हैं। योक नामक पदार्थ को बालक आहार के रूप में ग्रहण करता है, लगभग 15 दिन में योक एवं युक्ता समाप्त हो जाते हैं और वह गर्भाशय की दीवार से चिपक जाता है तथा माँ के शरीर से आहार ग्रहण करता है और बालक की भ्रूणावस्था प्रारम्भ हो जाती है।
II. भ्रूणावस्था/भ्रूणीय/पिण्डावस्था:- यह अवस्था 2 सप्ताह से लेकर दूसरे माह के अन्त तक रहती है अर्थात् 8 सप्ताह तक रहती है। ध्यान रहे यह अवस्था 8 सप्ताह तक रहती है, जिसमें शिशु का विकास सर्वाधिक तीव्र गति से होता है और इसी अवस्था में शिशु की श्वसन नली की शाखाएँ, फेफड़े, यकृत, अग्नाशय, थायराइड ग्रन्थि, लार ग्रन्थि आदि का निर्माण शुरू हो जाता है। इस अवस्था में तीन परतों के द्वारा बालक का शारीरिक निर्माण होता है-
एक्टोडर्म- इसे बाहरी परत भी कहते हैं एवं इसके द्वारा त्वचा, बाल इत्यादि अंगों का निर्माण होता है।
मीसोडर्म- इसके द्वारा बालक की मांसपेशियों का निर्माण होता है।
एण्डोडर्म-इसके द्वारा बालक का मस्तिष्क, हृदय इत्यादि अंगों का निर्माण होता है।
III. गर्भस्थ शिशु की अवस्था - यह अवस्था 8 सप्ताह से लेकर जन्म तक रहती है अर्थात् 2 माह से 9 माह तक रहती है। ध्यान रहे गर्भावस्था में शिशु को पीड़ा का अनुभव नहीं होता है और उसका विकास सिर से पैर की ओर होता है। जन्म से पूर्व शिशु को गन्ध का अनुभव नहीं होता है लेकिन गर्भावस्था के तीसरे माह में शिशु की स्वाद इन्द्रियों (मुख, नाक, कान, गला आदि) का विकास प्रारम्भ हो जाता है।
गर्भावस्था की अवधि सामान्यतया 270-280 दिन या 9 माह 10 दिन की होती है।
2. शैशवावस्था (INFANCY) (0-6 वर्ष तक)
जन्म से 6 वर्ष की अवस्था शिशु अवस्था कहलाती है। यह वालक का भावी जीवन की आधारशिला का काल होता है इस अवस्था में उचित निर्देशन व निरीक्षण से भावी जीवन का उचित व उत्तम विकास किया जा सकता है। 20वीं शताब्दी में शिशु पर सर्वाधिक अनुसंधान होने से क्रो एवं क्रो ने 20वीं शताब्दी को 'शिशु/बालक की शताब्दी' कहा है।
शैशवावस्था की विशेषताएं -
1. स्वार्थी व स्वकेन्द्रित
2. खिलौनों की अवस्था
3. आत्म-प्रेम की भावना
4. मूल प्रवृत्यात्मक व्यवहार
5. कल्पना जगत में विचरण
6. अतार्किक चिन्तन की अवस्था
7. संस्कारों के विकास की आयु
8. जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण काल
9. नैतिकता का अभाव
10. सीखने का आदर्शकाल
11. भावी जीवन की आधारशिला
12. अनुकरण द्वारा सीखने की अवस्था
13. क्षणिक संवेग की अवस्था
14. सीखने का स्वर्ण काल
15.. सामाजिक भावना का अभाव
16. उत्तम शिक्षण विधियाँ (किण्डरगार्टन, खेल व मॉण्टेसरी विधि)
17. शारीरिक (वालकों का सर्वाधिक शारीरिक विकास इसी अवस्था में) व
मानसिक विकास की गति सर्वाधिक
18. जन्म के समय शिशु में कोई संवेग नहीं होता है। वह केवल उत्तेजना
का अनुभव करता है।
19. सिगमण्ड फ्रायड के अनुसार शैशवावस्था में काम प्रवृत्ति होती है।
20. जन्म के 30 घण्टे तक शिशु की नेत्र इन्द्रियाँ कार्य नहीं करती हैं।
21. प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक वैलेंटाइन ने इस अवस्था को सीखने का आदर्श काल कहा है, तो प्रसिद्ध दार्शनिक रूसो का मानना है कि बालक के
हाथ-पैर व नेत्र उसके प्रारम्भिक शिक्षक होते हैं।
22. शैशवावस्था में बालक में सभी संवेग विकसित हो चुके होते हैं, लेकिन इस अवस्था के बालक में भय संवेग सर्वाधिक सक्रिय रहता है।
उदाहरण 1. वालक को जैसा सिखाएँगे वह वैसा ही सीखेगा। जैसे परिवार के सदस्य होंगे, वह वैसा ही करेगा, चहे वह सही हो या गलत अर्थात् अनुकरण की प्रवृत्ति पाई जाती है।
उदाहरण 2. घर पर किसी के आने पर भी अगर उसे रोना है, तो भी वह रोयेगा ही और अपनी माँ की गोद में किसी अन्य बच्चे को नहीं बैठने देगा अर्थात् नैतिकता का भाव नहीं होता है।
उदाहरण 3. वालक अपनी स्वयं की वस्तु को किसी को नहीं देता व उसे अपने पास ही रखता है अर्थात् उसमें स्वार्थी व स्वकेन्द्रीयता का भाव निहित होता है।
उदाहरण 4. बालक कल्पना में खोया रहता है परियों तथा जादूगरों की कल्पनाएँ करता रहता है कि काश मेरे पास भी एक परी होती जिससे मैं जादू करवाकर अपनी इच्छा पूर्ति कर लूँ अर्थात् कल्पना जगत का विचरण करता रहता है।
उदाहरण 5. बालक में जितने अच्छे संस्कार या ज्ञान हम उसे सिखाना चाहें उतना इस आयु में सिखा सकते हैं क्योंकि अभी वह सीखने में रुचि रखता है, इसलिए शीघ्रता से सीख जाता है। इसलिए इस आयु को सीखने का स्वर्ण काल कहा जाता है।
परिभाषाएँ
फ्रायड के अनुसार, "मनुष्य को जो कुछ बनना है वो 4-5 वर्षों में बन जाता है।"
वेलेण्टाइन के अनुसार, "शैशवावस्था सीखने का आदर्श काल है।"
गुडएनफ के अनुसार, "व्यक्ति का जितना भी मानसिक विकास होता है, उसका आधा तीन वर्ष की आयु तक हो जाता है।"
न्यूमैन के अनुसार, "5 वर्ष की अवस्था मस्तिष्क के लिए बहुत ग्रहणशील होती है।"
जॉन लॉक के अनुसार, "बालक का मस्तिष्क कोरी स्लेट है। यह उस पर अपने अनुभव लिखता है।"
ब्रिजेस के अनुसार, "2 वर्ष तक की उम्र तक बालक में लगभग सभी संवेगों का विकास हो जाता है।"
ध्यातव्य रहे- माता के गर्भ से बाहर आने पर शिशु बाहरी वातावरण के अनुकूल न होने से बीमार हो सकता है इसलिए इसे अधिगम कठिनाई काल कहा जाता है। इसे बाहरी वातावरण हवा, धूप, धूल-मिट्टी आदि की आदत नहीं होती। बालक का जन्म के समय का वजन लगभग 7 दिन तक घटता रहता है, जब वह वातावरण के अनुकूल हो जाता है, तत्पश्चात् उसका वजन पुनः बढ़ने लग जाता है।
3. बाल्यावस्था (CHILDHOOD) (6-12 वर्ष तक )
वाल्यावस्था जन्म के बाद मानव विकास की दूसरी अवस्था है जो शैशवावस्था की समाप्ति के उपरान्त प्रारम्भ होती है। यह अवस्था वालक की आदतों, व्यवहार, रुचि व इच्छाओं के आकार निर्धारण का काल होता है।
मनोवैज्ञानिक कॉल एवं ब्रश ने वाल्यावस्था को जीवन का अनोखा काल कहा है क्योंकि इस काल के 6वें वर्ष में बालक उग्र, सातवें वर्ष में उदासीन व अकेलेपन का गुण, नवें वर्ष में समूह भावना की प्रवलता एवं बाद के वर्षों में रोमांचक कार्यों की ओर झुकाव दर्शाता है। इस अवस्था में बालक व्यक्तिगत तथा सामाजिक व्यवहार करना सीखना प्रारम्भ करता है तथा उसकी औपचारिक शिक्षा का प्रारम्भ भी इसी अवस्था में होता है।
बाल्यावस्था की विशेषताएं
1. जीवन का अनोखा काल (कॉल एवं ब्रश ने कहा)
2. जीवन का निर्माणकारी काल (सिगमण्ड फ्रायड ने कहा)
3. प्रतिद्वन्द्वात्मक समाजीकरण का काल (किलपैट्रिक ने कहा)
(सर्वाधिक सामाजिक विकास)
4. छद्म/मिथ्या परिपक्वता का काल (रॉस ने कहा)
5. वैचारिक अवस्था का काल
6. शिक्षा की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण काल
7. यथार्थवादी दृष्टिकोण
8. नेता बनने की इच्छा
9. समलिंगीय समूह भावना
10. खेल की आयु (Game Age)
11. समूह/दल/टोली (Gang Age) की आयु
12. प्रारम्भिक विद्यालय की आयु
13. बिना काम के भ्रमण (घूमने) की प्रवृत्ति
14. बहिर्मुखी स्वभाव
15. संग्रह करने की प्रवृत्ति/संचय करने की प्रवृत्ति
16. नैतिक गुणों का विकास
17. कल्पनाशक्ति एवं अमूर्त चिन्तन के प्रारम्भ का काल
18. शारीरिक व मानसिक विकास में स्थिरता
19. रचनात्मक कार्यों में आनन्द अर्थात् बालक में सृजनशीलता के गुण पाये जाते हैं।
20. मूर्त (प्रत्यक्ष) चिन्तन की अवस्था
21. बाल्यावस्था में बालक में सबसे कम कामुकता पायी जाती है एवं बालक भयमुक्त रहता है।
परिभाषाएँ
क्रो एण्ड क्रो के अनुसार, "जब बालक 6 वर्ष का हो जाता है, तब उसकी
मानसिक योग्यताओं का लगभग पूर्ण विकास हो जाता है।"
रॉस के अनुसार, "बाल्यावस्था मिथ्या परिपक्वता का काल है।"
स्ट्रंग के अनुसार, "ऐसा शायद ही कोई खेल हो जिसे दस वर्ष के बालक न खेलते हों।"
उदाहरण 1. लड़का-लड़के के साथ और लड़की लड़की के साथ खेलना व रहना पसन्द करते हैं। इस अवस्था में समलैंगिक भावना अधिक रहती है।
उदाहरण 2. बालक इस अवस्था में स्वयं को परिपक्व या समझदार दिखाने की कोशिश करता है इसलिए इसे मिथ्या परिपक्वता काल कहा जाता है।
उदाहरण 3. लड़के पुराने सिक्के, काँच की गोलियाँ आदि एकत्रित करते हैं तथा लड़कियाँ गुड़िया, कलर, चूड़ियाँ आदि एकत्रित करती हैं अर्थात् इस आयु में
बालक में संग्रह की प्रवृत्ति पाई जाती है।
उदाहरण 4. सरकार ने भी विद्यालय की प्रारम्भिक आयु 6 वर्ष मानी है इसलिए सही मायनों में प्रारम्भिक विद्यालय की आंयु बाल्यावस्था कहलाती है।
नोट - पूर्व प्राथमिक विद्यालय की आयु 3-6 वर्ष अर्थात् शैशवावस्था होती है।
4. किशोरावस्था (ADOLESCENCE) (12-18 वर्ष तक)
'Adolescence' शब्द की उत्पत्ति लैटिन शब्द Adolecere से हुई है जिसका अर्थ है परिपक्वता की ओर बढ़ना। स्टेनली हॉल ने Adolescence (एडोलेसेन्स) नामक पुस्तक 1904 में प्रकाशित की। इस पुस्तक में उन्होंने लिखा है कि किशोर में जो भी परिवर्तन दिखाई देते हैं वे. अचानक होते हैं और उनका पूर्व अवस्थाओं से कोई सम्बन्ध नहीं होता है। स्टेनली हॉल ने अपने आकस्मिक विकास के सिद्धान्त के पक्ष में एक और पुनरावृत्ति का सिद्धान्त प्रस्तुत किया। अतः इनका सिद्धान्त सर्वश्रेष्ठ माना गया। इसी कारण स्टेनली हॉल को किशोरावस्था का जनक माना जाता है।
बाल्यावस्था व युवावस्था के मध्य का काल किशोरावस्था कहलाता है। इस काल में बालक परिपक्वता की ओर संक्रमण (प्रवेश) करते हैं अतः किशोरावस्था वह अवस्था है जिसमें बालक परिपक्वता की ओर अग्रसर होता है तथा जिसकी समाप्ति पर वह पूर्ण परिपक्व व्यक्ति बन जाता है।
(1) पूर्व किशोरावस्ता/वयः सन्धि- 11 से 15 वर्ष इसे द्रुत एवं तीव्र विकास का काल, अटपटे व समस्याओं की आयु, तूफान व उलझन की अवस्था कहते हैं।.
पूर्व किशोरावस्था/टीन एज/एज ऑफ ब्यूटी
1. लड़कों की अपेक्षा लड़कियों का विकास तीव्र ।
2. लड़कियों की लम्बाई, आवाज कोमल सुरीली, बगल व गुप्तांगों पर बाल तथा 12-14 वर्ष में मासिक धर्म आना शुरू हो जाता है। शारीरिक एवं मानसिक विकास बाल्यावस्था की उपेक्षा अधिक तीव्र गति से होता है।
3. लड़कों में विकास 14 वर्ष के बाद तीव्र गति से होता है।
4. बालक का बिगड़ना व सुधरना इसी काल पर निर्भर होता है।
5. यह अवस्था बाल्यावस्था के अन्त होने से पहले व किशोरावस्था के शुरू होने के उपरान्त खत्म हो जाती है।
(2) उत्तर किशोरावस्था 17 से 19 वर्ष ।
स्मरणीय तथ्य
1. नये जन्म का काल (स्टेनले हॉल ने कहा)
2. परिवर्तन का काल (सर्वाधिक शारीरिक परिवर्तन)
3. दबाव, तूफान, संघर्ष एवं तनाव का काल (स्टेनले हॉल ने)
4. जीवन का सबसे कठिन काल
5. संक्रमण तथा परिवर्ती अवस्था
6. विशिष्टता की खोज का समय
7. आकस्मिक/त्वरित की आयु
8. स्वर्णकाल (Golden Age)
9. बसन्त ऋतु
10. समायोजन का अभाव
11. देशभक्ति की भावना
12. संवेग अस्थिर
13. वीर पूजा की प्रवृत्ति
14. चहुँमुखी विकास अर्थात् शारीरिक, मानसिक, सामाजिक व संवेगात्मक विकास
15. व्यवसाय चुनाव की चिन्ता
16. कल्पना का बाहुल्य व दिवास्वप्न की प्रवृत्ति
17. सर्वाधिक काम प्रवृत्ति एवं सर्वाधिक विषम लैंगिक आकर्षण (बालक- बालिका विपरीत लिंगों में रुचि)
18. तार्किक चिन्तन/अमूर्त चिन्तन की अवस्था
19. पीढ़ियों में अन्तर के कारण विचारों में मतभेद
20. समस्याओं की आयु व उलझन की अवस्था
21. समाजसेवा की भावना (इस अवस्था में बालक अपने द्वारा किये गये सामाजिक कार्यों की सामाजिक स्वीकृति चाहता है)।
परिभाषाएँ
स्टेनली हॉल के अनुसार, "किशोरावस्था बड़े संघर्ष, तनाव, तूफान व विरोध की अवस्था है।"
रॉस के अनुसार, "किशोर समाज सेवा के आदर्शों का निर्माण व पोषण करते हैं।"
वेलेण्टाइन के अनुसार, "किशोरावस्था अपराध प्रवृत्ति के विकास का नाजुक समय है।"
किलपैट्रिक के अनुसार, "किशोरावस्था जीवन का सबसे कठिन काल है।" क्रो एवं क्रो के अनुसार, "किशोर ही वर्तमान की शक्ति और भावी आशा को प्रस्तुत करता है।"
जरशील्ड के शब्दों में, "किशोरावस्था वह समय है जिसमें विचारशील व्यक्ति बाल्यावस्था से परिपक्वता की ओर संक्रमण करता है।"
कोल व ब्रश के अनुसार, "किशोरावस्था के आगमन का मुख्य बिह संवेगात्मक विकास में तीव्र परिवर्तन है।" किशोरावस्था, शैशवावस्था की पुनरावृत्ति का काल है।"
जॉन्स के अनुसार, " हैडो कमेटी के अनुसार, "ग्यारह या बारह वर्ष की आयु में बालक की नसों में ज्वार उठना प्रारम्भ हो जाता है, इसे किशोरावस्था के नाम से पुकारा जाता है। यदि इस ज्वार का समय पहले उपयोग कर लिया जाए और इसकी शक्ति तथा धारा के साथ-साथ नई यात्रा आरम्भ कर दी जाए तो सफलता प्राप्त की जा सकती है।”
उदाहरण 1. इस अवस्था में बालक में देशभक्ति की भावना जोर-शोर से रहती है क्योंकि संवेग जल्दी उत्पन्न होते हैं तथा जल्दी ही स्वतः खत्म हो जाते हैं। इस अवस्था में संवेग अस्थिर होते हैं।
उदाहरण 2. इस अवस्था में बालक किसी प्रसिद्ध व्यक्ति या विद्वान् को अपना आदर्श मानता है तथा उसकी जैसे ही अपने-आपको ढालने की कोशिश करता है अर्थात् वीर पूजा का भाव विद्यमान होता है।
उदाहरण 3. कुछ बालक विशिष्ट दिखने के लिए अलग-अलग हेयर स्टाइल व वेशभूषा का चयन करते हैं; जैसे बालों में फलों की आकृति (अनन्नास, ऐप्पल), अलग-अलग कलर करना, पशु-पक्षियों की आकृति में बाल कटवाना अर्थात् विशिष्ट दिखने का भाव विद्यमान रहता है।
उदाहरण 4. इस आयु में कुछ बातें ऐसी भी होती हैं जो मन को बहुत अच्छी लगती हैं। जैसे- किसी लड़की को पसन्द करना तथा उसे जीवन-साथी के रूप में चुनने की सोचना। उसके साथ घूमना-फिरना अर्थात् उसके लिए यह बसन्त ऋतु के समान ही होता है।
उदाहरण 5. इस आयु में बालक को व्यवसाय की चिन्ता, शादी की चिन्ता, जीवन-साथी की चिन्ता आदि होती हैं इसलिए इस आयु को समस्याओं की आयु या उलझन की आयु कहते हैं।
ध्यातत्य रहे- शारीरिक विकास में सबसे पहले नाड़ी संस्थान (Nervous System) का विकास होता है। वयः संन्धि में शारीरिक वृद्धि की गति पुनः एक बार तीव्र हो जाती है इसलिए इसे 'Puberty Growth Spurt' भी कहते हैं।
किशोरावस्था के विकास के सिद्धान्त
(PRINCIPLES OF DEVELOPMENT OF
ADOLESCENCE):-
1. त्वरित विकास का सिद्धान्त- इस सिद्धान्त के समर्थक स्टेनरी हॉल हैं। इनके अनुसार शैशवावस्था व बाल्यावस्था में अचानक कोई परिवर्तन नहीं होते जबकि किशोरावस्था में जो भी परिवर्तन होते हैं, वो अकस्मात् होते हैं।
2. क्रमिक विकास का सिद्धान्त :- इस सिद्धान्त के समर्थक थॉर्नडाइक व हॉलिंगवर्थ हैं। इनके अनुसार किशोरावस्था में जो भी परिवर्तन होते हैं वो एकदम न होकर धीरे-धीरे क्रमानुसार होते हैं।
विकास को प्रभावित करने वाले कारक (FACTORS AFFECTING DEVELOPMENT)
विकास को अनेक कारक प्रभावित करते हैं। इनमें से कुछ कारक स्वतन्त्र रूप से शारीरिक विकास को प्रभावित करते हैं तथा कुछ कारकों की पारस्परिक अन्तः क्रियाएँ शारीरिक विकास को प्रभावित करती हैं। इसी प्रकार से कुछ कारक स्वतन्त्र रूप से बालक के मानसिक विकास को प्रभावित करते हैं तथा कुछ कारकों की पारस्परिक अन्तः क्रियाएँ बालकों के मानसिक विकास को प्रभावित करती हैं। कुछ प्रमुख कारक इस प्रकार से हैं-
1. वंशानुक्रम (Heredity) -
डिंकमेयर (D. C. Dinkmeyer, 1965) केअनुसार, “वंशानुगत कारक वे जन्मजात विशेषताएँ हैं, जो बालक में जन्म के समय ही पाई जाती हैं। प्राणी के विकास में वंशानुगत शक्तियाँ प्रधान तत्त्व होने के कारण प्राणी के मौलिक स्वभाव और उनके जीवन चक्र की गति को नियन्त्रित करती हैं। इन वंशानुक्रम तत्त्वों को प्राणी की संरचना और क्रियात्मकता से सम्बन्धित सम्पत्ति और ऋण समझना चाहिए, क्योंकि इन्हीं तत्त्वों की सहायता से प्राणी अपने विकास की जन्मजात तथा अर्जित क्षमताओं का उपयोग कर पाता है। प्राणी का रंग, रूप, लम्बाई, अन्य शारीरिक विशेषताएँ, बुद्धि, तर्क, स्मृति तथा अन्य मानसिक योग्यताओं का निर्धारण वंशानुक्रम द्वारा ही होता है। वंशानुक्रम का प्रभाव जीवन के प्रारम्भ के समय अर्थात् गर्भाधान के समय ही नहीं पड़ता है बल्कि इसका प्रभाव जीवन पर्यन्त रहता है। माता के रज और पिता के वीर्य कणों में बालक का वंशानुक्रम निहित होता है। गर्भाधान के समय Genes भिन्न-भिन्न प्रकार से संयुक्त होते हैं। ये जीन्स ही वंशानुक्रम के वाहक हैं। अतः एक ही माता-पिता का सन्त में भिन्नता दिखाई देती है, यह भिन्नता का नियम (Law of Variation) है। प्रतिगमन के नियम (Law of Regression) के अनुसार, प्रतिभाशाली माता-पिता की सन्तानें दुर्बल-बुद्धि हो सकती हैं।
2. वातावरण (Environment)
वातावरण में ये सभी बाह्य शक्तियाँ, प्रभाव, परिस्थितियाँ आदि सम्मिलित हैं, जो प्राणी के व्यवहार, शारीरिक और मानसिक विकास को प्रभावित करती हैं। भौतिक तथा मनोवैज्ञानिक दोनों प्रकार का वातावरण बालक या व्यक्ति के शारीरिक और मानसिक विकास को प्रभावित करता है। अन्य क्षेत्रों के वाचावरण की अपेक्षा बालक के घर का वातावरण उसके विकास को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण ढंग से प्रभावित करता है।
3. आहार (Nutrition) :-
माँ का आहार गर्भकालीन अवस्था के शिशु के विकास को प्रभावित करता है। माँ का आहार जितना ही अधिक पौष्टिक होता है, उतनी ही बालक के स्वस्थ उत्पन्न होने की सम्भावना होती है। माँ का आहार बालक के विकास को जन्म के उपरान्त उस समय तक भी प्रभावित करता है जब तक बालक स्तनपान करता है। इसके बाद बालक स्वयं जो आहार ग्रहण करता है, वह भी बालक के विकास को प्रभावित करता है। आहार की मात्रा की अपेक्षा आहार में विद्यमान तत्त्व बालक के विकास को अधिक महत्त्वपूर्ण ढंग से प्रभावित करते हैं।
4. रोग (Diseases)-
शारीरिक बीमारियाँ भी बालक के शारीरिक और मानसिक विकास को महत्त्वपूर्ण ढंग से प्रभावित करती हैं। बाल्यावस्था में यदि कोई बालक अधिक दिनों तक बीमार रहता है तो उसका शारीरिक और मानसिक विकास अवरुद्ध हो जाता है। यदि इसका उपयुक्त ढंग से उपचार नहीं किया जाता है तो विकास की यह अवरुद्धता प्रौढ़ावस्था तक अपना प्रभाव छोड़ती है। जिन बालकों का सामान्य स्वास्थ्य बना रहता है और जिन्हें बीमारियाँ कम-से-कम होती हैं, उनका शारीरिक और मानसिक विकास प्रायः सामान्य गति से चलता है।
5. अन्तः स्त्रावी ग्रन्थियाँ (Endocrine Glands):- बालक के अन्दर पाई जाने वाली ग्रन्थियों से जो स्राव निकलते हैं, वे बालक के शारीरिक और मानसिक विकास तथा व्यवहार को महत्त्वपूर्ण ढंग से प्रभावित करते हैं। पैराथॉइराइड ग्रन्थि से जो स्राव निकलता है, उस पर हड्डियों का विकास निर्भर करता है। साथ-ही- साथ दाँतों का विकास भी इस ग्रन्थि से सम्बन्धित होता है। बालक के संवेगात्मक व्यवहार और शान्तचित्तता को भी इस ग्रन्थि का स्राव प्रभावित करता है। बालक की लम्बाई का सम्बन्ध थॉइराइड ग्रन्थि के स्त्राव से होता है। पुरुषत्व के लक्षणों: जैसे-दाढ़ी, मूँछ और पुरुषों जैसी आवाज तथा नारी के लक्षणों का विकास जनन ग्रन्थियों (Gonad Glands) पर निर्भर करता है।
6. बुन्द्रि (Intelligence)- बालक की बुद्धि भी एक महत्त्वपूर्ण कारक है जो बालक के शारीरिक और मानसिक विकास को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करती है। अध्ययनों से यह स्पष्ट हुआ है कि तीव्र बुद्धि वाले बालकों का विकास मन्द बुद्धि वाले बालकों की अपेक्षा तीव्र गति से होता है। दुर्बल बुद्धि बालकों में बैठना, चलना, बोलना, दौड़ना तथा अन्य कौशलों का विकास तीव्र बुद्धि बालकों की अपेक्षा मन्द गति से होता है तथा विभिन्न विकास प्रतिमान अपेक्षाकृत अधिक आयु स्तरों पर पूर्ण होते हैं।
7. यौन (Sex)- यौन-भेदों का भी शारीरिक और मानसिक विकास पर प्रभाव पड़ता है। जन्म के समय लड़कियाँ लड़कों की अपेक्षा कम लम्बी उत्पन्न होती हैं परन्तु वयः सन्धि अवस्था के प्रारम्भ होते ही लड़कियों में परिपक्वता के लक्षण लड़कों की अपेक्षा शीघ्र विकसित होने लगते हैं। लड़कों की अपेक्षा लड़कियों का मानसिक विकास भी कुछ पहले पूर्ण हो जाता है। इस प्रकार के अध्ययन परिणामों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि यौन का भी शारीरिक और मानसिक विकास पर प्रभाव पड़ता है।
अधिगम का अर्थ और परिभाषा (Meaning and Definition of Learning):-
अधिगम अर्थात् सीखना एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है।
मनोवैज्ञानिकों ने इसे एक मानसिक प्रक्रिया माना है जो जीवनभर चलती रहती है।
इसमें बालक परिपक्वता की ओर बढ़ता है। वह अपने अनुभवों एवं प्रशिक्षणों से लाभ उठाकर स्वाभाविक व्यवहार या अनुभूति में प्रगतिशील परिवर्तन तथा परिमार्जन करता है। इसे ही अधिगम कहते हैं।
उदाहरण - एक बालक का आग से जलकर, दोबारा उसके पास न जाना अधिगम की प्रक्रिया है।
वच्चे द्वारा केला या आम छीनना स्वाभाविक (Instinctive) क्रिया है। हाथ फैलाकर आम माँगना सीखी हुई क्रिया है।
अधिगम की विशेषताएँ (Characteristics of Learning)
• अधिगम का अर्थ सीखने की प्रक्रिया है जो हमेशा चलती रहती है।
• सामान्यतः व्यवहार में परिवर्तन को अधिगम कहते हैं। इसके द्वारा बालक अपने आस-पास घट रही घटनाओं को समझा पाता है।
• किसी विषय को रटकर याद कर लेने को अधिगम या सीखना नहीं कहा जा सकता है।
• बच्चे स्वभाव से ही सीखने के प्रति उत्सुक रहते हैं।
• यदि वालकं शुरू में सीखने के लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं हो तो उसे नहीं पढ़ाना चाहिए। यह बाद में उसके सीखने की प्रवृत्ति को प्रभावित करता है। वे बहुत से तथ्य भले ही याद कर लें परन्तु इससे उन्हें तथ्यों को अपने आस-पास के परिवेश से जोड़ने में कठिनाई होती है।
•बालक विद्यालय एवं घर, दोनों ही स्थान पर सीखता है। यदि इन दोनों स्थानों पर सीखने के बीच सह-सम्बन्ध हो तो सीखने की प्रक्रिया मजबूत होती है।
• सीखने में सामाजिक सन्दर्भ तथा संवाद की विशेष भूमिका होती है। बालक अपने परिवेश में सुनकर तथा लोगों के व्यवहार को देखकर भी सीखता है। इसके द्वारा उसके संज्ञानात्मक विकास को बल मिलता है।
• बालक अवधारणाओं को परीक्षा के बाद भूल न जाएँ इसके लिए सीखने की उचित गति को अपनाना चाहिए।
• सीखने या अधिगम की प्रक्रिया चुनौतीपूर्ण तथा विविधतापूर्ण होनी चाहिए। इससे बालक की सीखने के प्रति रुचि बनी रहती है।
परिभाषाएँ (Definitions):-
जे. पी. गिलफोर्ड के अनुसार, "व्यवहार के कारण व्यवहार में परिवर्तन ही अधिगम है।"
गेट्स के अनुसार, "अनुभवों तथा प्रशिक्षणों द्वारा अपने व्यवहार का संशोधन तथा परिमार्जन करना ही अधिगम है।"
स्किनर के अनुसार, "प्रगतिशील व्यवहार एवं व्यवस्थापन की प्रक्रिया को अधिगम कहते हैं।"
अधिगम के प्रकार (Types of Learning)
1. ज्ञानात्मक अधिगम- यह वौद्धिक विकास तथा ज्ञान अर्जित करने की समस्तं क्रियाओं में प्रयुक्त होता है। ज्ञांनात्मक अधिगम तीन प्रकार के होते हैं- प्रत्यक्षात्मक, प्रत्ययात्मक तथा साहचर्यात्मक ।
(i) प्रत्यक्षात्मक सीखना बालक जब किसी वस्तु को देखकर, सुनकर या स्पर्श करके ज्ञान प्राप्त करता है, तो उसे प्रत्यक्षात्मक सीखना कहते हैं। यह प्रक्रिया मुख्यतः शैशवावस्था एवं बाल्यावस्था में देखी जाती है।
(ii) प्रत्ययात्मक सीखना- बालक जव साधारण ज्ञान या अनुभव प्राप्त कर लेता है तो वह तर्क चिन्तन और, कल्पना के आधार पर सीखने लगता है। इस प्रकार वह अनेक अमूर्त बातें सीख जाता है। इस प्रकार से सीखने की प्रक्रिया को प्रत्ययात्मक सीखना कहते हैं।
(iii) साहचर्यात्मक सीखना- जब पुराने ज्ञान तथा अनुभव के द्वारा
किसी तथ्य को सीखा जाता है तो उसे साहचर्यात्मक सीखना कहते हैं।
2. भावात्मक अधिगम- इस प्रकार के अधिगम का सम्बन्ध ज्ञान व कौशल से नहीं होता है। इसका सम्बन्ध बालक के कोमल भावों या मनोभावनाओं से होता है। इस अधिगम द्वारा बालक किसी चालू के देखकर, किसी आवाज को सुनकर या किसी लुभावन रंगको विखेरकर आनन्द की अनुभूति करता है। इस अधिगम प्रक्रिया में यह आवश्यक है कि बच्चों की रुचि को ध्यान में रखा आए।
3. क्रियात्मक अधिगम:- इस अधिगम प्रक्रिया द्वारा कला पर्व हस्तशिल् निपुणता प्राप्त की जाती है। संगीत, नृत्य, मॉडल बनाना, डाईग कौशल क्रियात्मक अधिगम के अन्तर्गत आते हैं।
अधिगम के चरण क्रमशः इस प्रकार से हैं-तैयारी, उद्देश्य, प्रस्तुतीकरण, अभ्यास, शुद्धिकरण तथा पुनः अभ्यास ।
विकास और अधिगम का सम्बन्ध (Relation of Learning and Development)
अधिगम अर्थात् सीखने की प्रक्रिया, बच्चे या शिक्षार्थी के शारीरिक विकास के विभिन्न चरणों से प्रभावित होती है। शारीरिक विकास के अनुसार ही शिक्षार्थी का मानसिक तथा संज्ञानात्मक विकास होता है।
1. शैशवावस्था तथा अधिगम (Childhood and Learning)
• गर्भावस्था किसी बच्चे के विकास की पहली अवस्था और शैशवावस्था दूसरी अवस्था होती है। जन्म से 3 वर्ष तक बच्चे का शारीरिक एवं मानसिक विकास तेजी से होता है। जन्म से लेकर 6 वर्ष तक अर्थात् शैशवावस्था में बच्चा देख- सुनकर सीखता है। गेसल के अनुसार, "शैशवावस्था में बच्चा बाद के 12 वर्षी की तुलना में दोगुना सीख लेता है।
• बच्चे का विकास, अनुसरण एवं सीखी हुई बातों को दोहराने से होता है, इसलिए शिक्षक एवं माता-पिता दोहराने पर जोर देते हैं।
• इस काल में बच्चे का भार एवं लम्बाई बढ़ती है और उसके अनुसार ही वं चलना एवं सन्तुलन स्थापित करना सीखते हैं।
• बच्चों में ध्यान, कल्पनाशीलता एवं संवेदना जैसी मानसिक क्रियाओं का विकास शैशवावस्था में ही होता है। वे किसी बात पर बुरा मानना, गुस्सा करनां इसी समय सीखते हैं। इस समय उनमें हर बात को जानने की जिज्ञासा होती है और वे बहुत सवाल करते हैं।
• मनोवैज्ञानिक थॉर्नडाइक के अनुसार, इस समय बच्चा किसी भाषा को सहज ही सीख सकता है। इस अवस्था को शिक्षा की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण माना जाता है।
• 2 से 5 वर्ष में, शिशु में सामाजिक भावना का विकास होता है और वे अपने परिवार के प्रति लगाव रखने लगता है तथा छोटे भाई या बहन की सुरक्षा करने लगता है।
2. बाल्यावस्था तथा अधिगम (Infancy and Learning)
• बाल्यावस्था में बालक के व्यक्तित्व का निर्माण होता है। 6 से 12 वर्ष की अवस्था को बाल्यावस्था माना जाता है। इस अवस्था में बालक के भार एवं लम्बाई दोनों में गुणात्मक वृद्धि होती है।
• इस समय बालक शैशवावस्था की तुलना में वास्तविकता की ओर अधिक आकर्षित होता है और उस वस्तु या परिदृश्य के बारे में जानना चाहता है।
• इस अवस्था में बालक के चिन्तन एवं तर्क शक्तियों का विकास होता है और वह पढ़ने के प्रति रुचि दिखाने लगते हैं। शैशवावस्था की तुलना में उनके सीखने की गति कम हो जाती है परन्तु सीखने का क्षेत्र बड़ा होता जाता है।
• स्ट्रेंग के अनुसार, इस आयु में बच्चों को सिखाने के लिए अलग-अलग विधियों का प्रयोग करना चाहिए। इस अवस्था में वे भाषा सीखने के लिए रुबि दर्शाते हैं।
• बर्ट के अनुसार, इस आयु में बच्चों के बीच आवारागर्दी, बिना छुट्टी के स्कूल छोड़ने की प्रवृत्ति पायी जाती है।
• रॉस ने इस अवस्था को 'मिथ्या-परिपक्वता' का समय कहा है। उनके अनुसार इस समय बालकों में थोड़ी परिपक्वता आ जाती है परन्तु वे स्वयं को वयस्क समझने लगते हैं।
• कोल एवं ब्रूस के अनुसार, "बाल्यावस्था, संवेगात्मक विकास का अनोखा काल है।"
• इस अवस्था में बच्चों को अच्छे-बुरे का ज्ञान होने लगता है और वे सामाजिक मूल्यों जैसे ईमानदारी, सौम्यता सीखने लगते हैं।
• बालकों में सामूहिक प्रवृत्ति बढ़ने लगती है और वे अपना समय दूसरे बच्चों के साथ बिताना पसन्द करने लगते हैं।
• बालक अपने संवेग जैसे गुस्सा करने या रोनें पर नियन्त्रण रखना सीखने लगते हैं।
• 9 वर्ष के बाद उसके शारीरिक एवं मानसिक विकास में स्थिरता आ जाती है जिससे उसकी शारीरिक एवं मानसिक शक्तियों में सुदृढ़ता आती है और वे पढ़ने के प्रति अधिक आकर्षित होते हैं।
3. किशोरावस्था तथा अधिगम (Adolescence and Learning)
• बाल्यावस्था के बाद की अवस्था अर्थात् 12 से 18 वर्ष तक की अवस्था को किशोरावस्था कहते हैं।
• इस अवस्था में बालकों में मानसिक, शारीरिक, सामाजिक एवं संवेगात्मक बदलाव होते हैं। इसे बालक के जीवन में परिवर्तन काल भी माना जाता है।
• इस अवस्था में लड़कों की तुलना में लड़कियों की लम्बाई तथा भार में अधिक वृद्धि देखी जाती है।
• इसी काल में प्रजनन अंग विकसित होते हैं और बुद्धि का पर्ण विकास हो जाता है।
• शारीरिक विकास का प्रभाव बालक के सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक पहलुओं पर पड़ता है। पूरी जानकारी के अभाव में किशोर कई यौन रोगों तथा यौन- दुर्व्यवहार के शिकार बन जाते हैं।
• इस अवस्था में बालक के मस्तिष्क का सभी दिशाों में विकास होता है। उनकी कल्पनाशीलता का विकास, सोचने-समझने तथा तर्क करने की शक्ति का विकास और विरोधी मानसिक दशाओं का विकास होता है। किशोर बालक कई प्रकार के संवेगों जैसे प्रेम, नफरत से संघर्ष करता है जिसकी वजह से उसकी सीखने की प्रक्रिया में बाधा खड़ी हो जाती है।
• रॉस के अनुसार, "किशोर समाज-सेवा के आदर्शों का निर्माण करने में भूमिका निभाता है।"
• ब्लेयर, जोन्स एवं सिम्पसन के अनुसार, "किशोर महत्त्वपूर्ण बनना, अपने समूह में स्थित रहना तथा श्रेष्ठ व्यक्ति के रूप में पहचान बनाना चाहता है।"
विकास के विभिन्न आयाम तथा उनका अधिगम से सम्बन्ध (Various Dimensions of Development and its Relation with Learning)
शारीरिक विकास - शारीरिक विकास की प्रक्रिया, वालक के व्यक्तित्व निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
मानसिक विकास - मानसिक विकास या संज्ञानात्मक विकास वालक को सीखने के क्रम में हो रहे परिवर्तनों के साथ समायोजन स्थापित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
भाषायी विकास - भाषायी विकास किसी बालक को अपने सहपाठियों एवं शिक्षक के साथ सह-सम्वन्ध स्थापित करने में सहायता देता है। जैसे एक वालक अपने घर में मातृभाषा सीखता है परन्तु स्कूल में द्वितीय भाषा सीखता है। सामाजिक विकास - सामाजिक विकास किसी वालक को ईमानदारी, परम्परा जैसे सामाजिक मूल्यों को सीखने में सहायक सिद्ध होता है।
सांवेगिक विकास - संवेग या भाव जैसे क्रोध, आश्चर्य, घृणा किसी वालक में विभिन्न शारीरिक एवं मनोदशा सम्बन्धी परिवर्तनों को जन्म देते हैं। अपने संवेगों पर नियन्त्रण रखना सीखकर वालक अपना विकास करते हैं।
मनोगत्यात्मक विकास - मनोगत्यात्मक विकास अर्थात् क्रियात्मक विकास बालक के शारीरिक विकास, स्वस्थ रहने तथा मानसिक विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इसके परिणामस्वरूप बालक आत्मविश्वास हासिल क्रता है जो कौशलों के विकास में सहायक होता है।
अभ्यास प्रश्न
1.भिन्न रूप से सक्षम बच्चे के लिए निम्न- लिखित में से कौन-सा सबसे महत्त्वपूर्ण कारक है ?
(A) उसके व्यवहार को नियन्त्रित करना
(B) उसके ग्रेड में सुधार करना
(C) उसके कौशलों का संवर्द्धन करना
(D) उसकी पीड़ा को कम करना।
2. निम्नलिखित में से कौन-सा सूक्ष्म गतिक कौशल का उदाहरण है ?
(A) फुदकना
(B) दौड़ना
(C) लिखना
(D) चढ़ना।
3.किशोर... का अनुभव कर सकते हैं।
(A) जीवन के बारे में परितृप्ति के भाव
(B) दुश्चिन्ता और स्वयं से सरोकार
(C) बचपन में किये गये अपराधों के प्रति डर के भाव
(D) आत्मसिद्धि के भाव।
4.मानव-व्यक्तित्व परिणाम है -
(A) पालन-पोषण और शिक्षा का
(B) आनुवंशिकता और वातावरणं की अन्तः क्रिया का
(C) केवल वातावरण का
(D) केवल आनुवंशिकता का।
5. मानव विकास को क्षेत्रों में विभाजित किया जाता है जो हैं -
(A) शारीरिक, संज्ञानात्मक, संवेगात्मक और सामाजिक
(B) संवेगात्मक, संज्ञानात्मक, आध्यात्मिक और सामाजिक-मनोवैज्ञानिक
(C) मनोवैज्ञानिक, संज्ञानात्मक, संवेगात्मक और शारीरिक
(D) शारीरिक, आध्यात्मिक, संज्ञानात्मक और सामाजिक ।
6. शिक्षार्थी वैयक्तिक भिन्नता करते हैं। अतः शिक्षक को -
(A) सीखने के विविध अनुभवों को उपलब्ध कराना चाहिए
(B) कठोर अनुशासन सुनिश्चित करना चाहिए
(C) परीक्षाओं की संख्या बढ़ा देनी चाहिए
(D) अधिगम की एकसमान गति पर बल देना चाहिए।
7. बच्चों के बौद्धिक विकास के चार भिन्न- भिन्न चरणों की पहचान किसके द्वारा की गयी ?
(A) स्किनर
(C) कोहलबर्ग
(B) पियाजे
(D) एरिक्सन ।
8. 'विकास एक कभी न खत्म होने वाली प्रक्रिया है।' यह विचार किससे सम्बन्धित हैं ?
(A) एकीकृत का सिद्धान्त
(B) अन्तःक्रिया का सिद्धान्त
(C) अन्तर-सम्बन्धों का सिद्धान्त
(D) निरन्तरता का सिद्धान्त।
9. शिशु प्रेम, भोजन, आराम और अधिगम की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए ..... पर निर्भर होते हैं।
(A) स्कूल
(B) साथी समूह
(C) माता-पिता
(D) दादा-दादी ।
10. एक बालक की गतिविधियाँ उसकी वृद्धि के अनुसार हो जाती हैं।
(A) जटिल
(B) आरामदायक
(C) तनाव-रहित
(D) दवावयुक्त ।
11. स्तर पर बालक अपनी वास्तविक योग्यताओं को पहचानना शुरू कर देता है और उनकी तुलना दूसरों के कौशलों से भी करने लगता है।
(A) विद्यालय से पूर्व
(B) प्राथमिक विद्यालय
(C) माध्यमिक विद्यालय
(D) मध्यवयस्कावस्था ।
12. व्यक्तिगत रूप से शिक्षार्थी एक-दूसरे से भिन्न होते हैं -
(A) वृद्धि और विकास के सिद्धान्त
(B) विकास की दर
(C) विकास का क्रम
(D) विकास के लिए सामान्य क्षमता।
13. नाचना, लिखना, ड्राइविंग आदि कुछ उदाहरण हैं-
(A) शारीरिक विकास के
(B) गतिक विकास के
(C) सामाजिक विकास के
(D) भावनात्मक विकास के।
14. विकास की अवस्था में एक बालक आत्म-केन्द्रित होता है।
(A) शैशव
(B) प्रारम्भिक बाल्यकाल
(C) किशोरावस्था
(D) वयस्क ।
15. बुद्धि ज्ञान में पूर्व अधिगम और अनुभवों से प्राप्त होता है।
(A) क्रिस्टलीकृत
(B) तरल
(C) मानव
(D) सृजनात्मक ।
16. वृद्धि और विकास के बारे में गलत कथन की पहचान करें-
(A) वृद्धि मात्रात्मक बदलावों की ओर संकेत करती है जबकि विकास का सम्बन्ध गुणात्मक बदलावों से है
(B) वृद्धि वातावरण का कार्य है
(C) विकास के बिना वृद्धि सम्भव नहीं है और वृद्धि के बिना विकास सम्भव नहीं है
(D) वृद्धि आन्तरिक और अनुवांशिक कारकों द्वारा नियन्त्रित होती है।
17. बच्चों में नैतिक मूल्यों का विकास करने का सबसे अच्छा तरीका है-
(A) सुबह की सभा में नैतिक बातों पर भाषण देना
(B) विद्यार्थियों के लिए एक परिस्थिति सृजित करना और उन्हें निर्णय लेने के लिए कहंना
(C) शिक्षकों और वयस्कों द्वारा नैतिक मूल्यों का उदाहरण पेश करना
(D) विद्यार्थियों को नैतिक और अनैतिक के बारे में अन्तर बताना।
18. जब एक बावर्ची भोजन को चखकर देखता है, तो यह किसके समान है?
(A) अधिगम का मापन
(B) अधिगम के लिए मापन
(C) अधिगम के रूप में मापन
(D) मापन एवं अधिगम ।
19. निम्नलिखित में से कौन-सा बच्चों के संवेगात्मक विकास के लिए सर्वाधिक उपयुक्त है ?
(A) अध्यापकों की कोई सहभागिता नहीं क्योंकि यह माता-पिता का कार्य है
(B) कक्षा-कक्ष का नियन्त्रित परिवेश
(C) कक्षा-कक्ष का अधिकारवादी परिवेश
(D) कक्षा-कक्ष का प्रजातान्त्रिक परिवेश।
20. एक वर्ष तक के शिशु जब आँख, कान व हाथों से 'सोचते' हैं, तो निम्नलिखित में से कौन-सा स्तर शामिल होता है ?
(A) मूर्त संक्रियात्मक स्तर
(B) पूर्व संक्रियात्मक स्तर
(C) इन्द्रियजनित गामक स्तर
(D) अमूर्त संक्रियात्मक स्तर।।
21. मानव विकास है।
(A) मात्रात्मक
(B) गुणात्मक
(C) कुछ सीमा तक अमानवीय
(D) मात्रात्मक और गुणात्मक दोमनों।
22. संज्ञानात्मक विकास निम्न में से किसके द्वारा, समर्थिक होता है ?
(A) जितना सम्भव हो उतनी आवृत्ति से संगत और सुनियोजित परीक्षाओं का आयोजन करना
(B) उन गतिविधियों को प्रस्तुत करना जो पारम्परिक पद्धतियों को सुदृढ़ बनाती हैं
(C) एक समृद्ध और विविधतापूर्ण वातावरण
उपलब्ध कराना
(D) सहयोगात्मक की अपेक्षा वैयक्तिक गतिविधियों पर अधिक ध्यान केन्द्रित करना।
23. परिपक्व विद्यार्थी -
(A) इस बात में विश्वास करते हैं कि उनके अध्ययन में भावनाओं का कोई स्थान नहीं है
(B) अपनी बौद्धिकता के साथ अपने सभी प्रकार के द्वन्द्वों का शीघ्र समाधान कर लेते हैं
(C) अपने अध्ययन में कभी-कभी भावनाओं की सहायता चाहते हैं
(D) कठिन परिस्थितियों में भी अध्ययन से विचलित नहीं होते हैं।
24. एक शिक्षिका पाठ को पूर्वपठित पाठ से जोड़ते हुए बच्चों को सारांश लिखना सिखा रही है। वह क्या कर रही है ?
(A) वह बच्चों की पाठ समझने की स्वशैली विकसित करने में सहायता कर रही है
(B) वह बच्चों को सम्पूर्ण पाठ्यवस्तु को पूर्ण रूप से न पढ़ने की आवश्यकता का संकेत दे रही है।
(C) वह आकलन के दृष्टिकोण से पाठ्यवस्त के महत्त्व को पुनर्वलित कर रही है
(D) वह विद्यार्थियों को सामथ्यानुकूल स्मरण करने को प्रेरित कर रही है।
25. कक्षा में विद्यार्थियों के वैयक्तिक विभेद
(A) लाभकारी नहीं हैं, क्योंकि अध्यापकों को वैविध्यपूर्ण कक्षा को नियन्त्रित करने की आवश्यकता है
(B) हानिकारक हैं, क्योंकि इनसे विद्यार्थियों में परस्पर द्वन्द्व उत्पन्न होते हैं
(C) अनुपयुक्त हैं, क्योंकि वे सर्वाधिक मन्द विद्यार्थी के स्तर तक पाठ्यचर्या के स्थानान्तरण की गति को कम करते हैं
(D) लाभकारी हैं, क्योंकि ये विद्यार्थियों की संज्ञानात्मक संरचनाओं को खोजने में अध्यापकों को प्रवृत्त करते हैं।
26. प्रगतिशील शिक्षा के सन्दर्भ में निम्नलिखित में से कौन-सा कथन जॉन ड्यूई के अनुसार समुचित है ?
(A) कक्षा में प्रजातन्त्र का कोई स्थान नहीं होना चाहिए
(B) विद्यार्थियों को स्वयं ही सामाजिक समस्याओं को सुलझाने में सक्षम होना चाहिए
(C) जिज्ञासा विद्यार्थियों के स्वभाव में अन्तर्निहित नहीं है, अपितु इसका कर्षण/संवर्धन करना चाहिए
(D) कक्षा में विद्यार्थियों का निरीक्षण करना चाहिए न कि सुनना चाहिए।
27. 14-वर्षीय देविका अपने-आप में पृथक् स्वनियन्त्रित व्यक्ति की भावना को विकसित करने का प्रयास कर रही है। वह विकसित कर रही है-
(A) नियमों के प्रति घृणा
(B) स्वायत्तता
(C) किशोरावस्थात्मक अक्खड़पन
(D) परिपक्वता ।
28. सीता ने हाथ से दाल और चावल खाना सीख लिया है। जब उसे दाल और चावल दिए जाते हैं तो वह दाल-चावल मिलाकर खाने लगती है। उसने चीजों को करने के लिए अपने स्कीमा में दाल और चावल खाने को कर लिया है।
(A) समायोजित
(C) अनुकूलित
(B) अंगीकार
(D) समुचितता ।
29. निम्नलिखित में से कौन-सी संज्ञानात्मक क्रिया दी गई सूचना के विश्लेषण के लिए प्रयोग में लाई जाती है ?
(A) पहचान करना
(B) अन्तर करना
(C) वर्गीकृत करना
(D) वर्णन करना।
30. शिक्षार्थियों में वैयक्तिक भिन्नताओं को सम्बोधित करने के लिए एक विद्यालय किस प्रकार का सहयोग उपलब्ध करवा सकता है ?
(A) बाल-केन्द्रित पाठ्यचर्या का पालन करना और शिक्षार्थियों को सीखने के अनेक अवसर उपलब्ध कराना
(B) शिक्षार्थियों में वैयक्तिक भिन्नताओं को समाप्त करने के लिए हर सम्भव उपाय करना
(C) धीमी गति से सीखने वाले शिक्षार्थियों को विशेष विद्यालयों में भेजना
(D) सभी शिक्षार्थियों के लिए समान स्तर की पाठ्यचर्या का अनुगमन करना।
31. विद्यालय को किसके लिए वैयक्तिक भिन्नताओं को पूरी करना चाहिए ?
(A) वैयक्तिक शिक्षार्थियों के मध्य खाई को कम करने के लिए
(B) शिक्षार्थियों के निष्पादन और योग्यताओं को समान करने के लिए
(C) यह समझने के लिए कि क्यों शिक्षार्थी सीखने के योग्य या अयोग्य हैं
(D) वैयक्तिक शिक्षार्थियों को विशिष्ट होने की अनुभूति कराने के लिए।
32. दाएँ हाथ से काम करने वाले अधिकतर व्यक्तियों के लिए मस्तिष्क का बायाँ गोलार्द्ध... को नियन्त्रित करता है।
(A) देशिक चाक्षुष सूचना
(B) भाषा-प्रक्रमण
(C) संवेग
(D) बाएँ बाजू की गति ।
33. विकास की गति एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में भिन्न होती है, किन्तु यह एक का अनुमान करती है। नमूने
(A) एड़ी-से-चोटी
(B) अव्यवस्थित
(C) अप्रत्याशित
(D) क्रमबद्ध और व्यवस्थित ।
34. जब वयस्क सहयोग से सामंजस्य कर लेते हैं, तो वे बच्चे के वर्तमान स्तर के प्रदर्शन को सम्भावित क्षमता के स्तर के प्रदर्शन की तरफ प्रगति क्रम को सुगम बनाते हैं, इसे कहा जाता है -
(A) सहभागी अधिगम
(B) संयोगात्मक अधिगम
(C) समीपस्थ विकास
(D) सहयोग देना।
35. शैशवावस्था की अवधि है-
(A) जन्म से 3 वर्ष तक
(B) 2 से 3 वर्ष तक
(C) जन्म से 1 वर्ष तक
(D) जन्म से 2 वर्ष तक।
36. 'प्रकृति-पोषण' विवाद में प्रकृति से क्या अभिप्राय है ?
(A) एक व्यक्ति की मूल वृत्ति
(B) भौतिक और सामाजिक संसार की जटिल शक्तियाँ
(C) हमारे आस-पास का वातावरण
(D) जैवकीय विशिष्टताएँ या वंशानुक्रम सूचनाएँ।
37. बच्चों की त्रुटियों के बारे में निम्नलिखित में से कौन-सा कथन सत्य है ?
(A) बच्चे जब त्रुटियाँ करते हैं तब शिक्षक सौम्य हो और उन्हें त्रुटियाँ करने पर दण्ड नहीं देता हो
(B) बच्चों की त्रुटियाँ शिक्षक के लिए महत्त्वहीन हैं और उसे चाहिए कि उन्हें काट दें और उन पर अधिक ध्यान न दें
(C) असावधानी के कारण बच्चे त्रुटियाँ, करते हैं
(D) बच्चों की त्रुटियाँ उनके सीखने की प्रक्रिया का अंग हैं।
38. बच्चे -
(A) रीते बरतन के समान होते हैं जिसमें बड़ों के द्वारा दिया गया ज्ञान भरा जाता है
(B) निष्क्रिय जीव होते हैं जो प्रदत्त सूचना को त्यों-का-त्यों प्रतिलिपि के रूप में प्रस्तुत कर देते हैं
(C) जिज्ञासु प्राणी होते हैं वे अपने वातावरण में जो कुछ भी अनुभव करते हैं उनके बारे में पता करने के लिए उत्सुक रहते हैं
(D) चिन्तन में वयस्कों की भाँति ही होते हैं और ज्यों-ज्यों बड़े होते हैं उनके चिन्तन में गुणात्मक वृद्धि होती है।
39. निम्नलिखित में से कौन-सा आयु समूह परवर्ती बाल्यावस्था श्रेणी के अन्तर्गत आता है?
(A) 18 से 24 वर्ष
(C) 6 से 11 वर्ष
(B) जन्म से 6 वर्ष
(D) 1 से 18 वर्ष।
40. निम्नलिखित में से कौन प्रारम्भिक बाल्यावस्था अवधि के दौरान उन भूमिकाओं एवं व्यवहारों के बारे में जानकारी प्रदान करती है जो एक समूह में स्वीकार्य हैं ?
(A) अध्यापक एवं साथी
(B) साथी एवं माता-पिता
(C) माता-पिता एवं भाई-बहन
(D) भाई-बहन एवं अध्यापक ।
Answer -
1.. (C)
2. (C)
3. (B)
4. (B)
5. (C)
6. (A)
7. (B)
8. (D)
9. (C)
10. (A)
11. (B)
12. (B)
13. (B)
14. (A)
15. (A)
16. (C)
17. (C)
18. (B)
19. (D)
20. (C)
21. (D)
22. (C)
23. (B)
24. (A)
25. (D)
26. (B)
27. (B)
28. (B)
29. (B)
30. (A)
31. (C)
32. (B)
33. (D)
34. (D)
35. (D)
36. (D)
37. (D)
38. (C)
39. (C)
40. (B)
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