Margdarshan Coaching Center Barbigha by Prof. Rakesh Giri
Practice is the best way to succeed in mathematics.
उच्च प्राथमिक स्तर पर गणित शिक्षण
गणित शिक्षण की चुनौतियाँ
गणित के प्रति माहौल
समाज और शिक्षक दोनों ही वर्ग उन्हीं बच्चों को बुद्धिमान के खिताब से नवाजते हैं, जो संख्याओं, संक्रियाओं और सूत्र याद कर उसमें मान रखकर सवाल को तीव्र गति से हल करने में महारत हासिल करना भर सीख जाते हैं। जो बच्चे इन दक्षताओं को हासिल नही कर पाते हैं उन पर मन्द बुद्धि, कुछ नहीं कर पाने के लेबल लगाना भी शुरू किया जाता है जिसके चलते तथाकथित कमजोर गणित वाले बच्चे अपने साथियों, परिवारजनों व शिक्षकों के बीच खिल्ली के पात्र बनते दिखलाई पड़ते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि कुछ तो हिम्मत कर दसवीं कक्षा तक जैसे-तैसे पास कर लेते हैं कि उसके बाद गणित का पीछा छूट जाएगा। और कुछ जो दसवीं तक गणित नहीं कर पाते हैं वे विद्यालय छोड़कर कोई कामकाज में संलग्न होना ज्यादा मुनासिब समझने लगते हैं। छात्राओं से कहा जाने लगता है कि यह विषय लड़कियों के बस का नहीं है।
हमारा गणित से रिश्ता
गणित विषय की दैनिक जीवन में उपयोगिता वाले पहलू को देखा जाए तो ऐसा कोई कार्य नजर ही नहीं आता, जहाँ बिना गणित के कुछ सम्भव हो पा रहा हो। मजदूर, किसान, दुकानदार, नौकरी करने वाला और चाहे कोई भी महिला-पुरूष, बच्चे जिसने शिक्षा प्राप्त की हो या नहीं की हो, सभी अपनी जिन्दगी में गणित का बखूबी से उपयोग करते दिखलाई पड़ते हैं। एक किसान को अपने खेत में हुई फसल की मात्रा का पूर्व निर्धारण करना हो, खेत में बीजारोपण के समय लगने वाले बीज की मात्रा का पता लगाना हो, फसल काटने के दौरान समय मजदूरी का निर्धारण करना हो या उतनी फसल के लिए आवश्यक बोरियों की संख्या का पता लगाना हो वह सटीकता के साथ लगा लेता है। घर पर किसी भी दैनिक क्रियाकलाप को ले लें, चाहे वह नहाने धोने का कार्य हो, बच्चों का खेलना हो, रसोई का कार्य करना हो या बाजार में खरीददारी हो सभी कार्यो में गणितीय कौशलों (अन्दाजा, अनुमान, समस्या समाधान के विभिन्न मॉडल सोचना, सादृष्यीकरण, गणितीय सम्प्रेषण, निरूपण, सामान्यीकरण आदि ) का उपयोग किया जाता है। जिसने गणित की औपचारिक शिक्षा नहीं ली हो वो मौखिक और जिसने औपचारिक शिक्षा ली है वो मौखिक और लिखित दोनों ही रूपों में इस्तेमाल कर पाते हैं।
शिक्षा द्वारा हम ऐसे नागरिकों को तैयार करने की पैरवी करते हैं जहाँ व्यक्ति दूसरों की बातों को बिना सोचे-समझे स्वीकार न करे, बल्कि उस बात पर तथ्यों के साथ सोच विचार /तर्क करते हुए स्वयं से फैसला ले कि क्या सही है? और क्या गलत है?
गणित हमें तर्क करना, समस्या समाधान करने, बेहतर विकल्प तलाशने, सामान्यीकरण करने में मददगार होता है। ऐसी सोच को विकसित करने में गणित हमें ऐसे कौशलों, तौर-तरीकों को सिखाता है। गणित की ऐसी खूबी से ही स्कूली गणित का महत्व अनिवार्य विषय के तौर पर मजबूत होता है।
गणित विषय के इस सामाजिक और दैनिक जीवन में उपयोगिता के पहलू को ध्यान में रखते यह सोचना जरूरी हो जाता है कि क्या सच में गणित बहुत ही कठिन विषय है या इसे प्रस्तुत ही इस प्रकार से किया गया है कि इसे सभी नहीं कर सकते हैं।
हर बच्चा अपने आप में खास व्यक्तित्व रखता है जिसमें खास रुचियाँ, काबिलीयत होती है जिन्हें बढ़ावा देना लाजमी है। इसीलिए गणित में रुचि रखने वालों के लिए यह दायरा खुला रहना चाहिए जिससे वह गणित में योगदान दे सकें, गणित में जी सकें, आनन्द ले सकें और सामान्य रुचि वाले विद्यार्थी अपने जीवन को बेहतर बनाने के साथ-साथ अन्य विषयों को सीखने में मदद के तौर पर उपयोग कर सकें।
गणित प्रकृति के पहलू
गणित विषय की प्रकृति में अवधारणाओं की अमूर्तता, सर्पिलाकर क्रमबद्धता, सार्वभौमिकता व गणित विषय के ज्ञान निर्माण में निगमनात्मक तर्क शामिल हैं। गणितीय ज्ञान का निर्माण स्वयंसिद्ध मान्यताओं, परिभाषाओं, नियमों और पहले से सिद्ध की गई बातों की सहायता से तर्क करते हुए ही किया जाता है। उदाहरण के तौर पर त्रिभुज के तीनों कोणों का योग 180 डिग्री होता है इसे किसी प्रयोगशाला में प्रयोग करके नहीं बताया जा सकता है। यह ज्ञान संसार के सभी स्थानों पर एक-सा रहेगा वातावरण का कोई प्रभाव दिखलाई नहीं पड़ता है। गणित अवधारणा के इस भौतिक जगत में कोई ठोस उदाहरण नहीं दिखलाई पड़ता है।
उदाहरण के तौर पर त्रिभुज की ही बात की जाए तो त्रिभुज समतल पर तीन सरल भुजाओं से बन्द आकृति है। क्या ऐसा कोई उदाहरण हो सकता है या नहीं? ठोस उहाहरण के लिए समतल बनाना होगा जो रेखाओं की समानान्तर गति से बनेगा जिसमें दो विमा का होना आवश्यक है, रेखा(केवल लम्बाई) का निर्माण बिन्दुओं की गति से बनेगा, बिन्दु ऐसा होना चाहिए जिसकी कोई लम्बाई, चौड़ाई और मोटाई नहीं हो। अगर बात करें कि बिना विमा के बिन्दु से लम्बाई वाली रेखा का निर्माण कैसे होगा? और लम्बाई वाली रेखा से चौड़ाई का निर्माण कैसे होगा? यह सब भौतिक जगत में तो सम्भव नहीं है केवल और केवल काल्पनिक और तार्किक रूप में ही सम्भव हो पाएगा। क्रमबद्धता गणितीय अवधारणों की खासियत के तौर दिखलाई देती है इसे भी समझने के लिए हम देख सकते हैं कि बिना बिन्दु के रेखा की बात की नहीं की जा सकती है, बिना रेखा के तल की बात नहीं की जा सकती है बिना तल के त्रिभुज की बात नहीं की जा सकती है और बिना त्रिभुजों के बहुभुजों को नहीं समझा जा सकता है।
सीखने-सिखाने के तौर-तरीके

सीखने को लेकर विभिन्न सिद्धान्तों में से आज के समय में रचनावादी नजरिये को प्रमुखता दी जाती है। राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 ने भी विद्यालयो में ‘ स्वयं करके सीखने’ को लेकर ही पाठ्यपुस्तकों का निर्माण किया गया है। सीखने में केवल सीखने के तौर-तरीका ही मायने नहीं रखते, बल्कि उसके साथ में और भी पहलुओं पर ध्यान दिया जाना आवश्यक है।
- प्राथमिक (6 से 11 आयु), उच्च प्राथमिक(12 से 14), माध्यमिक (15से 16) और उच्च माध्यमिक (17 से 18) स्तर पर बच्चों की शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक अवस्था का सीखने के तौर-तरीकों में खासा ध्यान रखना पड़ता है। खासतौर पर प्राथमिक कक्षाओं के बच्चे बड़ों के प्यार, सहानुभूति और सहारे की अपेक्षा रखते हैं। वहीं उच्च प्राथमिक स्तर के बच्चे चुनौतियों को स्वीकार करने, पैटर्नों/समस्या समाधान के हल को तलाशने, नेतृत्व क्षमता को लेकर आगे बढ़ने, दूसरों की मदद करने के लिए आगे आने लगते हैं। उच्च प्राथमिक स्तर पर बच्चों की रुचियाँ उभरकर आने लगती हैं वो बताने लगते हैं कि क्या अच्छा लगता है और क्या बुरा, किसमें मजा आ रहा है और किसमें नहीं।
- स्वयं करके सीखने में प्राथमिक स्तर के बच्चों को थोड़ी-थोड़ी देर में शिक्षक की मदद की जरूरत होती है। अकसर बच्चे मदद सीधे तौर पर नहीं माँगते हैं बल्कि शिक्षक को ही सचेत रहना पड़ता है कि बच्चों को अब कहाँ मदद करनी है। वहीं उच्च प्राथमिक स्तर पर बच्चे स्वयं से झूझना शुरू करते हैं और जहाँ मदद की जरूरत होती है वहाँ मदद माँगने भी लगते हैं।
- विषय की प्रकृति, सीखने के सिद्धान्त, बच्चों के मनोविज्ञान व विषयवस्तु को ध्यान में रखते हुए भी शिक्षण शास्त्र का निर्धारण शिक्षक को करना होता है।
- शिक्षक को शिक्षण के दौरान मानक विधियों की बजाय जोर इस बात पर देना चाहिए कि बच्चों द्वारा किसी भी प्रकार से किए गए गणित को स्वीकारे, प्रोत्साहन दे और गणित में रुचि पैदा करने में मददगार की भूमिका में रहे। उदाहरण के तौर पर संक्रिया के सवाल को विद्यार्थी अक्सर शिक्षक द्वारा बताए रास्ते को पकड़ते हैं और नई स्थिति आने पर वैसा ही पुनः करने की कोशिश करते हैं। जैसे संक्रिया बिना हासिल/उधार के सवालों को समझ लेने के बाद नई स्थितियों में दुबारा से वैसा ही करने का प्रयास करते हैं।
प्राथमिक और उच्च प्राथमिक कक्षाओं में गणित शिक्षण
खासकर प्राथमिक और उच्च प्राथमिक स्तर पर गणित जैसे विषय में शिक्षक के लिए अन्य विषयों से ज्यादा चुनौती भरा कार्य इसलिए हो जाता है कि विषय की प्रकृति (अमूर्तता, सर्पिलाकर क्रमबद्धता, सार्वभौमिकता व गणित विषय के ज्ञान निर्माण में निगमनात्मक तर्क) और बालमनोविज्ञान, सीखने के सिद्धान्त के बीच तालमेल बैठाना पड़ता है।
प्राथमिक कक्षा
- प्राथमिक कक्षाओं में अमूर्तता से बाहर निकलकर दैनिक जीवन के उदाहरणों के साथ गणित शिक्षण को शुरू किया जाना चाहिए।
- दैनिक जीवन की घटनाओं में पैटर्न, संख्या ज्ञान, संक्रियाँ, आँकड़ों के प्रबंधन और स्थानिकता की समझ को लेकर शिक्षण गतिविधियों का चयन किया जाना चाहिए जिसमें बच्चा गणित करने के साथ-साथ गणित को जीवन के साथ जोड़कर देख सके।
- ऐसा नहीं होना चाहिए कि कक्षा-कक्ष में किया गया गणित कोई और है और दैनिक जीवन में किया जाने वाला गणित कोई और। इन दोनों के बीच अन्तर नहीं होना चाहिए। गतिविधियों के चयन में गीत,कविता, कहानी, खेल का समावेश किया जाना ही होगा।
उच्च प्राथमिक स्तर
- उच्च प्राथमिक स्तर पर कक्षा-कक्ष में दैनिक जीवन के अनुभवों को शामिल करते हुए गणित शिक्षण के उन कौशलों (अन्दाजा, अनुमान, समस्या समाधान के विभिन्न मॉडल सोचना, सादृष्यीकरण, गणितीय सम्प्रेषण, निरूपण सामान्यीकरण आदि) को विकसित करने पर जोर होना चाहिए जो गणित को उपयोगिता के साथ जोड़ने और गणित में रुचि बढ़ाने में मदद करें।
- खासतौर से यह देखा समझा गया कि उच्च प्राथमिक स्तर के गणित में आगमन तर्क के द्वारा किसी निष्कर्ष तक पहुँचे। उदाहरण के तौर पर संख्याओं में पैटर्न ढूँढ़ते हुए सामान्यीकरण कर सूत्रों का निमार्ण करें, अंकगणित का सामान्यीकरण करते हुए बीजगणित की ओर बढ़ें, स्थानिकता के दैनिक अनुभवों का उपयोग करते हुए यूक्लिड ज्यामिति की ओर बढ़ें, आँकड़ों के रखरखाव से आगे बढ़ते हुए आँकड़ों का विश्लेषण करने की ओर बढ़ें।
- उच्च प्राथमिक स्तर के बच्चे खासतौर से समाधान की विभिन्न युक्तियों को लेकर नए-नए तरीके खोजने लगते हैं इसलिए शिक्षक को शिक्षण के दौरान ऐसे स्कोप हमेशा बनाए रखने चाहिए जिसमें विद्यार्थी अपने तरीकों को खुलकर बता सकें, उन पर बात कर सकें, तरीकों की खामियों को पहचान सकें और अन्त में मानक विधियों की ओर बढ़ने लगें।
प्राथमिक और उच्च प्राथमिक स्तर पर गणित का शिक्षण करवाने वाले शिक्षक के साथ विभिन्न पहलुओं पर कार्य किया जाना चाहिए।
गणित के प्रति सामाजिक नजरिये में बदलाव
शिक्षक को यह समझना चाहिए सभी बच्चे गणित कर सकते हैं, सभी गणित सीख सकते हैं। गणित पर लड़कों का ही हक होता है ऐसा नहीं है लड़कियाँ भी उतना ही गणित सीख सकती हैं जितना लड़के सीख सकते हैं। गणित विषय के इस सामाजिक पहलू पर बात की जानी चाहिए। इस पर किए गए शोध कार्यों से अवगत कराया जाना चाहिए। महिलाओं द्वारा गणित में किए गए योगदान, बाजार, घर पर महिलाओं द्वारा की जाने वाली गणित की गतिविधियों पर बातचीत होनी ही चाहिए। इस पहलू पर बात करने के उपरान्त ही शिक्षक कक्षा-कक्ष में उन उदाहरणों को शामिल कर पाएगा जिसमें लड़कियों, महिलाओं के नाम होंगे, सभी तरह के कार्यो को कर सकने में महिलाओं, बच्चियों के नाम शामिल हो पाएँगे।
गणित विषय की प्रकृति और शिक्षण के उद्देश्य की समझ

शिक्षक के साथ इस बिन्दु पर विस्तार से विमर्श करते रहना आवश्यक है कि गणित विषय में ज्ञान निर्माण के तौर-तरीके बाकी विषयों से भिन्न हैं। गणित स्वयं सिद्ध मान्यताओं, परिभाषाओं, नियमों और पूर्व में सिद्ध की जा चुकी बातों के सहारे निगमनात्मक तर्क करते हुए ही आगे बढ़ता जाता है। प्राथमिक उच्च प्राथमिक कक्षाओं के अन्दर जो इस प्रकार का ज्ञान निर्माण नहीं करवाया जा सकता है लेकिन आगे की कक्षाओ में जाने से पूर्व बच्चों को वे सभी आधार उपलब्ध कराएँ जिनसे भविष्य में बच्चे गणित के वास्तविक ज्ञान निर्माण की ओर बढ़ सकें।
आरम्भिक कक्षाओ में गणित को संख्याओं, संक्रियाओं व तीव्र गणनाओं तक सीमित न मानते हुए गणित शिक्षण के उन उद्देश्यों की ओर ज्यादा ध्यान देने की आवश्यकता पर बल देना चाहिए। एन.सी.एफ. 2005 के अनुसार उच्चतर उद्देश्य को प्राप्त करने हेतु गणित विषयवस्तुओं के सहारे आगे बढ़ना चाहिए। शिक्षक को यह समझ आना चाहिए कि पाठ्यपुस्तक एक रास्ता सुझाती है, पाठ्यपुस्तक सब कुछ नहीं हो सकती है। गणित शिक्षक के उद्देश्यों पर समझ होने के बाद शिक्षक स्वयं के स्तर पर ही ऐसी गतिविधियों का चयन कर सकता है जो उच्चतर उद्देश्य को प्राप्त कर सकने में मददगार हो।
गणित विषयवस्तु की गहरी समझ
आरम्भिक कक्षाओं के अध्यापकों को यह नहीं मानकर चलना चाहिए कि हम तो प्राथमिक, उच्च प्राथमिक तक की कक्षाओं को पढ़ाते हैं तो उतनी ही समझ रखनी चाहिए। हमने ऊपर बात की थी कि गणितीय अवधारणाओं में खास प्रकार की सर्पिलाकर क्रमबद्धता होती है कक्षा 1 की अवधारणा कक्षा 10 तक या और भी आगे किस प्रकार से आगे बढ़ती रहती है।
उदाहरण के तौर पर-
- प्राकृत संख्याओं से आगे का जुड़ाव पूर्ण संख्या के साथ किस प्रकार से है उसकी जरूरत क्यों पड़ी है? पूर्ण संख्या ही इसका अगला स्तर क्यों है?
- पूर्ण संख्या के समूह में क्या-क्या नहीं कर पा रहे थे? और हमें नए सेट पूर्णाकों की क्यों आवश्यकता लगने लगी इस पर विचार होना आवश्यक है।
- पूर्णाकों के सेट से भी आगे बढ़ते हुए हम किस प्रकार से परिमेय /अपरिमेय संख्या के सेट को बना पाए।
- इन सबको मिलाकर हमने वास्तविक संख्या समूह बना लिया, उसके बाद भी कुछ और ऐसी स्थितियाँ उत्पन्न हो गईं जो इन सेट में नहीं आ पा रही हैं उन्हे काल्पनिक संख्याओं का दर्जा दिया गया।
इस प्रकार से अगर शिक्षक के पास अवधारणाओं की क्रमबद्धता की समझ हो तो कक्षा-कक्ष में बच्चों के साथ उनके स्तर के अनुसार कार्य सम्पन्न करा पाएगा। बच्चे कहाँ पर अटक रहे हैं उनको पहचान पाएगा और उचित समाधान भी निकाल पाएगा।
शिक्षण की नवाचारात्मक शिक्षण विधियों से अपडेट करना
किसी दूरदराज गाँव में शिक्षण करवा रहे शिक्षक के पास अगर गणित परिप्रेक्ष्य और विषयवस्तु पर गहराई के साथ कार्यशालाओं में कार्य करने के बाद में स्कूल स्तर पर उन गतिविधियों का पूल/गतिविधि, बैंक/शिक्षण अधिगम सामग्री का सेट होना चाहिए, जिसे वह कक्षा-कक्ष में समझ के साथ उपयोग कर सके। वह अन्य साथियों से बात कर सके, शिक्षण के दौरान के अनुभव साझा कर सके ऐसे फोरम स्थानीय स्तर पर बनाए जाने चाहिए। समय-समय पर विषय आधारित लेख,पत्र-पत्रिकाएँ उपलब्ध करवाई जाती रहनी चाहिए।
By Prof. Rakesh Giri
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