F 2 D.El.Ed. (Face to Face) 1st year
बचपन और बाल विकास फूल नोट्स
Unit - 1 इकाई -1
बचपन और बाल विकास की समझ
बच्चे तथा बचपन: मनोसामाजिक अवधारणा -
- बचपन की अवधारणा को समझने का प्रमुख स्रोत मनोविज्ञान रहा है।
- इस को प्रभावित करने वाला अन्य महत्वपूर्ण स्रोत सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, सामाजिक,साहित्य एवं नीतिगत पक्ष है।
- बचपन की अवधारणा में बच्चों की छवि के लिए स्पष्ट है कि बच्चा हर चीज को स्पर्श करना,उलटना, पलटना, दुनिया को समझना चाहता है, उसके बारे में बोलना चाहता है, सुनना चाहता है, हर बात को विस्तृत करना चाहता है, कल्पनाएं करना चाहता है।
- उसके व्यवहार के कारण कि उसकी विशेष पहचान होती है।
- बच्चों की प्रकृति कई प्रकार की होती है।
- उदाहरण- कुछ बच्चे आज्ञाकारी,जिज्ञासु,भोले-भाले, चतुर, चंचल,परिपक्वता लिए हुए, नटखट, गुमसुम, बातूनी,मिलनसार, क्रोधी,हंसमुख, चुनौतीपूर्ण बच्चे( परिस्थिति वश ), चलाक, जिद्दी,कल्पनाशील, साहसी,डरपोक,नकलची, मूडी,डरपोक तार्किक और मनमौजी आदि हो सकते हैं।
बचपन को प्रभावित करने वाले मनोसामाजिक कारक :-
- सभी बच्चों का बचपन एक समान नहीं होता है।
- सभी समाज के अलग-अलग समुदायों में अलग अलग रहते हैं।
- प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में बचपन सबसे महत्वपूर्ण समय होता है।
- बचपन के कई बातें बच्चे के भावी जीवन पर प्रभाव डालता है।
- बचपन को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारक निम्नलिखित हैं -
- माता-पिता
- शिक्षक
- समकक्षी समूह के बच्चे
- जनसंचार
- स्वास्थ्य
- पोषण
- लिंग
- परिवारिक सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति
- वातावरण
- शिक्षा
बाल विकास:अवधारणा विकास के विविध आयाम, प्रभावित करने वाले कारक :-
- बाल विकास साबुन परिवर्तनों से संबंधित है जो मनुष्य में जन्म से लेकर मृत्यु तक होते हैं परंतु यह सब सभी परिवर्तनों पर लागू नहीं होता है।
- यह केवल उन परिवर्तनों की ओर इंगित करता है जो व्यवस्थित तरीकों से दिखाई देते हैं और पर्याप्त समय अवधि तक रहते हैं।
- यह परिवर्तन जीवन के एक निश्चित समय में होते हैं और जीवन का एक अंग बन जाते हैं।
- बाल विकास में उन परिवर्तनों का अध्ययन किया जाता है जो जीवन के प्रथम दो दशकों के दौरान होता है।
- इसमें मुख्यता बच्चों के रूप व्यवहार रुचि और लक्ष्यों में होने वाले उन विशिष्ट परिवर्तनों की खोज पर बल दिया जाता है जो एक विकासात्मक अवस्था से दूसरी विकासात्मक अवस्था में प्रवेश करते हैं।
विकास शब्द का अर्थ है-" व्यवस्थित और संगतिपूर्ण तरीके से परिवर्तनों का एक प्रगतिशील श्रृंखला में होना हैं । "
- बाल विकास में मुख्य रूप से बच्चों के व्यवहार और उन व्यवहारों में समय एवं परिपक्वता के कारण होने वाले परिवर्तनों को समझने का प्रयत्न किया जाता है।
- बाल विकास के अध्ययन से बच्चों की स्वाभाविक क्षमताओं में विश्वास बनता है।
- इसके शिक्षण को अधिक दृढ़ आधार मिलता है।
बाल विकास के विविध आयाम:-
मनोवैज्ञानिकों ने विकास के दृष्टिकोण से गर्भधारण से लेकर पूरे जीवन काल को निम्नलिखित 10 भागों में बांटा है -
- प्रसव पूर्व अवस्था - गर्भधारण से जन्म तक
- शैशवावस्था - जन्म से 2 वर्ष तक
- पूर्व बाल्यावस्था - 2 से 5-6 वर्ष तक
- उत्तर बाल्यावस्था - 6 से 12 वर्ष तक
- तरुण अवस्था - 12 से 14 वर्ष तक
- प्रारंभिक किशोरावस्था - 13 से 17 वर्ष तक
- परवर्ती किशोरावस्था - 17 से 20 वर्ष तक
- प्रारंभिक व्यास्कता - 21 से 40 वर्ष तक
- मध्य अवस्था - 40 से 60 वर्ष तक
- वृद्धावस्था - 60 वर्ष से मृत्यु तक
विकास के अवस्थाओं के संबंध में मनोवैज्ञानिकों में परस्पर मतभेद है। अधिकतर मनोवैज्ञानिक सहमत होकर 4 अवस्थाओं के अंतर्गत विकास को बांटते हैं -
शैशवावस्था बाल्यावस्था किशोरावस्था तथा वयस्कावस्था
1. शैशवावस्था (Infancy) जन्म से 2 वर्ष तक :-
जन्म से 2 वर्ष तक
विशेषताएं :-
- तीव्र विकास की अवस्था
- बड़ों पर निर्भरता की अवस्था गतिविधियों के प्रारंभ की अवस्था
- जैसे बोलने की क्षमता, शारीरिक क्रियाओं में तालमेल बैठाने की क्षमता, इंद्रियों द्वारा अनुभव करने की क्षमता आदि का विकास होना।
2. पूर्व बाल्यावस्था ( Early Childhood ) :- 2 से 6 वर्ष तक
विशेषताएं :-
- भाषाई विकास का तीव्र गति से होना
- कल्पना शक्ति का विकास होना
- अकेले खेलना पसंद करना
3.उत्तर बाल्यावस्था (Later Childhood) :- 6 से 12 वर्ष तक की अवस्था
विशेषताएं :-
- विचार शक्ति का विकास होना
- सामाजिकता का विकास होना जैसे मित्र बनाना,समूह में खेलना
- नैतिक विकास जैसे अनुशासन एवं नियमों का महत्व समझना एवं उनका पालन करना।
- जिम्मेदारी उठाने की तत्परता में विकास होना
- पेशीय कौशल का विकास होना
4. किशोरावस्था या वयस्कावस्था ( Adolescence ):- 13 से 18 वर्ष तक
विशेषताएं :-
- शारीरिक विकास में तीव्रता आना
- यौन परिपक्वता
- अमूर्त चिंतन
- तीव्र संवेगात्मक परिवर्तन
- स्वतंत्रता एवं विद्रोह की भावना
- भूमिका एवं दायित्वो का निर्वाहन
बाल विकास को प्रभावित करने वाले कारक:-
1. जन्म जन्म के पूर्व की परिस्थितियां -
जन्म से पूर्व की परिस्थितियां जैसे मां का शारीरिक स्वास्थ्य,पौष्टिक भोजन इत्यादि गर्भ में पल रहे बच्चे के तत्कालिक एवं बाद के बृद्धि एवं विकास पर महत्वपूर्ण प्रभाव डालते हैं।
2. वंशानुक्रम:-
बच्चे अपने माता-पिता अमान्य पूर्वजों के कई गुणों को लिए होते हैं जैसे रंग-रूप, आकृति, मानसिक योग्यता इत्यादि । यह जन्मजात गुण एवं संभावना के रूप में होते हैं और परिस्थितियों के अनुसार आधिक या कम विकसित होते हैं।
3. लिंग:-
बच्चे का लिंग उसके जन्म से लेकर आगे तक होने वाले विकास के सारे क्रम को प्रभावित करता है। माता-पिता की बच्चे के प्रति होने वाले अभिवृत्ति पर भी लिंग का प्रभाव पड़ता है। जिस कारण बच्चे एवं बच्चियों में अंतर किया जाता है लड़कियों की अपेक्षाकृत लड़कों को अधिक प्यार,दुलार, स्वतंत्रता दी जाती है। परिणाम स्वरूप किसी न किसी स्तर पर लड़की के व्यक्तित्व का विकास प्रभावित होता है।
4. पोषण:-
भोजन का प्रकार में बच्चों के शारीरिक एवं मानसिक विकास को प्रभावित करते हैं। कहा भी गया है " एक स्वस्थ शरीर में भी एक स्वस्थ मन का निवास होता है।" बच्चे के समुचित विकास के लिए पौष्टिक भोजन अनिवार्य होता है।
5.शुद्ध पर्यावरण:-
शुद्ध जल,वायु,सूर्य का प्रकाश बच्चे के विकास के लिए आवश्यक ही नहीं अनिवार्य है क्योंकि इसमें जीवन तत्व एवं पोषक तत्व पाए जाते हैं जो उन्हें रोगों से दूर करने की शक्ति प्रदान करते हैं।
6. अंतः स्रावी ग्रंथियां:-
आंतरिक ग्रंथियों की क्रियाएं भी बच्चों के वृद्धि एवं विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। जैसे - थायराइड, पैरा थायराइड, पीयूष थाइमस, एड्रिनल आदि ग्रंथियां।
7.परिवार की सामाजिक-आर्थिक स्थिति :-
परिवार की सामाजिक आर्थिक स्थिति बच्चों के विकास को निरंतर प्रभावित करती हैं।
वृद्धि एवं विकास के अंतर संबंधों की समझ, अभियान के तरीके :-
व्यक्ति की वृद्धि और विकास की प्रक्रिया का अध्ययन शिक्षा मनोविज्ञान का महत्वपूर्ण विषय है। क्योंकि वृद्धि और विकास को जाने बिना एक अध्यापक विद्यालय की सहायता नहीं कर सकता और ना ही अपने शिक्षण व्यवस्था को व्यवस्थित ही कर सकता है।
आत: वृद्धि व विकास के विभिन्न पहलुओं पर विचार करना जरूरी है।
वृद्धि का अर्थ -
वृद्धि का अर्थ है– 'बढ़ना' या 'फैलना' होता है। अतः मनुष्य के आंतरिक और बाह्य अंगों का बढ़ना ही वृद्धि कहलाता है। वृद्धि शारीरिक रचना और शारीरिक बदलाव की ओर संकेत करती है।किसी भी प्राणी में विकास पूर्व में और वृद्धि बाद में होती है। वृद्धि गर्भाधान के लगभग 2 सप्ताह पश्चात् ही प्रारंभ होती है और बीस वर्ष की उम्र के आस-पास समाप्त हो जाती है।वृद्धि में होने वाले बदलाव सिर्फ शारीरिक व रचनात्मक ही होते हैं। वृद्धि केवल परिपक्व अवस्था तक ही सीमित होती है जबकि विकास जीवन पर्यंत चलने वाली प्रक्रिया है।
विकास का अर्थ :-
विकास– विकास एक सार्वभौमिक प्रक्रिया मानी जाती है जो जन्म से लेकर जीवन पर्यंत तक अविराम गति से निरंतर चलती रहती है। विकास केवल शारीरिक वृद्धि की ओर ही संकेत नहीं करता है बल्कि इसके अंतर्गत के प्रत्येक शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और संवेगात्मक बदलाव शामिल रहते हैं जो गर्भकाल से लेकर मृत्यु के पश्चात भी निरंतर मनुष्यों में प्रकट होते रहते हैं।अतः प्राणी के अंदर विभिन्न प्रकार के शारीरिक एवं मानसिक क्रमिक बदलाव की उत्पत्ति ही 'विकास' कहलाती है।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि वृद्धि की अपेक्षा विकास की संकल्पना व्यापक है। यानी विकास के अर्थ में वृद्धि शामिल हो जाती है। अगर वृद्धि मात्रात्मक परिवर्तनों की ओर इशारा करती है, तो विकास गणना आत्मक परिवर्तन की ओर सामान्य ताप वृद्धि और विकास की प्रक्रिया साथ साथ चलती है।
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बचपन और बाल विकास फूल नोट्स
Unit - 2 इकाई -2
बच्चों का शारीरिक एवं मनोगत आत्मक विकास
शारीरिक विकास की समझ :-
शारीरिक विकास का संदर्भ वृद्धि और शरीर में आए विभिन्न परिवर्तनों से है जिसमें बालक के आकार, भार, ऊंचाई, हड्डियों की मोटाई, मानव गत्यात्मक कौशल, दृष्टि, श्रवण आदि में आए परिवर्तन सम्मिलित है।
विभिन्न विकासात्मक अवस्थाओं में बच्चे के आकार, शक्ति, अंगों तथा ज्ञान इंद्रियों में विशिष्ट परिवर्तन आते हैं।
विकास के विभिन्न अवस्थाओं में होने वाले शारीरिक परिवर्तन
1. शैशवावस्था ( infancy 0-2 वर्ष तक ):-
शारीरिक परिवर्तन :-
शारीरिक विकास तीव्र, एक वर्ष के अंदर हड्डीयाँ,मांसपेशीयाँ एवं अन्य अंग इतने विकसित हो जाते हैं कि शिशु बैठने एवं खड़े होने में समर्थ हो जाता है।
पूर्व बाल्यावस्था
( early childhood 2-6 वर्ष )
शारीरिक परिवर्तन :-
- 3 वर्ष की आयु में उसके पूरे दांत निकल आते हैं हाथ पैर एवं पुट्ठे मजबूत हो जाते हैं।
- सभी इंद्रियां सक्रिय हो जाती है।
- भार और लंबाई में निरंतर वृद्धि होती है।
- 6 वर्ष की आयु तक विकास की गति मंद हो जाती है परंतु उनकी का मंदिर एवं ज्ञानेंद्रियां सुदृढ़ होती जाती है।
2. उत्तर बाल्यावस्था
(Later Childhood 6-12 वर्ष तक ):-
शारीरिक परिवर्तन :-
- शारीरिक विकास मान धोखा दे स्थिरता की ओर।
- हो चुके शारीरिक विकास में दृढ़ता।
- शारीरिक क्षमता में अभिवृद्धि होती है।
3. किशोरावस्था (Adolescence 12-18 वर्ष ):-
शारीरिक परिवर्तन :-
इस अवस्था में किशोर के विभिन्न लक्षण शरीर में परिलक्षित होते हैं। जैसे - भार एवं लंबाई में वृद्धि, शारीरिक संरचना एवं मांसपेशियों में सुदृढ़ता, दाढ़ी और मूछे निकल आना आदि । किशोरियों में रजोदर्शन, स्तनों में उभार, कुल्हा में उभार, शारीरिक आकर्षण में अभिवृद्धि आदि परिवर्तन आते हैं।
मनोगत्यात्मक विकास की समझ :-
मनोगत्यात्मक विकास का संबंध मांसपेशियों के कार्य तथा शरीर में गतियों या क्रियाओं की उत्पत्ति से है जो मानसिक क्रिया के सचेतन नियंत्रण के अंतर्गत होती है।
यह गत्यात्मक कौशलों के अंतर्गत होती है। यह गत्यात्मक कौशलों से निर्देशित होती है। जैसे - गति,समन्वय, परिचालन, दक्षता,बल तथा चाल। बच्चों के सर्वांगीण विकास में उनके मनोगत्यात्मक विकास का होना अति आवश्यक होता है। मानव शिशु जन्म के समय असहाय होता है परंतु आयु में वृद्धि के साथ-साथ अपनी मांस पेशियों की गतिविधियों पर नियंत्रण करना सीखने लगता है और इस नियंत्रण के कारण है क्रियाओं में विशिष्टता दिखाई देने लगती है।
बच्चों के शारीरिक एवं मनोगत्यात्मक विकास की समझ:-
बालक का शारीरिक मनोगत्यात्मक विकास एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। शरीर के आकार कंकाली संरचना, अस्थियों, मांसपेशियों तथा दांतों में आए परिवर्तन, बच्चों के शारीरिक विकास में योगदान देते हैं। शारीरिक परिवर्तनों के साथ-साथ मनोगत्यात्मक विकास भी होता है जिसमें बच्चों के स्थूल गत्यात्मक कौशल तथा सूक्ष्म गत्यात्मक कौशल सम्मिलित हैं ।
इकाई -3:- बच्चों में सृजनात्मकता
सृजनात्मकता: अवधारणा, महत्त्व बच्चों के विशेष संदर्भ में :-
सृजनात्मकता के विशेष ढंग से चिंतन करने का तरीका होता है जिसे सृजनात्मक चिंतन कहा जाता है। सृजनात्मकता व्यक्ति की उस क्षमता को कहा जाता है जिससे वह कुछ ऐसी नई चीजों,रचनाओं या विचारों को पैदा करता है जो नया होता है एवं जो पहले से उसे ज्ञात नहीं होता है । या एक काल्पनिक रिया है या चिंतन संश्लेषण हो सकता है।
बच्चों के संदर्भ में सृजनात्मकता के महत्व :-
जिज्ञासु, संवेदनशीलता, अनुशासन, समस्या समाधान,समस्या समाधान के तरीकों को ढूंढना, समस्याओं का पूर्णव्याख्या करना, उत्तरदायित्व पूर्ण ढंग से निभाना, अपने विचारों से दूसरों को प्रभावित करना, अग्रसोची, खुशमिजाज या हास्य प्रिया इत्यादि।
बच्चों में सृजनात्मकता विकास हेतु विविध तरीके :-
1. सूचनाएं एकत्रित करना -
बालकों को कोई विषय देकर विषय से संबंधित सूचना एकत्रित करने के लिए कहा जाता है जैसे - इतिहास के पाठ में विदेशी आक्रमणकारियों का सामान करने वाले इतिहासकार पुरुषों एवं महिलाओं का नाम लिखिए।
2. समस्या समाधान के लिए प्रोत्साहित करना
विद्यालय के सामने प्रायः कई प्रकार की समस्याएं आती है जैसे विद्यालय में हड़ताल,अनुशासनहीनता, साफ - सफाई की समस्या आदि। विद्यार्थियों को इस बात के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है कि वह समस्या समाधान के लिए अपने सुझाव प्रस्तुत करें।
3. समस्या के भावी परिणामों का विश्लेषण करना
विद्यार्थियों के सामने कई समस्याएं रखकर उनके परिणामों पर बच्चों से विचार किया जाना चाहिए जैसे - देश में सरकार या व्यवस्था बदलने पर समाज पर क्या प्रभाव पड़ेगा।
4. आंकड़ों का वर्गीकरण एवं अन्वेषण
विद्यार्थियों को विज्ञान साहित्य संबंधी कुछ आंकड़े देकर उनका वर्गीकरण करने के लिए कहा जा सकता है। साथ ही साथ अन्वेषण करने के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है।
सृजनात्मकता प्रभावित करने वाले कारक:-
- संतुष्टि का मिलना
- संतुष्टि
- पुरस्कार
- निंदा
- सफलता
- असफलता
- स्वास्थ्य
- विकलांगता
- वृद्धि
- शिक्षक
- कक्षा का वातावरण
- शिक्षण विधि अनुशासन इत्यादि।
इकाई - 4 : खेल और बाल विकास
खेल से आशय अवधारणा, विशेषता, बच्चों के विकास के संदर्भ महत्व :-
खेल बच्चों की स्वाभाविक क्रिया है। भिन्न-भिन्न आयु वर्ग के बच्चे विभिन्न प्रकार के खेल खेलते हैं। यह विभिन्न प्रकार के खेल बच्चों के संपूर्ण विकास में सहायक होते हैं। खेल से बच्चे के शारीरिक विकास, संज्ञानात्मक विकास, संवेगात्मक विकास, सामाजिक विकास एवं नैतिक विकास को बढ़ावा मिलता है।
पियाजे के अनुसार - खेल बच्चों की मानसिक क्षमताओं के विकास में भी एक बड़ी भूमिका निभाते हैं।
वाईगोत्स्की ने कहा है कि - स्कूली स्थिति की तुलना में खेल के दौरान बच्चे की एकाग्रता, स्मृति आदि उच्चतर स्तर पर काम करती है। बच्चों के प्रत्येक क्षेत्र के विकास में खेल की अहम भूमिका होती है।
बच्चों के प्रत्येक क्षेत्र के विकास में खेल की आम भूमिका होती है ---
1. और सृजनात्मकता को बढ़ावा देता है
खेल में बच्चे कल्पना द्वारा अलग-अलग भूमिकाएं निभाते है। ऐसा करते हुए उनकी बुद्धि व व्यवहार उसी व्यक्ति के अनुसार होता है जिसकी वे भूमिका कर रहे होते हैं। नाटक करना खेल का एक अभिन्न हिस्सा है। इस प्रकार के खेल में बालक वास्तविकता से कार्य और बहुत कुछ सृजनात्मक करता है। जैसे- माचिस के डिब्बों की पंक्ति द्वारा रेलगाड़ी बनाना, टूटी प्लेट से अंतरिक्ष यान इत्यादि।
2. खेल शारीरिक एवं क्रियात्मक विकास को बढ़ावा देता है
शारीरिक और क्रियात्मक कौशलों का विकास अभ्यास करने पर निर्भर करता है। उदाहरण के लिए जब 4 महीने के शिशु के आगे खिलौना रख दिया जाता है तो बच्चा अपने पीठ से पेट पर पलटकर उस तक पहुंचने का प्रयास करता है। इससे उसकी मांसपेशियों का समन्वय बढ़ता है तथा शारीरिक एवं क्रियात्मक विकास को बढ़ावा मिलता है।
3. खेल भाषाई विकास में सहायक होता है
बच्चे खेल खेल में बोलना सीखते हैं। खेल खेलने के दौरान बच्चों का कोई नई शब्दों से परिचय होता है। खेल के द्वारा उन्हें भाषा सुनने तथा बोलने का अधिकाधिक अवसर मिलते हैं जिससे उनमें जाने-अनजाने में भाषाई विकास हो जाता है।
4. खेल द्वारा बच्चे सामाजिक होना सीखते हैं
वास्तव में खेल का शारीरिक , मानसिक , संवेगात्मक एवं सामाजिक महत्व यह सिद्ध करता है कि खेल के द्वारा बालक के व्यक्तित्व का अच्छा विकास होता है। नैतिक दृष्टि से खेल कार्यक्रमों से बालक में आत्म - नियन्त्रण , ईमानदारी , सच्चाई , निष्पक्षता , सहयोग तथा सहनशीलता आदि गुण उत्पन्न होते हैं।
5. खेल भावनात्मक विकास में सहायक होता है
खेल की क्रिया बच्चों को हर्ष, उल्लास, क्रोध,भय और दुख व्यक्त करने का अवसर प्रदान करती है। खेल में कुछ भी मनचाहा करने की छूट होती है। खेल उन भावनाओं और संवेगो को व्यक्त करने का मौका देता है जो अन्य स्थितियों में अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता है।
बच्चों के खेल: विविध प्रकार एवं संदर्भ :-
बच्चों की खेल क्रियाओं को कई प्रकार से वर्गीकृत किया जा सकता है उस वर्गीकरण खेल के आस्थान के आधार पर किया जा सकता है कुछ खेल की विषय वस्तु और अन्य खेल के क्रियाओं पर।
खेल के कुछ प्रकार निम्न है -
1. मुक्त खेल तथा संरचनात्मक खेल :-
इस प्रकार के मुख्य लक्ष्यों एवं उदेश्य को ध्यान में रखकर खेल का आयोजन किया जाता है। इसमें बच्चे मुख्य खिलाड़ी के अनुदेशों का पालन करते है। इस आधार पर खेल को मुक्त और संरचनात्मक खेलो मे वर्गीकृत किया गया है। उदाहरणत: जब बालक के बिना मिट्टी के साथ किसी व्यास के बिना हस्तक्षेप का खेल रहा हो तो इसे मुक्त खेल कहते है। दूसरी ओर आकृति की संरचना समझने के लिए जव बालक किसी व्यस्क के निर्देशों का पालन करता है तो इसे संरचनात्मक खेल कहते है।
2. बाहरी तथा भीतरी खेल खुल:-
नाम से ही आसपास चेक खुले मैदान में खेला जाने वाला खेल बाहरी खेलता था घर में खेला जाने वाला खेल भी तरीके खेल कहलाता है। बाहर खेले जाने वाले खेलों में क्रियाओं के अवसर मिलते हैं क्योंकि बाहर स्थान अधिक व बाधाएं कम होती है। घर के अंदर खेले जाने वाले खेलों में स्थान सीमित होती है और गतिविधि की स्वतंत्रता अपेक्षाकृत कम होती है।
3.व्यक्तित खेल और सामुहिक खेल
जब बालक खेल अकेले खेलता है तो व्यक्ति खेल है और जब वह दो बच्चों के साथ खेलता है तो सामूहिक खेल कहलाता है। समूह में खेलने के लिए आवश्यक है कि बच्चा दूसरों के दृष्टिकोण को ध्यान में रखे तथा खेल के नियमों का पालन करें। जहां समूह में खेलने से सामाजिक कौशल बढ़ते हैं वही व्यक्तिगत खेल बच्चों को उन वस्तुओं से खेलने का समय देता है जो उन्हें सबसे रुचिकर लगती है।
4. ओजस्वी खेल एवं शांत खेल:-
वैसे खेल जिसमें अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है। ऐसे खेल क्रियाएँ ओजस्वी या सक्रिय खेल कहलाती हैं। वे खेल जिसमें अधिक शारीरिक क्रिया की आवश्यकता नहीं होती है जैसे जमीन पर चौक से लिखना, चित्र बनाना, मिट्टी से खेलना आदि शांत खेल काहलाती है। इसमें अधिक ऊर्जा व्यय नहीं होती है।
5. संवेदी क्रियात्मक और प्रतीकात्मक खेल-
शैशवावस्था में बच्चों का खेल है वस्तुओं को छूना, सूंघना, चखना और परिवेश की छानबीन करना। इन क्रियाओं में इंद्रियां संलग्न होती है और मांसपेशियों के समन्वय की आवश्यकता होती है इसलिए उन्हें संवेदी क्रियात्मक खेल कहते हैं।
शैशवावस्था का अंत तक बच्चे नाटकीय खेल में भाग लेने लगते हैं। बच्चे वास्तविकता से हटकर वस्तु तथा अन्य लोगों की नकल करने लगते हैं। इस प्रकार खेल में वस्तुओं और अन्य लोगों की प्रतीकात्मक रूप में उपयोग करने की ज्ञानात्मक योग्यता की आवश्यकता होती है। ऐसे खेल प्रतीकात्मक खेल कहलाते हैं।
बच्चों के विविध खेल : सीखने सिखाने का माध्यम के रूप में :-
बच्चे का मानसिक विकास उसकी गतिविधि की प्रक्रिया में बनता है। जीवन के दूसरे और तीसरे वर्ष में बच्चों की मुख्य गतिविधियाँ वस्तुओं के साथ खेलना और क्रिया करना है। बच्चे की यह गतिविधि कक्षाओं से इस मायने में भिन्न होती है कि यह स्वयं बच्चे की पहल पर उत्पन्न होती है।
खेल बच्चे के जीवन में एक बड़ा स्थान रखता है: हर समय नींद, भोजन, कक्षाएं, बच्चा खेलता नहीं है। यह उसकी स्वाभाविक अवस्था है। खेल उसे सकारात्मक भावनाओं के साथ बहुत आनंद देता है: वह आश्चर्यचकित होता है, नई जानकारी प्राप्त करने, वांछित परिणाम प्राप्त करने, वयस्कों और साथियों के साथ संवाद करने पर प्रसन्न होता है। खेल बच्चों को उनके आसपास की दुनिया के ज्ञान का तरीका है।
इकाई -5 : बच्चे और व्यक्तित्व विकास
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