शिक्षक की भूमिका / शिक्षक के रूप में कैरियर का निर्माण role of teacher

  “शिक्षक राष्ट्र की संस्कृति के चतुर माली होते हैं। वे संस्कारों की जड़ों में खाद देते हैं और अपने श्रम से | सींचकर उन्हें शक्ति में परिवर्तित करते हैं। राष्ट्र के वास्तविक निर्माता उस देश के शिक्षक होते हैं।”


–महर्षि अरविन्द


रूपरेखा:


शिक्षक की भूमिका और दायित्व,

राष्ट्र–निर्माण में शिक्षक की भूमिका–

(क) बालक की अन्तःशक्तियों का विकास करना,

(ख) व्यक्तित्व का विकास करना,

(ग) सामाजिकता की भावना जाग्रत करना,

(घ) मूलप्रवृत्तियों का नियन्त्रण,

(ङ) भावी–जीवन के लिए तैयार करना,

(च) चरित्र–निर्माण तथा नैतिक विकास करना,

(छ) आदर्श नागरिक के गुणों को विकसित करना,

(ज) राष्ट्रीय भावना का संचार करना,

(झ) भारतीय संस्कृति और राष्ट्र–गौरव से परिचित कराना,

(ब) उचित दिशा–निर्देश देना,

उद्देश्यपूर्ण शिक्षा द्वारा सुन्दर–सभ्य समाज का निर्माण,

उपसंहार।

शिक्षक की भूमिका और दायित्व:

शिक्षा का प्रमुख आधार शिक्षक ही होता है। शिक्षक न केवल विद्यार्थी के व्यक्तित्व का निर्माता, बल्कि राष्ट्र का निर्माता भी होता है। किसी राष्ट्र का मूर्तरूप उसके नागरिकों में ही निहित होता है। किसी राष्ट्र के विकास में उसके भावी नागरिकों को गढ़नेवाले शिक्षकों की भूमिका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होती है। अनादिकाल से शिक्षक की महत्ता का गुणगान उसके द्वारा प्रदत्त ज्ञान के कारण ही होता आया है।


ऐसे ज्ञानी गुरुओं के बल पर ही हमारे राष्ट्र को जगद्गुरु बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। आज भी शिक्षक उसी निष्ठा से विद्यार्थियों के भविष्य निर्माण करके देश के भविष्य को सँवार सकते हैं। शिक्षक की भूमिका केवल छात्रों को पढ़ाने तक ही सीमित नहीं है। छात्रों को पढ़ाई के अलावा उन्हें सामाजिक जीवन से सम्बन्धित दायित्वों का बोध कराना तथा उन्हें समाज के निर्माण के योग्य बनाना भी शिक्षक का ही दायित्व है।


भविष्य में ऐसे ही छात्र समाज के विकास का आधार बनते हैं। शिक्षक की भूमिका के विषय में ग० वि० अकोलकर का कथन है– “शिक्षा व्यवस्था में सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण घटक ‘शिक्षक’ है। शिक्षा से समाज ने जिन इच्छा, आकांक्षा और उद्देश्यों की पूर्ति की कामना की है, वह शिक्षक पर निर्भर करती है।” शिक्षकों का दायित्व यही है कि वे समाज और राष्ट्र की इच्छाओं–आकांक्षाओं की पूर्ति करें।


डॉ० ईश्वरदयाल गुप्त के अनुसार–“शिक्षा–प्रणाली कोई भी या कैसी भी हो, उसकी प्रभावशीलता और सफलता उस प्रणाली के शिक्षकों के कार्य पर निर्भर करती है। क्योंकि भावी पीढ़ी को शिक्षित करना समाज की आकांक्षाओं का प्रतिफलन करना है।”


राष्ट्र–निर्माण में शिक्षक की भूमिका–विद्यार्थियों के मानसिक विकास में शिक्षक की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। एक निपुण शिक्षक अपनी शिक्षण–शैली से विद्यार्थियों में राष्ट्रीयता की भावना का विकास कर सकता है। राष्ट्रीयता का भाव जहाँ एक ओर विद्यार्थियों को राष्ट्रभक्त और आदर्श नागरिक बनाता है, वहीं दूसरी ओर विद्यार्थियों में राष्ट्रीय एकता का विकास भी करता है। कोठारी आयोग के अनुसारः–


“भारत के भविष्य का निर्माण कक्षाओं में हो रहा है।” यह तथ्य परोक्षरूप से शिक्षक की भूमिका को भी निश्चित कर रहा है। राष्ट्र के विकास और निर्माण में e की भूमिका को इन प्रमुख बिन्दुओं के रूप में समझा जा सकता है


(क) बालक की अन्तःशक्तियों का विकास करना–प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री फ्रॉबेल के अनुसार “शिक्षा एक ऐसी प्रक्रिया है, जो बालक के आन्तरिक गुणों और शक्तियों को प्रकाशित करती है।” एक कुशल शिक्षक ही बालक के आन्तरिक गुणों को पहचानकर उनको विकसित कर सकता है। बिना शिक्षक के यह कार्य सम्भव नहीं है।


(ख) व्यक्तित्व का विकास करना–वुडवर्थ के अनुसार–“व्यक्तित्व व्यक्ति के सम्पूर्ण व्यवहार की व्यापक विशेषता का नाम है।” आधुनिक युग में बालकों की केवल अन्तःशक्तियों का विकास होना ही पर्याप्त नहीं है, उनके बाह्य व्यक्तित्व का विकास भी बहुत आवश्यक है। शिक्षक बालकों के अन्तः–बाह्य व्यक्तित्व के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करता है।


(ग) सामाजिकता की भावना जाग्रत करना–मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और उसे समाज के अनुकूल बनाने का दायित्व शिक्षक का है। शिक्षक ही व्यक्ति को समाज के आदर्शों, मूल्यों और मानवताओं से परिचित कराता है। समाज के प्रति व्यक्ति के क्या कर्त्तव्य और अधिकार हैं और इनका सदुपयोग कैसे किया जाए, इन सभी बातों की जानकारी शिक्षक द्वारा ही प्राप्त होती है।


(घ) मूल–प्रवृत्तियों का नियन्त्रण–बालकों में कुछ मूल प्रवृत्तियाँ जन्मगत होती हैं। एक शिक्षक उन मूल प्रवृत्तियों को शुद्ध करता है, उनका मार्ग निर्देशन करता है, तथा उन्हें नियन्त्रित करने का कार्य भी करता है। इससे बालक के व्यक्तित्व का विकास होता है। शिक्षक का कार्य है कि वह बालक की मूल प्रवृत्तियों में सुधार करके उसे समाज तथा राष्ट्र की सेवा के लिए प्रेरित करे।


(ङ) भावी जीवन के लिए तैयार करना–शिक्षक छात्रों को भिन्न–भिन्न विषयों और व्यवसायों की शिक्षा प्रदान करता है। वह अपने विद्यार्थी को इस योग्य बनाता है, जो शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् परिवार, समाज तथा देश के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वहन भली–भाँति कर सके। देश का युवा आत्मनिर्भर होगा तो राष्ट्र की उन्नति और प्रगति में सदैव सहायक होगा।


(च) चरित्र–निर्माण तथा नैतिक विकास करना–शिक्षक की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है बालकों का चरित्र–निर्माण और उनका नैतिक विकास करना। अच्छी शिक्षा द्वारा ही बालक सत्यं, शिवं, सुन्दरं को साक्षात्कार करता है और उसे अपने आचरण में लाने का प्रयास करता है। गांधी जी का भी कथन है– “यदि शिक्षा को अपने नाम को सार्थक बनाना है, तो उसका प्रमुख कार्य नैतिक शिक्षा प्रदान करना होना चाहिए।”


(छ) आदर्श नागरिक के गुणों को विकसित करना–शिक्षक का परम कर्त्तव्य है कि वह अपनी शिक्षा के द्वारा छात्रों में आदर्श नागरिक के गुणों को विकसित करे, जिससे छात्र अपने कर्तव्यों और अधिकारों को भली प्रकार समझ सके और जीवन में उनका समुचित उपयोग कर सके। आदर्श नागरिक ही आदर्श राष्ट्र के निर्माण में मुख्य भूमिका निभाते हैं।


(ज) राष्ट्रीय भावना का संचार करना–एक आदर्श शिक्षक ही अपनी शिक्षा द्वारा छात्रों में राष्ट्रीय एकता और देशभक्ति का संचार करता है। किसी राष्ट्र का स्वतन्त्र अस्तित्व उसके आदर्श नागरिकों पर ही निर्भर करता है। उनके सहयोग से ही राष्ट्र उन्नत और सशक्त बनता है। प्रत्येक अच्छा नागरिक राष्ट्र–निर्माण में सहायक होता है और एक शिक्षक अपने पुरुषार्थ से अबोध बालकों को अच्छा नागरिक बनाकर अपने राष्ट्र–निर्माण के दायित्वों का निर्वाह करना है।


(झ) भारतीय संस्कृति और राष्ट्र–गौरव से परिचित कराना–एक अच्छा शिक्षक छात्रों को अपनी संस्कृति और राष्ट्र–गौरव से परिचित कराता है। शिक्षक अपने मन, वचन और व्यवहार से एक आदर्श प्रस्तुत करके समस्त छात्रों में राष्ट्र भक्ति उत्पन्न करता है। ऐसे शिक्षकों से बालकों को नवीन दिशा मिलती है और वे राष्ट्र–निर्माण में सहयोग प्रदान करते हैं।


(ज) उचित दिशा–निर्देश देना–जीवन में प्रगति मार्ग पर आगे बढ़ने के लिए उचित दिशा–निर्देश की आवश्यकता पड़ती है। यह निर्देशन कई प्रकार का होता है; जैसे–व्यक्तिगत निर्देशन, शैक्षिक निर्देशन तथा व्यावसायिक निर्देशन। व्यक्तिगत निर्देशन द्वारा व्यक्ति की व्यक्तिगत समस्याओं को सुलझाने का प्रयत्न किया जाता व्यावसायिक निर्देशन द्वारा व्यक्ति की रुचि, योग्यता और क्षमता की जाँचकर उसी के अनुरूप उसे व्यवसाय चुनने का परामर्श दिया जाता है। एक शिक्षक अपने छात्रों को इन सभी विषयों में उचित दिशा–निर्देश देकर देश का सफल नागरिक बनने में उनकी सहायता करता है।

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