प्रश्न पत्र - ज्ञान एवं पाठ्यचर्या ( Knowledge and Curriculum ) प्रश्न - पत्र कोड : C - 8
1 . ज्ञान प्राप्ति के साधन संबन्धी विभिन्न दार्शनिक विचार का वर्णन करें ।
उत्तर -
विभिन्न दार्शनिकों द्वारा ज्ञान प्राप्ति के साधनों का विभिन्न प्रकार से विवेचन किया गया है चार्वाक केवल प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानता है । बौद्ध दर्शन में प्रत्यक्ष और अनुमान दो प्रमाण माने गए हैं , जबकि सांख्य प्रत्यक्ष अनुमान और शब्द इन तीन प्रमाणों को मानता है । शि न्याय दर्शन प्रत्यक्ष , अनुमान , उपमान तथा शब्द चार प्रमाण मानता है । मीमांसक छ : प्रमाण मानते हैं अथार्त अर्थापत्ती एवं अनु उपलब्धि अन्य दो प्रमाण और है , जबकि पौराणिक मानता के अनुसार प्रमाण 8 हैं- प्रत्यक्ष , अनुमान , उपमान , शब्द , अर्थापति , अनउपलब्धि संभव और ऐतिहा । आज हम यहां पर विभिन्न दर्शन एवं दार्शनिको के अनुसार ज्ञान प्राप्ति के साधन पर विचार प्रकट करेंगे।
दर्शनों के अनुसार ज्ञान प्राप्ति के साधन
1. आदर्शवाद एवं ज्ञान
आदर्शवादी विचारक प्लेटो के अनुसार विचारों की देवीय व्यवस्था और आत्मा परमात्मा के स्वरूप को जानना ही सच्चा ज्ञान है । ज्ञान को उन्होंने तीन रूपों में बांटा है- इंद्रिय जन्य , सम्मति जन्य और चिंतन जन्य । इंद्रिय जन्य ज्ञान को वे असत्य मानते थे क्योंकि इंद्रियों द्वारा हम जिन वस्तुओं एवं क्रियाओं का ज्ञान प्राप्त करते हैं वे सब परिवर्तनशील और एतदर्श असत्य है । सम्मति जन्य ज्ञान कौ वे आंशिक रूप से सत्य मानते थे क्योंकि वह भी अनुमान जन्य होता है और अनुमान सत्य भी हो सकता है , असत्य भी । उनके अनुसार चिंतन जन्य ज्ञान ही सत्य होता है । क्योंकि वह हमें विचारों के रूप में प्राप्त होता है और विचार अपने में अपरिवर्तनशील और एतदर्श सत्य होते हैं । इस सत्य ज्ञान की प्राप्ति के लिए प्लेटो ने नैतिक जीवन पर बल दिया है और नैतिक जीवन की प्राप्ति के लिए विवेक पर । इस प्रकार उनकी दृष्टि से ज्ञान का आधार विवेक होता है । ब्रकले सत्य ज्ञान की प्राप्ति का आधार आत्मा को मानते थे । कांट ने आत्मा के स्थान पर तर्कना बुद्धि को ज्ञान का आधार माना है । उनका तर्क है कि प्रत्यक्ष ज्ञान अव्यवस्थित होता है , तर्कना बुद्धि से ही वह व्यवस्थित होता है ।
2. प्रकृतिवाद एवं ज्ञान
प्रकृति वादी प्रकृति के ज्ञान को वास्तविक ज्ञान मानते हैं । प्रायः प्रकृति का अर्थ उस रचना से लिया जाता है जो स्वाभाविक रूप से विकसित होती है और जिसके निर्माण में मनुष्य का कोई हाथ नहीं होता , जैसे- पृथ्वी , समुद्र , पहाड़ , आकाश , सूर्य , चंद्रमा , तारे , बादल , वर्षा , वनस्पति और जीव जंतु , परंतु दार्शनिक दृष्टि से प्रकृति संसार का वह मूल तत्व है जो पहले से था , आज भी है और भविष्य में भी रहेगा । इसमें वे क्रियाएं भी निहित है जो निश्चित नियमों के अनुसार होती है । जैसे- पहले होती थी वैसे ही आज भी होती है और वैसे ही भविष्य में होती रहेगी । उदाहरण के लिए जल , बर्फ और वास्प यह प्राकृतिक पदार्थ हैं इनकी रचना सम्मान तत्वों से हुई है । हम जानते हैं कि बर्फ से जल , जल से वाष्प , वाष्प से जल और जल से बर्फ , यह सब निश्चित नियमों के अनुसार बनते और बिगड़ते हैं । पदार्थों के मूल तत्व और उनके बनने बिगड़ने के नियमों को ही प्रकृतिवाद प्रकृति मानता है और इनके ज्ञान को वास्तविक ज्ञान मानता है । इन सब का ज्ञान भौतिक विज्ञान के द्वारा होता है और भौतिक विज्ञान का ज्ञान कर्मेंद्रियों तथा ज्ञानेंद्रियों द्वारा होता है । प्रकृतिवादी इंद्रीयनुभूत ज्ञान को ही सच्चा ज्ञान मानते हैं । उनकी दृष्टि से सच्चे ज्ञान की प्राप्ति के लिए मनुष्य को स्वयं निरीक्षण परीक्षण करना चाहिए । प्रकृति वादियों का विश्वास है कि ज्ञान प्राप्ति की क्रिया में मन और मस्तिष्क संयोजक का कार्य करते हैं ।
3. मानवता एवं ज्ञान
जैसा कि इसके नाम से ही स्पष्ट है कि मानवता का केंद्र बिंदु मानव है । मानव वादी पदार्थजन्य संसार की सत्ता में विश्वास करते हैं तथा इस सृष्टि का सर्वोच्च फल मानव को माना है । जगत की समस्त वस्तुओं के स्वरूप को जानने के लिए वास्तविक ज्ञान की आवश्यकता होती है । वास्तविक ज्ञान मनुष्य की इंद्रियों के द्वारा ही होता है मानववादी इंद्रियदत्त ज्ञान को महत्व देते हैं । इस इंद्रिय दत्त ज्ञान के लिए ये ज्ञानेंद्रियां तथा कर्मेंद्रीय दोनों को महत्व देते हैं । इनके द्वारा प्राप्त प्रत्यक्ष ज्ञान को यह तर्क की कसौटी पर कसकर स्वीकार करने के पक्ष में है अर्थात यह ज्ञान के स्रोत के रूप में तर्क को विशेष महत्व देते हैं ।
4. अस्तित्ववाद एवं ज्ञान जो व्यक्ति जिस प्रकार के सत्य को स्वीकार करता है उसके लिए उसी प्रकार के ज्ञान के स्रोत होंगे , क्योंकि अस्तित्ववाद व्यक्तिवाद को महत्व देता है तो इसमें ज्ञान का स्वरूप भी व्यक्तिनिष्ट होना स्वाभाविक है । व्यक्ति निष्ट ज्ञान का अभिप्राय है कि व्यक्ति अपने जीवन काल में जो अनुभव करता है यह उस व्यक्ति का व्यक्तिगत ज्ञान होता है , परंतु यह आवश्यक नहीं है कि जो ज्ञान उस व्यक्ति को हुआ है वह दूसरे व्यक्तियों के लिए भी उपयोगी व सार्थक हो । ज्ञान का कोई ठोस आधार न होने के कारण अस्तित्ववाद अनुभवजन्य ज्ञान को ही महत्व देता है जिसे तर्क की कसौटी पर परखा गया हो ।
5. यथार्थवाद एवं ज्ञान
• यथार्थवादी मनुष्य को एक भौतिक प्राणी मानते हैं पर ये उसकी बुद्धि को भी शरीर का एक अंग मानते हैं , उसे स्नायु जनित मानते हैं । इनके अनुसार वैज्ञानिक जिसे वैज्ञानिक भाषा में मस्तिष्क कहते हैं उसे ही सामान्य भाषा में बुद्धि कहा जाता है । ज्ञानेंद्रियों को यह ज्ञान प्राप्ति का साधन मानते हैं इनका तर्क है कि वस्तु का ज्ञान हमें ज्ञानेंद्रियों द्वारा होता है इसलिए वही सच्चा ज्ञान है | यथार्थवादी शब्दों के माध्यम से प्राप्त ज्ञान को भी इंद्रिय प्रत्यक्ष करने के बाद स्वीकार करने पर बल देते हैं ।
6. प्रयोजनवाद एवं ज्ञान
प्रयोजन वादियों के अनुसार अनुभवों की पुनर्रचना ही ज्ञान है । यह ज्ञान को साध्य नहीं अपितु मनुष्य जीवन को सुखमय बनाने का साधन मानते हैं । इनके अनुसार ज्ञान की प्राप्ति सामाजिक क्रियाओं में भाग लेने से स्वयं होती है । कर्मेंद्रियों और ज्ञानेंद्रियों को यह ज्ञान का आधार , मस्तिष्क तथा बुद्धि को ज्ञान का नियंत्रक , और सामाजिक क्रियाओं को ज्ञान प्राप्त करने का माध्यम मानते हैं ।
7. सांख्य दर्शन और ज्ञान सांख्य दर्शन में ज्ञान को दो भागों में बांटा है - एक पदार्थ ज्ञान , इसे वह यथार्थ ज्ञान कहता है और दूसरा प्रकृति - पुरुष के भेद का ज्ञान , इसे वह विवेक ज्ञान कहता है । संख्या के अनुसार हमें पदार्थों का ज्ञान इंद्रियों द्वारा होता है इंद्रियों से यह ज्ञान मन , मन से अहंकार , अहंकार से बुद्धि और बुद्धि से पुरुष को प्राप्त होता है । दूसरी ओर सांख्य यह मानता है कि पुरुष बुद्धि को प्रकाशित करता है , बुद्धि अहंकार को जागृत करती है , अहंकार मन को क्रियाशील करता है और मन इंद्रियों को क्रियाशील करता है , उनके और वस्तु के बीच संसरग भी स्थापित करता है । सांख्य का स्पष्टीकरण है कि इंद्रियां , मन , अहंकार और बुद्धि ये सब प्रकृति से निर्मित है अतः यह जड़ है और जड़ में ज्ञान का उदय नहीं हो सकता ।
8. योग दर्शन एवं ज्ञान
योग दर्शन की ज्ञान मीमांसा बी सांख्य आधारित है । योग्य भी वस्तु जगत के ज्ञान के लिए बाह्य उपकरणों को आवश्यक मानता है । अंतर केवल इतना है कि वह आंतरिक उपकरणों मन , बुद्धि और अहंकार के समूचे को चित्त की सज्ञा देता है । योग दर्शन के अनुसार मनुष्य को पदार्थ का ज्ञान इंद्रियों और चित्र के माध्यम से अंत में आत्मा को प्राप्त होता है । परंतु उसको दृष्टि से योगी को यह ज्ञान सीधे प्राप्त हो जाता है । उसका स्पष्टीकरण है कि योग क्रिया के अंतिम चरण समाधि की स्थिति में आत्मा का परमात्मा से योग हो जाता है , और चुमकी परमात्मा सर्वज्ञ है इसलिए उस स्थिति में मनुष्य को कुछ जानना शेष नहीं रह जाता , वह सर्वज्ञ हो जाता है ।
9. न्याय दर्शन एवं ज्ञान
न्याय दर्शन में आत्मा के ज्ञान को विशेष महत्व दिया है । इसी संदर्भ में न्याय दर्शन के 2 विचार हैं- प्रथम नव्य न्याय दर्शन के अनुसार मन के साथ आत्मा का संयोग होने पर ही ' मैं हूं ' का एक प्रत्यक्ष बोध होता है । यह मानस का प्रत्यक्ष से आत्मा का साक्षात ज्ञान होता है । आत्मा को ज्ञाता और भोगता के रूप में माना गया है । आत्मा का ज्ञान किसी न किसी गुण के द्वारा होता है अपनी आत्मा का प्रत्यक्ष स्वयं ज्ञान किया जा सकता है । अन्य व्यक्तियों की आत्मा का ज्ञान उनके कार्यों से अनुमान लगाकर कर सकते हैं ।
10. अद्वैत वेदांत दर्शन एवं ज्ञान
शंकर ने ज्ञान को दो भागों में बाटा है अपरा और परा । इस वस्तु जगत एवं मनुष्य जीवन के विभिन्न पक्षों के ज्ञान को उन्होंने अपरा ज्ञान कहा है । उनकी दृष्टि से इस ज्ञान की केवल व्यावहारिक उपयोगिता है , इससे मनुष्य अपने जीवन के अंतिम उद्देश्य मुक्ति की प्राप्ति नहीं कर सकता । वेद , ब्राह्मण , आरण्यक , उपनिषद एवं गीता की तत्व मीमांसा की वे परा ज्ञान कहते थे । उनकी दृष्टि से यही सच्चा ज्ञान होता था इस ज्ञान के द्वारा ही मनुष्य मुक्ति प्राप्त कर सकता है । इन दोनों प्रकार के ज्ञान को प्राप्त करने के लिए शंकर ने श्रवण मनन तथा निधिआसन की विधि का समर्थन किया ।
11. चार्वाक दर्शन एवं ज्ञान
ज्ञान प्राप्ति के लिए चार्वाक दर्शन ' प्रत्यक्ष ' को ही एकमात्र प्रमाण मानता है । अनुमान , शब्दादी परमाणु को यह विश्वसनीय नहीं मानता । प्रत्यक्ष प्रमाण के अनुसार , केवल इंद्रियों के द्वारा ही विश्वास योग्य ज्ञान प्राप्त हो सकता है । इंद्रिय एवं वस्तु के संसर्ग से उत्पन्न ज्ञान ही प्रत्यक्ष है । समस्त प्रमेय अर्थात दृश्यमान जगत का ज्ञान प्रत्यक्ष के द्वारा होता है । अतः चार्वाक की दृष्टि में इंद्रिय ज्ञान ही एकमात्र यथार्थ ज्ञान है । वह अन्य प्रमाणों , विशेषकर अनुमान एवं शब्द का खंडन करता है ।
12. वैशेषिक दर्शन एवं ज्ञान
वैशेषिक दर्शन में 7 पदार्थों को महत्व दिया गया है जिनमें से छह भाव तथा एक अभाव पदार्थ है । वैशेषिक के साथ पदार्थ इस प्रकार हैं- द्रव्य , धर्म , सामान्य , विशेष , समवाय तथा अभाव ।
13. बौद्ध दर्शन एवं ज्ञान
बौद्ध दर्शन में ज्ञान प्राप्ति के केवल दो साधन प्रत्यक्ष और अनुमान को मान्यता दी गई है । बौद्ध दर्शन में • शब्द को ज्ञान प्राप्ति का साधन नहीं माना गया है । अथारत शब्द को प्रमाण नहीं माना गया है । प्रायः आप पुरुष के वचन को शब्द प्रमाण कहा जाता है यथार्थ वक्ता को आप्त कहते हैं । अर्थात जो वस्तु जैसी है उसे उसी रूप में कहने वाला आप्त है । विश्वसनीय आदमी के वचनों को प्रमाण माना जाता है । बुद्ध ने ऐसे मत को स्वीकार नहीं किया । उनका कहना था कि किसी बात को इसलिए प्रमाण मत माने कि उसे किसी महान पुरुष ने कहा है अथवा जो कुछ स्वयं बुद्ध ने कहा है वह भी प्रमाण नहीं है ।
14. जैन दर्शन एवं ज्ञान जैन
दर्शन का प्रमाण विचार उनके तत्व विचार से संबंधित है , क्योंकि जैन दर्शन के अनुसार वास्तव में ज्ञान आत्मा के स्वरूप का ही एक पक्ष है । जैन मतानुसार चैतन्य जीव का स्वरूप है । जीव सामान्यत अनंत ज्ञानमय है । साइस साइंसR
2 . शिक्षा में रूसो के प्रकृतिवाद की विवेचना करें । उसके शिक्षा की वर्तमान प्रवृत्ति को किस प्रकार प्रमाणित किया ।
उत्तर -
रूसो का शिक्षा दर्शन(ruso ka shiksha darshan) rousseau on education,
रूसो का शिक्षा दर्शन इस पर आधारित हैं "प्रत्येक वस्तु उस समय तक अच्छी होती है जब तक वह कर्ता के हाथों से निकली है पर मनुष्य के हाथों में आते ही वह बुरी हो जाती है।"
रूसो के शिक्षा दर्शन का यही मूल मंत्र है कि उन्होंने तत्कालीन कृत्रिम की आलोचना की हैं और कहा कि झूठ उदासीनता तथा बेईमानी से मानव जीवन का पतन कर डाला है। रूसो के अनुसार प्रकृति, मनुष्य और पदार्थ ये तीन शिक्षा के साधन है।
वह बच्चे की प्रवृत्तियों तथा योग्यताओं का बहुत आदर करते थे क्योंकि उनका मानना था कि बच्चे के ये गुण प्रौढ़ों के गुणों से भिन्न होते हैं शिक्षक को इनकी अवहेलना नहीं करनी चाहिए। बच्चे को छोटा प्रौढ़ नहीं समझना चाहिए क्योंकि जो बात प्रौढ़ के लिए लाभदायक हो सकती हैं वह बच्चों के लिए हानिकारक हो सकती हैं। बच्चे के मस्तिष्क में ऐसा असंबंध ज्ञान नहीं देना चाहिए जिससे उसे कोई रूचि न हो। रूसो की शिक्षा निषेधात्मक है उनके अनुसार बालक को 12 वर्ष की अवस्था तक किसी प्रकार की औपचारिक शिक्षा नहीं देना चाहता था। बल्कि उन्हें प्रकृति के साथ छोड़ देना चाहिेए ताकि बालक का सम विकास के लिए उचित अवसर मिल सके। उनका मानना है कि शिक्षा हमें प्रकृति मनुष्य तथा वस्तुओं से चाहिए। बच्चे को छोटा प्रौढ़ नहीं समझना चाहिए क्योंकि जो बात प्रौढ़ के लिए लाभदायक हो सकती हैं वह बच्चों के लिए हानिकारक हो सकती हैं। बच्चे के मस्तिष्क में ऐसा असंबंध ज्ञान नहीं देना चाहिए जिससे उसे कोई रूचि न हो। रूसो की शिक्षा निषेधात्मक है उनके अनुसार बालक को 12 वर्ष की अवस्था तक किसी प्रकार की औपचारिक शिक्षा नहीं देना चाहता था। बल्कि उन्हें प्रकृति के साथ छोड़ देना चाहिेए ताकि बालक का सम विकास के लिए उचित अवसर मिल सके। उनका मानना है कि शिक्षा हमें प्रकृति मनुष्य तथा वस्तुओं से मिलती है इन तीनों की समानता ही अच्छी शिक्षा की परिचायक है। परंतु मनुष्य तथा प्रकृति में सदैव ही नहीं बनती इसलिए मनुष्य को मनुष्य अथवा नागरिक बनने के लिए किसी एक का चुनाव करना होगा रूसो का चुनाव मनुष्य की ओर है और इसलिए वह प्राकृतिक शिक्षा को सामाजिक शिक्षा से अच्छी मानता है। रूसो ने शिक्षा को चार भागों में बांटा है शैशव, बाल्यावस्था किशोरावस्था तथा प्रौढ़ता की ओर। रूसोरूसो शिक्षा का प्रारंभ जन्म से ही मानते हैं जन्म से ही बचा जो कुछ प्रकृति से सीखता है वही उनका शिक्षा है। रूसो की शिक्षा का मूल उद्देश्य भौतिक है इसलिए वह बालक को व्यक्तियों की वजाय वस्तुओं पर निर्भर रखना चाहता है।
रूसो के शिक्षा का उद्देश्य
"जीवन का अर्थ केवल सांस भर लेना ही नहीं है। जीवन कर्म है अपने अंगों ज्ञानेंद्रियों क्षमताओं तथा अपने अंगों का प्रयोग करना ही जीवन है जो हमें जीवित रहने की अनुभूति कराती है। जीवन का अधिक अनुभव रखने वाला व्यक्ति वह नहीं है जो अधिक दिन तक जीवित रहता है। परंतु वह व्यक्ति है जिसने पूर्णतः से जीवन का अनुभव किया है।"
अतः शिक्षा का उद्देश्य भी रूसों ने पूर्णतया से जीवन व्यतीत करने को मानते हैं।
रूसो उपदेश वाद के विरोधी थे स्वाध्याय किस सिद्धांत को मानते थे। वे लंबी-लंबी व्याख्याएं देना पसंद नहीं करते थे क्योंकि छोटे बालक न तो इसकी ओर ध्यान देते हैं और न ही उन्हें समझ पाते हैं। रूसो का मानना है कि जो बातें बालक स्वयं अपनी चेष्टा से सीखता है वह उसके जीवन में गहरा प्रभाव छोड़ जाती हैं।
रूसो का शिक्षा संबंधी सिद्धांत rousseau education theory, jean-jacques rousseau education theory
रूसो के जीवन के विषय में दिए गए विवरण में उनके शिक्षण संबंधी विषयों का सिद्धांत इस प्रकार से हैं१. प्रकृतिवाद:
रूसो प्रकृतिवादी थे। उन्होंने प्राकृतिक शिक्षा को ही स्वाभाविक मानते हुए विद्यालय में नियमित और कृत्रिम शिक्षा प्रणाली की आलोचना की। रूसो के अनुसार बालक को शिक्षा के लिए सामाजिक नहीं बल्कि प्राकृतिक परिवेश की आवश्यकता होती है। रूसो ने प्रकृति की ओर लौटो तथा प्रकृति का अनुसरण करने का नारा दिया है उनका मानना था कि प्रकृति बालक की शिक्षा का सबसे बड़ा स्रोत है।२. प्राकृतिक मानव का विकास:
प्राकृतिक शिक्षा से रूसो प्राकृतिक मानव का विकास करना चाहते थे। मनुष्य को जो शिक्षा समाज और समूह के प्रभाव से मिलती हैं वह मानवीय शिक्षा और जो शिक्षा वह अपने चारों ओर के परिवेश से प्राप्त करता है वह प्राकृतिक शिक्षा है और यही सच्ची शिक्षा हैं।३. पदार्थ का महत्व:
रूसो ने शिक्षा के 3 स्रोत माने हैंi.प्रकृति. ii.मानव और iii.पदार्थ बालक की शिक्षा में इन तीनों का ही समन्वय आवश्यक है। उनके अनुसार शिक्षा में मनुष्य पदार्थ और प्रकृति का समन्वय होना चाहिए। यह तीनों ही बालक में स्वाभाविक प्रवृत्ति भावना और विचार के विकास के साधन हैं। ये तीनों ही बालक के शिक्षक हैं।
रूसो के द्वारा बताए गए शिक्षण विधि
१. स्वानुभव द्वारा सीखना:
२. करके सीखना:
३. अनुशासन:
४. विद्यालय:
3. श्री अरविन्द के शैक्षिक विचारों का वर्णन करें ।
अरविन्द घोष के शैक्षिक विचार
- शिक्षा का माध्यम मातृभाषा होना चाहिए।
- बच्चे को सभी मानसिक योग्यताओं तथा मनोविज्ञान के अनुरूप प्रदान की जानी चाहिए।
- शिक्षा का लक्ष्य अध्यात्म की प्राप्ति होनी चाहिए।
- शिक्षा के माध्यम से इन्द्रियों का प्रशिक्षण तथा अंत:करण का विकास होना चाहिए।
- शिक्षा का मूलभूत आधार ब्रह्मचर्य होना चाहिए।
- बच्चे को संपूर्ण मानव बनाने के लिए शिक्षा को उसके सभी आनुवंशिक शक्तियों को विकसित करना चाहिए।
पाठ्यचर्या तथा शिक्षण विधियाँ
पाठ्यचर्या में समाविष्ट विषय बच्चे की रुचि के अनुरूप होने चाहिए। उनके अनुसार पाठ्यचर्या को बच्चे के शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक विकास में सहायक होना चाहिए। उन्होंने सुझाया कि पाठ्यचर्या रूचिकर होनी चाहिए तथा इसे बच्चे को अध्ययन के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए।शिक्षक, विद्यालय तथा अनुशासन की अवधारणा
बालक शिक्षा की प्रक्रिया में केन्द्रीय स्थान ग्रहण करता है। प्रत्येक बालक में संभावित योग्यताएँ होती हैं जिन्हें शिक्षकों को पहचानने एवं विकसित करने की आवश्यकता होती है। शिक्षक को विद्यार्थियों पर अपने विचारों को नहीं थोपना चाहिए बल्कि उन्हें संपूर्ण मानव बनने के लिए सहायता एवं मार्ग प्रशस्त करना चाहिए। उनके अनुसार, शिक्षक एक सुविधा या सहायता प्रदाता तथा पथ प्रदर्शक होता है।विद्यालय वातावरण बच्चे के शारीरिक तथा आध्यात्मिक विकास में सहायक होना चाहिए। बच्चों के साथ धर्म, जाति, प्रदेश, रंग, पंथ आदि के आधार पर भेदभाव नहीं करना चाहिए। विद्यालय वातावरण सहयोग, प्रेम तथा सौहार्द से पूर्ण होना चाहिए। अरविन्द शारीरिक दण्ड का प्रबल विरोध किया तथा इसे अमानवीय बताया। वे बच्चों के स्वयं द्वारा नियंत्रण के प्रबल समर्थक थे यद्यपि बाह्य या अन्य स्रोतों से नियंत्रण के विरुद्ध थे।
4. शिक्षक को पाठ्यचर्या योजना और विकास के सम्बन्धित मुद्दों का अध्ययन क्यों करना चाहिए ।
5. पाठ्यपुस्तक से आपका क्या अभिप्राय है ? पाठ्यपुस्तक की आवश्यकता एवं महत्व पर प्रकाश डाले ।
A
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