परिचय
आधुनिक अर्थ में देशी भाषा से आशय देश में प्रचलित उन भाषाओं में से किसी एक से है जिनका उद्गम एवं विकास प्राकृत अथवा अपभ्रंश से हुआ हो अथवा जिनका उद्भव स्थानीय बोलियों के आधार पर प्रायः स्वतंत्र रूप से हुआ हो। भारतीय संविधान के अनुसार भारत में इस तरह की बीसों देशी भाषाओं को मान्यता प्रदान की गई है। इनमें से हिंदी, मराठी, गुजराती, बांग्ला, उडि़या आदि प्रथम (आर्यभाषाओं के) वर्ग में तथा तमिल, तेलुगु, कन्नड़ आदि द्वितीय (द्राविड़) वर्ग में आती हैं।
भारत विविध संस्कृति और भाषा का देश रहा है। साल 1961 की जनगणना के अनुसार भारत में 1652 भाषाएं बोली जाती हैं। हालिया रिपोर्ट के अनुसार भारत में फिलहाल 1365 मातृभाषाएँ हैं, जिनका क्षेत्रीय आधार अलग-अलग है।
भाषायी नृवविज्ञान
भाषायी मानवविज्ञान मानवशास्त्र की एक महत्वपूर्ण शाखा है। इसमें वैसी भाषाओं का अध्ययन किया जाता है जो अभी भी अलिखित हैं। ऐसी भाषा को समझने के लिए शब्दकोश व व्याकरण का प्रयोग नहीं किया जा सकता है। शोधकर्ता को भाषा का अध्ययन करके शब्दकोश व व्याकरण तैयार करना पड़ता है। इसमें भाषाओं की उत्पत्ति, उद्विकास व विभिन्न समकालीन भाषाओं के बीच अंतरों का अध्ययन किया जाता है। मानवविज्ञान की शाखा के रूप में भाषायी मानवविज्ञान अपने आप में पूर्ण एवं स्वायत्त है। संस्कृति का आधार भाषा है। भाषा का अध्ययन कर हम संस्कृति को समझ सकते हैं।
वर्तमान स्थिति
भारतीय संविधान निर्माताओं की आकांक्षा थी कि स्वतंत्रता के बाद भारत का शासन अपनी भाषाओं में चले ताकि आम जनता शासन से जुड़ी रहे और समाज में एक सामंजस्य स्थापित हो और सबकी प्रगति हो सके। इसमें कोई शक नहीं कि भारत प्रगति के पथ पर अग्रसर है, परंतु यह भी सच है कि इस प्रगति का लाभ देश की आम जनता तक पूरी तरह पहुंच नहीं पा रहा है। इसके कारणों की तरफ जब हम दृष्टि डालते हैं तो पाते हैं कि शासन को जनता तक उसकी भाषा में पहुंचाने में अभी तक कामयाबी नहीं मिली हैं, यह एक प्रमुख कारण है। जब तक इस काम में तेजी नहीं आती तब तक किसी भी क्षेत्र में देश की बड़ी से बड़ी उपलब्धि और प्रगति का कोई मूल्य नहीं रह जाता। अन्तर्राष्ट्रीय मानचित्र पर अंग्रेजी के प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता। किन्तु वैश्विक दौड़ में आज हिन्दी कहीं भी पीछे नहीं है। यह सिर्फ बोलचाल की भाषा ही नहीं, बल्कि सामान्य काम से लेकर इंटरनेट तक के क्षेत्र में इसका प्रयोग बखूबी हो रहा है। बावजूद इसके हिन्दी भाषा अभी भी भारत के हर क्षेत्र में विद्यमान नहीं है। इसके अलावा क्षेत्रीय भाषाओं की स्थिति भी अपेक्षानुरूप नहीं है।
उल्लेखनीय है कि भारत में 29 भाषाएं ऐसी हैं जिनको बोलने वालों की संख्या 1000000 (दस लाख) से ज्यादा है। भारत में 7 ऐसी भाषाएं बोली जाती हैं जिनको बोलने वालों की संख्या 1 लाख से ज्यादा है। भारत में 122 ऐसी भाषाएं हैं जिनको बोलने वालों की संख्या 10000 (दस हजार) से ज्यादा है।
2011 की जनगणना में भारतीयों भाषाओं के आंकड़ों के मुताबिक, 43.63 फीसदी लोगों की मातृभाषा हिंदी है। 2001 में 41.03 फीसदी लोगों की मातृभाषा हिन्दी थी। इस तरह 2001 से 2011 के बीच देश में हिन्दी बोलने वाले लोगें की संख्या ढाई फीसदी से ज्यादा बढ़ी है।
दूसरे नंबर पर बंगाली (बांग्ला) भाषा बरकरार है। वहीं, तेलुगू को पीछे छोड़कर मराठी तीसरे नंबर पर बोले जाने वाली भाषा हो गई है। 2011 की जनगणना के आंकड़े के अनुसार, गैर-अनुसूचित भाषाओं में लगभग 2.6 लाख लोगों ने अंग्रेजी को अपनी मातृभाषा बताया। इनमें से सबसे अधिक 1.06 लाख लोग महाराष्ट्र में हैं। तमिलनाडु और कर्नाटक अंग्रेजी बोलने के मामले में क्रमशः दूसरे और तीसरे नंबर पर हैं।
वहीं, देश में सूचीबद्ध 22 भाषाओं में संस्कृत सबसे कम बोली जाने वाली भाषा है। भारत की इस सबसे पुरानी भाषा को केवल 24,821 लोगों ने अपनी मातृभाषा बताया है। इसे बोलने वाले लोगों की संख्या बोडो, मणिपुरी, कोंकणी और डोगरी भाषा बोलने वाले लोगों से भी कम है।
राजस्थान में बोली जाने वाली भिली/भिलौड़ी भाषा 1.04 करोड़ की संख्या के साथ गैर-सूचीबद्ध भाषाओं में पहले नंबर पर है, जबकि दूसरे स्थान पर रहने वाली गोंडी भाषा बोलने वालों की संख्या 29 लाख है।
2001 की जनगणना के मुकाबले 2011 में भारत में बांग्ला को मातृभाषा बताने वाले लोगों की संख्या 8.11 से बढ़कर 8.3 फीसदी हो गई है। वहीं मराठी भाषा बोलने वालों की संख्या 2001 में 6.99 फीसदी से बढ़कर 2011 में 7.09 फीसदी हो गई है, जबकि इस दौरान तेलुगू भाषा बोलने वाले 7.19 फीसदी से घटकर 6.93 फीसदी रह गए हैं।
इस मामले में उर्दू सातवें नंबर पर पहुंच गई है, जबकि 2001 में यह छठी सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा थी। वहीं दूसरी ओर, देश में गुजराती बोलने वालों की संख्या बढ़ी है। इस मामले में इसने उर्दू को पीछे छोडते हुए छठा स्थान पा लिया है। 2011 की जनगणना के मुताबिक, देश में 4.74 फीसदी लोग गुजराती बोलते थे। 2011 की जनगणना के मुताबिक, जहां देश की 96.71 फीसदी आबादी ने 22 अनुसूचित भाषाओं में से एक को अपनी मातृभाषा के रूप में चुना है वही 3.29 फीसदी ने अन्य भाषाओं को अपनी मातृभाषा बताया है।
संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, विश्व में बोली जाने वाली कुल भाषाएं लगभग 6900 हैं। इनमें से 90 फीसद भाषाएं बोलने वालों की संख्या एक लाख से कम है। दुनिया की कुल आबादी में तकरीबन 60 फीसद लोग 30 प्रमुख भाषाएं बोलते हैं, जिनमें से दस सर्वाधिक बोली जानी वाली भाषाओं में जापानी, अंग्रेजी, रूसी, बांग्ला, पुर्तगाली, अरबी, पंजाबी, मंदारिन, हिंदी और स्पैनिश है। दुनिया में अगले 40 साल में चार हजार से अधिक भाषाओं के खत्म होने का खतरा मंडरा रहा है।
एथनोलॉग कहता है कि आज दुनिया में लगभग 7000 से अधिक भाषाएँ बोली जाती हैं। इनमें से लगभग एक तिहाई लुप्तप्राय हैं। दुनिया की आधी से अधिक आबादी केवल 23 भाषाएं बोलती है।यूनेस्को के अनुसार, पिछली सदी में लगभग 600 भाषाएं गायब हो गई हैं और वे हर दो सप्ताह में एक भाषा की दर से गायब होती रहती हैं। यदि वर्तमान रुझान जारी रहा तो इस सदी के अंत से पहले दुनिया की 90 प्रतिशत भाषाओं के गायब होने की संभावना है।
कुछ प्रमुख तथ्य
प्रशांत द्वीप के राष्ट्र पापुआ न्यू गिनी में दुनिया की सबसे अधिक स्वदेशी भाषाएँ (840) बोली जाती हैं, जबकि भारत 453 भाषाओं के साथ चौथे स्थान पर है। कई भाषाएँ अब लुप्तप्राय (Endangered) हैं और कई भाषाएँ जैसे- तिनिगुआन (कोलम्बियाई मूल) बोलने वाला केवल एक ही मूल वत्तफ़ा बचा है।
नृवंश-वविज्ञान (Ethnologue) जो भाषाओं की एक निर्देशिका है, में दुनिया भर की 7,111 ऐसी भाषाओं को सूचीबद्ध किया गया है जो अभी भी लोगों द्वारा बोली जाती हैं। चीनी, स्पेनिश, अंग्रेजी, हिंदी और अरबी दुनिया भर में सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषाएँ हैं। दुनिया भर में 40% से अधिक लोगों द्वारा इन भाषाओं को बोला जाता है।
अमेरिका में 335 भाषाएँ और ऑस्ट्रेलिया में 319 भाषाएँ बोली जाती हैं, ये व्यापक रूप से अंग्रेजी बोलने वाले देश हैं। एशिया एवं अफ्रीका में सबसे अधिक देशी भाषाएँ (कुल का लगभग 70%) बोली जाती हैं। सामान्यतः एक देश में सभी की मातृभाषा एक ही होती है लेकिन देश में स्थानीय लोगों द्वारा विभिन्न भाषाएँ बोली जाती हैं, इसका तात्पर्य यह है कि देश भर में अधिक भाषाओं का प्रसार किया जाए। नृवंश- विज्ञान (Ethnologue) के अनुसार, 3,741 भाषाएँ ऐसी हैं, जिसे बोलने वाले 1,000 से भी कम हैं। कुछ परिवारों में ही कई भाषाएँ बोली जाती हैं, हालाँकि इनका प्रतिशत बहुत ही कम है।
भाषा के विलुप्ति का कारण
किसी भी देश या समाज की मूलभाषा या स्थानीय भाषा के विलुप्त होने के कई कारण हैं जिसे निम्नलिखित बिन्दुओं के तहत देख सकते हैं-
पलायनः जब कोई जनसंख्या अपने मूल निवास स्थान को छोड़कर कहीं और पलायन करती है, चाहे वह प्राकृतिक (बाढ़, सूखा, अकाल, महामारी आदि) हो या फिर मानवीय (शहरीकरण, औद्योगिकीकरण आदि) तब उस मूल जनसंख्या की अपनी जो भाषा होती है वह काफी हद तक परिवर्तित हो जाती है क्योंकि वह आबादी जिस भी प्रदेश में जाती है वहाँ की भाषा को सीखने लगती है और उसे ही अपना लेती है। परिणामस्वरूप उस आबादी की मूल भाषा विलुप्त हो जाती है।
जनसंख्याः वैसे तो पूरे विश्व की जनसंख्या बढ़ रही है लेकिन कुछ समुदाय ऐसे हैं जिनकी जनसंख्या तीव्र गति से घट रही है, इनमें आदिवासी समुदाय प्रमुख हैं। भारत को ही कई आदिवासी समुदाय ऐसे हैं जिनकी आबादी कम हो रही है जैसे जारवा, सेंटेलिज आदि। इसी तरह की स्थिति विश्व स्तर पर भी है खासकर अफ्रीका और कैरेबियन क्षेत्रें में। इनकी आबादी कम होने से इनकी भाषा विलुप्त होती जा रही है क्योंकि उन भाषाओं को बोलने और समझने वाले ये जनजातीय लोग ही हैं।
आधुनिक शिक्षाः वर्तमान में शिक्षा की जो पद्धति है वह भी स्थानीय भाषाओं के लिए हानिकारक साबित हो रही है। शिक्षा का अर्थ अब व्यवसाय हो गया है, जबकि ज्ञानअर्जित करना कम रह गया है। वर्तमान में लोग वही शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं जिससे कि उन्हें रोजगार प्राप्त हो सके और वे अपने को उच्च वर्ग में शामिल कर सकें। इसका परिणाम है कि स्थानीय स्तर पर बोली जाने वाली भाषाओं का प्रचलन धीरे-धीरे कम होता जा रहा है जैसे कि प्राकृत, पाली, संस्कृत, डोगरी आदि। यही कारण है कि इन भाषाओं का प्रभाव कम होते जा रहा है एवं यह विलुप्त होती जा रही है।
अंग्रेजी विकल्प के रूप में: भाषाओं का विलुप्तिकरण केवल भारत का विषय नहीं है बल्कि यह विश्व की समस्या है, जिस तरीके से अंग्रेजी का बोलबाला बढ़ा है उससे कई देशों की स्थानीय भाषाएँ इतिहास बनती जा रही हैं। चूंकि अंग्रेजी तथा अन्य व्यावसायिक भाषाओं का प्रचलन बढ़ा है तथा ये सभी एक विकल्प उपलब्ध करा रही हैं जिससे एक बड़ी आबादी अपनी स्थानीय भाषाओं को छोड़कर इनके तरफ आकर्षित हो रही हैं। यही नहीं अब चाहे गांव हो या शहर हर तरफ व्यावसायिक शिक्षा का स्तर बढ़ रहा है, लेकिन स्थानीय भाषाओं का विकास तेजी से पीछे होते जा रहा है और ये विलुप्त होती जा रही हैं। इसके अलावा बढ़ता शहरीकरण और औद्योगिकीकरण भी इनके समाप्ति का एक बड़ा कारण है। इसके अलावा वैश्वीकरण के दौर में वैसी भाषा का चुनाव किया जा रहा है जो उनके रोजगार के लिए लाभदायक होता है।
तकनीकी का प्रसारः वर्तमान समय में लोगों के जीवन में जिस तरीके से तकनीकी का बोलबाला बढ़ते जा रहा है उसे देखते हुए स्थानीय भाषाओं को बचा पाना बड़ा मुश्किल कार्य हो गया है। आज के दौर में इंटरनेट जीवन का हिस्सा बनते जा रहा है। चूंकि इंटरनेट का प्रसार व प्रचार स्थानीय भाषाओं में नहीं हो पा रहा जिससे कुछ गिने-चुने भाषा में ही इसका लाभ मिल रहा है। सभी लोग विकास के दौर में आगे बढ़ना चाहते हैं इसलिए वे उन्हीं भाषाओं पर जोर दे रहे हैं जिनसे उन्हें तकनीकी फायदा मिल सके। परिणामस्वरूप स्थानीय भाषा विलुप्त होती जा रही है।
भाषा में क्लिष्टताः किसी भी भाषा के विलुप्त होने की एक वजह उसकी क्लिष्टता भी है। सिंधु घाटी की लिपि आज तक नहीं पढ़ी जा सकी है, जो किसी युग में निश्चय ही जीवंत भाषा रही होगी। जब भी कोई भाषा अपने सहज स्वाभाविक अर्थ को छोड़कर विशेष अर्थ को व्यक्त करने लगती है, तो वह क्लिष्ट बन जाती है और यही क्लिष्टता उसके जनसामान्य से कटने की वजह बनती है। इसी तरह महात्मा बुद्ध और महावीर की भाषा प्राकृत और पाली रही। इन्हीं भाषाओं में उनके लेख व उपदेश भी हैं, जो कि क्लिष्ट होने के कारण आम जन से कट गये। लैटिन, ग्रीक जैसी भाषाएं अपनी क्लिष्टता के कारण अवरुद्ध हो गई।
इसके अलावा इन जनजातीय समुदायों के जीवन में सरकार का भी हस्तक्षेप कम होता है। सरकार इनके भाषाओं को समृद्ध करने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाती है जिससे कि ये भाषाएँ विलुप्त हो जाती हैं।
भाषा के संरक्षण की आवश्यकता क्यों?
भारत में एक कहावत है कि ‘कोस-कोस पर पानी बदले और तीन कोस पर वाणी’। अर्थात प्रत्येक एक कोस (3 किमी.) पर पानी की प्रकृति बदल जाती है ठीक इसी प्रकार प्रत्येक तीन कोस पर भाषा बदल जाती है। अतः इसकी महत्ता को समझते हुए विश्व की कोई भी भाषा चाहे वह कितनी भी पुरानी क्यों न हो उसे संरक्षित किया जाना चाहिए।
भाषा किसी भी सभ्यता व संस्कृति तथा उसके रहन-सहन की पहचान होती है। यदि किसी समुदाय की भाषा ही न बचे तो उसके बारे में जानना कठिन ही नहीं बल्कि असंभव हो जाता है। ईसाइयों और यहूदियों के धर्मग्रन्थों की मूल भाषा हिब्रू थी जो अब इस्तेमाल में नहीं है, इसी तरह पाली, प्राकृत सहित कई भाषाओं ने अपना अस्तित्व खोया है। इन्हें संरक्षित नहीं करने का ही परिणाम है कि इनके मूल ग्रन्थों में क्या कहा गया है यह जानना बड़ा मुश्किल है।
उल्लेखनीय है कि जब किसी भी समुदाय की भाषा को नहीं जाना जाता है तो उस समुदाय के बारे में सही जानकारी भी नहीं मिल पाती है और स्वतंत्र टिप्पणी कर जो लिखते और कहते हैं उन्हें ही सत्य मान लिया जाता है। इसलिए यदि सही अर्थों में किसी संस्कृति की प्रगाढ़ता को समझना है तो उनकी भाषा को समझना और संरक्षित करना अति आवश्यक है।
लोकतंत्र के समुचित विकास के लिए विभिन्न भाषाओं का समृद्ध होना बहुत जरूरी है क्योंकि इन भाषाओं के माध्यम से देश के एक कोने से दूसरे कोने तक की समस्या को आसानी से जाना जा सकता है और उसके निराकरण के लिए कार्य किया जा सकता है। भारत में अभी भी कई ऐसे समुदाय हैं जिनकी भाषा को सही तरीके से समझा नहीं गया है। यदि वे विलुप्त हो जाती हैं तो उनके बारे में जानना असंभव हो जाएगा। अतः इन भाषाओं का संरक्षण आवश्यक है।
किसी भी देश की एकता और अखण्डता के लिए आवश्यक है कि वहाँ के लोग मिल-जुल कर रहें। इसके लिए भाषा सर्वोत्तम माध्यम है ताकि लोग एक दूसरे से जुड़ सकें व अपनी पहचान को बता सकें इसलिए भी भाषाओं को संरक्षित करना आवश्यक है। इससे अंतर्राष्ट्रीय सहयोग भी प्राप्त होता है।
यदि स्थानीय भाषा को संरक्षण मिलता है तो उन आदिवासी लोगों के अधिकार को भी संरक्षित किया जा सकता है जो अपनी बातों को किसी दूसरे भाषा में नहीं कह पाते है। इससे समाज का समावेशी विकास हो पाता है।
जब स्थानीय भाषा समृद्ध होती है तो उस क्षेत्र में विकास तेज गति से होता है और वहाँ के लोगों को रोजगार प्राप्त होता है जिससे कि शांति स्थापित होती है। इससे देश के विकास में सबका समान रूप से सहयोग प्राप्त होता है।
निष्कर्ष
भाषा जो अपने समाज की प्रतिबिम्ब होती है, यदि वह संरक्षित व सुरक्षित नहीं रहेगी तो प्रतिबिम्ब की कल्पना नहीं की जा सकती है। लुप्त हो रही भाषाओं पर सिर्फ चिंता व्यक्त करने से समस्या का समाधान नहीं हो सकता है बल्कि सरकार को इसके संरक्षण के लिए हर संभव कोशिश करनी चाहिए। इसके लिए इन भाषाओं को मुख्यधारा में लाना होगा, इन भाषाओं पर रिसर्च करना होगा, स्कूली स्तर पर इन्हें बढ़ावा देना होगा, इन्हें रोजगार परक बनाना होगा, वैश्विक प्रतिस्पर्धा के लिए इन्हें तैयार करना होगा तथा इन भाषाओं का सरलीकरण करना होगा आदि के माध्यम से सरकार और समाज दोनों मिलकर स्थानीय भाषाओं को बचा सकते हैं।
यही नहीं आदिवासी समुदाय की उचित जनगणना करके यह पता लगाया जा सकता है कि आदिवासियों की स्थिति क्या है और उनकी भाषाएँ किस हद तक विलुप्ति के कगार पर हैं। यदि किसी भी क्षेत्र की संस्कृति, परिवेश, अस्मिता, खान-पान और रहन-सहन को संरक्षित करना है तो वहाँ की भाषाओं को संरक्षित करना आवश्यक है। इसके लिए सरकार और नागरिकों को आगे आना होगा जिससे कि भाषाएं संवृद्ध और संरक्षित रह सकें।