पाठ्यसामग्री का अर्थ (Meaning of Content):-


पाठ्यसामग्री का अर्थ (Meaning of Content):-


  • पाठ्यसामग्री किसी पाठ्यक्रम का आधार होता है यह वह सामग्री होती है जिसे पढ़ना होता है।सम्पूर्ण पाठ्यसामग्री पाठ्यक्रम के चारों ओर घूमती है।
  • किसी भी पाठ्यसामग्री की पहचान करना आसान होता है। जबकि उसी पाठ्यसामग्री को परिभाषित करना अपेक्षाकृत कठिन होता है क्योंकि किसी भी पाठ्यसामग्री की पहचान तभी सम्भव हो पाती है जब हम पहले से उस।
  • पाठ्यसामग्री से परिचित होते हैं अन्यथा पहचान करना सम्भव नहीं है। जबकि परिभाषित करने के लिए जरूरी है कि आप उस पाठ्यसामग्री को निर्मित करने वाले घटकों को जानते हों। तभी आप उसे परिभाषित कर पाएंगे अन्यथा घटकों की पहचान किए बिना पाठ्यसामग्री को परिभाषित करने पर हो सकता है कि आप जाने-अनजाने में किसी और पाठ्यसामग्री को ही परिभाषित करने लगे। उदाहरण के लिए- आप कार्य होता देखकर, ये तो कह सकते हैं कि यहाँ कार्य हो रहा है और अमुक व्यक्ति या जीव उस कार्य को कर रहा है परन्तु आप उस कार्य की परिभाषा आसानी से नहीं दे सकते।
  • आप सरल रेखा तो खींच सकते हैं, किसी दूसरे के द्वारा बनाई गई सरल रेखा की पहचान भी कर सकते हैं परन्तु सरल रेखा की परिभाषा देना आसान नहीं है। इसी प्रकार आप व्यक्ति या पिण्ड को गति करते देखकर, पहचान सकते हैं कि वह व्यक्ति या पिण्ड गति कर रहा है परन्तु गति को आप कैसे परिभाषित करेंगे? घटकों की पहचान किए बिना आप अपने पास स्थित किसी पिण्ड की गति एक पल के लिए पहचान भी लेगे परन्तु दूर स्थित पिण्ड की गति को कैसे पहचानेंगे? इन सब का ज्ञान तभी सम्भव हैजब हमें पाठ्यसामग्री का ज्ञान हो।
  •  पाठ्यसामग्री को अन्तर्वस्तु भी कहा जाता है। पाठ्यसामग्री के अन्तर्गत चयन की अन्य सामान्य स्थितियों की तरह ही पाठ्यचर्या के लिए पाठ्यक्रम के चयन में भी प्रायः उपयोगिता एवं सार्थकता को आधार बनाने का प्रयास किया जाता है।
  • पाठ्यक्रम का निर्धारण शैक्षिक उद्देश्यों के आधार पर ही किया जाता रहा है किन्तु इस सम्बन्ध में विशेष जागरुकता तथा निरन्तरता बीसवीं शताब्दी के आरम्भ में आई है। पाठ्यक्रम के अन्तर्गत सम्पूर्ण पाठ्यचर्या की सामान्य संरचना आ जाती है। पाठ्यचर्या के अन्तर्गत उसी पाठ्यक्रम का चयन किया जाता है जो पाठ्यचर्या विशेष के उद्देश्यों की पूर्ति में सहायक होते हैं।


पाठ्य सामग्री तैयार करते समय ध्यान देने वाली बाते

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शिक्षकों द्वारा शिक्षण सामग्री का उपयोग शिक्षार्थियों को आसानी और दक्षता के साथ अवधारणा सीखने में मदद करने के लिए किया जाता है। नीचे दी गई शिक्षण सामग्री का उपयोग शिक्षण में किया जाता है:

  • शिक्षक को यह सुनिश्चित करना होगा कि वह जिस शिक्षण सामग्री का उपयोग कर रहे है वह छात्रों को पढ़ाए जा रहे विषय के लिए मान्य और प्रासंगिक होनी चाहिए।
  • पाठ्यपुस्तक में विस्तृत जानकारी होती है और शिक्षण सामग्री की सुव्यवस्थित प्रस्तुति में विभिन्न उप-विषय और इकाइयाँ होती हैं।
  • लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि शिक्षक को शिक्षण सामग्री को छात्रों के अनुभवों से जोड़ना चाहिए जिससे छात्र उनसे सरलता से जुड़ सकें।
  • उदाहरण, वास्तविक मूर्त उदाहरणों को शिक्षण सामग्री के रूप में उपयोग करके प्रासंगिक समझ को विकसित करने के लिए जैसे लोहे में जंग कैसे लगती है और दूध कैसे दही में बदल जाता है आदि प्रकार के प्रश्न किए जाने चाहिए। 
  • पाठ्य सामग्री किस बारे में है तथा किससे सम्बंधित है इसे निष्कर्ष निकालकर समझा जा सकता है।
​​अतः यह निष्कर्ष निकलता है की पाठ्य सामग्री किस बारे में है, यह समझना निष्कर्ष निकालना कहलाता है

मानव विकास की अवधारणा:-Concept of Growth and Development (वृद्धि और विकास की अवधारणा ) CTET EXAM Notes

 

between Growth & Development )

प्रायः यह देख गया है कि वृद्धि और व विकास शब्दो को एक दूसरे का पर्यायवाची समझ लिया जाता है । जबकि दोनो में कई आधार पर अन्तर होता है I जो निम्न प्रकार से समझा जा सकता है I

  1. अर्थ के अधार पर ( Difference in meaning ) वृद्धि का अर्थ है शारीरिक परवर्तन । इन परिवर्तनो के कारण व्यवाहार मे परिवर्तन होने लगता है। लेकिन विकास का अर्थ गुणात्मक परिवर्तनो से किया जाता हैं।
  2. व्यापक व संकुचित शब्द ( Broader and narrow terms ) वृद्धि को विकास से संकुचित मना जाता है । क्योकि वृद्धि की अवधारणा विकास की अवधारणा का ही एक भाग हैं।
  3. परिमाणात्मक और गुणात्मक ( quality and qualitative ) वृद्धि का तात्पर्य मात्रात्मक या परिमाणात्मक परिवर्तनो से जबकि विकास का सम्बध गुणात्मक र्फर्वतनो से होता है ।
  4. वृद्धि और विकास की निरन्तरता ( continuity of growth and development ) वृद्धि लगातार नहीं चलती बल्कि शिशुकाल में तीव्र गति से और उसके बाद धीमी हो जाती है। लेकिन विकास की प्रक्रिया लगातार चलती रहती है । वह रूकती नहीं है ।

मनाव विकास की अवस्थाऍ :

मानव विकास सतत् प्रक्रिया होती है जो कभी नहीं रूकती है | भारतीय विचारको के द्वारा मानव विकास को सात कालो में बाँटा गया है जो निम्न प्रकार से है।

  1. गर्भावस्था – गर्भधारण से जन्म तक
  2. शैशवावस्था – जन्म से 5 वर्ष तक
  3. बाल्यावस्था – 5 वर्ष से 12 वर्ष तक
  4. किशोरवस्था – 12 वर्ष से 18 वर्ष तक
  5. युवावस्था – 18 वर्ष से 25 वर्ष तक
  6. प्रौढ़ावस्था – 25 वर्ष से 55 वर्ष तक
  7. वृद्धावस्था – 55 वर्ष से मृत्युमानव विकास की अवस्थओ को लेकर विद्वानो मे मतभेद पाये जाते है | परन्तु अधिकतर विद्वान मानव विकास की निम्न चार अवस्थाओ को स्वीकार करते है।
  1. शैशवावस्था – जन्म से 6 वर्ष तक की अवस्था
  2. बाल्यावस्था – 6 वर्ष से 12 वर्ष तक
  3. किशोरावस्था – 12 से 18 वर्ष तक
  4. व्यस्कावस्था – 18 से मृत्यु तक

शिक्षा मनोविज्ञान में प्रथम तीन अवस्थाअो का ही महत्व है इसलिए शिक्षा मनोविज्ञान  में इन तीन अवस्थाओ के विकास का अध्ययन किया जाता है ।

  1. शैशवावस्था : जन्म से लेकर 6 वर्ष तक की अवस्था को शैशवावस्था कहा जाता है। इस अवस्था के अन्तर्गत लगभग 2.5 वर्ष की अवस्था से तीव्र गति से विकास होता हैं। इस अवस्था मे दोहराने की व अनुकरण करने की प्रवृति पायी जाती है । यह अवस्था भषा को सीखने की सर्वोतम अवस्था होती है । ओर इस अवस्था में बच्चा देखकर सीखने लगता है। अर्थात इस अवस्था में समाजीकरण की प्रवृति पायी जाती है । यह कहा जाता हैं। कि शैशवावस्था  की आस्था शिक्षा के दृष्टिकोण से अत्यधिक महत्वपूर्ण होती है। यही वह अवस्था होती हैं। जिससे अथयापक, माता -पिता व समाज के व्यकितयों का प्रभाव बच्चे पर अत्यधिक पड़ता है । और बच्चा अनुकरण करके सीखोन का प्रयास करता है I अनुकरण विधि बच्चों को अधिगम कराने की सर्वोत्तम विधि है।
  2. बाल्यावस्था : यह अवस्था का वह चरण है जो 6 वर्ष से 12 वर्ष तक चलता है । इस अवस्था को दो चरणों  में बाँट सकते है । 6 से 9 वर्ष तक बालको में तर्क शक्ति व चिन्तन की क्षमता बढ़ती है । जहाँ शैशवावस्था में बालक तीव्र गति से सीखता है । वही बाल्यावस्था में यह गति धीमी हो जाती हैं झसका एक करण माने वैज्ञानिक यह मानते है कि बच्चे के सीखने का क्षेत्र बढ़ जाता है। मनोवैज्ञनिक यह मानते है कि इस अवस्था में अध्यापकों को बालकों का सिखाने के लिए शिक्षण पद्धतियो का प्रयोग करना चाहिए ।
  3. किशोरावस्था : यह अवस्था जो 12 वर्ष से प्रारम्भ होकर 18 वर्ष तक चलती है, किशोरावस्था। कहलाती है । इस अवस्था में बालक परिपक्वता की ओर बढ़ने लगता है । और उनकी लम्बाई व भार में तेजी से वृद्धि होती है लेकिन लड़कियो में लम्बाई , भार व माशोशियो में लड़कों की अपेक्षा तेजी से वृद्धि होती है । यही वह आस्था होती है । जिसमें प्रजनन अंग किकसित होते है । और लड़कों व लड़कियों में अर्थात एक दूसरे विरोधी लिंगो की ओर आकर्षण बढ़ता है । यह अवस्था जीवन में तूफान की अवस्था कही जाती है। क्योकि कई सर्वेक्षण बताते है कि इस अवसथा में यौन समस्या व नशा व अपराध की ओर उन्मुख होने की प्रवृति लड़को व लड़कियों पायी जाती है I इसलिए इस अक्स्था को जीवन में तूफान की अवस्था होती है ।

विकास को प्रभावित करने वाले कारक ( Factors Influencing Development ) जैसा कि हम जान चुके है कि विकास एक सतत् प्रक्रिया है यह जन्म से लेकर मृत्यु तक चलने वाली प्रक्रिया है I विकास के कई आयास होते है | और उन्हें प्रभावित करने वाले कई कारक होते है। जिन्हें हम निम्न प्रकार से समझ सकते है ।

विकास के आयाम या कप ( Types of development ) :

विकास को वैसे तो कई रूपो में बाँटा जा सकता है । लेकिन बाल विकास के आधार पर विकास को निम्न रूपो में विभाजित किया जाता है ।

  1. शारीरिक विकास Physical development
  2. मानसिक विकास Cognitive Development
  3. सामाजिक  विकास Social Development
  4. संवेगात्मक विकास Emotional Development
  5. भाषाई विकास Language Development
  6. मनोगतिशील किकास Motor Development

उपरोक्त विकास के आयामों में से पहले चार रूपो का शिक्षा मनोविज्ञान की द्वाष्टि से अधिक महत्वूर्ण माना जाता है । अतः हम इन चार रूपो का अध्ययन ही विशेषतः करेगे ।

  1. शारीरिक विकास व प्रभावित करने वाले कारक ( Physical Development & Influencing Factor ) : इसमें कोई सन्देह नहीं है कि कि शारीरिक विकास का व्यकित के मानसिक विकास से गहरा सम्बद्ध होता है। इसलिए हमें शारीरिक विकास को प्रभावित करने वाले कारकों को जानना भी जरूरी हो जाता है। प्रथम , वातावरण बालको का शारीरिक विकास तीव्र गति से बढ़ता है जबकि गन्दी जगह छोटे बन्द मकनो में रहने वाले व पोषक भोजन न खाने वाले बालको का शारीरिक विकास मन्द गति से होता है। द्वितीय, जिन बालको को स्नेह व प्रेम मिलता है। उनका शारीरिक विकास तीव्र होता है I व वे सुखी रहते है वही जिन बालेका के स्नेह व प्रेम नहीं मिलता वे दुखी होने के कारण उनका शारीरक विकास उचित रूप से नही हो पाता है । तृतीय , खेल एवं व्यापक , चतुर्थ भोजन सुरक्षा व वंशानुक्रम आदि कारको के कारण भी बालको का शारीरिक विकास रूक जाता है I
  2. मानसिक विकास और प्रभावित करने वाले कारक (Cognitive development & influencing factors ) : शिक्षा मनोविज्ञान  में जितना महत्व शारीरिक विकास का है उतना ही मानसिक विकास का भी होता है । मानसिक विकास से तात्पर्य बालक को उन योग्यतओं से होता है I जिनके आधार पर वे अपने सामने आने वाली समस्यओं को सुलझता है और सामजिक वातावरण से सममोजन करता है । बालक का जैसे जैसे मानसिक विकास होता है | वैसे- वैसे ही वह अपनी मानसिक  योग्यताओ के आधार पर समस्याओं  का समाधान करता है। विचार करना निर्णय लेना इत्यादि कार्य करता है।अतः यह उचित ही है कि सज्ञानात्मक विकास के बारे में शिक्षको का पूर्ण जानकारी होनी चाहिए क्योंकि इसके अनुभाव में वह बालको का मानसिक विकास नहीं कर पाएगें । शिक्षक को जानकरी होनी चाहिए कि बच्चो की कक्षा का वातावरण कैसा होना चाहिए, किस समस्या का समाधान बच्चे को कैसे करना चाहिए ।

कई सारी रिसर्च से जानकारी मिली है कि यदि जन्म के बाद पहले वर्ष तक शिशुओं को कम भोजन (पोषक) दिया जाए तो इसका प्रभाव बाद में मीस्तक में होने वाले विकास पर अवश्य पड़ता है। ये भी पाता चलता है कि भ्रूणावस्था  में मस्तिक की वृद्धि सबसे तेज होती है। तो यदि उन्हे असंतुलिन और अल्पाहार दिया जाए , जो उनका मानसिक विकास रूक जाएगा और उनके मानसिक विकृतियाँ पैदा हो जाएगी

बालक के विकास पर समुदाय का प्रभाव (influence of community on child development)

 बालक के विकास पर समुदाय का प्रभाव

(influence of community on child development)

सामुदायिक बालक के विकास पर इस प्रकार प्रभाव डालते हैं- 


 सामाजिक प्रभाव - समुदाय का प्रत्यक्ष प्रभाव बालक के सामाजिक विकास पर पड़ता है यहां उसका सामाजिकरण होता है अधिकार एवं कर्तव्य के ज्ञान के साथ-साथ स्वतंत्रता के अनुशासन की जानकारी भी होती है।



 राजनीतिक प्रभाव - सामुदाय, बालक पर राजनीतिक प्रभाव भी डालता है। विद्यालयों में छात्र संघों के माध्यम से राजनीतिक संरचना का अनुभव मिलता है तथा समाज के राजनीतिक वातावरण के लिए तैयार हो जाते हैं। 



 आर्थिक प्रभाव - समुदाय की आर्थिक स्थिति का प्रत्यक्ष प्रभाव विद्यालयों तथा बालकों पर प्रकट होता है। संपन्न समुदायों में विद्यालय आकर्षक होते हैं और उस में पढ़ने वाले छात्रों को सामाजिक प्रतिष्ठा मिलती है। अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों का स्तर, जिला परिषदों के विद्यालयों से इसी कारण भिन्न होता है।



 सांस्कृतिक प्रभाव- प्रत्येक समुदाय की अपने सांस्कृतिक होती है और उसका प्रभाव वहां के विद्यालयों तथा छात्रों पर पड़ना स्वाभाविक है।बोलचाल,व्यवहार, शब्दावली तथा शैली का प्रभाव स्पष्ट दिखाई पड़ता है।



 सांप्रदायिक प्रभाव- समुदायों में यदि एक से अधिक संप्रदायों के लोग रहते हैं और उसमें समरसता नहीं है तो ऐसे समाज में विद्यालयों का वातावरण दूषित हो जाता है। 



  सार्वभौमिक मांग- समुदाय, विद्यालय तथा शिक्षा की सार्वभौमिक मांग की पूर्ति करते हैं। शिक्षा के प्रचार प्रसार के लिए विद्यालयों की मांग बढ़ रही है और समुदाय उसे पूरा कर रहे हैं।



प्रारंभिक शिक्षा का विकास- सामुदायिक कार्य अपने छोटे छोटे बालकों के लिए समुदाय परिसर में विद्यालय खोलता है। इस प्रकार उनकी प्रारंभिक शिक्षा की व्यवस्था करता है।



माध्यमिक शिक्षा का विकास- समुदाय का प्रभाव माध्यमिक शिक्षा पर भी देखा जाता है। देश में माध्यमिक शिक्षा के विकास में समुदायों का योगदान प्रमुख है।



उच्च शिक्षा- भारतीय समुदायों ने उच्च शिक्षा के विकास पर भी बल दिया है। आज उच्च शिक्षा स्थानीय आवश्यकता हो तथा साधनों के अनुसार दी जाती है।


अतः इस प्रकार देखते हैं कि घर, विद्यालय तथा समुदाय बालक के विकास को पृथक पृथक नहीं बल्कि समन्वित रूप से प्रभावित करते हैं।


By-Prof. Rakesh Giri


Thanks...........

Concept of childhood / बचपन की अवधारणा : ऐतिहासिक एवं समकालीन परिपेक्ष्य | BCHPAN KI AVDHARNA


बचपन की अवधारणा : ऐतिहासिक एवं समकालीन परिपेक्ष्य | BCHPAN KI AVDHARNA 

परिचय 

बचपन मानव सहित सभी जीव का बहुमूल्य समय होता है| भविष्य में बालक क्या बनेगा यह बचपन से ही दिखाई देने लगता है | बचपन मकान के नीव के समान है | मकान का नीव जितना  मजबूत होगा , मकान उतना मजबूत होगी |जिस प्रकार कमजोर नीव पर मजबूत बिल्डिंग सम्भव नही ,उसी प्रकार कमजोर बालक के भविष्य में मजबूत होने की सम्भावना बहुत कम है , इसलिए बच्चो पर बालकाल में विशेष ध्यान देना चाहिए |




बचपन की अवधारणा ( Concept Of Childhood )


मानव जीवन के विकास के विभिन चरण में बाल काल का अपना खाश महत्व है |जन्म के बाद एवं किशोरावस्था के बिच के काल को बचपन कहते है | सामान्यतया 0 से 12-13 वर्ष के काल को बचपन कहते है | भगवान राम एवं श्री कृष्ण का बाल काल की लीलाये जग जाहिर है | बचपन में बच्चा एक कोरी स्लेट की भाँति होता है। इस कोरी या साफ स्लेट पर हम कुछ भी लिख सकते हैं। बचपन में बच्चे अनुकरण प्रिय होते हैं. वे जैसा देखते हैं, सुनते हैं, वैसा ही करने के लिये प्रयासरत हो जाते हैं। बचपन में बच्चे के व्यक्तित्व का विकास अत्यन्त तीव्र गति से होता है। अर्थात जीवन के परे विकास का तिहाई विकास बचपन में ही पूर्ण हो जाता है। बचपन के प्रथम ढाई वर्षों में बालक के शरीर और मस्तिष्क की गति सवाधिक होती है परन्तु इस आयु में बालक अपने घर में ही रहता है तथा जाने-अनजाने घर की संस्कृति और पर्यावरण को आत्मसात करने लगता है। बचपन के छः वर्ष की आयु तक बालक हाथ-पैरों के उपयोग में नवीन कौशल अर्जित करता है। वह आत्मनिर्भर बन जाता है। अतः बचपन के समय में बालक विभिन्न क्रियाकलापों में समन्वय स्थापित करने लगता है।

17वीं सदी के उदार विचारक रूसो ने बचपन को वयस्कता के ख़तरों और कठिनाइयों से मुठभेड़ से पहले की लघु अभयारण्य अवधि कहा. रूसो ने निवेदन किया, "इन मासूमों की खुशियों को क्यों लूटें जो इतनी जल्दी बीत जाता है". "शुरुआती बचपन के जल्दी निकल जाने वाले दिनों में कड़वाहट क्यों भरें, जो दिन न उनके लिए और ना ही आपके लिए कभी लौट कर आने वाले हैं?"

कुछ लोगों का मानना है कि बच्चों को कोई चिन्ता नहीं होनी चाहिए और उन्हें काम करने की ज़रूरत नहीं होनी चाहिए; जीवन ख़ुशहाल और परेशानियों से मुक्त रहना चाहिए। आम तौर पर बचपन ख़ुशी, आश्चर्य, चिंता और लचीलेपन का मिश्रण है। आम तौर पर यह संसार में वयस्कों के हस्तक्षेप के बिना, अभिभावकों से अलग रहकर खेलने, सीखने, मेल-मिलाप, खोज करने का समय है। यह वयस्क जिम्मेवारियों से अलग रहते हुए उत्तरदायित्वों के बारे में सीखने का समय है।शैशवावस्था के बाद बाल्यावस्था का आरंभ होता है। यह अवस्था में बालक के व्यक्तित्व के निर्माण होती है। बालक में इस अवस्था में विभिन्न आदतों, रुचि एवं इच्छाओं के प्रतिरूपों का निर्माण होता है। बालक को आगे क्या बनना है बचपन में ही दिखाई देने लगते है |

बचपन की ऐतिहासिक परिपेक्ष्य


बचपन, जन्म के बाद से लेकर किशोरावस्था तक के आयु काल(12 -13 ) को कहते है। विकासात्मक मनोविज्ञान में, बचपन को शैशवावस्था (चलना सीखना), प्रारंभिक बचपन (खेलने की उम्र), मध्य बचपन (विद्यालय उम्र), तथा किशोरावस्था के विकासात्मक चरणों में विभाजित किया गया है।

बचपन के इतिहास में रुचि का एक विषय रहा है |एरियस ने पेंटिंग, फर्नीचर और स्कूल के रिकॉर्ड का अध्ययन किया। उन्होंने पाया कि 17वीं शताब्दी से पहले, बच्चों को लघु- वयस्कों के रूप में दर्शाया जाता था ।परन्तु अन्य विद्वानों ने इस बात पर जोर दिया है कि कैसे मध्यकालीन और प्रारंभिक आधुनिककाल में बाल पालन-पोषण उदासीन, लापरवाह या क्रूर नहीं था।

विल्सन का तर्क है कि पूर्व-औद्योगिक गरीबी और उच्च शिशु मृत्यु दर (एक तिहाई या अधिक बच्चों की मृत्यु के साथ) के संदर्भ में , वास्तविक बाल-पालन प्रथाओं ने परिस्थितियों में उचित व्यवहार का प्रतिनिधित्व किया। वह बीमारी के दौरान व्यापक माता-पिता की देखभाल , और मृत्यु पर शोक , माता-पिता द्वारा बाल कल्याण को अधिकतम करने के लिए बलिदान, और धार्मिक अभ्यास में बचपन की एक विस्तृत पंथ की ओर इशारा करता है|

चिकित्सकों, वकीलों और सरकारी अधिकारियों और (ज्यादातर) पुजारियों को प्रशिक्षित करने के लिए विश्वविद्यालय खोले गये । पहले विश्वविद्यालय 1100 के आसपास दिखाई दिए: 1088 में बोलोग्ना विश्वविद्यालय ,1150 में पेरिस विश्वविद्यालय , और 1167 में ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय बना ।

पूर्व-औद्योगिक समय में बाल श्रम आम था, बच्चे आमतौर पर खेती या कुटीर शिल्प के साथ अपने माता-पिता की मदद करते थे। हालांकि, 18वीं शताब्दी के अंत तक, बच्चों को विशेष रूप से कारखानों और खानों में नियोजित किया जाता था | बच्चो से अक्सर कम वेतन पर खतरनाक नौकरियों में लंबे समय तक काम लिया जाता था। 1788 में इंग्लैंड और स्कॉटलैंड में, 143 पानी से चलने वाली सूती मिलों में दो-तिहाई श्रमिकों को बच्चों के रूप में वर्णित किया गया था।


बचपन की समकालीन परिपेक्ष्य
 बचपन की   समकालीन परिपेक्ष्य 


20 वी शताब्दी में बाल्यावस्था
CHILDHOOD IN THE 20TH CENTURY

20 वी शताब्दी के मध्य तक औद्योगीकरण ने जोर पकड़ लिया था , बच्चो को आर्थिक कार्यो के लिए जरुरी समझना कम हो गया | पैसा कमाने का काम माता - पिता का हो गया |खाश तौर पर पैसा कमाने का काम पिता का मन जाने लगा |

परिणामस्वरूप अधिक बच्चे पैदा करने को आर्थिक बोझ समझना आरम्भ हो गया। साथ ही साथ बच्चों के प्रति संवेदनशीलता में वृद्धि हुई। बच्चों की परवरिश के बदले कुछ प्राप्त करने की आकांक्षा शिथिल हुई। बच्चों को वांछित प्यार और देखभाल मिलने लगा ।

बाल्यावस्था के आधुनिक संप्रत्यय व निर्माण को निम्न बिन्दुओं के द्वारा व्याख्यायित किया जा सकता है-

1. मानव विकास की अवस्थाओं में बाल्यावस्था को सबसे महत्वपूर्ण माना जाने लगा है ।

2. परिवार के अन्दर बच्चे बाहरी दुनिया से स्वयं को सुरक्षित और संरक्षित महसूस करने लगे हैं।

3. बच्चों को सुरक्षा और संतुष्टि देने के लिए माता-पिता अपने सामर्थ्य के अनुसार भरपूर प्रयास करते हैं ।

4. नाभिकीय पारिवारिक संरचना (Nuclear family structure) में बालक पर अत्यधिक ध्यान दिया जाने लगा, बाल-केन्द्रित विचारों और विश्वासों को प्रमुखता मिलने लगी।

5. विकासात्मक मनोविज्ञान का उदय हुआ, बालकों और बाल्यावस्था को विभिन्न अध्ययनों और शोध के माध्यम से विशेष प्रमुखता दी गई। एलन की (Ellen Key) ने 20वीं शताब्दी को 'बच्चों की शताब्दी' (The century of the child) कहा था।

6. मनोवैज्ञानिकों का विकास दृढ़ हुआ कि बालक का विकास पूर्वनिर्धारित, रेखीय और आयु अनुसार होता है।

7. इतिहास में पहली बार बालक वैज्ञानिक अध्ययनों और व्यावसायिक मनोविश्लेषण का केन्द्र बना ।

8. आधुनिक परिवारों में माता की तरफ से बच्चे को पूर्ण सुरक्षा और ममता प्राप्त होती है, परन्तु कभी-कभी माँ के अत्यधिक संरक्षण से बालकों का विकास प्रभावित भी होता है।

9. बच्चों की भलाई के लिए चिकित्सा और मानसिक स्वास्थ्य के विशेषज्ञों ने अपना अभूतपूर्व योगदान दिया, बच्चों के पालन-पोषण के नए तरीकों को प्रस्तुत किया, संवेगात्मक दृष्टि से विशिष्ट बच्चों को सहायता दी। बेन्जामिन स्पोक, वर्जीनिया एक्सलाइन और एरिक एरिक्सन को विशेष प्रसिद्धि मिली।

10. 1950 में अमेरिका के घरों में टेलीविजन आ गया, जिसमें माता-पिता और बच्चों के मनोरंजन के कार्यक्रम प्रसारित किए जाने लगे। आरम्भ में टेलीविजन पर प्रसारित होने वाले कार्यक्रमों पर बड़ा सेंसर होता था। पारिवारिक समस्याओं, गरीबी, हिंसा और शोषण आदि से सम्बन्धित घटनाएँ टेलीविजन पर नहीं दिखाई जाती थीं, ताकि बच्चों पर गलत प्रभाव न पड़े।

11. सालों बाद महिलाओं में यह जागृति आई कि उन्हें केवल पति और बच्चों की देखभाल तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए, वे अपने कैरियर के साथ-साथ अपने परिवार और अपने बच्चों की देखभाल भी अच्छी तरह से कर सकती हैं ।

आधुनिक समय में यह मान लिया गया है कि व्यक्ति के जीवन चक्र की सबसे महत्वपूर्ण अवस्था बाल्यावस्था है। इस अवस्था में हुए समाजीकरण और मनोवैज्ञानिक विकास जीवन भर व्यक्ति के कार्य और व्यवहार को प्रभावित करता है । बाल्यावस्था जीवन का एक महत्वपूर्ण अंश है, जिसमें बड़ों के द्वारा देखभाल और सुरक्षा आवश्यक है ।



(05)  निष्कर्ष 

निष्कर्ष
निष्कर्ष


ऊपर लिखित बातो से स्पस्ट है की मानव जीवन एवं इसके विकास में बचपन का अपना खाश महत्व है | आज के युग में माता -पिता या अविभावक अपने बच्चो के समुचित विकास के लिए कुछ भी करने को तैयार है | गरीब से गरीब एवं धनी से धनी ब्यक्ति अपने बच्चो पर अधिकतम ध्यान देता है | विश्व के लगभग सभी सरकार भी बच्चो के समुचित विकास के लिए कार्य कर रही है| अब मध्यकालीन समय के जैसा बच्चे को छोटा मानव नही बच्चा समझा जाता है | और इन्हे भगवान का एक रूप माना जाता है | जिनके अंदर डर , भय , चिंता का कोई नाम नही है |




शिक्षण सूत्र:- अवधारणा को प्रस्तुत करने की दृष्टिकोण:- evs CTET noyes


शिक्षण सूत्र:-


EVS Pedagogy Notes 


किसी भी अधिगम को प्रभावी एवं सफल बनाने के लिए अधिगम सूत्रों का प्रयोग किया जाता है।

पर्यावरण का अध्ययन कराने के लिए अनेकों प्रकार के शिक्षण सूत्र का प्रयोग किया जाता है।

1) ज्ञात से अज्ञात की ओर (From known to unknown)


2) मूर्त से अमूर्त की ओर (From concrete to abstract)


3) सरल से जटिल की ओर (From simple to complex)


4) पूर्ण से अंश की ओर (From whole to part)


5) विशिष्ट से सामान्य की ओर (From specific to general)


6) विश्लेषण से संश्लेषण की ओर (From analysis to synthesis)


7) आगमन से निगमन की ओर (From Inductive to Deductive Method)


8) अनुभव से तर्क की ओर (From experience to logic)


9) प्रत्यक्ष से अप्रत्यक्ष की ओर (From direct to indirect)


10) अनिश्चित से निश्चित की ओर (From uncertain to definite)


अवधारणा को प्रस्तुत करने की दृष्टिकोण:-


NCF 2005 के अनुसार पर्यावरण शिक्षण की प्रक्रिया रचनात्मक,बाल केंद्रित, अधिगम केंद्रित होनी चाहिए। 

● बालकों के समक्ष पर्यावरण की अवधारणा का प्रस्तुतीकरण क्रिया  आधारित अधिगम के द्वारा की जानी चाहिए।


गतिविधि(Activities)

गतिविधि के अंतर्गत बच्चों को कुछ क्रियाएं जाती है तथा उसके लिए अनेको क्रियाकलापों की मदद से बच्चों को पर्यावरण की शिक्षा दी जाती है।

पर्यावरण शिक्षा के अंतर्गत कई प्रकार की गतिविधियां करवाई जाती है।

गतिविधियां मुख्य रूप से दो प्रकार से करवाई जाती है। 

1) कक्षा कक्ष में की जाने वाली गतिविधि 

2) कक्षा के बाहर की जाने वाली गतिविधि


1) कक्षा कक्ष में की जाने वाली गतिविधि

  • वाद विवाद
  • प्रश्न पूछना
  • कक्षा कक्ष में रोल प्ले
  • पर्यावरण प्रतियोगिताएं
  • उदाहरण :- चित्रकला प्रतियोगिता, वाद-विवाद प्रतियोगिता, क्विज प्रतियोगिता इत्यादि ।

2) कक्षा के बाहर की जाने वाली गतिविधि

  • शैक्षिक भ्रमण
  • बागवानी
  • सेमिनार
  • परियोजना कार्य
  • सामूहिक खेल एवं व्यायाम





9th Class Physical Science Notes Chapter 2 Laws of Motion Important One Liners

 

9th Class Physical Science Short Notes

 Chapter 2

Laws of Motion Important

One Liners

→ Aristotle concluded that the natural state of an object is to be at rest.

→ According to Galileo, an object in motion will remain in the same motion as long as no external force is applied to it.

→ Sir Isaac Newton proposed his three fundamental laws which explain the connection between force and a change in motion.

→ The first law of Motion: Every object will remain at rest or in a state of uniform motion unless compelled to change its state by the action of a net force.

→ The tendency of matter that resists changes in its state of motion or rest is known as inertia.

→ As the mass is more, inertia is more.

→ Mass is a property of an object that specifies how much inertia the object has. SI unit of mass is the kilogram (kg).

→ The second law of Motion: The rate of change of momentum of a body is directly proportional to the net force acting on it and it takes place in the direction of the net force.

→ The linear momentum of a body is the product of its mass and velocity.
Momentum p = mass (m) × velocity (v)
SI unit of momentum is Kg-m /sec or Ns.

→ The net force Fnet = ma. SI unit of force is Kg-m/sec2 or ‘Newton’.

→ One ‘Newton’ is the force which when acting on a body of mass 1 kg, produces an acceleration of l m/sec2.


1 Newton = 1 kg × 1 ms-2


→ Third Law of Motion: If an object exerts a force on the other object, the second object also exerts a force on the first one which is equal in magnitude but opposite in direction.

→ There exists no single isolated force, according to Newton’s third law of motion.

→ Flying a bird, swimming of a fish, launching a rocket, etc. are examples of Newton’s third law of motion.

→ The Law of conservation of momentum states in the absence of a net external force on the system, the momentum of the system remains unchanged.

→ A system is said to be isolated when the net external force acting on it is zero.

→ In an isolated system, the total momentum is conserved.

→ Laws of motion: Sir Isaac Newton proposed his fundamental laws which explain the connection between force and a change in motion. These three laws are popularly called Newton’s laws of motion.

→ Inertia: Inertia is a property of matter that resists changes in its state of motion or rest. It depends on the mass of the object.

→ Mass: The quantity of matter present in a body is known as its mass.

→ Linear momentum: Momentum of a body ¡s the product of its mass and velocity.
Momentum p = m × v

→ Newton used the word “mass in motion” to represent the meaning of momentum.

→ Conservation of momentum: Law of conservation of momentum states in the absence of net external force on the system. The momentum of the system remains unchanged.

→ Impulse: The product of net force and interaction time is called the impulse of the net force. It is equivalent to the change in momentum that an object experiences during an interaction.

→ Impulsive force: Forces exerted over a limited time are called impulsive forces.

→ Galileo Galilei:
Galileo Galilei was born on 15 February 1564 in Pisa, Italy. Galileo has been called the “father of modern science”.
In 1589, in his series of essays, he presented his theories about falling objects using an inclined plane to slow down the rate of descent.

Galileo was also a remarkable craftsman. He developed a series of telescopes whose optical performance was much better than that of Galileo Galilei’s other telescopes available during those days. Around 1640, he designed the first pendulum clock. In his book ‘StarryMessenger’ on his astronomical discoveries, Galileo claimed to have seen mountains on the moon, the MilkyWaymade up of tiny stars, and four small bodies orbiting Jupiter. In his books

‘Discourse on Floating Bodies’and ‘Letters on the sunspots, he disclosed his observations of sunspots. : Using his own telescopes and through his observations on Saturn and Venus, Galileo ‘ argued that lithe planets must orbit the Sun and not the earth, contrary to what was ‘ believed at that time.










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