पंडित मदन मोहन मालबीय का जीवन दर्शन

पंडित मदन मोहन मालवीय :-महामना पं0 मदनमोहन मालवीय 25 दिसम्बर, 1861 को तीर्थराज प्रयाग में बालक मदन

मोहन का जन्म हुआ। इन्होंने आगे चलकर न केवल भारतीय संस्कृति का

संरक्षण किया वरन् शिक्षा के द्वारा परम्परागत तथा आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के

समन्वित विकास एवं प्रसार से पराधीन राष्ट्र के आत्मविश्वास एवं स्वाभिमान

को बढ़ाया।

मदन मोहन मालवीय के पितामह प्रेमधर जी संस्कृत के बड़े विद्वान

थे। धर्म के प्रति उनकी बड़ी गहरी निष्ठा थी। पितामह की तरह पितामही भी

धर्मनिष्ठ और शील सम्पन्न थी। मदन मोहन के पिता पं0 ब्रजनाथ पं0

प्रेमधर की ही तरह धर्मनिष्ठ,जव संस्कृत के विद्वान तथा राधाकृष्ण के अनन्य

भक्त थे। परिवार की आर्थिक दशा काफी दयनीय होते हुए भी वे कभी दान

नहीं लेते थे। मदन मोहन की माता श्रीमती मूना देवी जी स्वभाव की बड़ी

सरल और हृदय की बड़ी कोमल थी।

मदन मोहन पर परिवार की आर्थिक दशा का, माता के शील तथा

स्नेह का, पिता और पितामह के धर्म के प्रति अनुराग का गहरा प्रभाव पड़ा।

उनका जीवन धर्मनिष्ठ, भगवद्भक्ति, दीनबन्धु समाजसेवी के रूप में विकसित

हुआ। उन्होंने अपनी पिचहत्तरवीं वर्षगांठ पर कहा ‘‘पितामह, पितामही, पिता

और माता बड़े धर्मात्मा, सदाचार और नि:स्वार्थ ब्राह्मण थे, उन्हीं के प्रसाद से

मैं इतना काम कर सका हूँ।’’

मदन मोहन को पाँच वर्ष की आयु में विद्यारंभ कराया गया। उन्हें

प्राच्य और पाश्चात्य दोनों ही तरह की शिक्षाओं का गहराई से अनुशीलन

करने का अवसर मिला। पहाड़ा एवं सामान्य गणित पढ़ने वे एक महाजनी

पाठशाला में जाते थे। उसके उपरांत उन्होंने धर्मज्ञानोपदेश पाठशाला में

संस्कृत, धर्म और शारीरिक शिक्षा पाई। फिर वे धर्म प्रविर्द्धनी पाठशाला के

विद्याथ्री बने। इस प्रकार उन्हें परम्परागत भारतीय ज्ञान, धर्म, दर्शन का अच्छा

अभ्यास हो गया।

सन् 1868 में प्रयाग में गर्वनमेण्ट हाईस्कूल खुला। मदन मोहन ने

इसमें प्रवेश लिया। यहाँ बड़े परिश्रम से अंग्रेजी की शिक्षा ग्रहण की। साथ ही

साथ वे संस्कृत का भी ज्ञान प्राप्त करते रहे। एन्ट्रेस उत्तीर्ण करने के उपरांत

मदन मोहन म्योर सेन्ट्रल कॉलेज में पढ़ने लगे। मासिक छात्रवृत्ति मिल जाने

से उनका आर्थिक संकट कुछ हद तक कम हुआ। 1881 में एफ0ए0 की परीक्षा

उत्तीर्ण की और 1884 में कलकत्ता विश्वविद्यालय से बी0ए0 की परीक्षा विशेष

योग्यता के साथ उत्तीर्ण की। पारिवारिक जिम्मेदारियों के कारण वे एम0ए0

की परीक्षा में नही बैठ सके। उन्होंने सरकारी उच्च विद्यालय में पहले 40

रूपये और बाद में 60 रू0 मासिक वेतन पर अध्यापक पद स्वीकार कर लिया।

समाज सेवा के प्रति मदन मोहन मालवीय की लगन छात्र जीवन से ही

दिखती है। समाज सेवा हेतु छात्र जीवन में ही उन्होंने ‘साहित्य सभा’ एवं

‘हिन्दू समाज’ नामक संस्थाओं की स्थापना की थी। सरकारी नौकरी महामना

को बाँधे नही रख सकी। तीन वर्षों तक सरकारी नौकरी में रहने के बाद

उन्होंने नौकरी छोड़ दी। 1886 में कांग्रेस के द्वितीय अधिवेशन में महामना के

भाषण ने राष्ट्रीय नेताओं को काफी प्रभावित किया। अब वे कालाकाँकर

आकर दैनिक समाचार पत्र ‘हिन्दुस्तान’ का सम्पादन करने लगे। 1887 से

1889 तक इस कार्य को सफलता पूर्वक किया। महामना की बहुमुखी प्रतिभा

इसी तथ्य से स्पष्ट है कि समाचार पत्र के सम्पादन के साथ-साथ उन्होंने

वकालत की पढ़ाई जारी रखी। 1891 में वकालत की परीक्षा उत्तीर्ण कर आप

इलाहाबाद उच्च न्यायालय में वकालत करने लगे।

अधिवक्ता के रूप में महामना को बहुत अधिक सफलता मिली और

उनकी ख्याति चारों ओर फैल गई। अब उनका सामाजिक-राजनीतिक कार्य

क्षेत्र काफी विस्तृत हो गया था। वे देश को राजनीतिक नेतृत्व देने के लिए

तैयार थे। 1909 और 1918 में वे कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए। इस प्रकार वे देश

के अग्रणी नेता के रूप में कांग्रेस और देश को नेतृत्व प्रदान करते रहे।

महामना मूलत: एक शिक्षाविद् और एक अध्यापक थे। भारत राष्ट्र की

नींव को मजबूत करने हेतु वे शिक्षा का प्रचार-प्रसार चाहते थे। इसी सपने को

साकार करने के लिए 4 फरवरी, 1916 को विद्या की नगरी बनारस में उन्होंने

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना की। जीवन पर्यन्त वे देश, समाज और

राष्ट्र की सेवा करते रहे। अन्तत: 12 नवम्बर, 1946 सूर्य के अवसान बेला में

इस महामानव का देहावसान हो गया।

मदन मोहन मालवीय की जीवन-दृष्टि 

महामना की जीवन-दृष्टि के दो आधार थे: ईश्वर भक्ति और देश

भक्ति। इन दोनों का उत्कृष्ट संश्लेषण, ईश्वरभक्ति का देशभक्ति में अवतरण

तथा देशभक्ति की ईश्वरभक्ति में परिपक्वता उनकी जीवन-दृष्टि का विशेष

पक्ष था। महामना का विश्वास था कि मनुष्य के पशुत्व को ईश्वरत्व में परिणत

करना ही धर्म है।

महामना सच्चो अर्थों में तपस्वी थे। सात्विक तप के सारे पक्ष उनमें

विद्यमान थे। श्रीमद्भगवतगीता में वर्णित कायिक, वाचिक और मानसिक तप

के वे साधक थे। काम-क्रोध-लोभ-मोह से स्वंय को बचाना, सदा शुद्ध

संकल्पयुक्त रहना, विषयवृत्ति पर विजय प्राप्त करना, व्यवहार में छल-कपट

से अपने को दूर रखना उनका मानसिक तप था। असत्य, दु:खदायी, अप्रिय

और खोटे वचनों का त्याग; तथा प्रिय, सत्य, मधुर शब्दों का प्रयोग उनका

वाचिक तप था।

दूसरों की सहायता करना, समाज की सेवा करना, देश और

जाति के लिए अपने शरीर को होने वाले कष्टों की परवाह न करना उनका

शारीरिक तप था।

महामना प्रखर राष्ट्रवादी और उच्चकोटि के देशभक्त थे। देश की

स्वतंत्रता, राष्ट्र के गौरव की वृद्धि, तथा जनता की सर्वागींण उन्नति उनकी

देश सेवा के मुख्य लक्ष्य थे। वे जाति, भाषा, सम्प्रदाय, क्षेत्र के आधार पर

भारतीयों के मध्य बढ़ते दुराव को समाप्त कर भारत को एक शक्तिशाली राष्ट्र

और संप्रभु देश के रूप में देखना चाहते थे।

महामना का कार्यक्षेत्र अत्यन्त ही विस्तृत और व्यापक था। समाजसेवा

का शायद ही ऐसा कोई पक्ष हो जो उनके कार्य परिधि में न आया हो।

सनातन धर्म का प्रचार, प्राचीन भारतीय संस्कृति का उत्थान, हिन्दू हितों की

रक्षा, हिन्दी का प्रचार, गौमाता की सेवा, सामाजिक कुरीतियों का विरोध,

स्वंय सेवकों का संगठन, ज्ञान-विज्ञान की विभिन्न शाखाओं की वृद्धि, शिक्षा

का विस्तार, मल्ल-शालाओं का उद्घाटन, वंचितों के कष्टों का निवारण,

हरिजनों का उत्थान, लोकतांत्रिक मर्यादाओं की प्रतिष्ठा, राष्ट्रीयता की

भावना का विकास, प्रगतिशील सिद्धान्तों का प्रतिपादन, देश-काल के अनुकूल

संस्कृति का विकास आदि सभी क्षेत्रों में उनका योगदान अत्यधिक महत्वपूर्ण

है।


महामना आदर्शवादी विचारक 

महामना के आर्दशवादी विचारक एवं शिक्षाशास्त्री होने में कोई सन्देह

नहीं है। वे शिक्षा को अध्यात्म से अलग नही करते थे। उन्हें सनातन या

शाश्वत जीवन मूल्यों पर पूर्ण विश्वास था। सत्य को उन्होंने कभी भी

परिवर्तनशील नहीं माना। महामना ऐसी शिक्षा के पक्षपाती थे जो विद्याथ्री में

आत्म-अनुशासन की भावना बढ़ाये तथा व्यक्तित्व का सर्वागींण विकास करे।

महामना चाहते थे कि विद्याथ्री में नैतिकता, मानवता, दृढ़ संकल्प, नि:स्वार्थ

सेवा के गुण हों। वे उच्च चरित्र को अत्यधिक महत्व प्रदान करते थे। महामना

का स्पष्ट मत था कि जो व्यक्ति अपने धर्म में विश्वास करेगा, धर्म के मार्ग का

अनुसरण करेगा उसमें मानवता होगी और वह स्वयं तथा समाज के लिए

उत्तरदायी होगा। महामना मालवीय में ये सारे गुण थे।


मदन मोहन मालवीय का शिक्षा दर्शन

महामना सही अर्थों में शिक्षा को सर्वाधिक प्रभावशाली शक्ति मानते

थे। वे भारत के सांस्कृतिक-सामाजिक और राजनीतिक-आर्थिक पराभव का

कारण भारतीयों की निरक्षरता एवं अशिक्षा को मानते थे। उनका कहना था

कि ‘‘यदि देश का अभ्युदय चाहते हो तो सब प्रकार से यत्न करो कि देश में

कोई बालक या बालिका निरक्षर न रहे।’’ उनके अनुसार देश की दुर्दशा को

समाप्त करने का एकमात्र साधन साक्षरता एवं शिक्षा है। अत: उन्होंने अपने

जीवन के अधिक महत्वपूर्ण भाग को शिक्षा में लगाया।

महामना शिक्षा को मानव-जीवन के सर्वागींण विकास का साधन

मानते थे। उनकी दृष्टि में शिक्षा वह है जो विद्याथ्री की शारीरिक, बौद्धिक

तथा भावात्मक शक्तियों को परिपुष्ट और विकसित कर सके तथा भविष्य में

किसी व्यवसाय द्वारा ईमानदारी से जीवन-निर्वाह करने के योग्य बना सके।

महामना शिक्षा के द्वारा युवा वर्ग को कलात्मक और सौन्दर्यपूर्ण जीवन के

लिए तैयार करना चाहते थे। वे शिक्षा को राष्ट्रप्रेम जागृत करने वाली शक्ति

बनाना चाहते थे ताकि नई पीढ़ी निस्वार्थ भाव से समाज एवं राष्ट्र की सेवा कर

सके।

मदन मोहन मालवीय शिक्षा को मानव मात्र का अधिकार मानते थे

तथा इसका समुचित प्रबन्ध करना राज्य का कर्त्तव्य मानते थे। वे शिक्षा की

एक ऐसी राष्ट्रीय प्रणाली विकसित होते देखना चाहते थे जिसमें प्रारम्भिक

और माध्यमिक विद्यालयों में शिक्षा नि:शुल्क हो। वे कहते थे ‘‘सब स्तर पर

शिक्षा का ऐसा प्रबन्ध हो कि कोई बच्चा निर्धन होने के कारण उससे वंचित

न रह पाये।’’ उनका मानना था कि शिक्षा के व्यापक विस्तार से सामाजिक

कुरीतियों और आर्थिक विषमताओं को दूर किया जा सकता है।

महामना पुरूषों की शिक्षा से अधिक महत्वपूर्ण स्त्रियों की शिक्षा को

मानते थे। इसका कारण यह है कि वे ही देश की भावी संतान की मातांए हैं।

उनकी इच्छा थी कि राष्ट्रीय कार्यक्रम के आधार पर स्त्रियों को इस तरह

शिक्षित किया जाये कि उनमें प्राचीन तथा आधुनिक संस्कृतियों के बेहतर पक्षों

का समन्वय हो। वे नारियों को इतना सबल बनाना चाहते थे कि वे भारत के

पुनर्निमाण में वे महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकें।


शिक्षा का उद्देश्य 

महामना को शिक्षा में वह

शक्ति दिखती थी जो व्यक्ति, समाज और राष्ट्र तीनों के विकास के लिए

आवश्यक है। इसके लिए उन्होंने शिक्षा के व्यापक उद्देश्य निर्धारित किए।

1. व्यक्तित्व का सर्वागींण विकास- महामना शिक्षा के द्वारा सम्पूर्ण व्यक्तित्व का विकास चाहते थे। केवल

बौद्धिक विकास को वे अर्थहीन मानते थे। विद्याथ्री के बौद्धिक, शारीरिक,

मानसिक एवं भावात्मक पक्षों के समन्वित विकास को महामना ने शिक्षा का

परम लक्ष्य माना।

2. शारीरिक विकास- महामना का मानना था कि दुर्बल शरीर वाले व्यक्ति सबल राष्ट्र का

निर्माण नहीं कर सकते। उनके अनुसार शिक्षा व्यवस्था का एक महत्वपूर्ण

उद्देश्य शारीरिक विकास है। ‘मेरा बचपन’ नामक लेख में महामना ने लिखा

‘‘स्वास्थ्य के तीन खम्भे हैं- आहार, शयन और ब्रह्मचर्य। तीनों की युक्तिपूर्वक

सेवन करने से स्वास्थ्य अच्छा रहेगा।’’ वे चाहते थे कि प्रत्येक विद्याथ्री

पच्चीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन करे तथा प्रतिदिन नियम से व्यायाम करे।

उनका मानना था कि ब्रह्मचर्य ही व्यक्ति को आत्मबल देता है, जिसके द्वारा

व्यक्ति संसार में सब कष्टों और कठिनाईयों का साहस के साथ सामना कर

सकता है।

3. चरित्र गठन हेतु शिक्षा- महामना की दृष्टि में चरित्र गठन शिक्षा का सर्वप्रमुख उद्देश्य है।

विनम्रता विहीन ज्ञान, उनकी दृष्टि में निरर्थक है। वे व्यक्ति के उत्कर्ष और

राष्ट्र की उन्नति के लिए उज्ज्वल चरित्र को बौद्धिक तथा व्यवसायिक विकास

से कहीं अधिक महत्वपूर्ण मानते थे। उनके अनुसार सदाचार मनुष्य का

परमधर्म है, उसका पालन मनुष्य का पुनीत कर्तव्य तथा उसकी वृद्धि उसका

पुरूषार्थ है।

4. राष्ट्रीयता की भावना का विकास- महामना मालवीय ने शिक्षा के एक महत्वपूर्ण उद्देश्य राष्ट्रभक्ति की

भावना का विकास बताया। उनके अनुसार शिक्षित व्यक्ति को राष्ट्र के प्रति

नि:स्वार्थ भक्ति भाव रखना चाहिए। उन्होंने कहा ‘‘यह भारत हमारा देश है।

सभी बातों के विचार से इसके समान संसार में कोई दूसरा देश नहीं है। हमको

इस बात के लिए कृतज्ञ और गौरवान्वित होना चाहिए कि उस कृपालु परमेश्वर

ने हमें इस पवित्र देश में पैदा किया।’’ महामना ने भारतीय राष्ट्रीयता का आधार ‘हिन्दुत्व’ माना। अत: वे

हिन्दुत्व पर आधारित राष्ट्रभक्ति की शिक्षा का उद्देश्य बनाना चाहते थे। यहाँ

यह तथ्य उल्लेखनीय है कि महामना की ‘हिन्दू’ की धारणा बड़ी व्यापक थी।

भारत के सभी निवासियों को वे हिन्दू मानते थे। वस्तुत: हिन्दुत्व को वे एक

श्रेष्ठ जीवन शैली के रूप में देखते थे। वे हिन्दुत्व पर आधारित भारतीय

संस्कृति का हर तरह से विकास करना चाहते थे।

5. सेवा भावना का विकास- महामना की दृष्टि में सेवा से बड़ा कोई धर्म नहीं है। वे सभी जीवों में

ईश्वर का अंश देखते थे। उनका मानना था कि पीड़ित, वंचित, दुखी व्यक्ति

की सेवा वस्तुत: ब्रह्म प्राप्ति का सबसे उपयुक्त साधन है। वे विद्याथ्री में सेवा

एवं सदाचार का भाव प्रारम्भ से ही विकसित करना चाहते थे।

इस प्रकार महामना मदन मोहन मालवीय ने शिक्षा का अत्यन्त ही

विस्तृत उद्देश्य रखा। वे शिक्षा द्वारा राष्ट्रभक्त, सदाचारी, चरित्रवान, स्वावलम्बी

भारतीय नागरिक का निर्माण करना चाहते थे।


महामना द्वारा स्थापित शैक्षिक संस्थायें 

महामना मदन मोहन मालवीय शिक्षा को राष्ट्र की उन्नति का अमोघ

अस्त्र मानते थे। अत: उन्होंने शैक्षिक संस्थाओं की स्थापना अपने जीवन का

महत्वपूर्ण लक्ष्य बनाया। इसके लिए वे किसी से भी दान लेने में संकोच नही

करते थे, पर दान के धन को शैक्षिक संस्थाओं की स्थापना और विकास पर

ही लगाते थे, व्यक्तिगत कार्यों हेतु नहीं। उन्होंने निम्नलिखित प्रमुख शैक्षिक

संस्थाओं का निर्माण कराया-

हिन्दू बोर्डिंग हाउस 

महामना उचित शिक्षा हेतु छात्रावास के महत्व को समझते थे। अत:

उन्होंने 1901 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के म्योर सेन्ट्रल कॉलेज के लिए

230 कमरों का एक विशाल छात्रावास का निर्माण कराया। यह छात्रावास

1903 में बनकर तैयार हुआ। इसके निर्माण में ढ़ाई लाख से अधिक रूपये खर्च

हुए थे, जिसमें एक लाख रूपये की राशि उन्हें प्रान्तीय सरकार से मिली थी,

शेष राशि उन्होंने चन्दा से इकट्ठा किया। प्रारम्भ में इस छात्रावास का नाम

‘मैकडोनल हिन्दू बोर्डिंग हाउस’ रखा गया पर महामना के देहावसान के

उपरांत इसका नाम बदलकर मालवीय हिन्दू बोर्डिंग हाउस कर दिया गया।

गौरी पाठशाला 

महामना सारे समाज की उन्नति के लिए नारी शिक्षा को आवश्यक

मानते थे। वे देश सेवा के लिए नारी को भी उतना ही महत्वपूर्ण मानते थे

जितना पुरूष को। वे तेजस्वी और सुशील मातांए चाहते थे।

महामना छात्राओं के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य और चरित्र

गठन पर पढ़ाई से कम जोर नहीं देते थे। वे कहते थे ‘‘वही (चरित्र) तो

स्त्री-शिक्षा का पावन स्रोत है। स्रोत कलुषित होने से शिक्षा विकृत होकर

हानि पहुँचाती है।’’ सन् 1904 में मालवीय जी ने राजर्षि पुरूषोत्तम दास टंडन

और बालकृष्ण भट्ट के सहयोग से गौरी पाठशाला की स्थापना की। यह

आजकल उच्चतर माध्यमिक महाविद्यालय हो गया है। इसमें एक हजार से

भी अधिक लड़कियाँ पढ़ती हैं।

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय 

अपने सपनों एवं उद्देश्यों को साकार रूप देने के लिए तथा शिक्षा के

व्यापक प्रचार-प्रसार के लिए महामना ने काशी में हिन्दू विश्वविद्यालय की

स्थापना की। 1 अक्टूबर, 1915 को बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी एक्ट पास हुआ

और 4 फरवरी, 1916 को भारत के वायसराय लार्ड हार्डिंग ने इसका

शिलान्यास किया।

यह विश्वविद्यालय अपने में कई महत्वपूर्ण विशेषतायें समाहित किये

हुये है। अंग्रेजी साहित्य तथा आधुनिक मानविकी और विज्ञान के साथ-साथ

हिन्दू धर्म एवं विज्ञान, भारतीय इतिहास एवं संस्कृति एवं विभिन्न प्राच्य

विधाओं का अध्ययन इस विश्वविद्यालय की विशेषता है।

कला संकाय में विभिन्न विषयों के पाठ्यक्रम में आधुनिक पाश्चात्य

विद्वानों के साथ ही साथ प्राचीन भारतीय विद्वानों के विचारों और सिद्धान्तों

का ज्ञान भी शामिल था। दर्शनशास्त्र के विद्यार्थियों को कांट और हीगल के

साथ अनिवार्यत: कपिल और शंकर के सिद्धान्तों का भी अध्ययन करना होता

था। राजनीति के विद्यार्थियों को भारतीय राजनीतिक विचारों और संस्थाओं

का अध्ययन करना होता था।

महामना स्वतंत्र विचारों के निभ्र्ाीक व्यक्ति थे। उनके योग्य संरक्षण में

विश्वविद्यालय के राजनीतिशास्त्र विभाग में स्वतंत्रता प्राप्ति के डेढ़ दशक पूर्व

ही भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन का इतिहास, आधुनिक भारतीय सामाजिक

और राजनीतिक विचार तथा समाजवादी सिद्धान्तों का इतिहास आदि विषयों

का अध्यापन स्वतंत्रता के वातावरण में, पूरी निष्ठा के साथ किया जाता था।

दूसरे विश्वविद्यालयों के लिए यह अकल्पनीय बात थी।

महामना आर्थिक विकास में आधुनिक विज्ञान और तकनीक की भूमिका

से भली भाँति परिचित थे। धन की कमी होने के बावजूद महामना ने

विश्वविद्यालय में धातु विज्ञान, खनन विज्ञान, भू विज्ञान, विद्युत इंजीनियरिंग,

यांत्रिक इंजीनियरिंग, रसायन विज्ञान, शिल्प, औषधि निर्माण, चिकित्सा की

शिक्षा आदि की समुचित व्यवस्था करायी।

विश्वविद्यालय का निरन्तर विकास हो रहा है। इसके तीन संस्थान-

इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी, इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज और

इंस्टीट्यूट ऑफ एग्रीकल्चर साइंसेज काफी प्रसिद्ध है। विश्वविद्यालय में

वर्त्तमान में चौदह संकाय और सौ से भी अधिक विभाग है। मुख्य परिसर से

लगभग साठ किलोमीटर दूर मिर्जापुर के समीप एक नवीन परिसर, ‘राजीव

गाँधी परिसर’ ने काम करना प्रारम्भ कर दिया है। भय यह है कि विकास की

इस रफ्तार में कहीं काशी हिन्दू विश्वविद्यालय महामना के उद्देश्यों को विस्मश्त

न कर बैठे।

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