Aryabhat University C7b syllabus patna bihar

इकाई I: गणित और इसके विकास में मुख्य सामग्री

गणित में शिक्षण प्रक्रिया: अभिगृहीत, अभिधारणाएं और प्रमाणों के प्रकार: आवश्यक और पर्याप्त शर्तें।

गणित में अवधारणाएँ (संख्या प्रणाली, भिन्न, बहुपद, क्षेत्रमिति, त्रिकोणमिति, त्रिभुजों की संगति, द्विघात समीकरण, लाभ और हानि, डेटा प्रबंधन आदि)

गणित में भ्रांतियाँ और उन्हें दूर करने की रणनीतियाँ।

गणित शिक्षण में दृष्टिकोण के रूप में समस्या समाधान

इकाई II: गणित शिक्षण में नवाचार

आधुनिक रुझान और गणित शिक्षण-सहयोगात्मक और गतिविधि आधारित शिक्षा

गणित शिक्षा में प्रमुख चिंताएँ: एनसीएफ-2005, बीसीएफ 2008।

गणित में उन्नत शिक्षण सहायक सामग्री और सीखने के संसाधन

एक अच्छी गणित की पाठ्यपुस्तक के लक्षण.

गणित शिक्षकों की भूमिका एवं जिम्मेदारी

स्कूलों में गणित से संबंधित गतिविधियों को बढ़ावा देना: गणित प्रयोगशाला, फील्ड विजिट और गणित प्रदर्शनी।


मूल्यांकन का अर्थ, परिभाषा, उद्देश्य, विशेषताएँ एवं प्रकार

 

मूल्यांकन का अर्थ, परिभाषा, उद्देश्य, विशेषताएँ एवं प्रकार


मूल्यांकन का अर्थ (Meaning of Evaluation)

मूल्यांकन का शाब्दिक अर्थ मूल्य का अंकन करना है। दूसरे शब्दों में मूल्यांकन मूल्य निर्धारण की प्रक्रिया है। मूल्यांकन शिक्षण प्रक्रिया का एक अविच्छिन्न अंग है। यह प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है। शिक्षक अपनी कक्षा के छात्रों का मूल्यांकन करते रहते हैं। मापन के अन्तर्गत किसी व्यक्ति या वस्तु के गुणों अथवा विशेषताओं का वर्णन किया जाता है जबकि मूल्यांकन के अन्तर्गत उस व्यक्ति अथवा वस्तु की विशेषताओं की वांछनीयता पर दृष्टिपात किया जाता है। मापन मूल्यांकन का एक अंग मात्र है।

मूल्यांकन के अन्तर्गत किसी गुण, योग्यता अथवा विशेषता का मूल्य निर्धारित किया जाता है, अर्थात् मूल्यांकन द्वारा परिमाणात्मक या गुणात्मक दोनों ही प्रकार को सूचनाएँ प्राप्त होती हैं जिनके आधार पर बालक की योगयता एवं उपलब्धियों का आंकलन किया जाता है। मूल्यांकन के शाब्दिक अर्थ को इस प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है

मूल्यांकन = मापन + मूल्य निर्धारण

इस प्रकार मूल्यांकन का आशय मापन के साथ-साथ मूल्य निर्धारण से है, अर्थात् अधिगम अनुभवों द्वारा विद्यार्थी में अपेक्षित व्यवहारगत परिवर्तन किस सीमा तक हुए? इसका मूल्य निर्धारण (मूल्यांकन) करके निर्णय देना है। अतः मापन मूल्यांकन का ही भाग है तथा सदैव उसमें निहित रहता है।

मूल्यांकन की परिभाषा (Definition of Evaluation)

मूल्यांकन की परिभाषाएं निमंलिखित हैं-

1. ब्रेडफील्ड एवं मोरडोक के अनुसार, "मूल्यांकन किसी घटना को प्रतीक आवष्टित करना है जिससे उस घटना का महत्त्व अथवा मूल्य किसी सामाजिक, सांस्कृतिक अथवा वैज्ञानिक मानदण्ड के सन्दर्भ में ज्ञात किया जा सके।"

2. एच० एच० रैमर्स तथा एम० एल० गेज के अनुसार, "मूल्यांकन में व्यक्ति अथवा समाज अथवा दोनों की दृष्टि से क्या अच्छा है अथवा क्या वांछनीय है का विस्तार निहित रहता है।"

3. एन० एम० डाण्डेकर के अनुसार, “मूल्यांकन को छात्रों के द्वारा शैक्षिक उद्देश्यों को प्राप्त करने की सोमा ज्ञात करने की क्रमबद्ध प्रक्रिया के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।"

मूल्यांकन के उद्देश्य (Objectives of Evaluation)

1. छात्रों की वृद्धि एवं विकास में सहायता करना:- मूल्यांकन छात्रों की वृद्धि एवं विकास में सहायता करता है। छात्र मूल्यांकन के माध्यम से अपनी प्रगति के बारे में जान पाते हैं और अपने विकास का प्रयास करते हैं। छात्र को जिस क्षेत्र में अपने विकास में कमी लगती है वह उस क्षेत्र के विकास पर अधिक ध्यान केन्द्रित करता है। इस प्रकार उसका चतुर्मुखी विकास सम्भव हो पाता है।

2. छात्रों द्वारा अर्जित ज्ञान की जाँच करना:- मूल्यांकन द्वारा छात्र ने जिस ज्ञान को अर्जित किया है, वह कितना उपयोगी है तथा छात्र उसके माध्यम से अपना कितना विकास कर पाया है इस बात की जाँच मूल्यांकन के माध्यम से ही होना सम्भव है।

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3. छात्रों की वृद्धि तथा विकास में उत्पन्न अवरोधों को जानना:– मूल्यांकन का एक उद्देश्य यह भी है कि छात्रों की वृद्धि तथा विकास के मार्ग में कौन-कौन से अवरोध उत्पन्न हो रहे हैं। उन परेशानियों को चिह्नित करना तथा उन्हें दूर करना। बालक का सर्वतोमुखी विकास तभी सम्भव है जब उसे अपनी बुद्धि एवं विकास के मार्ग की रुकावटों की जानकारी होगी और यह कार्य मूल्यांकन करता है।

4. छात्रों की शैक्षिक प्रगति में बाधक तत्त्वों को जानना:- मूल्यांकन के माध्यम से छात्रों की शैक्षिक प्रगति में आने वाले बाधक तत्त्वों का जान हो जाता है जिसके फलस्वरूप भविष्य में छात्र उन बाधक तत्त्वों को दूर करने का प्रयास करता है, निरन्तर अभ्यास करता है, अपनी कमियों को दूर करने का प्रयास करता है। अतः मूल्यांकन का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य शैक्षिक प्रगति में बाधक तत्त्वों को जानना भी है। छात्रों को सोखने सम्बन्धी कठिनाइयों तथा कमजोरियों का ज्ञान होना आवश्यक है। मूल्यांकन की तकनीकी के प्रयोग से छात्रों की सोखने सम्बन्धी तत्त्वों को जानकर उन समस्याओं का निदान किया जाता है जो छात्र की शैक्षिक प्रगति में बाधक होते हैं।

5. छात्रों में प्रतियोगिता की भावना विकसित करना:— मूल्यांकन का एक उद्देश्य छात्रों में प्रतियोगिता की भावना विकसित करना भी है। छात्र प्रतियोगिता में सम्मिलित होने के लिए अपनी कमियों को दूर करने का प्रयास करते हैं तथा अपना चतुर्मुखी विकास करना चाहते हैं। इस प्रकार मूल्यांकन छात्रों में प्रतियोगिता की भावना के द्वारा उनका विकास करने का प्रयास करता है।

6. छात्रों की व्यक्तिगत भिन्नताओं की जानकारी करना:- मूल्यांकन का एक उद्देश्य छात्रों की व्यक्तिगत भिन्नताओं को जानना भी है। कुशाग्र एवं मन्द बुद्धि छात्रों में भेद करने के लिए, अच्छी योग्यता एवं कम योग्यता के छात्रों में अन्तर करने के लिए हमें छात्रों की बुद्धि एवं योग्यता की विभिन्नताओं का मूल्यांकन करना आवश्यक होगा।

7. छात्रों का चयन एवं वर्गीकरण करना:- मूल्यांकन का एक उद्देश्य छात्रों का चयन एवं वर्गीकरण करना भी है। कक्षा शिक्षण करते समय छात्रों के बौद्धिक स्तर के आधार पर उनका चयन प्रतिभाशाली, सामान्य स्तर तथा मन्द बुद्धि के स्तर के छात्रों के रूप में जानना तथा उसी प्रकार वर्गीकरण के आधार पर छात्रों को शिक्षण देने के लिए मूल्यांकन की आवश्यकता पड़ती है।

8. कक्षोन्नति व रोजगार के लिए शैक्षिक योग्यता का प्रमाण:- पत्र देना-कक्षोन्नति एवं रोजगार प्राप्त करने के लिए प्रमाण पत्रों की आवश्यकता होती है। यह प्रमाण पत्र छात्रों को उनके मूल्यांकन के आधार पर ही वितरित किये जाते है जिसमें छात्रों को ग्रेड तथा नम्बर आदि लिखे होते हैं जो कि प्राप्त शैक्षिक योग्यता का प्रमाण होते हैं अतः इन सभी के लिए मूल्यांकन को आवश्यकता होती है।

9. शैक्षिक मानकों का निर्धारण करना:- मूल्यांकन के आधार पर ही शैक्षिक मानको का निर्धारण किया जाता है। जिस आधार पर छात्रों का स्तर तथा ग्रेड दिये जाते हैं उसी आधार पर प्रमाण-पत्र भी वितरित किये जाते है। बहुत अच्छा, अच्छा, सामान्य, मन्द बुद्धि के आधार पर ही मानक निश्चित किये जाते हैं। शैक्षिक निष्पत्ति में छात्र का स्तर क्या है यह इन मानकों के आधार पर ही पता चलता है।

10. छात्रों के शैक्षिक तथा व्यावसायिक निर्देशन के लिए आधार तैयार करना:— मूल्यांकन के द्वारा ही छात्रों के शैक्षिक तथा व्यावसायिक निर्देशन के लिए आधार तैयार किया जाता है। मूल्यांकन के परिणामों के आधार पर शैक्षिक एवं व्यावसायिक दिशा निर्देशन भी दिया जाता है। छात्र जिस क्षेत्र में अच्छा प्रदर्शन करता है उस क्षेत्र में उसकी सफलता की अधिक सम्भावना आँकी जाती है।

11. शिक्षण में सुधार लाना:- मूल्यांकन द्वारा यह विदित हो जाता है कि छात्र की शैक्षिक कमजोरियाँ क्यों या किन क्षेत्रों में है। भविष्य में शिक्षण करते समय शिक्षक शिक्षण में सुधार लाकर छात्रों की उन कमजोरियों को दूर करने का प्रयास करता है।

12. अध्यापकों की शिक्षण प्रभावशीलता को ज्ञात करना:- मूल्यांकन वह प्रक्रिया है जिसके माध्यम से शिक्षक अपने विषय का कितना जाता है, वह कितना प्रभावशीलता के साथ शिक्षण कार्य कर रहा है, इसका भी ज्ञान हो जाता है। अतः मूल्यांकन छात्रों के साथ-साथ शिक्षकों की शिक्षण प्रभावशीलता का मापन करने का भी एक साधन है।

मूल्यांकन के कार्य (Tasks of Evaluation)

शिक्षा के क्षेत्र में मापन एवं मूल्यांकन के जो उद्देश्य हैं, वही उसके कार्य हैं। मूल्यांकन के उद्देश्य अथवा कार्य को हम निम्नलिखित रूप में क्रमबद्ध कर सकते हैं-

  1. प्रवेश के समय प्रवेशार्थियों की योग्यता का मापन करना, उनकी रुचि और रुझान का पता लगाना और इस सबके आधार पर उन्हें प्रवेश देना।
  2. प्रवेश के बाद उनकी बुद्धि एवं व्यक्तित्व का मापन करना और उसके आधार पर उन्हें वर्ग-विशेषों में विभाजित करना और समय-समय पर व्यक्तित्व निर्माण में सहयोग देना।
  3. समय-समय पर छात्रों पर शिक्षण के प्रभाव का पता लगाना और उसके आधार पर छात्रों का मार्गदर्शन करना, उन्हें सौखने के लिए अभिप्रेरित करना।
  4. समय-समय पर छात्रों की शैक्षिक उपलब्धियों का मापन एवं मूल्याकन करना और उन्हें पृष्ठपोषण प्रदान करना।
  5. समय-समय पर छात्रों की शैक्षिक प्रगति में बाधक तत्त्वों की जानकारी करना और उनका उपचार करना।
  6. समय-समय पर छात्रों की कठिनाइयों का पता लगाना और उनका निवारण करना।
  7. सत्रान्त में छात्रों को उपलब्धि परीक्षा के आधार पर पास फेल करना, श्रेणी प्रदान करना, कक्षोन्नति देना और प्रमाण-पत्र देना।
  8. सामान्य शिक्षा प्राप्त करने के बाद छात्रों को बुद्धि, रुझान और योग्यता का पता लगाना और उसके आधार पर उन्हें शैक्षिक एवं व्यावसायिक निर्देशन देना।
  9. समय-समय पर शिक्षकों के छात्रों के प्रति व्यवहार और उसके छात्रों पर प्रभाव का पता लगाना, सुधार के लिए सुझाव देना और क्रियात्मक अनुसन्धान के लिए मार्ग प्रशस्त करना।
  10. समय-समय पर प्रधानाचार्य के शिक्षकों एवं छात्रों के प्रति व्यवहार का शैक्षिक प्रक्रिया पर पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन करना और सुधार के लिए सुझाव देना।
  11. समय-समय पर शिक्षक प्रशासकों एवं अन्य कर्मचारियों और अभिभावकों की क्रियाओं के शैक्षिक महत्त्व की परख करना, उन्हें सुधार के लिए सुझाव देना।
  12. शिक्षा के उद्देश्यों की व्याख्या करना, उनकी उपयोगिता की परख करना, उनमें समयानुकूल परिवर्तन हेतु सुझाव देना।


मापन का अर्थ, परिभाषा, क्षेत्र, महत्त्व, सीमाएँ, स्तर एवं प्रकार | Meaning and Definition of Measurement in hindi

 

मापन का अर्थ (Meaning of Measurement)

किसी भौतिक राशि का परिमाण संख्याओं में व्यक्त करने को मापन कहा जाता है। मापन मूलतः तुलना करने की एक प्रक्रिया है। इसमें किसी भौतिक राशि की मात्रा की तुलना एक पूर्वनिर्धारित मात्रा से की जाती है। इस पूर्वनिर्धारित मात्रा को उस राशि-विशेष के लिये मात्रक कहा जाता है। उदाहरण के लिये जब हम कहते हैं कि किसी पेड़ की उँचाई 10 मीटर है तो हम उस पेड़ की उचाई की तुलना एक मीटर से कर रहे होते हैं। यहाँ मीटर एक मानक मात्रक है जो भौतिक राशि लम्बाई या दूरी के लिये प्रयुक्त होता है। इसी प्रकार समय का मात्रक सेकण्ड, द्रव्यमान का मात्रक किलोग्राम आदि हैं।


'मापन' एक निरपेक्ष शब्द है जिसकी व्याख्या करना कठिन है। प्रायः मापन से अभिप्राय यह लगाया जाता है कि यह प्रदत्तों का अंकों के रूप में वर्णन करता है। मापन किसी भी वस्तु का शुद्ध एवं वस्तुनिष्ठ रूप से वर्णन करता है।

मापन की परिभाषा (Definition of Measurement)

1. एस० एस० स्टीवेन्स के अनुसार, "मापन किन्ही निश्चित स्वीकृत नियमों के अनुसार वस्तुओं को अंक प्रदान करने की प्रक्रिया है।"

2. हैल्मस्टेडटर के अनुसार, "मापन को एक प्रक्रिया के रूप में परिभाषित किया जाता है जिसमें किसी व्यक्ति या पदार्थ में निहित विशेषताओं का आंकिक वर्णन होता है।"

3. गिलफोर्ड के अनुसार- “मापन वस्तुओं या घटनाओं को तर्कपूर्ण ढंग से संख्या प्रदान करने की क्रिया है।”

साधारण शब्दों में, "मापन क्रिया विभिन्न निरीक्षणों, वस्तुओं अथवा घटनाओं को कुछ विशिष्ट नियमों के अनुसार सार्थक एवं संगत रूप से संकेत चिह्न अथवा आंकिक संकेत प्रदान करने की प्रक्रिया है।" अर्थात् हम मापन के अन्तर्गत विभिन्न निरीक्षणों, वस्तुओं एवं घटनाओं का मात्रात्मक रूप से वर्णन करते हैं। इसमें अंक प्रदान करने के लिए मापन के विभिन्न स्तरों के अनुकूल विशिष्ट नियमों एवं सिद्धान्तों को प्रतिपादित किया जाता है।

मापन के क्षेत्र (Scope of Measurement)

मापन का जीवन में अत्यन्त महत्त्व है। सोते जागते, उठते, पढ़ते, सभी समयों पर एवं अन्य अनेक अवसरों पर हम मापन का उपयोग करते हैं। मापन के अनेक क्षेत्र हैं। शिक्षा से सम्बन्धि मापन के क्षेत्र निम्न प्रकार हैं— कला, साहित्य, संगीत, हॉकी आदि में योग्यता का मापन गणित, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, अंग्रेजी में ज्ञानोपार्जन, क्लैरीकल काय, इन्जीनियरिंग, चिकित्सा आदि में अभिरुचि, जनतन्त्र, अल्पसंख्यकों, स्कूल, राष्ट्र, किसी संस्था के प्रति अभिवृत्ति, खेल, पाठन में रुचि तथा व्यक्ति के अनेक गुण जैसे- रचनात्मक प्रवृत्ति, अभियोजन और बुद्धि आदि सब मापन योग्य तथ्य हैं। स्कूल में परीक्षार्थियों को अंक देने में उनके, वर्गीकरण तथा तरक्की में, अध्यापकों को शिक्षा योग्यता का निर्णय करने में, पाठ्यक्रम का मूल्यांकन करने में, शिक्षा पर होने वाले कार्य को निश्चित करने में, परीक्षण की रचना करने में अर्थात् शिक्षा के हर क्षेत्र में मापन का प्रयोग करते हैं।

मापन के उद्देश्य (Objectives of Measurement)

मापन के उद्देश्य इस प्रकार हैं-

1. चयन:- विभिन्न स्कूलों, मेडिकल कॉलेजों, इन्जीयनियरिंग कालेजों, सेना एवं उद्योग में विद्यार्थियों का चयन किया जाता है। परीक्षणों द्वारा अनेक व्यक्तियों में से कुछ को छाँट लिया जाता है। यह उनकी बुद्धि, योग्यता, उपलब्धि आदि के मापन से किया जाता है। अनेक सेवाओं में कर्मचारियों का चयन करते समय साक्षात्कार एवं प्रक्षेपण विधियों का सहारा उनकी योग्यता, चरित्र, सहनशीलता आदि को मापने के लिए किया जाता है।

2. पूर्वकथन:- पूर्वकथन का अर्थ है- वर्तमान के आधार पर भविष्य के बारे में बताना। हम अपने जीवन में नित्य कोई न कोई निर्णय लेते हैं। एक व्यापारी यह निर्णय लेता है कि किस माल को कितना खरीदे, किस मूल्य से बेचे, कितने कर्मचारी रखे, किसको रखे। एक अध्यापक यह निर्णय लेता है कि उसके छात्र कैसे हैं और उन्हें किस स्तर का परीक्षण दिया जाये। एक चिकित्सक यह निर्णय लेता है कि रोगी को कैसे ठीक किया जाये, कौन-कौन सी दवाइयाँ दी जाये। इस प्रकार सभी निर्णयों में पूर्वकथन सन्निहित हैं।

3. तुलाना:- ज्ञान, बुद्धि व्यक्तिका उपलब्धि आदि सभी शीलगुणों में व्यक्तिगत भिन्नता पायी जाती है। परीक्षणों का एक मुख्य उद्देश्य इन भिन्नताओं का तुलनात्मक अध्ययन करना है। तुलनात्मक अध्ययन के लिए पहले हमें इन गुणों का मापन करना पड़ता है तथा मापन के आधार पर फिर तुलना करते हैं।

4. निदान:– निदान का अर्थ है-लक्षणों के आधार पर रोगों को पहचानना । शैक्षणिक निदान में अनेक तकनीकी प्रविधियों का प्रयोग होता है जिनका उद्देश्य सीखने की मुख्य कठिनाइयों का पता लगाना है तथा फिर उसका कारण और निराकरण का भी पता लगाना है। शैक्षणिक निदान में अनेक परीक्षणों, सांख्यिकीय प्रविधियों का प्रयोग होता है। विभिन्न विषयों पर बनी नैदानिक परीक्षाएं, नैदानिक चार्ट, मानचित्र आदि निदान में उपयोगी हैं। किसी विषय में नैदानिक परीक्षण से पहले तत्सम्बन्धी योग्यता की पहचान जरूरी है। निदान की सफलता मापन पर निर्भर करती है।

5. वर्गीकरण:— वर्गीकरण समानता तथा असमानता के आधार पर किया जाता है। विभिन्न स्कूलों, मेडिकल कॉलेजो, इन्जीनियरिंग कॉलेजों, उद्योगों तथा सेना आदि में वर्गीकरण का महत्त्व है। उदाहरणार्थ-स्कूल-कॉलेजों में छात्रों को उनकी योग्यता, उपलब्धि, अभिरुचि, बुद्धि के आधार पर वर्गीकृत किया जाता है। इसी प्रकार उद्योगों में तथा सेना में कर्मचारियों को उनकी अभिक्षमता, बुद्धि, योग्यता के आधार पर किया जाता है। वर्गीकरण के लिए आवश्यक है कि इन गुणों का मापन किया जाये और तब उस मापन के आधार पर उसे वर्गीकृत किया जाये।

6. शोध:— शोध में परोक्षणों का व्यापक प्रयोग किया जाता है। इसके लिए दो प्रकार के समूह लेते हैं। एक नियन्त्रित तथा दूसरा प्रयोगात्मक। प्रयोगात्मक समूह पर प्रयोग किये जाते हैं. और नियन्त्रित समूह को वास्तविक परिस्थितियों में रखा जाता है। दोनों का मापन करके प्रयोगात्मक तथा नियन्त्रित समूह के अन्तर का पता लगाते हैं कि व्यवहार में परिवर्तन हुआ या नहीं।

मापन का महत्त्व (Importance of Measurement)

शिक्षा के क्षेत्र में व्यापक परिवर्तन हुए हैं, विभिन्न प्रकार की तकनीक का विकास शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए किया जा रहा है। शिक्षा आज वैज्ञानिक विधि द्वारा दी जाती है। अच्छे परिणामों के लिए हमें शिक्षण में मापन की आवश्यकता है न कि हम जो छात्रों को सिखाना चाहते हैं। शिक्षण तथा अधिगम में मापन का महत्त्व संक्षेप में इस प्रकार है-

1. परीक्षार्थी की योग्यता का निर्धारण:- सभी परीक्षार्थियों में योग्यता का स्तर समान नहीं होता। यदि विभिन्न योग्यता-स्तर के छात्रों को समान शिक्षा एक ही विधि द्वारा दी जायेगी तो कम योग्यता वाले छात्रों को समझने में कठिनाई होगी तथा अधिक योग्यता वाले बच्चे कम योग्यता वाले बच्चों के साथ कठिनाई का अनुभव करेंगे; अतः योग्यता का मापन करके उन्हें अलग-अलग वर्गों में बाँट सकते है।

2. क्षमता का मापन:— विद्यार्थी की क्षमता का निर्धारण किया जा सकता है। यदि किसी छात्र की क्षमता कम है और उसे अधिक कार्य दिया जाये तो वह कर नहीं पायेगा और उस पर इसका बुरा प्रभाव पड़ेगा तथा अधिक क्षमता रखने वाले छात्रों को अधिक कार्य देकर ही हम उसे सन्तुष्ट कर सकते हैं।

3. शिक्षण विधियों-प्रविधियों का मापन:– शिक्षण में विभिन्न प्रकार की शिक्षण विधियों तथा प्रविधियों का प्रयोग होता है। किस पाठ्यक्रम को पढ़ाने के लिए किस विधि या प्रविधि का प्रयोग सबसे अच्छा है। इसके लिए फिर छात्रों को एक पाठ्यक्रम विभिन्न विधियों तथा प्रविधियो द्वारा पढ़ाया जाता है। फिर उनकी निष्पत्ति का मापन करके यह पता लगाते हैं कि कौन-सी विधि अच्छी है।

4. निदान:– विभिन्न विषयों पर नैदानिक परीक्षण बनाये जाते हैं जिनसे छात्रों को शिक्षा सम्बन्धी कठिनाइयों को दूर किया जाता है। निदान परीक्षण की सहायता से पता चलता है कि छात्र विषयवस्तु के किस भाग को समझने में कठिनाई महसूस करता है।

5. वर्गीकरण:- परीक्षण की सहायता से छात्रों को विभिन्न वर्गों में विभाजित किया जा सकता है; जैसे-विज्ञान वर्ग, साहित्यिक वर्ग, कला वर्ग, तकनीशियन, चिकित्सा इत्यादि।

6. छात्रों की तुलना करने में:- मापन द्वारा उत्कृष्ट बुद्धि तथा मन्द बुद्धि बालकों में अन्तर स्पष्ट कर सकते हैं, और उनकी तुलना की जा सकती हैं।

7. कक्षा मानक तथा उम्र मानक तैयार करना:- विभिन्न कक्षाओं के लिए मानकों का निर्धारण मापन द्वारा ही किया जा सकता है।

8. विभिन्न कक्षाओं के लिए पाठ्यक्रम का स्तर निर्धारण:- मापन द्वारा पाठ्यक्रम का कठिनाई स्तर तथा छात्रों की योग्यता बुद्धिमत्ता के आधार पर पाठ्यक्रम के निर्धारण में मापन का महत्त्व है।

9. समय निर्धारण:- विद्यालय में विभिन्न विषयों को पढ़ाने के लिए समय का निर्धारण इसका मापन विभिन्न कक्षाओं में समयानुसार होते हैं जहाँ पर भी मापन का प्रयोग होता है।

10. फलांकों का निर्धारण:- मापन से छात्रों द्वारा दिये गये उत्तरों के फलाकों का निर्धारण किया जाता है।

मापन की सीमाएँ (Limitations of Measurement)

आज के युग में मापन का अत्यन्त व्यापकता से प्रयोग किया जाता है, फिर भी कुछ कमियों के कारण मापन एक आलोचना का विषय रहा है। इसकी सीमाएँ इस प्रकार हैं-

  1. इसका क्षेत्र संकुचित एवं सीमित हैं। एक समय में हम व्यक्ति के केवल एक या कुछ ही पहलुओं का अध्ययन कर सकते हैं, इसके द्वारा सम्पूर्ण व्यवहार या व्यक्तित्व का अध्ययन कदापि सम्भव नहीं होता।
  2. मापन का रूप व्यवस्थित होता है। अतएव इसकी प्रक्रिया भी जटिल है। इसमें मानकीकृत परीक्षणों की आवश्यकता होती है तथा अच्छे विश्वसनीय एवं वैध परीक्षणों का समस्त क्षेत्रों में उपलब्ध होना प्रायः असम्भव ही है।
  3. मापन के द्वारा हमे किसी व्यक्ति या प्रक्रिया के विषय में केवल सूचनाएँ मिलती हैं, यह कोई निर्णय नहीं प्रदान करता है।
  4. यह केवल किसी पहलू पर अंकों प्रदर्शित करता है तथा उन अंकों से हमारा क्या तात्पर्य है, यह इंगित नहीं करता।

अतएव, इन सीमाओं के कारण भी मापन-क्रिया का व्यावहारिक जीवन में महत्त्वपूर्ण ढंग से प्रयोग किया जा रहा है जिसके फलस्वरूप आज का युग 'मापन युग' से जाना जाता है।

मापन के स्तर (Levels of Measurement)

विभिन्न चरों के मापन के प्रमुख रूप से चार स्तर होते हैं। इन स्तरों को मापन के चार पैमाने भी कहा जा सकता है क्योंकि इन चारों स्तरों या पैमानों पर ही समूह के विभिन्न व्यक्तियों की विशेषताओं या योग्यताओं का वर्णन किया जाता है। ये चारों स्तरों में पर्याप्त भिन्नता पायी जाती है। प्रत्येक स्तर की कुछ विशेषताएँ, नियम तथा सीमाएँ होती हैं जो दूसरे स्तर से पृथक होती हैं। इसी आधार पर मापन को चार भागों में विभक्त किया गया है—

  1. नामित स्तर
  2. क्रमित स्तर
  3. अन्तराल स्तर
  4. आनुपातिक स्तर

1. नामित स्तर:- यह सबसे निम्न स्तर का परिमार्जित स्तर का मापन होता है। इसमें किसी भी व्यक्ति, वस्तु की विशेषता के प्रकार के आधार पर उसे कुछ वर्गों या समूहों में बाँटा जाता है। इस प्रकार का मापन किसी गुण या विशेषता के आधार पर किया जाता है। इसका विभाजन जिन वर्गों या समूहों में किया जाता है। उन वर्गों में किसी तरह का कोई अन्तर निहित क्रम या सम्बन्ध नहीं पाया जाता है। प्रत्येक भाग विशेषता के किसी एक प्रकार को अभिव्यक्त करता है। गुण के प्रकारों को एक-एक नाम, शब्द, अंक, अक्षर अथवा कोई अन्य संकेत दे दिया जाता है।

उदाहरण के लिए विषयों के आधार पर स्नातक छात्रो को कला, वाणिज्य तथा विज्ञान के आधार पर निवास के आधार पर लोगों को ग्रामीण अथवा शहरी में तथा लिंग के आधार पर पुरुष एवं स्त्री, फर्नीचर को कुर्सी, मेज, स्टुल आदि में तथा फलों को आम, केला, सेब तथा अमरूद, अंगूर एवं पपीता में विभक्त करना नामिक मापन का उदाहरण है।

2. क्रमित मापन:– यह मापन नामित मापन से कुछ अधिक सुधरा हुआ होता है। यह किसी विशेषता की मात्रा के आधार पर अवलम्बित होता है। इस तरह के मापन में सदस्यों या वस्तुओं को उनमें निहित किसी गुण की मात्रा के आधार पर कुछ ऐसे वर्गों में बाँट दिया जाता है जिसमें एक क्रम निहित होता है। इन समस्त वर्गों को कोई नाम शब्द, अक्षर, प्रतीक या अंक प्रदान कर दिये जाते हैं। उदाहरणार्थ विद्यार्थियों को उनकी योग्यता के आधार पर प्रतिभाशाली, सामान्य तथा कमजोर छात्रों के रूप में विभक्त करना क्रमित मापन का एक उदाहरण है।

क्रमित मापन के प्रमुख उदाहरण है— छात्रों को परीक्षा प्राप्तांकों के आधार पर प्रथम, द्वितीय, तृतीय एवं अनुत्तीर्ण श्रेणियों में बांटना, छात्रों को उनकी कक्षा के आधार पर प्राथमिक, माध्यमिक तथा स्नातक और स्नातकोत्तर में विभक्त करना, लम्बाई के आधार पर लम्बा, सामान्य एवं नाटा में बाँटना, विश्वविद्यालय अध्यापको को प्रवक्ता, रीडर तथा प्रोफेसर के रूप में बाँटना, अभिभावकों को उनके सामाजिक तथा आर्थिक स्तर के आधार पर उच्च, मध्यम तथा निम्न वर्गों में विभक्त करना इस मापन का ही उदाहरण है।

3. अन्तराल मापन:- अन्तराल मापन नामित तथा क्रमित मापन से अधिक परिमार्जित होता है। यह मापन गुण की मात्रा के परिमाण पर अवलम्बित होता है। इस प्रकार के मापन में सदस्यों या वस्तुओं में उपस्थित गुण की मात्रा को इस तरह की इकाइयों के द्वारा व्यक्त किया जाता है कि किन्हीं दो निरन्तर इकाइयों में अन्तर समान रहता है। उदाहरणार्थ विद्यार्थियों को उनकी भाषा योग्यता के आधार पर अंक प्रदान करना। यहाँ यह स्पष्ट है कि 20 एवं 21 अंकों के मध्य वही अन्तर है जो 26 एवं 27 अंकों के मध्य है। विद्यार्थियों की अभिवृत्ति, रुचि तथा बुद्धि आदि का मापन प्राय: इस मापन के द्वारा किया जाता है।

इस स्तर के मापन की इकाइयाँ समान दूरी पर स्थित अंक होते हैं। इन इकाइयों के साथ गणितीय संक्रियाओं में जोड़ तथा घटाना किया जा सकता है। अन्तरित मापन में परम शून्य या वास्तविक शून्य बिन्दु नहीं होता है जिसके कारण मापन से प्राप्त परिणाम सापेक्षित तो होते हैं परन्तु निरपेक्ष नहीं होते हैं। इस स्तर पर शून्य बिन्दु हो सकता है परन्तु यह आभासी होता है। जैसे यदि कोई छात्र विज्ञान विषय में शून्य अंक अर्जित करता है तो इसका तात्पर्य यह नहीं है कि वह छात्र विज्ञान विषय में कुछ नहीं जानता है। इस शून्य का अर्थ केवल इतना है कि वह छात्र प्रयुक्त किये गये विज्ञान परीक्षण के प्रश्नों का उचित समाधान करने में असमर्थ रहा है।

4. आनुपातिक मापन:- आनुपातिक मापन अन्य समस्त मापनों में सर्वाधिक परिमार्जित मापन होता है। इस मापन में अन्तरित मापन की समस्त विशेषताओं के साथ-साथ परम शून्य या वास्तविक शून्य की संकल्पना निहित होती है। परम शून्य वह स्थिति है जिसमें कोई विशेषता पूर्णरूपेण अस्तित्व विहीन हो जाती है। लम्बाई, भार, ऊँचाई, दूरी, छात्र संख्या, पुस्तक संख्या जैसे भौतिक चरों का मापन आनुपातिक मापन है क्योंकि लम्बाई, भार एवं दूरी के पूर्णरूपेण अस्तित्व विहीन होने की कल्पना की जा सकती है। इसकी दूसरी विशेषता इस पर प्राप्त मापों की तुलनीयता है।

आनुपातिक मापन द्वारा प्रयुक्त मापन को अनुपात के रूप में व्यक्त कर सकते हैं। जैसे 70 किलोग्राम भार वाला व्यक्ति 35 किलोग्राम भार वाले व्यक्ति से दो गुना अधिक भार वाला कहा जायेगा। परन्तु 140 I.Q. वाले व्यक्ति को 70 I.Q. वाले व्यक्ति से दो गुना बुद्धिमान कहना ठीक नहीं होगा। जैसे-35-35 किलोग्राम वाले दो व्यक्ति भार की दृष्टि से 70 किलोग्राम वाले व्यक्ति के समान हो जायेंगे लेकिन 70 I.Q. एवं 70 I.Q. वाले दो व्यक्ति 140 I.Q. वाले व्यक्ति के समान बुद्धिमान नहीं हो सकते है।

मापन के प्रकार (Types of Measurement)

मापन को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है-

1. मानसिक मापन:- मानसिक मापन के अन्तर्गत विभिन्न मानसिक क्रियाओं; जैसे-बुद्धि, रुचि अभियोग्यता उपलब्धि आदि का मापन किया जाता है। इसकी प्रकृति सापेक्षिक होती है अर्थात् इसमें प्राप्तांकों का स्वयं में कोई अस्तित्व नहीं होता। उदाहरण के लिए, किसी शिक्षक के कार्य का मापन श्रेष्ठ, मध्यम या निम्न रूप में किया जाता है, किन्तु कितना श्रेष्ठ, मध्यम या निम्न यह नहीं कहा जा सकता। मानसिक मापन में अग्रलिखित विशेषताएँ होती हैं-

  1. मानसिक मापन में कोई वास्तविक शून्य बिन्दु नहीं होता।
  2. मानसिक मापन की इकाइयाँ एकसमान नहीं होती। इसकी इकाइयाँ सापेक्ष मूल्य की होती है; जैसे-13 और 14 मानसिक आयु के बालकों में उतना अन्तर नहीं होता जितना 7 और 8 मानसिक आयु के बालकों में होता है, यद्यपि निरपेक्ष अन्तर दोनों में एक ही वर्ष का है।
  3. मानसिक मापन में किसी गुण का आंशिक मापन ही सम्भव हो पाता है।
  4. मानसिक मापन आत्मनिष्ठ होता है और प्रायः मानकों के आधार पर तुलना की जाती है।

2. भौतिक मापन:- भौतिक मापन के अन्तर्गत विभिन्न भौतिक गुणों; जैसे-लम्बाई, दूरी, ऊंचाई आदि का मापन किया जाता है। इसकी प्रकृति निरपेक्ष होती है तथा इसके प्राप्तांक बहुत महत्त्वपूर्ण होते हैं। भौतिक मापन की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं-

  1. भौतिक मापन में एक वास्तविक शून्य बिन्दु होता है; जहाँ से कार्य प्रारम्भ करते हैं; जैसे-5 फीट का अर्थ है 0 से 5 ऊपर 5 फीट।
  2. भौतिक मापन की सभी इकाइयाँ समान अनुपात में होती है; जैसे- एक फुट के सभी इंच समान दूरी पर स्थित होते है।
  3. भौतिक मापन में किसी वस्तु या गुण का पूर्ण मापन सम्भव है, जैसे—सम्पूर्ण पृथ्वी के क्षेत्रफल की गणना कर सकते हैं, पृथ्वी और चन्द्रमा के बीच कुल दूरी का मापन किया जा सकता है।
  4. भौतिक मापन स्थिर रहता है; जैसे-यदि किसी मेज की लम्बाई 4 फुट है, तो दो साल बीत जाने पर भी लम्बाई उतनी ही रहेगी।


Assessment अकलन

आकलन:-

आकलन जानकारी एकत्र करने की एक व्यवस्थित प्रक्रिया है जिसका उपयोग लोगों या वस्तुओं की विशेषताओं के बारे में अनुमान लगाने के लिए किया जा सकता है।


  • ​सीखने का आकलन: यह मूल रूप से कुछ पूर्वनिर्धारित परिणामों और मानकों के विपरीत शिक्षार्थी की उपलब्धि पर केंद्रित है। इसे योगात्मक मूल्यांकन कहा जाता है। आमतौर पर, शिक्षक इस प्रकार का मूल्यांकन इकाई या सत्र या सत्र के अंत में अभ्यार्थियों को ग्रेड या रैंक देने के लिए करते हैं।
  • सीखने के लिए आकलन: सीखने के आकलन का अभ्यास शिक्षकों द्वारा उनकी शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया के दौरान किया जाता है। इसका मुख्य उद्देश्य अभ्यार्थियों की सुविधा के अनुसार शिक्षण में सुधार और सीखने में वृद्धि करना है। यह कक्षा में शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया के साथ होता है।
  • सीखने के रूप में आकलन: जब अभ्यार्थियों को अपने स्वयं के प्रदर्शन का आकलन करने के लिए कहा जाता है तो वे स्वयं का आकलन करने के लिए विभिन्न मूल्यांकन तकनीकों और रणनीतियों का उपयोग करते हैं। यह अभ्यार्थियों को उनके ज्ञान में कमी की पहचान करने, सीखने की सही रणनीति अपनाने और कुछ नया सीखने के माध्यम के रूप में मूल्यांकन का उपयोग करने में सहायता करता है। सीखने के रूप में आकलन बच्चों में सीखने के लिए सीखने के कौशल के निर्माण में सहायता करता है।

आकलन का अर्थ (Meaning of Assessment)

सरल भाषा में आकलन का अर्थ है- "पास बैठना एवं अवलोकन करना" यदि कक्षा की बात की जाए तो पाठ्यक्रम से संबंधित विद्यार्थी की प्रगति एवं उपलब्धियों की जानकारी एकत्रित करने, वर्णन एवं विश्लेषण करने की सुनियोजित एवं निरंतर प्रक्रिया को आकलन कहा जाता है।

आकलन की परिभाषा (Definition of Assessment)

इरविन के अनुसार, "आकलन छात्रों के व्यवस्थित विकास के आधार का अनुमान है। यह किसी भी वस्तु को परिभाषित कर चयन, रचना, संग्रहण, विश्लेषण व्याख्या और सूचनाओं का उपयुक्त प्रयोग कर छात्र विकास तथा अधिगम को बढ़ाने की प्रक्रिया है।"

आकलन के प्रकार (Types of Assessment)

विद्यार्थियों की उपलब्धि को ज्ञात करते समय अध्यापक द्वारा किसी मानक के विरुद्ध मूल्य निर्णय करना आकलन कहलाता है। प्रक्रिया के आधार पर आकलन को दो वर्गों में वर्गीकृत किया गया है-


आकलन के प्रकार (Types of Assessment)

विद्यार्थियों की उपलब्धि को ज्ञात करते समय अध्यापक द्वारा किसी मानक के विरुद्ध मूल्य निर्णय करना आकलन कहलाता है। प्रक्रिया के आधार पर आकलन को दो वर्गों में वर्गीकृत किया गया है-

1. भौतिक आकलन:- भौतिक आकलन में भौतिक गुणो जैसे लंबाई, चौड़ाई, ऊँचाई एवं भार आदि को मापा जाता है। इस आकलन को परिणात्मक आकलन भी कहते हैं।

2. मानसिक आकलन:- मानसिक आकलन में मानसिक क्रियाओं जैसे-बुद्धि, रुचि, उपलब्धि एवं अभियोग्यता आदि का आकलन किया जाता है। यह गुणात्मक आकलन भी कहलाता है।

आकलन के सिद्धान्त (Principles of Assessment)

किसी व्यक्ति का आकलन विभिन्न सिद्धान्तों के आधार पर किया जाता है। आकलन के कुछ प्रमुख सिद्धान्त निम्नलिखित हैं—

1. वैधता:- वैधता ही यह सुनिश्चित करती है कि आकलन कार्य एवं सम्बद्ध मानदण्ड छात्रो के अमोष्ट अधिगम परिणामों का यथोचित स्तर पर प्रभावी ढंग से मापन हो रहा है अथवा नहीं। इसलिए आकलन में वैधता होनी चाहिए।

2. विश्वसनीय एवं तर्कयुक्त:- आकलन का विश्वसनीय होना आवश्यक हैं क्योंकि यह कार्य की स्पष्ट एवं सुसंगत प्रक्रियाओं की व्यवस्था, अंकन, ग्रेडिंग एवं परिनियमन (Moderation) के लिए आवश्यक है। इसी कारण आकलन का विश्वसनीय एवं तर्कयुक्त होना आवश्यक है।

3. स्पष्ट, सुलभ एवं पारदर्शी:- आकलन के बारे में या आकलन के माध्यम से प्राप्त सूचनाएँ स्पष्ट सुलभ एवं पारदर्शी होनी चाहिए। आकलन कार्य एवं प्रक्रिया को स्पष्ट यधार्थ (Accurate) एवं सुसंगत (Consistent) जानकारी समय पर छात्रों, कर्मचारी वर्गों (Staff) एवं अन्य बाहरी मूल्याकनकर्ताओं या पुरीक्षको को उपलब्ध कराई जानी चाहिए।

4. समावेशी एवं न्याय संगत:- जहाँ तक सम्भव हो सके शैक्षिक मानकों से समझौता किए बिना ही आकलन कार्यों एवं प्रक्रियाओं का निर्धारण करना चाहिए तथा साथ ही यह भी सुनिश्चित करते रहना चाहिए कि उसके माध्यम से किसी व्यक्ति या समूह को कोई नुकसान या हानि न पहुंचे।

5. प्रबन्धनीय:- आकलन कार्य को निर्धारित समय में अवश्य पूर्ण कर लेना चाहिए जिससे इस प्रक्रिया का अतिरिक्त दबाव कर्मचारियों (शिक्षक) एवं छात्रों पर न पड़ने पाए। आकलन के लिए जो भी प्रारूप, निर्धारित किया जाए वह विश्वसनीय एवं वैध होना चाहिए इस बात का अवश्य ध्यान रखना चाहिए।

6. रचनात्मक एवं योगात्मक आकलन:- आकलन के प्रत्येक कार्यक्रम में रचनात्मक एवं योगात्मक आकलन को अवश्य सम्मिलित किया जाना चाहिए ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि आकलन के उद्देश्य की प्राप्ति पर्याप्त रूप से हो रही है अथवा नहीं। इनके साथ ही कई आकलन कायों में नैदानिक आकलन को भी सम्मिलित किया जाता है।

7. पृष्ठपोषण:– उचित समय पर दिया गया पृष्ठपोषण छात्रो में अधिगम एवं उनमें सुधार की सुविधा को बढ़ावा देता है इसलिए पृष्ठपोषण को आकलन प्रक्रिया का अभिन्न अंग समझना चाहिए तथा समय-समय पर प्रदान करते रहना चाहिए। जहाँ आवश्यक हो वहां छात्रों को रचनात्मक कार्यो एवं योगात्मक कार्यों के लिए उन्हें उपयुक्त पृष्ठपोषण प्रदान करना चाहिए। छात्रों को प्रत्येक आकलन कार्य के लिए प्रदान किए जाने वाले पृष्ठपोषण की प्रकृति विस्तार एवं समय को पहले ही स्पष्ट कर दिया जाना चाहिए।


8. कर्मचारी विकास नीतियाँ एवं राजनीतियाँ:- आकलन में कर्मचारी विकास की नीतियों एवं रणनीतियों को भी आवश्यक रूप से सम्मिलित किया जाना चाहिए। छात्रा के आकलन में सम्मिलित सभी व्यक्ति अपनी भूमिका एवं उत्तरदायित्व के निर्वहन करने में सक्षम होना चाहिए।

9. योजना प्रारूप का अभिन्न अंग:- आकलन योजना प्रारूप का अभिन्न अंग होना चाहिए। साथ ही योजना के लक्ष्यों एवं अधिगम परिणामों से सीधे सम्बन्धित होना चाहिए। आकलन कार्य सदैव मुख्य रूप से विषयों एवं अनुशासन को प्रकृति को प्रतिबिम्बित करना चाहिए लेकिन साथ ही में यह भी सुनिश्चित करते रहना चाहिए कि आकलन में छात्रों के सामान्य कौशल एवं क्षमताओ को विकसित करने के अवसर प्राप्त होते भी रहें।

आकलन की आवश्यकता (Need for Assessment)

आकलन बच्चे की सीखने की क्षमता का पता लगाने के लिए किया जाता है। इसकी आवश्यकता निमंलिखित बिदुओं से समझी जा शक्ति है-

  1. विभिन्न विषय क्षेत्रों के बारे में सीख सके व कुशलता प्राप्त करे।
  2. विभिन्न विषय क्षेत्रों में उपलब्धि स्तर तक पहुँच सके।
  3. एक स्वस्थ एवं उपयोगी जीवन जी सके।
  4. अपनी रुचियों, अभिरुचियो, प्रेरणा एवं कौशल का विकास करे।
  5. समय के साथ आने वाले बदलावों (अधिगम, व्यवहार, प्रगति) की जांच कर सके और उनके अनुसार समायोजन कर सके।
  6. स्कूल के अंदर व बाहर होने वाली गतिविधियों एवं अवसरों पर प्रतिक्रिया दे सके।
  7. जो सीखा गया है, उसे विभिन्न वातावरण एवं स्थितियों में लागू कर सके।
  8. आत्म-विश्लेषण एवं स्व-मूल्यांकन कर सके।
  9. सामाजिक एवं वातावरण के मुद्दों के बारे में जागरूक बन सके।
  10. सामाजिक और वातावरण संबंधित गतिविधियों में भाग ले सके।
  11. जो भी सीखे, उसे एक लम्बे समय तक याद रख सके।


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