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मानव विकास की अवधारणा:-Concept of Growth and Development (वृद्धि और विकास की अवधारणा ) CTET EXAM Notes
between Growth & Development )
प्रायः यह देख गया है कि वृद्धि और व विकास शब्दो को एक दूसरे का पर्यायवाची समझ लिया जाता है । जबकि दोनो में कई आधार पर अन्तर होता है I जो निम्न प्रकार से समझा जा सकता है I
- अर्थ के अधार पर ( Difference in meaning ) वृद्धि का अर्थ है शारीरिक परवर्तन । इन परिवर्तनो के कारण व्यवाहार मे परिवर्तन होने लगता है। लेकिन विकास का अर्थ गुणात्मक परिवर्तनो से किया जाता हैं।
- व्यापक व संकुचित शब्द ( Broader and narrow terms ) वृद्धि को विकास से संकुचित मना जाता है । क्योकि वृद्धि की अवधारणा विकास की अवधारणा का ही एक भाग हैं।
- परिमाणात्मक और गुणात्मक ( quality and qualitative ) वृद्धि का तात्पर्य मात्रात्मक या परिमाणात्मक परिवर्तनो से जबकि विकास का सम्बध गुणात्मक र्फर्वतनो से होता है ।
- वृद्धि और विकास की निरन्तरता ( continuity of growth and development ) वृद्धि लगातार नहीं चलती बल्कि शिशुकाल में तीव्र गति से और उसके बाद धीमी हो जाती है। लेकिन विकास की प्रक्रिया लगातार चलती रहती है । वह रूकती नहीं है ।
मनाव विकास की अवस्थाऍ :
मानव विकास सतत् प्रक्रिया होती है जो कभी नहीं रूकती है | भारतीय विचारको के द्वारा मानव विकास को सात कालो में बाँटा गया है जो निम्न प्रकार से है।
- गर्भावस्था – गर्भधारण से जन्म तक
- शैशवावस्था – जन्म से 5 वर्ष तक
- बाल्यावस्था – 5 वर्ष से 12 वर्ष तक
- किशोरवस्था – 12 वर्ष से 18 वर्ष तक
- युवावस्था – 18 वर्ष से 25 वर्ष तक
- प्रौढ़ावस्था – 25 वर्ष से 55 वर्ष तक
- वृद्धावस्था – 55 वर्ष से मृत्युमानव विकास की अवस्थओ को लेकर विद्वानो मे मतभेद पाये जाते है | परन्तु अधिकतर विद्वान मानव विकास की निम्न चार अवस्थाओ को स्वीकार करते है।
- शैशवावस्था – जन्म से 6 वर्ष तक की अवस्था
- बाल्यावस्था – 6 वर्ष से 12 वर्ष तक
- किशोरावस्था – 12 से 18 वर्ष तक
- व्यस्कावस्था – 18 से मृत्यु तक
शिक्षा मनोविज्ञान में प्रथम तीन अवस्थाअो का ही महत्व है इसलिए शिक्षा मनोविज्ञान में इन तीन अवस्थाओ के विकास का अध्ययन किया जाता है ।
- शैशवावस्था : जन्म से लेकर 6 वर्ष तक की अवस्था को शैशवावस्था कहा जाता है। इस अवस्था के अन्तर्गत लगभग 2.5 वर्ष की अवस्था से तीव्र गति से विकास होता हैं। इस अवस्था मे दोहराने की व अनुकरण करने की प्रवृति पायी जाती है । यह अवस्था भषा को सीखने की सर्वोतम अवस्था होती है । ओर इस अवस्था में बच्चा देखकर सीखने लगता है। अर्थात इस अवस्था में समाजीकरण की प्रवृति पायी जाती है । यह कहा जाता हैं। कि शैशवावस्था की आस्था शिक्षा के दृष्टिकोण से अत्यधिक महत्वपूर्ण होती है। यही वह अवस्था होती हैं। जिससे अथयापक, माता -पिता व समाज के व्यकितयों का प्रभाव बच्चे पर अत्यधिक पड़ता है । और बच्चा अनुकरण करके सीखोन का प्रयास करता है I अनुकरण विधि बच्चों को अधिगम कराने की सर्वोत्तम विधि है।
- बाल्यावस्था : यह अवस्था का वह चरण है जो 6 वर्ष से 12 वर्ष तक चलता है । इस अवस्था को दो चरणों में बाँट सकते है । 6 से 9 वर्ष तक बालको में तर्क शक्ति व चिन्तन की क्षमता बढ़ती है । जहाँ शैशवावस्था में बालक तीव्र गति से सीखता है । वही बाल्यावस्था में यह गति धीमी हो जाती हैं झसका एक करण माने वैज्ञानिक यह मानते है कि बच्चे के सीखने का क्षेत्र बढ़ जाता है। मनोवैज्ञनिक यह मानते है कि इस अवस्था में अध्यापकों को बालकों का सिखाने के लिए शिक्षण पद्धतियो का प्रयोग करना चाहिए ।
- किशोरावस्था : यह अवस्था जो 12 वर्ष से प्रारम्भ होकर 18 वर्ष तक चलती है, किशोरावस्था। कहलाती है । इस अवस्था में बालक परिपक्वता की ओर बढ़ने लगता है । और उनकी लम्बाई व भार में तेजी से वृद्धि होती है लेकिन लड़कियो में लम्बाई , भार व माशोशियो में लड़कों की अपेक्षा तेजी से वृद्धि होती है । यही वह आस्था होती है । जिसमें प्रजनन अंग किकसित होते है । और लड़कों व लड़कियों में अर्थात एक दूसरे विरोधी लिंगो की ओर आकर्षण बढ़ता है । यह अवस्था जीवन में तूफान की अवस्था कही जाती है। क्योकि कई सर्वेक्षण बताते है कि इस अवसथा में यौन समस्या व नशा व अपराध की ओर उन्मुख होने की प्रवृति लड़को व लड़कियों पायी जाती है I इसलिए इस अक्स्था को जीवन में तूफान की अवस्था होती है ।
विकास को प्रभावित करने वाले कारक ( Factors Influencing Development ) जैसा कि हम जान चुके है कि विकास एक सतत् प्रक्रिया है यह जन्म से लेकर मृत्यु तक चलने वाली प्रक्रिया है I विकास के कई आयास होते है | और उन्हें प्रभावित करने वाले कई कारक होते है। जिन्हें हम निम्न प्रकार से समझ सकते है ।
विकास के आयाम या कप ( Types of development ) :
विकास को वैसे तो कई रूपो में बाँटा जा सकता है । लेकिन बाल विकास के आधार पर विकास को निम्न रूपो में विभाजित किया जाता है ।
- शारीरिक विकास Physical development
- मानसिक विकास Cognitive Development
- सामाजिक विकास Social Development
- संवेगात्मक विकास Emotional Development
- भाषाई विकास Language Development
- मनोगतिशील किकास Motor Development
उपरोक्त विकास के आयामों में से पहले चार रूपो का शिक्षा मनोविज्ञान की द्वाष्टि से अधिक महत्वूर्ण माना जाता है । अतः हम इन चार रूपो का अध्ययन ही विशेषतः करेगे ।
- शारीरिक विकास व प्रभावित करने वाले कारक ( Physical Development & Influencing Factor ) : इसमें कोई सन्देह नहीं है कि कि शारीरिक विकास का व्यकित के मानसिक विकास से गहरा सम्बद्ध होता है। इसलिए हमें शारीरिक विकास को प्रभावित करने वाले कारकों को जानना भी जरूरी हो जाता है। प्रथम , वातावरण बालको का शारीरिक विकास तीव्र गति से बढ़ता है जबकि गन्दी जगह छोटे बन्द मकनो में रहने वाले व पोषक भोजन न खाने वाले बालको का शारीरिक विकास मन्द गति से होता है। द्वितीय, जिन बालको को स्नेह व प्रेम मिलता है। उनका शारीरिक विकास तीव्र होता है I व वे सुखी रहते है वही जिन बालेका के स्नेह व प्रेम नहीं मिलता वे दुखी होने के कारण उनका शारीरक विकास उचित रूप से नही हो पाता है । तृतीय , खेल एवं व्यापक , चतुर्थ भोजन सुरक्षा व वंशानुक्रम आदि कारको के कारण भी बालको का शारीरिक विकास रूक जाता है I
- मानसिक विकास और प्रभावित करने वाले कारक (Cognitive development & influencing factors ) : शिक्षा मनोविज्ञान में जितना महत्व शारीरिक विकास का है उतना ही मानसिक विकास का भी होता है । मानसिक विकास से तात्पर्य बालक को उन योग्यतओं से होता है I जिनके आधार पर वे अपने सामने आने वाली समस्यओं को सुलझता है और सामजिक वातावरण से सममोजन करता है । बालक का जैसे जैसे मानसिक विकास होता है | वैसे- वैसे ही वह अपनी मानसिक योग्यताओ के आधार पर समस्याओं का समाधान करता है। विचार करना निर्णय लेना इत्यादि कार्य करता है।अतः यह उचित ही है कि सज्ञानात्मक विकास के बारे में शिक्षको का पूर्ण जानकारी होनी चाहिए क्योंकि इसके अनुभाव में वह बालको का मानसिक विकास नहीं कर पाएगें । शिक्षक को जानकरी होनी चाहिए कि बच्चो की कक्षा का वातावरण कैसा होना चाहिए, किस समस्या का समाधान बच्चे को कैसे करना चाहिए ।
कई सारी रिसर्च से जानकारी मिली है कि यदि जन्म के बाद पहले वर्ष तक शिशुओं को कम भोजन (पोषक) दिया जाए तो इसका प्रभाव बाद में मीस्तक में होने वाले विकास पर अवश्य पड़ता है। ये भी पाता चलता है कि भ्रूणावस्था में मस्तिक की वृद्धि सबसे तेज होती है। तो यदि उन्हे असंतुलिन और अल्पाहार दिया जाए , जो उनका मानसिक विकास रूक जाएगा और उनके मानसिक विकृतियाँ पैदा हो जाएगी
बालक के विकास पर समुदाय का प्रभाव (influence of community on child development)
बालक के विकास पर समुदाय का प्रभाव
(influence of community on child development)
सामुदायिक बालक के विकास पर इस प्रकार प्रभाव डालते हैं-
सामाजिक प्रभाव - समुदाय का प्रत्यक्ष प्रभाव बालक के सामाजिक विकास पर पड़ता है यहां उसका सामाजिकरण होता है अधिकार एवं कर्तव्य के ज्ञान के साथ-साथ स्वतंत्रता के अनुशासन की जानकारी भी होती है।
राजनीतिक प्रभाव - सामुदाय, बालक पर राजनीतिक प्रभाव भी डालता है। विद्यालयों में छात्र संघों के माध्यम से राजनीतिक संरचना का अनुभव मिलता है तथा समाज के राजनीतिक वातावरण के लिए तैयार हो जाते हैं।
आर्थिक प्रभाव - समुदाय की आर्थिक स्थिति का प्रत्यक्ष प्रभाव विद्यालयों तथा बालकों पर प्रकट होता है। संपन्न समुदायों में विद्यालय आकर्षक होते हैं और उस में पढ़ने वाले छात्रों को सामाजिक प्रतिष्ठा मिलती है। अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों का स्तर, जिला परिषदों के विद्यालयों से इसी कारण भिन्न होता है।
सांस्कृतिक प्रभाव- प्रत्येक समुदाय की अपने सांस्कृतिक होती है और उसका प्रभाव वहां के विद्यालयों तथा छात्रों पर पड़ना स्वाभाविक है।बोलचाल,व्यवहार, शब्दावली तथा शैली का प्रभाव स्पष्ट दिखाई पड़ता है।
सांप्रदायिक प्रभाव- समुदायों में यदि एक से अधिक संप्रदायों के लोग रहते हैं और उसमें समरसता नहीं है तो ऐसे समाज में विद्यालयों का वातावरण दूषित हो जाता है।
सार्वभौमिक मांग- समुदाय, विद्यालय तथा शिक्षा की सार्वभौमिक मांग की पूर्ति करते हैं। शिक्षा के प्रचार प्रसार के लिए विद्यालयों की मांग बढ़ रही है और समुदाय उसे पूरा कर रहे हैं।
प्रारंभिक शिक्षा का विकास- सामुदायिक कार्य अपने छोटे छोटे बालकों के लिए समुदाय परिसर में विद्यालय खोलता है। इस प्रकार उनकी प्रारंभिक शिक्षा की व्यवस्था करता है।
माध्यमिक शिक्षा का विकास- समुदाय का प्रभाव माध्यमिक शिक्षा पर भी देखा जाता है। देश में माध्यमिक शिक्षा के विकास में समुदायों का योगदान प्रमुख है।
उच्च शिक्षा- भारतीय समुदायों ने उच्च शिक्षा के विकास पर भी बल दिया है। आज उच्च शिक्षा स्थानीय आवश्यकता हो तथा साधनों के अनुसार दी जाती है।
अतः इस प्रकार देखते हैं कि घर, विद्यालय तथा समुदाय बालक के विकास को पृथक पृथक नहीं बल्कि समन्वित रूप से प्रभावित करते हैं।
By-Prof. Rakesh Giri
Thanks...........
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